MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-5)

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल [2009, 10, 12, 15, 17]

  • जीवन परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 11 अक्टूबर,सन् 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अगोना ग्राम में हुआ था। आपके पिता पं. चन्द्रबलि शुक्ल सुपरवाइजर कानूनगो थे। शुक्लजी ने एफ.ए.(इण्टर) तक की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा समाप्ति पर जीविकोपार्जन के लिए मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के शिक्षक हो गये। इस समय तक इनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जब नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ नाम से शब्द-कोश के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया,तब शुक्लजी मात्र छब्बीस वर्ष की अवस्था में उसके सहायक सम्पादक नियुक्त किये गये। उसके बाद हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी में आप हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गये। सन 1937 में आप वहाँ हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये। 2 फरवरी,सन् 1940 को आपका निधन हो गया।

MP Board Solutions

  • साहित्य सेवा

आचार्य शुक्लजी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे कवि, निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक तथा अनुवादक अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं। आपने ‘हिन्दी शब्द सागर’ और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन किया। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में हिन्दी को उच्चकोटि के निबन्ध, वैज्ञानिक समालोचनाएँ,साहित्यिक ग्रन्थ एवं सरल कविताएँ प्रदान की। शुक्ल जी ने हिन्दी में समालोचना और निबन्ध कला का उच्च आदर्श स्थापित किया। उनसे पहले की समालोचनाओं में गुण-दोष विवेचन की ही प्रधानता थी। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग की व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति की नींव डाली और जायसी,तुलसी तथा सूर के काव्यों पर उत्कृष्ट व्याख्यात्मक आलोचनाएँ लिखीं। आपने करुणा, उत्साह,क्रोध,श्रद्धा और भक्ति आदि मनोविकारों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। उनके निबन्ध ‘चिन्तामणि’ नामक पुस्तक में संग्रहीत हैं। ‘चिन्तामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से आपको ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक गवेषणापूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा, जिस पर हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग ने पुरस्कार प्रदान किया।

  • रचनाएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएँ अग्र प्रकार हैं
(1) निबन्ध-संग्रह-‘चिन्तामणि, ‘विचार-वीथी’।
(2) आलोचना-‘त्रिवेणी, ‘रस-मीमांसा’।
(3) इतिहास–’हिन्दी साहित्य का इतिहास’।

  • वर्ण्य विषय

साहित्य के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाली शुक्लजी की प्रतिभा समालोचना एवं निबन्ध के क्षेत्र में भी प्रखरता के साथ परिलक्षित होती है। निबन्ध एवं आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में शुक्लजी ने लोक मंगल एवं नैतिक आदर्श को प्रमुख स्थान दिया है। निबन्ध-रचना के क्षेत्र में उन्होंने सामाजिक उपयोगिता से सम्बन्धित मानव-मनोभावों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। शुक्लजी ने मनोभावों सम्बन्धी निबन्धों के साथ ही समीक्षात्मक एवं सैद्धान्तिक निबन्धों की भी रचना की।

  • भाषा

आचार्य शुक्लजी की भाषा परिष्कृत, प्रौढ़ एवं साहित्यिक खड़ी बोली है। इस भाषा में सौष्ठव है तथा उसमें गम्भीर विवेचन की अपूर्व शक्ति है। शुक्लजी की भाषा में व्यर्थ का शब्दाडम्बर नहीं मिलता। भाव और विषय के अनुकूल होने के कारण वह सर्वथा सजीव और स्वाभाविक है। गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में भाषा अपेक्षाकृत क्लिष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है। वाक्य-विन्यास भी कुछ लम्बे हैं। सामान्य विचारों के विवेचन में भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग से उसमें सरसता आ गयी है। शुक्लजी की भाषा व्यवस्थित तथा पूर्ण व्याकरण सम्मत है तथा उसमें कहीं भी शिथिलता देखने को नहीं मिलती। भाषा की इसी कसावट के कारण उसमें समास शक्ति पायी जाती है तथा कहीं-कहीं तो भाषा सूक्तिमयी बन गयी है; जैसे—“बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।”

  • शैली

शुक्लजी अपनी शैली के स्वयं निर्माता थे। उनकी शैली समास के रूप से प्रारम्भ होकर व्यास शैली के रूप में समाप्त होती है अर्थात् एक विचार को सूत्र रूप में कहकर फिर उसकी व्याख्या कर देते हैं। मुख्य रूप से शुक्लजी की शैली चार प्रकार की है-

