MP Board Class 9th Social Science Solutions Chapter 12 प्रजातन्त्र
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 पाठान्त अभ्यास
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
सही विकल्प चुनकर लिखिए
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सी विशेषता लोकतन्त्र की नहीं है?
(i) निर्वाचित प्रतिनिधियों की सरकार
(ii) अधिकारों का सम्मान
(iii) शक्तियों का एक व्यक्ति में केन्द्रीयकरण
(iv) स्वतन्त्रता और निष्पक्ष चुनाव।
उत्तर:
(iii) शक्तियों का एक व्यक्ति में केन्द्रीयकरण
प्रश्न 2.
कौन-सी अवधारणा प्रजातन्त्र की है?
(2016)
(i) स्वतन्त्रता
(ii) शोषण
(iii) असमानता
(iv) व्यक्तिवादिता।
उत्तर:
(i) स्वतन्त्रता
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रजातन्त्र का दोष नहीं है?
(i) सार्वजनिक धन व समय का अपव्यय
(i) धनिकों का वर्चस्व
(iii) दलीय गुटबन्दी
(iv) लोक कल्याण।
उत्तर:
(iv) लोक कल्याण।
प्रश्न 4.
प्रजातन्त्र, जनता का जनता के लिये जनता द्वारा संचालित शासन है
(2008, 14, 15)
(i) मैकियावली
(ii) रूसो
(iii) लिंकन
(iv) हाट्स।
उत्तर:
(iii) लिंकन
रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिए
- अरस्तु ने प्रजातन्त्र को ………… का शासन कहा है। (2009, 10, 18)
- साम्यवाद के प्रवर्तक ………… और ………… थे।
- सफल प्रजातन्त्र के लिए संविधान का …………. होना आवश्यक है।
- निर्बल प्रजातन्त्र ………….. और …………. के समय प्रभावहीन सिद्ध होता है।
उत्तर:
- ‘बहुतों का शासन’
- कार्ल मार्क्स और लेनिन
- लिखित
- युद्ध और संकट।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर वैदिक काल में प्रजातान्त्रिक सन्दर्भ में उसका उल्लेख पाया जाता है?
उत्तर :
उत्तर वैदिककाल में शासन का गणतान्त्रिक रूप एवं स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ विद्यमान थीं। ऋग्वेद में सभा और समिति का उल्लेख मिलता है।
प्रश्न 2.
प्राचीन भारत में शासन की मूल इकाई के रूप में किस प्रकार की व्यवस्था थी?
उत्तर:
प्राचीन भारत में भारतीय समाज कृषि प्रधान था जिसकी मूल इकाई स्वशासित एवं स्वतन्त्र ग्राम थे।
प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त किस अधिकार पर बल देता है?
उत्तर:
प्रजातन्त्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त राजनीतिक एवं नागरिक समानताओं की अपेक्षा आर्थिक समानता पर अधिक बल देता है।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रजातन्त्र का अर्थ समझाते हुए कोई दो परिभाषा लिखिए। (2009, 13, 15)
उत्तर:
प्रजातन्त्र का अर्थ-प्रजातन्त्र का अर्थ एक ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें जनहित सर्वोपरि है। प्रजातन्त्र का अर्थ केवल एक शासन प्रणाली तक सीमित नहीं है। यह राज्य व समाज का रूप भी है। अर्थात् इसमें राज्य, समाज व शासन तीनों का समावेश होता है। राज्य के रूप में प्रजातन्त्र, जनता को शासन करने, उस पर नियन्त्रण करने एवं उसे हटाने की शक्ति है। समाज के रूप में प्रजातन्त्र इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था है जिसमें समानता का विचार और व्यवहार सर्वोपरि हो। व्यक्तित्व की गरिमा का समान मूल्य हो एवं विकास के समान अवसर सभी को प्राप्त हों। यह सम्पूर्ण जीवन का एक मार्ग है। यह मूल्यों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति साध्य है और व्यक्तित्व का विकास इसका उद्देश्य है। यह स्वतन्त्रता एवं समरसता की पूर्व कल्पना पर आधारित है।
परिभाषाएँ :
अरस्तू ने प्रजातन्त्र को बहुतों का शासन’ कहा है। डायसी के अनुसार, “प्रजातन्त्र शासन .. का वह रूप है जिसमें शासन व्यवस्था की शक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र में विस्तृत हो।”
प्रश्न 2.
अप्रत्यक्ष अथवा प्रतिनिधि प्रजातन्त्र से आप क्या समझते हैं? (2009, 16)
उत्तर:
अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र :
जब जनता निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से विधि निर्माण तथा शासन के कार्यों पर नियन्त्रण रखने का कार्य करती है तो उसे अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कहते हैं। वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र ही प्रचलित है। इसमें जनता निश्चित अवधि के लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है, जो व्यवस्थापिका का गठन करते हैं और कानूनों का निर्माण करते हैं। अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति, निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम होती है।
प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र में राजनीतिक शिक्षण कैसे होता है?
उत्तर:
प्रजातन्त्र राजनीतिक शिक्षण का श्रेष्ठ साधन है। मताधिकार और राजनीतिक पद प्राप्त करने की स्वतन्त्रता के कारण जनता स्वाभाविक रूप से राजनीतिक क्षेत्र में रुचि लेने लगती है। भाषण अभिव्यक्ति एवं संचार माध्यमों के उपयोग की स्वतन्त्रता, जनता में विचारों के आदान-प्रदान करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है। उनमें उत्तरदायित्व तथा आत्म-निर्भरता की भावना का विकास होता है। सभी राजनीतिक दल निरन्तर प्रचार द्वारा जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करते हैं। अतः प्रजातन्त्र में नागरिकों को प्रशासनिक, राजनीतिक व सामाजिक सभी प्रकार का शिक्षण प्राप्त होता है।
प्रश्न 4.
