MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस

भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ‘रस’ शब्द का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट तत्त्व के लिए होता है। खाद्य पदार्थों और फलों के क्षेत्र में रस मधुरतम तरल पदार्थ का द्योतक है। संगीत के क्षेत्र में कर्णेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ‘आनन्द’ का नाम ‘रस’ है। अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं परमात्मा को ही रस माना है या रस को ही परमात्मा घोषित किया है-“रसौ वै सः” अर्थात् रस ही परमात्मा है। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में भी काव्य के आस्वादन से प्राप्त आनन्दानुभूति को ही रस की संज्ञा दी गयी है। काव्यानन्द को ही ‘रस’ कहा गया है।

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रस के अवयव अथवा रस-निष्पत्ति

स्थायीभाव आश्रय के हृदय में आलम्बन के द्वारा उत्तेजित होकर उद्दीपन के प्रभाव से उद्दीप्त होकर, संचारी भावों से पुष्ट होता हुआ अनुभावों के माध्यम से व्यक्त होता है। जब काव्यगत स्थायी भाव की अनुभूति पाठक को होती है तो वही रसानुभूति’ या ‘रस-निष्पत्ति’ कहलाती है।

भरत मुनि ने कहा है–“विभावानुभावव्यभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” भावों के उद्वेलन के लिए उसके चार अवयव हैं-

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी या व्यभिचारी भाव।

उत्तेजना के मूल कारण को विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-आलम्बन और उद्दीपन। मानव हृदय में भावनाओं का प्रस्फुटन किसी बाह्य वस्तु, दृश्य या किसी परिस्थिति विशेष की कल्पना द्वारा ही होता है। इसी प्रमुख कारण को आलम्बन कहते हैं। भावोद्वेलन के लिए परिस्थिति की अनुकूलता भी अपेक्षित है। इसी को ‘उद्दीपन’ कहा जाता है। आलम्बन यदि आग है, जो अंगारे के रूप में आग लगाता है, तो उद्दीपन हवा की भाँति अनुकूलता बढ़ाती है। जिस व्यक्ति के हृदय में उसका प्रभाव होता है, उसे आश्रय कहा जाता है। इन भावनाओं के परिवर्तन के द्योतक चिह्नों को अनुभाव की संज्ञा दी गयी है। हृदय में रहने वाले भावों की व्यंजना अनुभावों के माध्यम से होती है। भावनाओं का रूप अत्यन्त सूक्ष्म होता है जिनका वर्णन काव्य में नहीं किया जा सकता। अतः काव्य में अनुभावों की व्यंजना आवश्यक मानी गयी है। “एक ही स्थायी भाव के बीच-बीच में परिस्थितिवश अनेक भावों का भी संचार होता है। इन्हें संचारी भाव कहते हैं।” संचारी भाव स्थायी भाव के विकास में सहायक होते हैं। किन्तु यदि प्रतिकूल रूप में हों तो वे बाधक बन जाते हैं।

स्थायी भाव-मानव-हृदय में वासना-रूप में रहने वाले मनोविकारों को काव्य में ‘स्थायी. भाव’ कहा जाता है। ये स्थायी भाव स्थायी रूप से चित्त में स्थित रहते हैं, इसी कारण इन्हें स्थायी भाव कहते हैं।

जैसे-
प्रीति, हँसी, अरु, सोक पुनि, रिस, उछाह भै भित्त।
घिन, बिसमै, थिर भाव ए, आठ बसें सुभचित।

इन आठ स्थायी भावों के अतिरिक्त एक और भी स्थायी भाव है-निर्वेद। इस प्रकार कुल मिलाकर निम्नलिखित नौ स्थायी भाव हैं, जो रसों में इस प्रकार स्थित हैं-
MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस 1