  1. समीक्षात्मक शैली-शुक्लजी ने व्यावहारिक, समीक्षात्मक एवं समालोचनात्मक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में वाक्य छोटे,संयत एवं गम्भीर हैं। इसमें विषय का प्रतिपादन सरलता के साथ इस प्रकार किया गया है कि सहज ही हृदयंगम हो जाता है।
  2. गवेषणात्मक-अनुसन्धानपरक तथा सैद्धान्तिक समीक्षा सम्बन्धी तथा तथ्यों के विश्लेषण-निरूपण में शुक्लजी ने इस शैली का प्रयोग किया है। यह शैली गम्भीर तथा कुछ सीमा तक दुरूह है। शब्द-विन्यास क्लिष्ट तथा वाक्य-विन्यास जटिल है। यह शैली सामान्य पाठकों के लिए बोधगम्य नहीं है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली में वाक्य कहीं छोटे तथा कहीं लम्बे हैं तथा भाषा कुछ-कुछ अलंकारिक हो गयी है। इसमें भावनाओं का धाराप्रवाह रूप मिलता है।
  4. हास्य-विनोद एवं व्यंग्य प्रधान शैली-इस शैली के दर्शन मनोविकारों तथा समीक्षात्मक निबन्धों में यत्र-यत्र ही होते हैं, क्योंकि हास्य तथा व्यंग्य शुक्लजी के निबन्धों का मुख्य विषय नहीं है, फिर भी इस शैली के प्रयोग से निबन्धों में रोचकता आ गयी है।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा साहित्य की अनेक विधाओं में सृजन किया। लेकिन उनकी विशेष ख्याति निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार के रूप में है। उन्होंने हिन्दी में वैज्ञानिक आलोचना-प्रणाली को जन्म दिया, निबन्ध-साहित्य को समृद्ध किया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए एक आधार प्रदान किया। शुक्लजी की भाषा तथा शैली आने वाले साहित्यकारों के लिए आदर्श रूप है। वे युग प्रवर्तक निबन्धकार हैं।

2. उषा प्रियंवदा
[2016]

  • जीवन परिचय

यथार्थ के बेजोड़ अंकन में शीर्षस्थ स्थान रखने वाली कहानीकार उषा प्रियंवदा का जन्म 24 दिसम्बर,सन् 1931 को इलाहाबाद में हुआ। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् पी-एच.डी.करके आपने अपनी योग्यता को और आगे बढ़ाया। अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी से भी आपका अनुराग लगातार बना रहा और आप हिन्दी में भी निरन्तर लिखती रहीं। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू तथा संस्कृत पर आपका समान व पूर्ण अधिकार रहा है। लेखन के साथ-साथ आपका मुख्य कार्यक्षेत्र अध्यापन ही रहा है। आपने ‘आधुनिक अमरीकी साहित्य’ पर इंडियाना विश्वविद्यालय से शोधकार्य किया। आप संयुक्त राज्य अमरीका के विस्कांसिन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्षा रहीं। हिन्दी की सेवा में आपके उत्कृष्ट योगदान को प्रमाणित करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने आपको सम्मानित किया।

  • साहित्य सेवा

साहित्यिक रुचि सम्पन्न उषा प्रियंवदा ने मुख्यतः उपन्यास और कहानियाँ लिखी हैं। उनके साहित्य में भारतीय और अमरीकी संस्कृति का समन्वय स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी प्रथम कहानी ‘लाल चूनर’ थी। लम्बे समय तक अमरीका में निवास होने के कारण आपके चिन्तन में तुलनात्मक दृष्टि नजर आती है। स्वतन्त्रता के पश्चात् के भारतीय जीवन की विश्रृंखलताएँ आपके साहित्य में स्पष्ट देखी जा सकती हैं।

  • रचनाएँ

उषा प्रियंवदा मूलत: एक कहानीकार एवं उपन्यासकार रही हैं। आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

