MP Board Class 8th Sanskrit Solutions Surbhi Chapter 14 आचार्योपदेशाः
MP Board Class 8th Sanskrit Chapter 14 अभ्यासः
प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरं लिखत(एक शब्द में उत्तर लिखो-)
(क) पुष्पसजं कण्ठे कः समर्पयति? (पुष्पाहार गले में कौन समर्पित करता है?)
उत्तर:
शिवराजः। (शिवाजी)
(ख) वृत्तं केन रक्ष्यते? (चरित्र की रक्षा कैसे की जाती है?)
उत्तर:
धर्मभयेन। (धर्म के भय से)
(ग) अद्य मे किं निवृत्तम्? (आज मेरा क्या समाप्त हो गया है?)
उत्तर:
मोहावरणम्। (मोह का आवरण)
(घ) नृपः धर्मान् केन पालयेत्? (राजा धर्म का पालन कैसे कराये?)
उत्तर:
नियमेन। (नियम से)
(ङ) शिवराजम् भारतकवीर! इति शब्देन कः सम्बोधयति? (शिवाजी को ‘भारत का एक वीर!’ इस शब्द से कौन सम्बोधित करता है?)
उत्तर:
श्रीरामदासः। (श्रीरामदास)
प्रश्न 2.
एकवाक्येन उत्तरं लिखत(एक वाक्य में उत्तर लिखो-)
(क) शिवराजस्य गुरुः कः आसीत्? (शिवाजी के गुरु कौन थे?)
उत्तर:
शिवराजस्य गुरुः श्रीरामदासः आसीत्। (शिवाजी के गुरु श्रीरामदास थे।)
(ख) क्षत्रियस्य परो धर्मः किं अस्ति? (क्षत्रिय का परम धर्म क्या है?)
उत्तर:
क्षत्रियस्य परोधर्मः दुष्कृतां हिंसनं साधूनां च परित्राणम् अस्ति। (क्षत्रिय का परम धर्म दुष्कर्मियों को मारना और सज्जनों की सुरक्षा है।)
(ग) शिवराजस्य साहाय्यार्थं श्रीरामदास किम् करोति स्म? (शिवाजी की सहायता के लिए श्रीरामदास क्या कर रहे थे?)
उत्तर:
शिवराजस्य साहाय्यार्थं श्रीरामदासः प्रतिमठे राष्ट्रभावभावितान् शतशः युवगणान् निर्माति स्म। (शिवाजी की सहायता के लिए श्रीरामदास प्रत्येक मठ में सैकड़ों युवागणों का निर्माण कर रहे थे।)
कीदृशाः युवगणाः भाविरणे सहायाः भविष्यन्ति? (कैसे युवकों के समूह भविष्य में होने वाले युद्ध में सहायक होंगे?)
उत्तर:
राष्ट्रैकभक्ताः युवगणाः भाविरणे सहायाः भविष्यन्ति। (राष्ट्रभक्त युवकों के समूह भविष्य में होने वाले युद्ध में सहायक होंगे।)
(ङ) शिवराजस्य अभीष्टं का सम्पादयतु? (शिवराज की इच्छा को कौन पूरा करे?)
उत्तर:
शिवराजस्य अभीष्ट भगवती परदेवता सम्पादयतु। (शिवराज की इच्छा को भगवान् परमात्मा पूरा करें।)
प्रश्न 3.
रिक्तस्थानं पूरयत(रिक्त स्थान भरो-)
(क) वृत्तं यथा ……………. रक्ष्यते।
(ख) प्रजाहितज्ञो नियमेन ……………..।
(ग) मया ……….. राष्ट्रभावभाविताः।
(घ) अपितु त्वमसि मे …………।
(ङ) ……………. सम्पादयतु तवाभीष्टम्।
उत्तर:
(क) धर्मभयेन
(ख) पालयेत
(ग) निर्मीयन्ते
(घ) द्वितीयं हृदयम्
(ङ) भारतैकवीर।
प्रश्न 4.