आचार्यों ने दसवाँ रस वात्सल्य रस’ माना है जिसका स्थायी भाव सन्तान प्रेम है।

संचारी भाव-

ये तैंतीस माने गये हैं,जो निम्नलिखित हैं
ग्लानि, दैन्य अरु शंका,श्रम, मन्द और अमर्ष।
स्वप्न, मोह, शान्त, चिन्ता, त्रास, उग्रता, हर्ष।
आवेग अरु निद्रा, स्मृति, जड़ता ब्रीड़ा, धर्म।
अपस्मार, वितर्क, मरण, व्याधि और चापल्य।
अवहित्था, आलस्य पुनि, गर्व,विबोध, विषाद।
औत्युक्य, अरु असूया, निर्वेद अरु उन्माद।

रस के भेद
1. शृंगार रस

शृंगार का आधार प्रेम-भाव है। शृंगार को रसराज कहा है। इसमें नारी-पुरुष के अनुराग का वर्णन आता है।

इसके संयोग और वियोग के कारण दो भेद होते हैं-
(1) संयोग शृंगार,
(2) विप्रलम्भ या वियोग श्रृंगार।

(1) संयोग श्रृंगार स्थायी भाव-रति। आलम्बन नायक या नायिका। उद्दीपन नायक या नायिका का मोहक रूप, एकान्त, नदी का किनारा, चाँदनी रात, फुलवारी आदि। अनुभाव-अपलक निहारना, रोमांच दर्शन, स्पर्श, स्वर-भंग, हास्य कटाक्ष, संकेत, मुस्काना आदि। संचारी भाव हर्ष,संकोच आदि।

उदाहरण-
(1) राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गयी, कर टेकि रही पल टारत नाहीं।

स्थायी भाव-रति। आश्रय-सीता। आलम्बन-राम। उद्दीपन-राम का रूप। अनुभाव रूप निहारना, सुधि भूल जाना। संचारी भाव-सुधि भूलना।
(2) एक पल मेरे प्रिया के दृग-पलक
थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे
चपलता ने इस विकंपित पुलक से
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था।

स्थायी भाव रति। आलम्बन–धरातल। उद्दीपन-निशा-सेज। अनुभाव-बैठना, संकुचित होना,मान करना,स्मरण करना। संचारी भाव- हृदय में हलचल।

(3) एक बार चुनि कुसुम सुहाये
निजकर भूषन राम बनाये।
सीतहिं पहिराये प्रभुनागर
बैठे फटिक सिला परमादर।

(2) वियोग शृंगार

उदाहरण-
(1) उनका यह कुंज-कुटीर, वहीं झरना उडु, अंशु अबीर जहाँ,
अलि कोकिल, कीर शिखी सब हैं, सुन चाकत की रहि पीव कहाँ?
अब भी सब साज-समान वही, तब भी सब आज अनाथ यहाँ,
सखि, जा पहुंचे सुधि-संग वही, यह अन्ध सुगन्ध समीर वहाँ।

स्थायी भाव-रति। आश्रय-यशोधरा। आलम्बन-सिद्धार्थ। उद्दीपन–कुंज कुटीर, किरणे कोकिल, भौंरों, पपीहे की ध्वनि। अनुभाव-विषाद भरे स्वर में कथन। संचारी भाव-स्मृति, मोह, विषाद, धृति हैं।

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(2) कबहुँ नयन मम सीतल ताता,
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।
वचन न आव नयन भरे बारी।
अतह नाथ मुहिं निपट बिसारी।

(3) बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगत अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजें।

2. हास्य रस।

सहृदय के हृदय में स्थित हास्य नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह हास्य रस कहलाता है।

उदाहरण-
(1) इस दौड़-धूप में क्या रखा आराम करो, आराम करो।
आराम जिन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में राम छिपा, जो भव-बन्धन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो बिरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।

यहाँ हास स्थायी भाव, हास्य पात्र आलम्बन, व्यंगोक्ति उद्दीपन विभाव, खिलखिलाना अनुभाव एवं हर्ष,चपलता,निर्लज्जता संचारी भाव हैं।

(2) विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तिय तरी, तुलसी सो कथा सुनि भे मुनि वृन्द सुखारे।
है हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू ! करुना करि कानन को पगु धारे।

3. करुण रस [2009]