प्रजातन्त्र के लिये संविधान क्यों आवश्यक है? इस पर टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 16)
उत्तर:
शासन संगठन के मूलभूत सिद्धान्त तथा प्रक्रिया निश्चित होना प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण लक्षण है, जिसमें कोई भी सत्तारूढ़ दल अपने बहुमत के आधार पर इसे जैसा चाहे वैसा परिभाषित या परिवर्तित न कर सके। शासन के अंगों का गठन, शासन की शक्तियाँ एवं कार्य, प्रक्रिया आदि संविधान में स्पष्ट हों, इसलिए लिखित संविधान का होना अनिवार्य माना गया है। प्रजातन्त्र नागरिकों की समानता एवं स्वतन्त्रता पर आधारित है। वास्तव में संविधान प्रजातन्त्र का प्राण होता है। बिना संविधान के कोई भी प्रजातन्त्र सफल नहीं हो सकता। इस प्रकार प्रजातन्त्र के लिए संविधान परम आवश्यक है।
प्रश्न 5.
वर्तमान में भारतीय प्रजातन्त्र किन-किन चुनौतियों से गुजर रहा है? लिखिए।
उत्तर:
भारत में प्रजातन्त्र के समक्ष चुनौतियाँ-भारत में प्रजातन्त्र के समक्ष कुछ चुनौतियाँ भी हैं। भारतीय प्रजातन्त्र आज निरक्षरता, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, पृथक्तावाद, साम्प्रदायिकता, राजनीतिक हिंसा, सामाजिक-आर्थिक असमानता, धन व बाहुबल के वर्चस्व, भ्रष्टाचार और वोट बैंक की राजनीति की समस्याओं से प्रभावित हो रहा है।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रजातन्त्र से क्या आशय है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए। (2008, 09)
अथवा
प्रजातन्त्र की कोई पाँच विशेषताएँ बताइए और किसी एक विशेषता के बारे में वर्णन कीजिए। (2010)
अथवा
प्रजातन्त्र का क्या अर्थ है? प्रजातन्त्र की प्रमुख दो परिभाषाएँ लिखिए। (2008)
अथवा
प्रजातन्त्र की चार विशेषताएँ लिखिए। (2017, 18)
उत्तर:
प्रजातन्त्र का आशय-प्रजातन्त्र को अंग्रेजी भाषा में डेमोक्रेसी (Democracy) कहते हैं। प्रजातन्त्र का अंग्रेजी पर्याय डेमोक्रेसी दो यूनानी शब्दों से मिलकर बना है-‘डेमो’ (Demo) यानी ‘जनता’ तथा ‘क्रेटिया’ (Kratia) अर्थ है-शक्ति। इस प्रकार डेमोक्रेसी या प्रजातन्त्र का अर्थ हुआ जनता की शक्ति’ । अन्य शब्दों में कहा जाए तो ऐसी शासन प्रणाली जिसमें सर्वोच्च सत्ता जनता के पास रहती है और उसका उपयोग वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में करती है। इसे लोकतन्त्र या जनतन्त्र भी कहा जाता है।
परिभाषाएँ :
प्रजातन्त्र का अर्थ-प्रजातन्त्र का अर्थ एक ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें जनहित सर्वोपरि है। प्रजातन्त्र का अर्थ केवल एक शासन प्रणाली तक सीमित नहीं है। यह राज्य व समाज का रूप भी है। अर्थात् इसमें राज्य, समाज व शासन तीनों का समावेश होता है। राज्य के रूप में प्रजातन्त्र, जनता को शासन करने, उस पर नियन्त्रण करने एवं उसे हटाने की शक्ति है। समाज के रूप में प्रजातन्त्र इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था है जिसमें समानता का विचार और व्यवहार सर्वोपरि हो। व्यक्तित्व की गरिमा का समान मूल्य हो एवं विकास के समान अवसर सभी को प्राप्त हों। यह सम्पूर्ण जीवन का एक मार्ग है। यह मूल्यों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति साध्य है और व्यक्तित्व का विकास इसका उद्देश्य है। यह स्वतन्त्रता एवं समरसता की पूर्व कल्पना पर आधारित है।
आशय यह है कि प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था लोक कल्याणकारी राज्य से सम्बन्धित है। इसमें व्यक्ति की महत्ता और उसकी स्वतन्त्रता पर बल दिया गया है तथा सम्प्रभुता जनता में निहित होना माना गया है।
प्रजातन्त्र की विशेषताएँ :
प्रजातन्त्र एकमात्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें सभी को अपने सर्वांगीण विकास के लिए बिना किसी भेदभाव के समान अवसर प्राप्त होते हैं प्रजातान्त्रिक व्यवस्था नागरिकों की गरिमा तथा समानता, स्वतन्त्रता, मातृत्व और न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित है। प्रजातन्त्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- जनता प्रभुसत्ता की स्वामी :
प्रजातन्त्र में सत्ता का अन्तिम स्रोत राज्य की सम्पूर्ण जनता होती है। - शासन का संचालन जन प्रतिनिधियों द्वारा :
प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था में शासन का संचालन जनता के प्रतिनिधि करते हैं। - राजनीतिक दलों के गठन की व्यवस्था :
प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का गठन अनिवार्य रूप से किया जाता है। दो या अधिक राजनीतिक दल होते हैं। जिस दल को सर्वाधिक बहुमत प्राप्त होता है, वही शासन का संचालन करता है। - चुनावों की व्यवस्था :
प्रजातन्त्र में संविधान द्वारा निर्धारित तिथि पर चुनाव होते हैं। चुनाव का आधार वयस्क मताधिकार होता है। - नागरिकों को अधिकार व स्वतन्त्रताएँ प्रदान करना :
नागरिक अपने मतों का उचित ढंग से प्रयोग कर सकें तथा अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर सकें। इसके लिए उन्हें यथा सम्भव अधिकार व स्वतन्त्रताएँ प्रदान की जाती हैं। - शासन जनता के प्रति उत्तरदायी :