  1. उपन्यास-पचपन खम्भे लाल दीवारें’ [1961]: इस उपन्यास का प्रदर्शन दूरदर्शन पर होने के कारण यह अत्यधिक प्रसिद्ध रहा, ‘रुकोगी नहीं राधिका’ [1968], ‘शेष यात्रा’ [1984]।
  2. कहानी-संग्रह ‘जिन्दगी और गुलाब’ [1961], ‘फिर बसन्त आया’ [1961], ‘एक कोई दूसरा’ [1966], ‘कितना बड़ा झूठ’ [1973], ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ [1974]।
  • वर्ण्य विषय

कथा साहित्य की प्रेमिका उषा प्रियंवदा की कहानियों के पीछे एक बीज जरूर होता है,जो उनके एक विचार, एक इमेज, एक अनुभव या अनुभूति को लेखन के रूप में साकार करता है। चुनौतियाँ उन्हें उत्साहित करती हैं, ‘डेड लाइन्स’ उन्हें प्रेरित करती हैं। इन्हीं चुनौतियों और ‘डेड लाइन्स’ के सम्बन्ध और प्रतिध्वनियाँ उनके वर्ण्य विषय हैं। आधुनिक भौतिकवादी, वैयक्तिक तथा एकान्तिक विचारधारा ने भारतीय समाज व परम्पराओं को तोड़कर विसंगतियों तथा मानसिक कुण्ठाओं के साथ पारिवारिक विघटन की नींव डाली है,यह सब मनोवैज्ञानिक परिवर्तन उनकी कहानियों व उपन्यासों में स्पष्ट झलकता है। नई पीढ़ी की टीस पाठक को व्यथित कर देती है। मानव मूल्यों की अनदेखी करना उनकी कहानियों की मार्मिक पहचान है। उनकी रचनाओं का विषय अधिकतर निम्न मध्यवर्गीय समाज की पीड़ा तथा नारी-पुरुष के आयु भेद रहे है।

MP Board Solutions

  • भाषा

उषा प्रियंवदा ने सरल, सुस्थिर, संयत एवं बोधगम्य खड़ी बोली का प्रयोग किया है। संस्कृत की ज्ञाता लेखिका आकांक्षी,कुण्ठित,अस्थायित्व जैसे शब्दों का प्रयोग कर भाषा को और अधिक सुन्दर बनाती हैं। मर्तबान,कनस्तर,खटिया जैसे प्रचलित शब्द भाषा को सहज बनाते हैं। रिटायर, क्वार्टर, पैसेन्जर जैसे शब्दों के प्रयोग से लेखिका का प्रवास झलकता है। वाजिब, जिम्मेदार, सिर्फ जैसे उर्दू के शब्द भाषा को बोधगम्य बनाने में पूर्णतः सक्षम हैं। लघु वाक्य-विन्यास,कहावतों तथा मुहावरों का प्रयोग भाषा का सरल रूप है। शब्दों के सामासिक प्रयोग से उषा प्रियंवदा के साहित्य की भाषा में कसावट विद्यमान रहती है।

  • शैली

उषा प्रियंवदाजी की शैली भावात्मक विवरणात्मक तथा व्यंग्यात्मक है। उनके उपन्यासों में विवरण शैली के दर्शन होते हैं,तो कहानियों में भावात्मकता तथा व्यंग्य परिलक्षित हैं। उनकी सहज कथन शैली तथा यथार्थ का चित्रण बेजोड़ है। भावुकता,माधुर्य और प्रवाह उनकी शैली की विशेषता है। उनके व्यंग्य चुटीले व सार्थक हैं, जिनमें विदेशी शब्दों की सहायता से पीड़ा व कराहट का अनुभव होता है। इस प्रकार उनकी शैली वर्ण्य-विषय के सर्वथा अनुकूल है।

  • साहित्य में स्थान

हिन्दी कथा साहित्य में लेखिका का विशिष्ट स्थान होने का प्रमुख कारण है-वर्तमान में नष्ट होते हुए भारतीय मूल्यों का सटीक चित्रण।

वर्तमान जीवन की विसंगतियों और उनकी विशृंखलताओं का सामाजिक व मनोवैज्ञानिक स्तर पर यथार्थ व सजीव चित्रण करके लेखिका हिन्दी कथा साहित्य में अपना उच्च स्थान स्वयं निर्धारित करती हैं। उनकी कथाएँ पारिवारिक विघटन को रोकने का संदेश देती हैं। सच्चे अर्थों में उषा प्रियंवदा आधुनिक समाज की एक आदर्श कथाकार हैं।