सन्धि-विच्छेदं कुरुत
(सन्धि विच्छेद करो-)
(क) गमितोऽस्मि
(ख) त्वमसि
(ग) नृभिस्तथा
(घ) भगवतैवारब्धे
(ज) भारतैकवीरः
(च) सम्प्रत्यपि
(छ) प्रतिष्ठेऽहम्
(ज) तवाभीष्टम्
(झ) योगोपचिताः
(ण) राष्ट्रकभक्तेः।
उत्तर:
(क) गमितः + अस्मि
(ख) त्वम् + असि
(ग) नृभिः + तथा
(घ) भगवत् + एव+ आरब्धे
(ङ) भारत + एक + वीरः
(च) सम्प्रति + अपि
(छ) प्रतिष्ठे + अहम्
(ज) तव + अभीष्टम्
(झ) योग + उपचित
(ण) राष्ट्र + एक + भक्तेः।
प्रश्न 5.
सन्धिं कुरुत(सन्धि करो-)
उत्तर:
(क) शङ्कर + अंशेन + अवतीर्णस्य = शङ्करांशेनावतीर्णस्य।
(ख) वर्णाश्रमे + अस्मिन् = वर्णाश्रमेऽस्मिन्।
(ग) उत् + मूल्य = उन्मूल्य।
(घ) राष्ट्र + उद्धरण + उद्यमे = राष्ट्रोद्धरणोद्यमे
(ङ) उत् + ईक्ष्यते = उदीक्ष्यते।
प्रश्न 6.
श्लोकं पूरयत(श्लोक पूरा करो-)
उत्तर:
वृत्तं यथा धर्मभयेन रक्ष्यते नृभिस्तथा नैव नरेन्द्रशासनात्।
धर्मान् सदाचारपरानतो नृपः प्रजाहितज्ञो नियमेन पालयेत्॥
प्रश्न 7.
संस्कृतेन भावार्थं लिखत (संस्कृत में भावार्थ लिखो-)
व्यायामयोगोपचिताङ्गसत्त्वा विद्याकलादण्डनयप्रतिष्ठताः।
राष्ट्रकभक्ता उपधाविशोधिता भवन्तु ते भाविरणे सहायाः॥
उत्तर:
राष्ट्र प्रति एकभक्ताः, व्यायामेन योगेन च अङ्गनां शक्तिसम्पन्नाः, विद्यासु कलासु दण्डनीतेः कुशलाः, धर्मे अर्थे च संस्कारिताः, भविष्ये युद्धे शतशः युवगणाः तव सहायकाः भवन्तु।
प्रश्न 8.
निम्नाङ्कितशब्दान् आधृत्य वाक्यरचनां कुरुत(निम्न शब्दों के आधार पर वाक्य रचना करो-)
(क) दिष्ट्या
(ख) सदाचारः
(ग) परित्राणम्
(घ) धर्मशासनम्
(ङ) राष्ट्रियभावना।
उत्तर:
प्रश्न 9.
अर्थानुसारं युग्मनिमाणं कुरुत (अर्थ के अनुसार जोड़े बनाओ-)
उत्तर:
(क) → (iii)
(ख) → (v)
(ग) → (iv)
(घ) → (i)
(ङ) → (ii)
प्रश्न 10.
निम्नाङ्कितपदानां विलोमपदानि लिखत(नीचे लिखे शब्दों के विलोम शब्द लिखो-)
उत्तर:
पदानि – विलोमपदम्
(क) मया – त्वया
(ख) निवृत्तम् – संवृत्तम्
(ग) तव – मम
(घ) उत्थानम् – पतनम्
(ङ) अस्मिन् – तस्मिन्।
(संस्कृत में नाटकों की परम्परा अति प्राचीन है। यह परम्परा इस समय भी निर्बाध रूप से चल रही है। बीसवीं शताब्दी में गुजरात प्रदेश के श्री मूलशंकर मणिक लाल याज्ञिक ने भी अनेक पुस्तकें रचीं। उनमें संस्कृत भाषा में संयोगितास्वयम्वरम्, प्रतापविजयम् और छत्रपतिसाम्राज्यम् का वर्णन करते हैं।
‘छत्रपतिसाम्राज्यम्’ तो ऐतिहासिक नाटक है। इस नाटक में छत्रपति शिवाजी के शौर्यपूर्ण कार्यों का एवं तात्कालिक यवन सम्राट की दुर्नीति के विरुद्ध संघर्ष का और अन्त में स्वराज्य की स्थापना का चित्रण है।
यह प्रस्तुत नाट्य अंश ‘छत्रपतिसाम्राज्यम्’ इस नाटक से ही उद्धृत है। इसमें शिवाजी के गुरु श्रीरामदास के उपदेश हैं। राष्ट्रीय भक्ति की भावना से भरा यह अंश देखने योग्य है।)