प्रजातन्त्रीय शासन जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। जनहित की अवहेलना करने पर उसे पदच्युत किया जा सकता है। - लोक या जन कल्याणकारी राज्य का आदर्श :
प्रजातन्त्र का प्रमुख आदर्श जनहित होता है। अत: इस शासन व्यवस्था में यथासम्भव लोक कल्याणकारी कार्यों को महत्त्व दिया जाता है। - स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका :
संविधान की समस्त व्यवस्थाएँ व्यवहार में लागू की जा सकें, इसलिए प्रजातन्त्र में स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका का होना एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण लक्षण है।
प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र के गुण-दोषों का वर्णन कीजिए।
अथवा
प्रजातन्त्र के कोई चार गुण लिखिए। (2017)
अथवा
प्रजातन्त्र के दो-दो गुण-दोषों का वर्णन कीजिए। (2008, 14, 18)
अथवा
प्रजातन्त्र के दोषों का वर्णन कीजिए। (2008, 09)
उत्तर :
प्रजातन्त्र के गुण-प्रजातन्त्र के निम्नलिखित गुण हैं –
1. जन-कल्याण की भावना :
प्रजातन्त्र की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि इसमें शासक गण जन-कल्याण के प्रति विशेष रूप से सजग तथा क्रियाशील रहते हैं। प्रजातन्त्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही शासन करते हैं। अतः वे जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। ऐसी दशा में उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे जनता के हित में ही शासन करें।
2. व्यक्तित्व के विकास के अवसर :
प्रजातन्त्र शासन में नागरिकों के प्रतिनिधि ही शासन में भाग लेते हैं। अतः इस प्रकार की प्रणाली में प्रत्येक नागरिक को अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
3. देश-भक्ति की भावना का विकास :
प्रजातन्त्र में नागरिकों के हृदय में राज्य के प्रति निष्ठा तथा भक्ति की भावना उत्पन्न होती है। नागरिक यह अनुभव करते हैं कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि ही शासन का संचालन कर रहे हैं और वे जो कुछ भी करेंगे वह उनके हित में ही होगा। अतः प्रजातन्त्र में प्रत्येक नागरिक के हृदय में अपने देश के प्रति अगाध प्रेम होता है। मिल के अनुसार “प्रजातन्त्र लोगों में देश-भक्ति की भावना का विकास करता है, क्योंकि नागरिक यह अनुभव करते हैं कि सरकार उन्हीं की बनाई हुई है और अधिकारी उनके स्वामी न होकर, सेवक हैं।”
4. नैतिकता तथा उत्तरदायित्व की भावनाओं का विकास :
प्रजातन्त्रात्मक शासन-प्रणाली नागरिकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास करती है। इस सम्बन्ध में मिल का कहना है कि “सत्यता, नैतिकता, साहस, आत्मविश्वास तथा उद्योगशीलता आदि गुणों का किसी अन्य शासन-प्रणाली की अपेक्षा लोकतन्त्र में अधिक विकास होता है।
5. क्रान्ति से सुरक्षा :
प्रजातन्त्र में नागरिकों की इच्छा के अनुसार ही शासन होता है। नागरिक जानते हैं कि वे इच्छानुसार अपने मत द्वारा अत्याचारी शासकों को अपदस्थ कर सकते हैं। अतः सरकार बदलने के लिए क्रान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती।
6. सार्वजनिक शिक्षण :
प्रजातन्त्रात्मक शासन में समस्त व्यक्तियों को सार्वजनिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है। वे मतदान द्वारा तथा चुनाव में खड़े होकर राजनीति की शिक्षा प्राप्त करते हैं। उनमें उत्तरदायित्व तथा आत्मनिर्भरता की भावना का विकास होता है। बर्क के शब्दों में “सभी शासन शिक्षा के साधन होते हैं और सबसे अच्छी शिक्षा स्वशिक्षा है। इस प्रकार सबसे अच्छा शासन स्वशासन है, जिसे लोकतन्त्र कहते हैं।
7. स्वतन्त्रता व समानता की प्राप्ति :
प्रजातन्त्र का मूल आधार स्वतन्त्रता और समानता है। इस कारण प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से राजनीतिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं। जाति, धर्म, नस्ल, रंग, सम्पत्ति आदि के आधार पर उनमें भेद-भाव नहीं किया जाता। यही ऐसा शासन है जिसमें सभी को अपना विकास करने के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
प्रजातन्त्र के दोष :
प्रजातन्त्र के प्रमुख दोष निम्न प्रकार हैं –
- योग्यता और गुण की अपेक्षा बहुमत का महत्त्व :
प्रजातन्त्रात्मक शासन में योग्यता और गुण के स्थान पर संख्या और बहुमत को अधिक महत्त्व दिया जाता है। प्रत्येक बात का निर्णय बहुमत के आधार पर होता है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। - दल प्रणाली और गुटबन्दी के प्रभाव :
प्रजातन्त्र शासन में दल प्रणाली और गुटबन्दी के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव जीतने के प्रयास में जनता को भ्रामक प्रचार द्वारा गुमराह करने का प्रयास करते हैं। एक दल दूसरे दल की कटु आलोचना करता है। योग्य व्यक्ति दलबन्दी से दूर भागते हैं तथा अयोग्य व्यक्ति राजनीति में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। - अनुत्तरदायी शासन :