3. उदयशंकर भट्ट [2014, 16]

  • जीवन परिचय

एकांकी और नाटक के सिद्धहस्त लेखक उदयशंकर भट्ट का जन्म 3 अगस्त, सन् 1898 में उत्तर-प्रदेश के इटावा नगर में हुआ था। इटावा में आपकी ननिहाल भी थी। आपका परिवार साहित्यिक गतिविधियों में गहरी रुचि रखता था। आपने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी की शिक्षा इटावा में ही प्राप्त की। जब ये मात्र चौदह वर्ष की अल्पायु के थे, इनके सिर से माँ-बाप का साया उठ गया। आपने काशी विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् पंजाब से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात आपने कलकत्ता से काव्यतीर्थ की उपाधि अर्जित की। 1923 में जीविका की तलाश में आप लाहौर चले गये तथा वहाँ संस्कृत और हिन्दी का अध्यापन-कार्य किया। साथ ही, इस दौरान आप अपने अध्ययन में भी रत रहे। जब भारत का बँटवारा हुआ तो भट्टजी लाहौर छोड़कर दिल्ली आकर बस गये। आपने आकाशवाणी में सलाहकार के पद को सुशोभित किया। कुछ वर्षों तक आप आकाशवाणी के नागपुर और जयपुर केन्द्रों पर ‘प्रोड्यूसर’ रहे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् आपने स्वतन्त्र रूप से कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक इत्यादि का लेखन कार्य किया। 22 फरवरी,1966 को आपका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा एवं रचनाएँ

भट्टजी का प्रथम एकांकी संग्रह, अभिनव एकांकी’ के नाम से सन् 1940 में प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात् इन्होंने सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि अनेक विषयों पर एकांकियों की रचना की, जिनमें ‘समस्या का अन्त’, ‘परदे के पीछे’, ‘अभिनव एकांकी’, ‘अस्तोदय’, ‘धूपशिखा’, ‘वापसी’, ‘चार एकांकी’ इत्यादि आपके प्रतिनिधि एकांकी संग्रह माने जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी उदयशंकर भट्टजी ने नाटक, कविता तथा उपन्यासों की रचना की है।

  • वर्ण्य विषय

भट्टजी ने पौराणिक, समस्या-प्रधान, हास्य-प्रधान, प्रतीकात्मक एवं सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित एकांकियों की रचना की है। आपने वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की भारतीय जीवन संवेदना को चित्रित किया है। आपकी रचनाओं में विभिन्न समस्याओं को जीवन्त रूप से उजागर किया गया है। युग की प्रवृत्तियों और सामाजिक परिवर्तनों से आपने सदैव संगति बनाए रखी।

  • भाषा व शैली

भट्टजी ने अपने साहित्य सृजन में सरल, स्थिर व चुलबुली बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है। भाव व पात्रों के अनुसार उनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उनकी भाषा में उर्दू के शब्दों का बाहुल्य है; जैसे-ओफ, फ़ायदा, बेहद, हर्ष इत्यादि। संस्कृत शब्दावली का प्रयोग यत्र-तत्र दिखाई पड़ता है; जैसे-गृहस्थ,सुसंस्कृति, निर्दयी इत्यादि। संवाद सरल व छोटे-छोटे वाक्यों वाले हैं। भट्टजी की लेखन-शैली की एक विशेषता प्रश्नों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति है; जैसे-क्या छत तुम्हारे लिए है ? कहो तो मैं कहूँ ? क्या फ़ायदा ? इत्यादि। कहीं-कहीं वाक्य सूक्ति का-सा आभास कराते हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भट्टजी की भाषा सरल व शैली व्याख्यात्मक है।

  • साहित्य में स्थान

एक सफल नाटककार के रूप में अपनी विशिष्ट छवि बनाने वाले उदयशंकर भट्ट प्रख्यात एकांकीकार भी हैं। उन्होंने युग के अनुरूप चरित्र-सृष्टियों की रचना की है। उनके एकांकी रंगमंचीय होने तथा जीवन की मौलिक समस्याओं से सम्बन्धित होने के कारण मर्मस्पर्शी हैं। आधुनिक हिन्दी एकांकीकारों में भट्टजी का एक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है। हिन्दी एकांकी साहित्य उनके योगदान को सदैव याद रखेगा।