सहदय के हृदय में शोक नामक स्थित भाव का जब विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के साथ संयोग होता है तो वह करुण रस का रूप ग्रहण कर लेता है।
उदाहरण-
(1) जा थल कीन्हें बिहार अनेकन ता थल काँकरि बैठि चुन्यौ करै।
जा रसना ते करी बहुबातन ता रसना ते चरित्र गुन्यों करै।
‘आलम’ जौन से कुंजन में करि केलि तहाँ अब सीस धुन्यों करै।
नैनन में जो सदा रहते तिनकी, अब कान कहानी सुन्यौ करे।

स्थायी भाव-शोक। आश्रय-प्रियतमा। आलम्बन-प्रिय मरण। उद्दीपन-दयनीय दशा, करुण विलाप। अनुभाव-अश्रु, निःश्वास, प्रलाप। संचारी भाव-स्मृति, दैन्य, आवेश, विषाद।

(2) अभी तो मुकुट बंधा था माथ
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खिले भी न थे लाज के बोल।
खिले भीन चुम्बन-शून्य कपोल।
हाय ! रुक गया यही संसार,
बना सन्दूर अंगार।

(3) प्रिय पति वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है?
दुःख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है !
लख सुख जिसका मैं आज लौ जी सकी हूँ
वह हृदय हमारा नैन-तारा कहाँ है?

(4) फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई।
कुररी सदृश सकरुण गिरा से दैत्य दरसाती हुई।
बहुविध विलाप प्रलाप वह करने लगी उस शोक में।
निज प्रिय वियोग समान दुःख होता न कोई लोक में।

(5) देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुणानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैननि के जल सों पग धोए।

4. वीर रस

सहृदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थायीकरण का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है,तो वह वीर रस का रूप ग्रहण कर लेता है। वीर रस’ में वीरता, बलिदान,राष्ट्रीयता जैसे सदगुणों का संचार होता है। दान, दया,धर्म,युद्ध एवं वीरता के भाव वीर रस की विशेषताएँ हैं।

उदाहरण-
(1) देखि पवनसुत कटक बिसाला। क्रोधवन्त जनु धायउ काला।
महा सैल इक तुरत उखारा। अति रिस मेघनाद पर डारा।

(2) सिंहासन हिल उठे,राजवंशों ने भृकुटी तानी थी।
बूढ़े भारत में भी आई,फिर से नई जवानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी।

स्थायी भाव-उत्साह। आश्रय हनुमान। आलम्बन-मेघनाथ। उद्दीपन-कटक की विह्वल दशा। अनुभाव-महान् शैल को उखाड़ना और फेंकना। संचारी भाव-स्वप्न की चिन्ता, शत्रु पर रिस (क्रोध, अमर्ष),उग्रता तथा चपलता।

5. रौद्र रस

सहृदय का क्रोध नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रौद्र रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
श्रीकृष्ण के सुन वचन, अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर, करतल-युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे, शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गये उठकर खड़े।
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥

स्थायी भाव क्रोध। आश्रय-अर्जुन। आलम्बन-शत्रु। अनुभाव-क्रोधपूर्ण घोषणा, शरीर काँपना। उद्दीपन श्रीकृष्ण के वचन। संचारी भाव-आवेग, चपलता,श्रम,उग्रता आदि।

6. भयानक रस

भय नामक स्थायी भाव का जब विभाव,अनुभाव,संचारी भाव से संयोग होता है, तब वह भयानक रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) नभ से झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच।
कंपति तन व्याकुल नयन,लावक हिल्यो न च॥

स्थायी भाव-भय। आश्रय लावा पक्षी। आलम्बन-बाज। उद्दीपन-बाज का झपटना। अनुभाव-शरीर का काँपना,नेत्रों की व्याकुलता। संचारी भाव-दैन्य,विषाद,काँपना, अपने स्थान से रंचमात्र नहीं हिलना, अर्थात् मूर्छा की,जड़ता की स्थिति।

(2) लपट कराल, ज्वाल, माल चहुँ दिशि
धूम अकुलाने, पहिचाने कौन काहि रे।

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7. वीभत्स रस

सहदय के हृदय में स्थित जुगुप्सा (घृणा) नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह वीभत्स रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) सिर पर बैठ्यो काग, ऑखि दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत॥
बहु चील्ह नोच लै जात मोद बढ़ौ सब को हियौ।
मनु ब्रह्म भोज जिजमान कोऊ आज भिखारिन कह दियो।