इसे (प्रजातन्त्र को) जनता का शासन कहा जाता है क्योंकि सैद्धान्तिक रूप से उसे जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता। प्रजातन्त्र में केवल चुने हुए प्रतिनिधि जो शासन के स्वामी हो जाते हैं, मन्त्रिमण्डल आदि के चुनाव के पश्चात् सर्वसाधारण की आवश्यकताओं, हितों तथा उनकी कठिनाइयों के प्रति तनिक भी चिन्ता नहीं करते। इस प्रकार प्रजातन्त्र अनुत्तरदायी शसान है। - समय की बर्बादी-प्रजातन्त्रात्मक शासन :
प्रणाली में अनावश्यक रूप से समय का अपव्यय होता है। चुनाव तथा नीति निर्धारण आदि में ही काफी समय बर्बाद हो जाता है। किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व वाद-विवाद में भी समय व्यर्थ ही नष्ट होता है तथा निर्णय लेने में देर लगती है। - धन का अत्यधिक अपव्यय :
इस प्रणाली में व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों तथा मन्त्रिमण्डलं आदि पर पर्याप्त धन व्यय किया जाता है। चुनाव के समय भी पैसा आवश्यक रूप से खर्च होता है। व्यर्थ में कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ जाती है। - पूँजीपतियों का शासन :
प्रजातन्त्र में शासन तथा सरकार पूँजीपतियों के हाथ की कठपुतली बन जाती है। धनवान व्यक्ति दलों को चन्दा देते हैं तथा पैसे की सहायता देकर अपने उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करके उन्हें विजयी बनाते हैं। पूँजीपतियों द्वारा खड़े किये गये उम्मीदवार चुने जाने के पश्चात् उनके ही हित-साधन में जुट जाते हैं तथा जनसाधारण की उपेक्षा करते हैं। इस प्रकार प्रजातन्त्र में पूँजीवाद का पोषण ‘ होता है और जनसाधारण की उपेक्षा होती है। - युद्ध और संकट के समय दुर्बल :
प्रजातन्त्रात्मक सरकार युद्ध और संकट के समय प्रायः दुर्बल सिद्ध होती है। युद्ध के समय शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता होती है, परन्तु इस प्रणाली की गति अत्यन्त मन्द होती है। इसीलिए शीघ्र निर्णय नहीं हो पाते। - पक्षपात और भ्रष्टाचार का बोलबाला :
इस शासन-प्रणाली में शासन भ्रष्ट और शिथिल हो जाता है। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जनसाधारण के हितों की उपेक्षा कर भाई-भतीजे तथा सगे-सम्बन्धियों के हितों का ही ध्यान रखते हैं। इससे भाई-भतीजेवाद और भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है।
प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र के आधारभूत सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। (2009, 14)
उत्तर:
प्रजातन्त्र के आधारभूत सिद्धान्त-प्रजातन्त्र के प्रमुख सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं –
(1) प्रजातन्त्र का अभिजनवादी सिद्धान्त :
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रतिपादित यह सिद्धान्त मानव की प्राकृतिक असमानता के सिद्धान्त पर जोर देते हुए यह मानता है कि प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में शासक और शासित दो वर्ग होते है। शासक वर्ग हमेशा अल्पसंख्यक होते हुए भी सत्ता के केन्द्र में विशिष्ट वर्ग होता है। शासन की शक्ति इसी विशिष्ट वर्ग के हाथ में केन्द्रित होती है। सामान्यत: व्यक्ति यह सोचते हैं कि वे राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं, लेकिन वास्तव में उनका प्रभाव चुनाव तक सीमित होता है। अभिजन का आधार है-श्रेष्ठता के आधार पर चयन। प्रकृति, विचार, आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि आदि किसी भी आधार पर इनकी श्रेष्ठता निर्भर हो सकती है, जो इन्हें आम लोगों से अलग बनाती है।
अभिजन भी स्वयं को आम लोगों से भिन्न एवं श्रेष्ठ समझते हैं, परन्तु जनसाधारण के साथ इनकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। इस प्रकार जन सम्प्रभुता का समन्वय हो जाता है। समाज की धन सम्पदा एवं नीति निर्धारण में अभिजन की प्रभावशाली भूमिका होती है, परन्तु प्रजातन्त्र में इस वर्ग में प्रवेश के सभी को समान अवसर प्राप्त होते हैं। दूसरी ओर नियमित एवं खुली निर्वाचन प्रक्रिया अभिजन को जनहित में कार्य करने हेतु बाध्य करती है।
(2) बहुलवादी सिद्धान्त :
यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि प्रजातन्त्र में व्यक्ति को अपने विभिन्न हितों की पूर्ति के लिये समूह में संगठित होने की स्वतन्त्रता है। ये समूह अपने-अपने क्षेत्र में स्वायत्त भी होते हैं और अपनी हितपूर्ति के लिये शासन पर दबाव भी डालते हैं। इस प्रकार सभी समूहों को अपनी हितपूर्ति की सीमा तक सत्ता में भागीदारी मिलती है। अतः सत्ता का विकेन्द्रीकरण इस सिद्धान्त की मूल धारणा है। अर्थात् राज्य ही सर्वोच्च सत्ता का अधिकारी नहीं अपितु प्रजातन्त्र में समाज के सभी समूहों की राजनीतिक शक्ति एवं शासन की सत्ता में भागीदारी होती है।
(3) प्रजातन्त्र का उदारवादी या शास्त्रीय सिद्धान्त :
इस सिद्धान्त में व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं समाज की सर्वोपरिता पर बल दिया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार शासन का आधार जनता की सहमति है, लेकिन सरकार यदि जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है, तो जनता निर्वाचन के माध्यम से सरकार को हटा सकती है। जनहित साधना उसका उद्देश्य है।