आचार्योपदेशाः हिन्दी अनुवाद
(ततः प्रविशति रामदासेन सह शिवराजः)
शिवराज: :
(सप्रश्रयम्) दिष्ट्याद्य कृतार्थतां गमितोऽस्मि चिरप्रार्थितेन भगवत्-प्रसाद-अधिगमेन। (इति पुष्पस्रजंकण्ठे समर्प्य पादयोः पतति।)
श्रीरामदासः :
भारतैकवीर! उत्तिष्ठ। धर्मराज्यसंस्थापनार्थं शङ्कर-अंशेन-अवतीर्णस्य तव भवतु सर्वत्र अप्रतिहतो विजयः।
अनुवाद :
(उसके बाद रामदास के साथ शिवाजी प्रवेश करते हैं।)
शिवराज :
(विनम्रतापूर्वक) सौभाग्य से आज मैं बहुत समय से प्रार्थित (प्रार्थना करने पर) भगवान की कृपापूर्वक आने से सफलता को प्राप्त हुआ हूँ। (इस प्रकार पुष्पाहार गले में समर्पित करके पैरों में गिरते हैं।)
श्रीरामदास :
भारत के एक वीर! उठो। धर्म के राज्य की अच्छी प्रकार से स्थापना के लिए शंकर के अंश (भाग) के द्वारा अवतरित तुम्हारी सब जगह निर्विघ्न विजय हो।
शिवराजः :
(उत्थाय) प्रतिगृहीताशीः।
श्रीरामदास: :
व्यवस्थितवर्णाश्रमे अस्मिन् भारते वर्षे दुष्कृतां हिंसनं साधूनां च परित्राणम् एव क्षत्रियस्य परो धर्मः। तत् नयमार्गम् अवलम्ब्य उत्पथगामिनो नृपाधमान् च उन्मूल्य प्रवर्तय स्व धर्मशासनम् यतः वृत्तं यथा धर्मभयेन रक्ष्यते नृभिस्तथा नैव नरेन्द्रशासनात्। धर्मान् सदाचारपरानतो नृपः प्रजाहितज्ञो नियमेन पालयेत्॥
अनुवाद :
शिवराज :
(उठकर) आशीर्वाद प्राप्त हो गया।
श्रीरामदास :
व्यवस्थित वर्णाश्रम में इस भारतवर्ष में दुष्कर्मियों को मारना और सज्जनों की सुरक्षा ही क्षत्रिय का परम धर्म है। इसलिए नीति के मार्ग का सहारा लेकर कुमार्ग गामी और अधम राजाओं को जड़ से उखाड़कर अपना धर्मराज्य स्थापित करो। क्योंकि-
‘जैसी मनुष्यों द्वारा धर्म के भय से चरित्र की रक्षा की जाती है वैसी राजा की आज्ञा से नहीं। सदाचारी प्रजा के हित को जानने वाला राजा नियम से धर्म का पालन कराये।’
शिवराजः :
भगवन्। तव अनुग्रहेण अद्य निवृत्तम् मे मोहावरणम्। नवीकृतश्च साम्राज्य-संस्थापनोत्साहः।
श्रीरामदासः :
वत्स! तव साहाय्यार्थं प्रतिमठं मया निर्मीयन्ते राष्ट्रभावभाविताः शतशो युवगणाः। तदिमेव्यायामयोगोपचिताङ्गसत्त्वा विद्याकलादण्डनयप्रतिष्ठताः। राष्ट्रकभक्ता उपधाविशोधिता भवन्तु ते भाविरणे सहायाः॥
अनुवाद :
शिवराज :
भगवन्! आपकी कृपा से आज मेरा मोह का आवरण (पर्दा) समाप्त हो गया है और साम्राज्य की स्थापना का उत्साह नया सा कर दिया गया है।
श्रीरामदास :
वत्स! तुम्हारी सहायता के लिए मेरे द्वारा प्रत्येक मठ (आश्रम) में राष्ट्रीय भावना वाले सैकड़ों युवाओं के समूह तैयार किये जा रहे हैं। इसलिये ये-
‘राष्ट्र के एक भक्त व्यायाम और योग से प्राप्त अंगों की शक्ति वाले, विद्याओं, कलाओं, दण्डनीति में कुशल, धर्म, अर्थ में संस्कारित भविष्य में होने वाले युद्ध में तुम्हारी सहायता करने वाले होवें।’