4. शरद जोशी
[2009, 13, 15]

चाय की दुकान से लेकर राष्ट्रपति भवन तक अपनी लेखनी की आवाज को पहुँचाने वाले शरद जोशी को साधारण व्यक्ति से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक अपना समझता है। इसी कारण उनकी तुलना कबीर और मार्क ट्वेन से की गई है।

  • जीवन परिचय

हिन्दी के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक शरद जोशी का जन्म 23 मई,सन् 1931 को उज्जैन में मगर मुहे की गली में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीनिवास और माता का नाम शान्ति था। विद्यार्थी जीवन से ही इनकी रुचि लेखन में थी। इन्होंने होल्कर कॉलेज, इन्दौर से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1958 में इन्होंने इरफाना सिद्दिकी से प्रेम-विवाह किया। एक स्क्रिप्ट राइटर के रूप में आप आकाशवाणी इन्दौर से लम्बे समय तक जुड़े रहे तथा मध्य प्रदेश सूचना विभाग में दस वर्षों तक जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में सेवारत रहे। तत्पश्चात् वे बम्बई चले गये और वहाँ पर सतत् लेखन कार्य करते हुए आपने 5 सितम्बर, सन् 1991 को अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

  • साहित्य सेवा

राजनीतिज्ञों पर लगातार करारे व्यंग्य और प्रहार करने वाले शरद जोशी की 18 पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने 1953-54 में लोगों के बीच एक लेखक के रूप में अपनी जगह बना ली। उनका सबसे पहला व्यंग्य लेख ‘नई दुनिया के ‘परिक्रमा’ स्तम्भ में छपा था। उनके लघु व्यंग्य-लेख नई दुनिया, धर्मयुग, रविवार, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बरी, ज्ञानोदय आदि पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपते थे। नवभारत टाइम्स के प्रतिदिन’ नामक स्तम्भ के लिए आपने 7 वर्षों तक लिखा। ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ उनका सरकारी अफसरों द्वारा सरकारी वाहनों पर की गई सवारी पर करारा व्यंग्य है। उन्होंने लगभग 35 वर्षों तक गद्य को कवि-सम्मेलन के मंच पर जोर-शोर से जमाये रखा। शरद जोशी को भारत सरकार ने सन् 1990 में पद्मश्री से विभूषित कर सम्मानित किया। शरदजी के कई नाटक जापान में वहाँ की स्थानीय भाषा में अनुवादित होकर मंचित किये गये।

MP Board Solutions

  • रचनाएँ

शरद जोशी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. व्यंग्य रचनाएँ-‘पिछले दिनों’, ‘तिलिस्म’, ‘रहा किनारे बैठ’, ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’, ‘किसी बहाने’, ‘यथासम्भव’, ‘नावक के तीर’ आदि अनेक प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं।
  2. लघु उपन्यास–’मैं-मैं और केवल मैं’ उनका लोकप्रिय लघु उपन्यास है।
  3. नाटक ‘अन्धों का हाथी’, ‘एक था गधा उर्फ अलादत खान’।
  4. संवाद-शरद जी ने कई फिल्मों के लिए संवाद-लेखन का कार्य भी किया-‘छोटी सी बात’, ‘क्षितिज’, ‘साँच को आँच क्या’, ‘गोधूलि’, ‘उत्सव’, ‘नाम’, ‘चमेली की शादी’, मेरा दामाद’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘उड़ान’ आदि।
  5. टी. वी. सीरियल्स-श्याम तेरे कितने नाम’, ‘ये जो है जिन्दगी’, ‘विक्रम और बेताल’, ‘वाह जनाब’, ‘दाने अनार के’, ‘श्रीमती जी’,’सिंहासन बत्तीसी’, ‘ये दुनिया है गजब की’, ‘प्याले में तूफान’, ‘मालगुढी डेज’, गुलदस्ता आदि।
  • वर्ण्य विषय