(4) मार्क्सवादी सिद्धान्त :
साम्यवाद की विचारधारा के आधुनिक प्रवर्त्तक कार्ल मार्क्स व लेनिन के विचारों पर आधारित प्रजातन्त्र का एक नवीन सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामने आया। इस सिद्धान्त के अनुसार उदारवादी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में वास्तविक प्रजातन्त्र सम्भव नहीं है, क्योंकि इसमें शासन पर एक छोटे साधन सम्पन्न वर्ग का नियन्त्रण हो जाता है, जबकि प्रजातन्त्र जन कल्याण व उनकी समानता पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार वास्तविक प्रजातन्त्र के लिये एक वर्ग विहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना होनी चाहिए। प्रजातन्त्र का यह सिद्धान्त राजनीतिक एवं नागरिक समानताओं की अपेक्षा आर्थिक समानता पर अधिक जोर देता है। इसकी मान्यता है कि यदि व्यक्ति के पास रोटी, कपड़ा, मकान नहीं है तो उसके पास मतदान या निर्वाचित होने का अधिकार कोई अर्थ नहीं रखता है। मार्क्सवाद वास्तविक प्रजातन्त्र की स्थापना हेतु निम्नलिखित सुझाव देता है –
- सम्पत्ति का समान वितरण तथा सभी की मूलभूत आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होना।
- उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व देना।
- सभी के आर्थिक हित समान होने से इनके प्रतिनिधित्व के लिए एक दल-साम्यवाद दल के हाथ में शासन संचालन की सम्पूर्ण शक्ति देना।
प्रश्न 4.
भारत में प्रजातन्त्र के महत्त्व तथा स्वरूप का वर्णन कीजिए। (2009)
उत्तर:
प्रजातन्त्र का महत्त्व :
अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र-जब जनता निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से विधि निर्माण तथा शासन के कार्यों पर नियन्त्रण रखने का कार्य करती है तो उसे अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कहते हैं। वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र ही प्रचलित है। इसमें जनता निश्चित अवधि के लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है, जो व्यवस्थापिका का गठन करते हैं और कानूनों का निर्माण करते हैं। अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति, निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम होती है।
भारत में प्रजातन्त्र का स्वरूप :
भारत के लिए प्रजातन्त्र व प्रजातान्त्रिक संस्थाओं के विचार नवीन नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि लगभग 3000 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के वैदिक काल में भारत की जनता के मध्य प्रतिनिधिक विचार-विमर्श की परम्परा थी। उत्तर वैदिककाल में शासन का गणतान्त्रिक रूप एवं स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ मौजूद थीं। ऋग्वेद व अथर्ववेद में सभा और समिति का वर्णन मिलता है। महाभारत के युद्ध के बाद बड़े साम्राज्य लुप्त होने लगे और कई गणतान्त्रिक राज्यों का उदय हुआ। महाजनपद काल में सोलह महाजनपद जन्मे जिनमें काशी, कोशल, मगध, कुरु, अंग, अवंति, गन्धार, वैशाली, मत्स्य इत्यादि शामिल थे।
इनमें से कुछ महाजनपदों में राजतन्त्र व अन्य में गणतन्त्र थे। महावीर और गौतम बुद्ध दोनों ही गणतन्त्र से आये थे। बौद्ध भिक्षुओं के कई नियम आधुनिक संसदीय शासन प्रणाली के नियमों से मिलते हैं। उदाहरण के लिए बैठक व्यवस्था, विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण, गणपूर्ति (कोरम) हिप, वोटों की गिनती, रोक प्रस्ताव, न्याय सम्बन्धी विचार आदि। बज्जि संघ में तो सभी लोग एक साथ एकत्रित होकर अपनी-अपनी सभाएँ करते थे। यह प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का स्वरूप था। यह संघ छ: गणराज्यों से मिलकर बना था। मौर्यकालीन भारत में ग्रामों और नगरों में स्वशासन की व्यापक व्यवस्था थी। भारत कृषि प्रधान था जिसकी मूल इकाई स्वशासित एवं स्वतन्त्र ग्राम थे। राजनीतिक संरचना इन ग्राम समुदायों की इकाईयों पर आधारित थी। चुनी हुई पंचायत गाँव का शासन चलाती थी। गाँव के मध्य में पंचायत हुआ करती थी, जहाँ बुजुर्ग परस्पर मिला करते थे। प्रत्येक वर्ष गाँव में पंचायत का चुनाव हुआ करता था। इन पंचायतों को न्याय करने का अधिकार प्राप्त था।
पंचायत ही भूमि का बँटवारा करती थी और कर एकत्रित करके गाँव की ओर से सरकार को भी देती थी। पंचायत के चुने हुए सदस्यों से कुछ समितियों का निर्माण किया जाता था और प्रत्येक समिति एक वर्ष के लिए बनाई जाती थी। यदि कोई सदस्य विपरीत व्यवहार करे तो उसे हटाया जा सकता था। यदि कोई सदस्य जन कोष का उचित लेखा-जोखा पेश न करे तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता था। केन्द्रीय स्तर पर राजा शासक था। यदि राजा दुर्व्यवहार करे तो उसे हटाने का प्रजा को भी अधिकार था। राजा को सलाह देने के लिए राज्य परिषद हुआ करती थी। राजा प्रजा की इच्छा के अनुसार कार्य करता था और राजा के सलाहकार (मन्त्री) स्थानीय स्तर के पंचों का सम्मान करते थे। अर्थात् प्राचीन समय में राजा के शासन का आशय प्रजा की सेवा करना था।
प्रश्न 5.
