MP Board Class 12th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण, भेद, गुण

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण, भेद, गुण

1. काव्य की परिभाषा एवं लक्षण

समस्त भाव प्रधान साहित्य को काव्य कहते हैं। विभिन्न विद्वानों ने काव्य के विभिन्न लक्षण बताये हैं-साहित्य दर्पण के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ ने ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ कहा है। पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्दः काव्यम्’ कहा है। कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यस्य जीवितम्’ कहा है और आनन्दवर्धन तथा अभिनव गुप्त ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहते हैं। मम्मट ने काव्य को हृदय की ‘सगुणावलंकृतौ पुन: क्वापि’ कहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य हृदय को आनन्द देता है।

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2. काव्य के भेद

(1) मुक्तक पद्य-काव्यं गीत,कविता,दोहा और पद तथा आधुनिक चतुष्पदी तथा मुक्त छन्द मुक्तक काव्य कहलाता है। मुक्तक काव्य का तात्पर्य है कि बिना पूर्वापर सम्बन्ध के वह पद्य या छन्द अपने आप में पूर्ण एक स्वतन्त्र भाव लिये हो जिसके पड़ने मात्र से उसका भाव समझ में आ जाये और किसी भी रस-विशेष की अनुभूति हो सके। सूरदास,मीरा आदि कवियों के गेय पद और बिहारी सतसई,आधुनिक गीत इसके अन्तर्गत आते हैं।

(2) प्रबन्ध काव्य-प्रबन्ध काव्य वह रचना होती है, जिसमें कोई एक कथा आद्योपान्त क्रमबद्ध रूप से गठित हो एवं उसमें कहीं भी तारतम्य न टूटता हो, वरने उस कथा को पुष्ट करने के लिए उसमें अन्य अन्तर्कथाएँ भी हो सकती हैं। प्रबन्ध काव्य विस्तृत होता है, उसमें जीवन की विभिन्न झाँकियाँ रहती हैं। प्रबन्ध काव्य में कथानक को लेकर पात्रों के चरित्रों में घटनाओं और भावों के संघर्ष द्वारा काव्य-वस्तु संजोयी जाती है। प्रबन्ध काव्य के निम्नवत् दो उपभेद स्वीकारे

(1) महाकाव्य,
(2) खण्डकाव्य।

(1) महाकाव्य
आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण के पश्चात् अनेक महाकाव्यों की रचना सम्पन्न हो चुकी है।

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य के लक्षण निम्नवत् हैं-

  1. महाकाव्य सर्गबद्ध तथा सप्रबन्ध रचना है।
  2. आठ तथा उससे अधिक सर्ग होना आवश्यक है।
  3. प्रत्येक सर्ग उत्तरोत्तर सम्बद्ध तथा विभिन्न छन्दों में होना चाहिए।
  4. महाकाव्य का नायक धीरोदात्त गुणों से समन्वित देवता अथवा कुलीन वंश का होना चाहिए।
  5. शान्त, वीर अथवा श्रृंगार रस प्रधान हो तथा अन्य रस सहायक रूप में प्रयुक्त होने चाहिए।
  6. कथानक ऐतिहासिक या सज्जन चरित्र से जुड़ा होना चाहिए।
  7. देश-काल तथा वातावरण का चित्रण अपेक्षित है।
  8. महाकाव्य के उद्देश्य चतुर्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए।
  9. नामकरण नायक,नायिका,घटना,उद्देश्य अथवा स्थान के आधार पर होना चाहिए।