जोशीजी ने साहित्य की व्यंग्य विधा को अपना विशेष क्षेत्र बनाया। उनके व्यंग्य में हास्य भी मिश्रित था। शरद जोशी एक व्यक्ति नहीं विचारधारा का नाम है। उनकी व्यंग्य विधा को पैनी धार धर्मयुग’ और ‘धर्मवीर भारती’ जैसे साप्ताहिकों-पत्रिकाओं ने दी। उनके व्यंग्य-लेखन के प्रमुख विषय थे-आपातकाल, नौकरशाही, अखबार, राजनीति, सरकारी अफसर, चिन्तन के नाम पर राजनेताओं की ऐय्याशी, पुलिस-हड़ताल, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री इत्यादि। इन्दिरा गाँधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक सभी उनके व्यंग्य-बाणों के निशाने पर रहे हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली विसंगतियों का मार्मिक चित्रण कर शरदजी ने पाठकों को स्तम्भित कर दिया है।

  • भाषा

शरदजी की भाषा अत्यन्त सरस व सरल है। शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली में सहजता है। देशज व विदेशी शब्दों के प्रयोग से भाषा बोधगम्य बन गई है। भाषा में एक विशिष्ट प्रवाह है। शब्दों का चयन सटीक है। स्थान-स्थान पर मुहावरों के प्रयोग से भाषा में हास्य व चंचलता आ गई है। शरदजी व्यंग्य के भाषागत सौन्दर्य को अपनी छोटी-छोटी उक्तियों के माध्यम से प्रभावशाली बनाने में सफल रहे हैं। उनकी भाषा में सरसता के साथ-साथ चुटीलापन भी दृष्टिगोचर होता है।

  • शैली

शरदजी की शैली मुख्य रूप से हास्य-व्यंग्य प्रधान है। उन्होंने सामाजिक विडम्बनाओं और उसके अन्तर्विरोधों को आधार मानकर व्यंग्य किये हैं। वे अपनी चमत्कारिक उत्प्रेक्षाओं से व्यंग्य की सर्जना करते हैं। भेटवार्ता जैसे प्रसंगों पर संवाद शैली में गुदगुदाने वाला हास्य और उसके परोक्ष में छिपा व्यंग्य,श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देता था। उनकी आलोचनात्मक शैली भी व्यंग्य से पूर्ण है। वे राजनीतिज्ञों की आलोचना में भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते। उनके हर व्यंग्य में ओज का पुट मौजूद मिलता है। इसीलिए बुद्धिजीवी उनके तर्क,शब्द-शैली, भाषा-शैली और विचारों की पकड़ का लोहा मानते हैं।

  • साहित्य में स्थान

शरदजी के ओजपूर्ण व्यंग्यों ने अपने समय में लोकप्रियता की चरम सीमा को पार किया। उन्होंने अनेक पत्रिकाओं के माध्यम से सारे देश को एकसूत्र में जोड़ दिया था। जोशीजी ने हिन्दी के गम्भीर व्यंग्य को लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचाया। इस प्रकार हिन्दी गद्य साहित्य शरद जोशी को सदैव याद रखेगा।

5. डॉ. श्यामसुन्दर दुबे

  • जीवन परिचय

ललित निबन्धों में परम्परा और आधुनिकता को निभाने वाले डॉ. श्यामसुन्दर दुबे का जन्म 12 दिसम्बर, सन् 1944 को मध्यप्रदेश (हटा, दमोह) के बर्तलाई ग्राम में हुआ था। आपने एम. ए. पी-एच.डी. तक शिक्षा प्राप्त की है। ग्रामीण अंचल आपकी रचनाओं का स्रोत रहा है। आप हिन्दी साहित्य के समर्थ निबन्धकार,कवि, आलोचक होते हुए एक कुशल अध्यापक भी हैं। आप मध्यप्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में लम्बे समय तक प्राध्यापक पद पर रहे हैं। शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होकर वर्तमान में आप निदेशक, मुक्तिबोध सृजनपीठ डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर में कार्यरत हैं।

  • साहित्य सेवा

डॉ. श्यामसुन्दर दुबे साहित्यिक अभिरुचि रखने के कारण एक श्रेष्ठ गद्यकार माने जाते हैं। डॉ. दुबे को उनकी विभिन्न रचनाओं पर अनेक सम्मान तथा पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का ‘बालकृष्ण शर्मा नवीन’ पुरस्कार,मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी’ पुरस्कार, छत्तीसगढ़ शासन का ‘लोक-संस्कृति’ केन्द्रित सम्मान, डॉ. शम्भूनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन, वाराणसी का ‘डॉ. शम्भूनाथ सिंह अखिल भारतीय नवगीत’ पुरस्कार इत्यादि पुरस्कारों से आपको सम्मानित किया जा चुका है। वर्तमान में भी आप हिन्दी साहित्य की सेवा में सागर विश्वविद्यालय के माध्यम से रत् हैं।