प्रजातन्त्र की अवधारणा क्या है? वर्तमान भारतीय प्रजातन्त्र के स्वरूप का वर्णन कीजिए। (2008)
अथवा
वर्तमान भारतीय प्रजातन्त्र के स्वरूप का वर्णन कीजिए। (2013)
उत्तर:
प्रजातन्त्र की अवधारणा-राजनीतिक विकास में जो विभिन्न प्रकार की शासन व्यवस्थाएँ रहीं उनमें प्रजातन्त्र संसार की प्रमुख शासन प्रणाली मानी जाती है। इसकी प्रमुख अवधारणा यह है कि राज्य की सम्पूर्ण शक्ति की स्वामी जनता है, कोई व्यक्ति, समूह या कोई वंश नहीं। अतः जनता की सहभागिता प्रजातन्त्र का मूल आधार है। जिन निर्णयों या कार्यों का प्रभाव सभी पर पड़ता है, उन निर्णयों में सभी की भूमिका होनी चाहिए।
प्रजातन्त्र के प्रारम्भिक काल में सीमित जनसंख्या एवं सीमित क्षेत्रफल वाले छोटे राज्य होने से सारी जनता शासन संचालन सम्बन्धी निर्णयों में सहभागी होती थी। अतः सीमित क्षेत्रफल एवं सीमित जनसंख्या वाले छोटे-छोटे राज्यों में इसका व्यवहार होने लगा। यूनान के नगर राज्यों में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की शुरूआत मानी जाती है। वर्तमान राज्यों में उनके विस्तार एवं जनसंख्या की दृष्टि से बड़े होने से जनता द्वारा प्रत्यक्ष शासन सम्भव नहीं था। अत: जनता अप्रत्यक्ष रूप से अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन की शक्ति का उपयोग करती है। अतः वर्तमान में प्रजातन्त्र अप्रत्यक्ष रूप से जन प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित प्रजातन्त्र कहलाता है।
वर्तमान भारतीय प्रजातन्त्र-स्वतन्त्रता प्राप्त होने के कुछ समय पूर्व ही भारत में एक संविधान सभा की स्थापना की गयी थी, जिसने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान निर्माण का कार्य पूर्ण किया और 26 जनवरी, 1950 से यह संविधान लागू किया गया। संविधान के द्वारा भारत में एक प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गयी है और प्रजातन्त्र के आधारभूत सिद्धान्त ‘वयस्क मताधिकार’ को स्वीकार किया गया है। संविधान के द्वारा एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की गयी और नागरिकों को शासन के हस्तक्षेप से स्वतन्त्र रूप में मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। व्यवहार में भी भारतीय नागरिक इन स्वतन्त्रताओं का पूर्ण उपभोग कर रहे हैं। इस प्रकार यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान आदर्श रूप में एक लोकतन्त्रात्मक संविधान है।
आज तक सम्पन्न हुए विभिन्न लोकसभा और विधान सभा चुनावों में भारतीय नागरिकों के द्वारा सक्रिय सहभागिता एवं परिपक्वता का परिचय दिया है। आपातकाल के अपवाद को छोड़कर समय से एवं निष्पक्ष चुनावों का होना, भारतीय प्रजातन्त्र की निरन्तरता का सूचक है। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पन्न होने वाले पंचायतों एवं नगरीय क्षेत्रों में नगरीय निकायों के चुनाव भी भारतीय प्रजातन्त्र की व्यापकता का प्रमाण है।
भारतीय जनता लोकतन्त्रीय व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्ध है और भविष्य में किसी भी शासक वर्ग के द्वारा लोकतन्त्र की अवहेलना का दुस्साहस नहीं किया जा सकेगा। लेकिन लोकतन्त्रीय शासन के ढाँचे को बनाये रखना ही पर्याप्त नहीं है; लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि लोकतन्त्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जाए और वह लक्ष्य है-सामाजिक एवं आर्थिक न्याय। हम इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाये हैं और दुःखद तथ्य यह है कि हम इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में भी आगे नहीं बढ़ रहे हैं। भारत और भारतीय मनोभूमि में लोकतन्त्र गहरा बैठ गया है और यही भविष्य में इसकी सफलता का सबसे बड़ा आधार है।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
बहु-विकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की शुरूआत मानी जाती है (2008)
(i) ब्रिटिश के नगर राज्यों से
(ii) यूनान के नगर राज्यों से
(iii) फ्रांस के नगर राज्यों से
(iv) जर्मनी के राज्यों से।
उत्तर:
(ii) यूनान के नगर राज्यों से
प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र को ‘बहुतों का शासन’ कहा है (2008)
(i) डायसी,
(ii) अब्राहम लिंकन
(iii) अरस्तू
(iv) लेनिन।
उत्तर:
(iii) अरस्तू
प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र का अभिजनवादी सिद्धान्त किस शताब्दी के प्रारम्भ में प्रतिपादित हुआ?