उपर्युक्त मत के अनुरूप महाकाव्य के चार अनिवार्य लक्षण निम्नवत् ठहराये जा सकते

  1. धीरोदात्त नायक।
  2. रसों की निष्पत्ति।
  3. चतुर्वर्ग की प्राप्ति।
  4. कथानक की ऐतिहासिकता।
  5. भारतीय महाकाव्य में रस निष्पत्ति अनिवार्य रूप से स्वीकारी गई है।
  6. आस्तिकता को भी महाकाव्य में अनिवार्य मानना चाहिए।
  7. भारतीय कण-कण में भगवान को व्याप्त मानते हैं, आत्मा को परमात्मा का अंश ठहराते हैं।
  8. आनन्द स्वरूप में मिल जाना ही भारतीय जीवन का चरम लक्ष्य है। इसी कारण सुखान्त साहित्य को हमारे देश में विशेष स्थान दिया गया है।

उपर्युक्त तत्वों से समन्वित महाकाव्य को सफल महाकाव्य ठहराया जा सकता है।
निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महाकाव्य एक छन्दोबद्ध कथा प्रधान रचना होती है। इस कलेवर में समस्त युग जीवन का अंकन किसी उदात्त उद्देश्य से प्रेरणा ग्रहण करके सरस एवं प्रवाहमयी शैली में प्रभावान्वित के साथ सम्पन्न किया जाता है।
मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’, तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’, मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’ तथा जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रचनाएँ महाकाव्य हैं।

(2) खण्डकाव्य

परिभाषा-खण्डकाव्य में नायक के जीवन की किसी एक घटना अथवा हृदयस्पर्शी अंश का पूर्णता के साथ अंकन किया जाता है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार-“खण्डकाव्य महाकाव्य के एक देश या अंश का अनुसरण करने वाला है।”

खण्डकाव्य महाकाव्य का खण्ड मात्र भी नहीं है। खण्डकाव्य में जिन्दगी का खण्डित अथवा बिखरा रूप भी चित्रित नहीं किया जाता, इसमें जीवन के सांगोपांग चित्रण के स्थान पर उसके किसी एक पहलू का पूर्ण अंकन होता है। यद्यपि इसका कलेवर सीमित होता है लेकिन स्वतः पूर्णता इसका अपेक्षित धर्म है। यथा-श्यामनारायण पाण्डेय का ‘हल्दी घाटी का युद्ध’, नरोत्तमदास का ‘सुदामा चरित’,रामनरेश त्रिपाठी का ‘पथिक’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘पंचवटी’ रचनाएँ खण्डकाव्य की कोटि में आती हैं।

महाकाव्य तथा खण्डकाव्य में अन्तर

  1. महाकाव्य में जीवन का अथवा घटना विशेष का सांगोपांग चित्रण होता है, जबकि खण्डकाव्य में किसी एक घटना या जीवन के एक अंश का चित्रण किया जाता है।
  2. महाकाव्य का नायक उदात्त तथा महान् होता है। खण्डकाव्य के नायक में इस गुण का पाया जाना अनिवार्य नहीं है। खण्डकाव्य में युग जीवन का एकाधिक रूप ही प्रस्तुत किया जाता है लेकिन महाकाव्य में समग्र युगीन जीवन प्रतिबिम्बित होता है।
  3. महाकाव्य का शिल्प उत्कृष्ट एवं उदात्त होता है लेकिन खण्डकाव्य में इसका पाया जाना अनिवार्य नहीं ठहराया गया है।
  4. खण्डकाव्य का कलेवर सीमित होता है, परन्तु महाकाव्य का कलेवर विस्तृत होता है।
  5. महाकाव्य में कम-से-कम आठ सर्ग होते हैं लेकिन खण्डकाव्य में सर्गों की संख्या नियत नहीं होती।

(3) दृश्य-काव्य-

दृश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक और प्रहसन आते हैं जिनका अभिनय रंगमंच पर पात्रों द्वारा किया जाता है। इसमें गद्य के सम्भाषण के अतिरिक्त गेय गीतों, छन्दों अथवा प्रसंगानुकूल नृत्यों की योजना रहती है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत अधिक रमणीयता होती है, क्योंकि दर्शक उसकी प्रत्यक्षानुभूति करता है। कलाकार अपनी प्रभावशील अभिनय कला द्वारा हृदय पर सीधा प्रभाव डालते हैं। दृश्य-काव्य निश्चय ही श्रव्य-काव्य से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उसका आनन्द पढ़कर एवं देखकर दोनों रूपों में प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु श्रव्य-काव्य का आनन्द केवल सुनकर ही लिया जा सकता है। नाटक में साहित्य के अन्य तत्वों के अतिरिक्त अभिनय तत्व भी आवश्यक होता है।