  • रचनाएँ

डॉ. श्यामसुन्दर दुबे ने निबन्ध, कथा, आलोचना और लोकविद् साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी लगभग 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं

  1. ललित निबन्ध संकलन-कालमृगया’, ‘विषाद बांसुरी की टेर’, ‘कोई खिड़की इसी दीवार से।
  2. काव्य संकलन-रीते खेत में बिजूका’, ऋतुएँ जो आदमी के भीतर हैं’, ‘धरती के अनन्त चक्करों में’।
  3. उपन्यास–’दाखिल खारिज’, ‘मरे न माहुर खाये’।
  4. लोक संस्कृति के रूप में-‘लोक : परम्परा, पहचान एवं प्रवाह’, ‘लोक चित्रकला : परम्परा और रचना दृष्टि’, ‘लोक में जल’, भारत की नदियाँ’।
  • वर्ण्य विषय

लोक संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाले डॉ.दुबे की समस्त रचनाओं में भारतीयता के उन तत्वों का समावेश है,जिनकी आज के वैज्ञानिक युग में महती आवश्यकता है। आधुनिक जीवन को जीते हुए भी भारतीय ग्रामीण जीवन से अपना सम्बन्ध बनाये रखना ही उनके साहित्य का मूल विषय है। इसी को आधार मानकर डॉ.दुबे ने स्वयं को साहित्य की विभिन्न विधाओं में उतारा। आपने ललित निबन्ध, आत्माभिव्यंजना प्रधान निबन्ध, कविताएँ, कहानियाँ, आलोचना आदि रचनात्मक विधाओं के अतिरिक्त ग्रामीण लोक-संस्कृति को लोक साहित्य के आंचल में बाँधा है। इनकी विद्वता पाठक के हृदय पर गहरा प्रभाव डालती है।

  • भाषा

आपने देशज शब्दों से युक्त संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया है। प्रकृति के सौन्दर्य का अंकन करते समय आपकी भाषा जगह-जगह काव्यमयी हो गई है,जैसे-“हलदिया पीलापन ऊर्ध्वमुखी होकर अंधेरे में दिपदिपा रहा था।”…..”अब जलाओ दिया,… करो प्रकाश”। डॉ. दुबे ने शब्दों के प्रयोग में स्वच्छन्दता बरती है तथा चतेवरी, पहलौरी जैसे देशज शब्दों; ट्रेक्टर, ट्रांजिस्टर, टी. वी. जैसे प्रचलित अंग्रेजी शब्दों; इज्जत-आबरू, दाँव जैसे उर्दू शब्दों तथा वानस्पतिक, उल्लास, वंचित जैसे संस्कृत शब्दों के प्रयोग से भाषा को सजाया है। वाक्यों में लघुता के कारण उनका प्रभाव चिरस्थायी हो उठा है।

  • शैली

डॉ. श्यामसुन्दर दुबे व्यास-शैली तथा उद्धरण शैली के माध्यम से विषय को स्पष्ट करते हैं। उनके द्वारा लिखित कहानियों व निबन्धों में विवरणात्मक शैली देखने को मिलती है। बीच-बीच में प्रचलित महावरों, जैसे-ढाक के तीन पात आदि का भी प्रयोग किया गया है। अति सूक्ष्म रूप में उपदेशात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है, जैसे-“बस इसी तरह जगमगाओ”…… “अपनी ज्योति का स्पर्श दो” आदि। यत्र-तत्र व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग भी देखने को मिलता है।

MP Board Solutions

  • साहित्य में स्थान

बुद्धि और संवेदना के स्वस्थ समन्वय ने डॉ.दुबे को हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान दिलाया है। उन्हें लोक-संस्कृति के प्रचारक के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। डॉ. दुबे की रचनाओं में कवि हृदय की भावात्मक अनुभूति एवं कथात्मक अभिव्यक्ति के दर्शन होने के कारण हिन्दी के क्षेत्र में उनका एक विशिष्ट स्थान है।

MP Board Class 12th Hindi Solutions