(i) 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में
(ii) 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में
(iii) 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में
(iv) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(iii) 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में
प्रश्न 4.
प्रजातन्त्र का शास्त्रीय सिद्धान्त
(i) बहुलवादी सिद्धान्त भी कहलाता है
(ii) प्रजातन्त्र का विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त भी कहलाता है
(iii) उदारवादी सिद्धान्त भी कहलाता है
(iv) अभिजनवादी सिद्धान्त भी कहलाता है।
उत्तर:
(iii) उदारवादी सिद्धान्त भी कहलाता है
प्रश्न 5.
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् 1990 तक साम्यवाद की विचारधारा का प्रयोग हुआ
(i) स्विट्जरलैण्ड में
(ii) ब्रिटेन में
(iii) सोवियत संघ में
(iv) फ्रांस में।
उत्तर:
(iii) सोवियत संघ में
प्रश्न 6.
भारत में आपातकाल लागू हुआ
(i) 1970-1972
(ii) 1972-1974
(iii) 1975-1977
(iv) 1978-1980
उत्तर:
(iii) 1975-1977
रिक्त स्थान पूर्ति
- ………. जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा संचालित शासन है। (2017)
- निश्चित भू-भाग, जनसंख्या, सरकार और सम्प्रभुता से निर्मित समूह ………… कहलाता है। (2011)
- वर्तमान में भारत विश्व का सबसे बड़ा ……….. देश है। (2012)
- स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारतीय संविधान ………. में लागू हुआ। (2009)
उत्तर:
- प्रजातन्त्र
- राज्य
- प्रजातांत्रिक
- 26 जनवरी, 1950।
सत्य/असत्य
प्रश्न 1.
शोषण की अवधारणा प्रजातन्त्र की है। (2017)
उत्तर:
असत्य
प्रश्न 2.
वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र ही प्रचलित है।
उत्तर:
सत्य
प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र में स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव होना चाहिए। (2015)
उत्तर:
सत्य
प्रश्न 4.
प्रजातन्त्र में उत्तरदायी शासन व्यवस्था नहीं होती। (2009)
उत्तर:
असत्य
प्रश्न 5.
डायसी ने प्रजातन्त्र को ‘बहुतों का शासन’ कहा है। (2014)
उत्तर:
असत्य।
सही जोड़ी मिलाइए
उत्तर:
- → (घ)
- → (ग)
- → (ख)
- → (ङ)
- → (क)
एक शब्द/वाक्य में उत्तर
प्रश्न 1.
राज्य की. सर्वोच्च सत्ता। (2016)
उत्तर:
सम्प्रभुता
प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त किस अधिकार पर बल देता है?
उत्तर:
आर्थिक समानता
प्रश्न 3.
‘प्रजातन्त्र, जनता का, जनता के लिये, जनता द्वारा संचालित शासन है’ यह कथन किसका है? (2009)
उत्तर:
अब्राहम लिंकन का
प्रश्न 4.
स्विट्जरलैण्ड के राजनैतिक प्रशासनिक प्रान्त/इकाई। (2016)
उत्तर:
कैण्टन
प्रश्न 5.
कौन-सी अवधारणा प्रजातन्त्र की है? (2013)
उत्तर:
स्वतन्त्रता।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रजातन्त्र आरम्भिक काल में किन निर्णयों में सहभागी होती थी ?
उत्तर:
प्रजातन्त्र के आरम्भिक काल में सीमित जनसंख्या एवं सीमित क्षेत्रफल वाले छोटे राज्य होने से सारी जनता शासन संचालन सम्बन्धी निर्णयों में सहभागी होती थी।
प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्रजातन्त्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें शासन की शक्ति जनता के पास होती है और शासन . संचालन जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से करती है।
प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र के बहुलवादी सिद्धान्त की मूल धारणा क्या है?
उत्तर:
सत्ता का विकेन्द्रीकरण इस सिद्धान्त की मूल धारणा है।
प्रश्न 4.
प्रजातन्त्र के मार्क्सवादी सिद्धान्त के अनुसार किस प्रकार के समाज की स्थापना होनी चाहिए?
उत्तर:
प्रजातन्त्र के मार्क्सवादी सिद्धान्त के अनुसार सच्चे प्रजातन्त्र के लिये एक वर्ग विहीन तथा राज्य विहीन समाज की स्थापना होनी चाहिए।
प्रश्न 5.
प्रजातन्त्र के प्रमुख प्रकार लिखिए।
उत्तर:
साधारणतः प्रजातन्त्र दो प्रकार का होता है-प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र और अप्रत्यक्ष या प्रतिनिधि मूलक प्रजातन्त्र।
प्रश्न 6.