(4) चम्पू काव्य-

जिसमें गद्य तथा पद्य मिश्रित रूप से प्रयुक्त होता है, उसे चम्पू काव्य कहते हैं। इसका प्रचलन संस्कृत साहित्य में था, हिन्दी में कहीं-कहीं देखने को मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘सिद्धराज’ प्रसिद्ध चम्पू काव्य है।

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3. काव्य गुण

कविता-कामिनी को अलंकारों से सुसज्जित कर विद्वानों ने उसके आन्तरिक रूप को ही महत्त्व दिया है। अलंकार, छन्द से काव्य का बाह्य रूप सजता है किन्तु सुन्दर सजीला तन भावपूर्ण मन के बिना तथा गुण रहित होने से व्यर्थ होता है। कहा भी है कि “गुणीनां च निर्गुणनां च दृश्यते महदन्तरम्।” अतः मानवोचित गुणों के अनुकूल ही काव्य गुण भी होते हैं। आचार्य दण्डी ने दस काव्य गुणों का उल्लेख किया है और भोज ने चौबीस गुणों का। किन्तु साहित्य में काव्य के तीन गुण ही प्रमुख माने गये हैं। उसी वर्गीकरण के अन्तर्गत इन्हीं तीनों में अन्य सभी गुण समाहित कर लिए हैं। इन गुणों का काव्य में किस प्रकार प्रणयन होता है तथा गुणयुक्त काव्य श्रोता या पाठक पर किस प्रकार प्रभावशील होता है, उनके लिए कुछ नियम हैं।

मुख्य तीन गुण हैं-
(1) माधुर्य,
(2) ओज,
(3) प्रसाद।

(1) माधुर्य गुण-मधुरता के भाव को माधुर्य कहते हैं। मिठास अर्थात् कर्णप्रियता ही इसका मुख्य भाव है। जिस काव्य के श्रवण से आत्मा द्रवित हो जाये,मन आप्लावित और कानों में मधु घुल जाये,वही माधुर्य गुणयुक्त है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार,शान्त एवं करुण रस में पाया जाता है। माधुर्य गुण की रचना में-

  • कठोर वर्ण यानि सम्पूर्ण ट वर्ग (ट,ठ,ड,ढ, ण) के शब्द नहीं होने चाहिए।
  • अनुनासिक वर्णों से युक्त अत्यन्त दीर्घ संयुक्ताक्षर नहीं होना चाहिए।
  • लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग भी वर्जित है।।
  • कोमलकांत मृदु पदावली का एवं मधुर वर्णों (क, ग, ज, द आदि) का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) ‘छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाँह।
सुख-दुःख में ग्रीवा के नीचे हो, प्रियतम की बाँह ॥

(2) अनुराग भरे हरि बागन में,
सखि रागत राग अचूकनि सों।

(3) लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?
चले प्रभात बात फिर भी क्या खिले न कोमल कमल कली?