(2) कोउ अंतड़िन की पहिरिमाल इतरात दिखावत।
कोउ चरबी लै चोप सहित निज अंगनि लावत॥
कोउ मुण्डनि लै मानि मोद कन्दुक लौं डारत।
कोउ रुंडनि पै बैठि करै जौ फारि निकारत।

स्थायी भाव-जुगुप्सा (घृणा)। आलम्बन श्मशान का दृश्य। उद्दीपन-अंतड़ी की माला पहनना, चर्बी शरीर पर पोतना, नर-मुण्डों को गेंद की तरह उछालना,धड़ पर बैठकर कलेजा फाड़कर निकालना उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव-निर्वेद ग्लानि,दीनता से संचारी भाव हैं।

8. अदभुत रस [2009]

विस्मय नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयुक्त होकर जिस भाव का उद्रेक होता है वह अद्भुत रस ग्रहण कर लेता है।।

उदाहरण-
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरिमुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥

भगवान श्रीकृष्ण के मुख में सम्पूर्ण विश्व के दर्शन करने के बाद माता यशोदा आश्चर्यचकित रह गयीं।

स्थायी भाव-विस्मय। आलम्बन श्रीकृष्ण का मुख। आश्रय-माता यशोदा। उद्दीपन-मुख में भुवनों का दिखना। अनुभाव-नेत्र विकास, गद्गद् स्वर,रोमांच, बुद्धि का नष्ट हो जाना। संचारी भाव त्रास और जड़ता, चेतना खोना (मूर्छा की स्थिति) और नेत्र अचंचल होना।

9. शान्त रस [2009]

इसका स्थायी भाव निर्वेद है। सांसारिक सुख तथा देह की क्षणभंगुरता का ज्ञान, सन्त समागम, शास्त्र चिन्तन और योग आदि उसके विभाव हैं। सब प्राणियों पर दया, परमानन्द की उपलब्धि से मग्नता और आप्तकाम होकर असंग रहना इसके अनुभाव हैं। मति, धृति और हर्ष आदि इसके संचारी भाव हैं।

उदाहरण-
(1) मन रे ! परस हरि के चरण
सुभग सीतल कमल कोमल,
त्रिविध ज्वाला हरण।

(2) सुत बनितादि जानि स्वारथरत न करह नेह सबही ते।
अन्तहि तोहि तजेंगे पामर ! तू न तजै अबही ते॥
अब नाथहिं अनुराग जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझे न काम-अगिनि तुलसी कहूँ विषय भोग बहु घी ते।।

निर्वेद स्थायी भाव है। अनित्य संसार आलम्बन। भक्त हृदय-आश्रय। उद्दीपन है-अनुराग, भोग,विषय,काम। उन्हें छोड़ देने का कथन अनुभाव है। धृति,मति, विमर्ष संचारी भाव हैं।

3) बन बितान रवि सीस दिया,
फल भख सलिल प्रवाह।
अवनि सेज पंखा पवन,
अब न कछू परवाह ॥

10 वात्सल्य रस

सहृदय के मन में वात्सल्य-प्रेम नामक स्थायी भाव से जब अनुभाव, विभाव और संचारी भाव मिलते हैं, तब वह वात्सल्य रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) बैठि सगुन मनावति माता।
कब ऐहें मेरे लाल कुसल घर, कहह काग फुरि बाता।
दूध-भात की दोनी दैहों, सोने चोंच महों।
जब सिय-समेत बिलोकि नयनभरि राम लखन उर लेंहों।

(2) जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलराइ, मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुलावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवत, तोकौं कान्ह बुलावै।।
कबहूँ पलक हरि मूंद लेत, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन है कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥

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वात्सल्य-स्थायी भाव। यशोदा-आश्रय। कृष्ण को सुलाना, पलक मूंदना-उद्दीपन विभाव। यशोदा की क्रियाएँ-अनुभाव। शंका, हर्ष आदि संचारी भाव हैं।
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