प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए किस प्रकार का संविधान होना आवश्यक है?
उत्तर:
प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए लिखित संविधान का होना आवश्यक है।
प्रश्न 7.
भारतीय प्रजातन्त्र की आंशिक पूर्वपीठिका किसे कहा गया?
उत्तर:
ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अधिनियम एवं भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा बनाये गये कानून, वर्तमान भारतीय प्रजातन्त्र की आंशिक पूर्वपीठिका कही जा सकती है।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र :
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में राज्य की प्रभुता सम्पन्न जनता प्रत्यक्ष रूप से शासन के कार्यों में भाग लेती है, नीति निर्धारित करती है, कानून बनाती है और प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त कर उन पर नियन्त्रण रखती है।
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कम जनसंख्या वाले एवं छोटे आकार वाले राज्यों में ही सम्भव है। वर्तमान में बड़े आकार वाले राष्ट्रों में जहाँ नागरिकों की संख्या करोड़ों में होती है, प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र सम्भव नहीं है। वर्तमान में स्विट्जरलैण्ड के कुछ कैंटनों एवं भारत में पंचायत राज व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामसभाओं में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की व्यवस्था है।
प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र का महत्त्व स्पष्ट कीजिए। (2008, 09, 11)
उत्तर:
प्रजातन्त्र का महत्त्व :
प्रजातन्त्र स्वतन्त्रता, समानता, सहभागिता और भाई-चारे की भावना पर आधारित शासन व्यवस्था है। इसे हम एक सामाजिक व्यवस्था भी कह सकते हैं। इसके अन्तर्गत मानव का सम्पूर्ण जीवन इस लोकतन्त्रीय मान्यता पर आधारित होता है कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान महत्त्व एवं व्यक्तित्व की गरिमा प्राप्त है। व्यक्ति के महत्त्व की यह स्थिति यदि जीवन के केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही हो, तो प्रजातन्त्र अधूरा रहता है। प्रजातन्त्र की पूर्णता के लिए यह अनिवार्य है कि जीवन के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक तीनों ही क्षेत्रों में सभी व्यक्तियों को अपने विकास के समान अवसर प्राप्त हों।
मानव जीवन के राजनीतिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र से आशय ऐसी राजनीतिक व्यवस्था से है जिसमें निर्णय लेने की शक्ति किसी एक व्यक्ति में न होकर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों में निहित होती है। सामाजिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र से आशय इस प्रकार के समाज से है, जिसमें जाति, धर्म, रंग, लिंग, नस्ल, मूलवंश व सम्पत्ति के आधार पर भेद-भाव न हो।
आर्थिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र से आशय इस प्रकार की व्यवस्था से है जिसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका चुनने या व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। अर्थात् व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा रोजगार आदि की सुविधाएँ प्रजातन्त्र के आधार हैं। अतः प्रजातन्त्र न केवल शासन का एक विशेष प्रकार है बल्कि यह जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण है।
प्रश्न 3.
“स्वतन्त्रता प्रजातंत्र की आत्मा है।” कथन की पुष्टि कीजिए। (2015)
उत्तर:
प्रजातंत्र में नागरिकों के सर्वांगीण विकास के लिए अनेक प्रकार की स्वतन्त्रताएँ प्राप्त होती हैं। राजनैतिक स्वतन्त्रता के अतिरिक्त नागरिकों को अनेक प्रकार की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रताओं के अधिकार भी प्राप्त होते हैं। प्रजातंत्र में नागरिकों को मत देने, निर्वाचित होने, सार्वजनिक पद ग्रहण करने, भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सूचना प्राप्त करने का अधिकार सम्मेलन सभा करने, समूह बनाने, व्यापार व्यवसाय करने आदि की स्वतन्त्रताएँ प्राप्त होती हैं। नागरिक यदि शासन की नीतियों से असहमत हों, तो संयमित विरोध की स्वतन्त्रता भी उन्हें प्राप्त है। स्वतन्त्रता प्रजातंत्र की आत्मा है। बिना स्वतन्त्रता प्रजातंत्र सम्भव नहीं है।
MP Board Class 9th Social Science Chapter 12 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रजातन्त्र के प्रकारों का वर्णन कीजिए।(2011)
अथवा
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में अन्तर लिखिए। (2012)
उत्तर:
साधारणतः प्रजातन्त्र दो प्रकार का होता है –
(1) प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र :
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में राज्य की प्रभुता सम्पन्न जनता प्रत्यक्ष रूप से शासन के कार्यों में भाग लेती है, नीति निर्धारित करती है, कानून बनाती है और प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त कर उन पर नियन्त्रण रखती है।
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कम जनसंख्या वाले एवं छोटे आकार वाले राज्यों में ही सम्भव है। वर्तमान में बड़े आकार वाले राष्ट्रों में जहाँ नागरिकों की संख्या करोड़ों में होती है, प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र सम्भव नहीं है। वर्तमान में स्विट्जरलैण्ड के कुछ कैंटनों एवं भारत में पंचायत राज व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामसभाओं में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की व्यवस्था है।
(2) अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र :
जब जनता निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से विधि निर्माण तथा शासन के कार्यों पर नियन्त्रण रखने का कार्य करती है तो उसे अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कहते हैं। वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र ही प्रचलित है। इसमें जनता निश्चित अवधि के लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है, जो व्यवस्थापिका का गठन करते हैं और कानूनों का निर्माण करते हैं। अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति, निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम होती है।