(4) बसो मोरे नैनन में नन्दलाल।
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत नैना बने बिसाल।

(2) ओज गुण-जिस काव्य-रचना को सुनने से मन में उत्तेजना पैदा होती है,उस कविता में ओजगुण होता है। ओज का सम्बन्ध चित्त की उत्तेजना वृत्ति से है। इसलिए जिस काव्य को पढ़ने से या सुनने से पढ़ने वाले के हृदय में उत्तेजना आ जाती है,वही ओजगुण प्रधान रचना होती है। वीर रस रचना के लिए इस गुण की आवश्यकता होती है। इस गुण को उत्पन्न करने के लिए विद्वानों ने निम्न गुणों का विधान किया है-

  • रचना की शैली एवं शब्द योजना दोनों का ही सुगठित एवं सुनियोजित होना आवश्यक है।
  • पंक्ति अथवा छन्द की रचना में कहीं भी शिथिलता होना अनपेक्षित है।
  • रचना में ट वर्ग (ट,ठ,ड,ढ,ण) और सभी कठोर व्यंजनों का आधिक्य होना चाहिए।
  • र के संयोग से बने शब्द प्रथम एवं तृतीय, द्वितीय और चतुर्थ वर्गों का प्रयोग होते संयोजन तथा रेफ युक्त शब्द प्रभावशाली हैं।
  • लम्बे-लम्बे समासों से युक्त शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। अधिकाधिक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) अमर राष्ट्र, उदण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र-यह मेरी बोली।
यह ‘सुधार’, ‘समझौते’ वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।।

(2) निकसत म्यान तें मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारै तम-तोम से गयंदन के जाल को।

(3) महलों ने दी आग, झोंपड़ियों में ज्वाला सुलगाई थी,
वह स्वतन्त्रता की चिनगारी, अन्तरतम् से आई थी।

(4) हिमाद्रि तुंग शृंग पर, प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्वला, स्वतन्त्रता पुकारती।

(3) प्रसाद गुण प्रसाद का अर्थ है-प्रसन्नता या निर्मलता। जिस काव्य को सुनते या पढ़ते समय वह हृदय पर छा जाये और बुद्धि शब्दों के दुरूह जाल में या क्लिष्ट अर्थों की कलुषता में मलिन न होकर एकदम प्रभावित हो जाये,मन खिल जाये,उसे प्रसाद गुण कहते हैं। कवि का उद्देश्य होता है-मानव हृदय को प्रभावित करना। प्रेमी की बात प्रिय पात्र के हृदय को रस से सराबोर न कर दे, ममता वात्सल्य को आह्लादित न कर पाये, करुणा नयनों के कोरों को यदि अविरल न कर पाये और वीरता का उत्साह यदि ओजित न कर पाये-ये सभी यदि शब्दों की भूलभुलैया में पड़कर क्लिष्टता के अस्त-व्यस्त मार्ग पर चल पड़े तो काव्य ब्रह्मानन्द सहोदर न होकर मस्तक की पीड़ा बन जायेगा। व्यस्तता के इस युग में हमें आज प्रसाद गुण युक्त काव्य की आवश्यकता है। यही गुण अधिक समय तक प्रभावशाली रह सकता है, क्योंकि यह सीधे हृदय पर छाप छोड़ता है। सभी रसों की रचना प्रसाद गुण युक्त हो सकती है। प्रसाद गुण का सम्बन्ध सभी रसों से है। उक्त दोनों गुणों की तरह यह गुण किसी रस विशेष से नियन्त्रित नहीं है। शब्दों के साथ अर्थ का भी सरल होना आवश्यक है। इसमें जो बात कही जाये,उसका वही अर्थ होता है। ‘साहित्य-दर्पण’ के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ का कथन है कि-“समस्त रसों और रचनाओं में जो चित्त को सूखे ईंधन में अग्नि के समान शीघ्र व्याप्त करे-वह प्रसाद गुण है।”

उदाहरण-
(1) “चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो,
घर की मैना को जरा प्रभाती गाने दो,
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो,
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो।”

(2) मानुस हौं तो वही रसखान
बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन।

(3) तन भी सुन्दर मन भी सुन्दर
प्रभु मेरा जीवन हो सुन्दर।।

(4) हे प्रभो आनन्द दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।

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(5) आशीषों का आँचल भर कर, प्यारे बच्चो लाई हूँ।
युग जननी मैं भारत माता द्वार तुम्हारे आई हूँ।

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