शिवराजः :
अहो, परमार्थतो भगवतैवारब्धे राष्ट्र-उद्धरण-उद्यमे अहं तु निमित्तमात्रमेव।
श्रीरामदासः :
वत्स! न केवलं शिष्य इति, त्वमसि मम प्रेमास्पदम्। अपितु त्वमसि मे द्वितीयं हृदयं त्वदधीनैवास्ति मे साध्यसिद्धि। तन्मया सततं सावधानेन उदीक्ष्यते त्वद् विजयध्वजप्रसरः। सम्प्रत्यपि त्वां निर्विण्णम् उपश्रुत्य संप्राप्तोऽस्मि अहं तव प्रोत्साहनार्थम् एतद् दुर्गराजम्। अथ त्वां स्वकर्मणि अभिप्रवृत्तं वीक्ष्य प्रतिष्ठेऽहं धर्मप्रवचनाय दुर्गान्तरम्।।
शिवराजः :
भगवतानुग्राह्यः अयं जनो भूयो दर्शनेन।
श्रीरामदासः :
भारतैकवीर! सम्पादयतु तवाभीष्टं भगवती परदेवता। (इति निष्क्रान्तः)
अनुवाद :
शिवराज :
अहो, वस्तुतः भगवान द्वारा ही आरम्भ किये गये राष्ट्र के उद्धार के कार्य में मैं तो निमित्त (कारण) मात्र ही हूँ।
श्रीरामदास :
वत्स! तुम न केवल मेरे शिष्य बल्कि प्रिय हो। अपितु तुम मेरे द्वितीय हृदय हो, तुम्हारे हाथ में ही मेरे लक्ष्य की प्राप्ति है। इसलिए मैं निरन्तर सावधानी से तुम्हारी विजय पताका का लहाराना सादर देखता हूँ। इस समय भी तुमको दुःखी सुनकर मैं तुम्हारे प्रोत्साहन के लिए इस विशाल किले में आया हूँ। अब तुमको अपने कार्य में लगा हुआ देखकर मैं धर्म के उपदेश देने के लिए दूसरे किले की ओर प्रस्थान करता हूँ।
शिवराज :
यह जन (शिवाजी) फिर (आपके द्वारा) दर्शन से कृपा करने योग्य है।
श्रीरामदास :
भारत के एक वीर! तुम्हारे इच्छित को भगवान् परमात्मा पूरा करें। (निकल जाते हैं)
आचार्योपदेशाः शब्दार्थाः
सप्रश्रयम् = विनम्रतापूर्वक। प्रतिगृहीताशीः = आशीर्वाद प्राप्त। दिष्ट्या = सौभाग्य से। दुष्कृताम् = निन्दित कर्म करने वालों का या दुष्कर्मियों का। कृतार्थताम् = सफलता को। अस्मिन् = इसमें। प्रसादाधिगमेन = कृपापूर्वक आने से। हिंसनम् = मारना। पुष्पस्रजम् = पुष्पहार। परित्राणम् = सुरक्षा।। समर्प्य = समर्पित करके। परोधर्मः = श्रेष्ठ धर्म। पादयोः = पैरों पर। नयमार्गम् = नीतिपथ। उत्तिष्ठ = उठो। अवलम्ब्य = सहारा लेकर। संस्थापनार्थम् = अच्छे प्रकार से स्थापना के लिए। उत्पथगामिनः = कुमार्ग गामी। नृपाधमान् = अधम । राजाओं को। अंशेन = अंश (या भाग) के द्वारा। धर्मशासनम् = धर्मराज्य। वृत्तम् = चरित्र को। अवतीर्णस्य = अवतरित का। नृभिः = मनुष्यों के द्वारा। अप्रतिहतः = निर्बाध, निर्विघ्न। सदाचारपरान् = सदाचार परायण या सदाचारी। उत्थाय = उठकर। प्रजाहितज्ञः = प्रजाहित का ज्ञाता या प्रजा के हित को जाने वाला। परमार्थतः = वस्तुतः। आरब्धे = आरम्भ किये गये। प्रेमास्पदम् = प्रिय। अनुग्रहेण = कृपा से।
साध्यसिद्धिः = लक्ष्य की प्राप्ति। निवृत्तम् = समाप्त। सततम् = निरन्तर। मोहावरणम् = मोह का आवरण। उदीक्ष्यते = सादर दिखाई देता है। नवीकृतः = नया कर दिया। विजयध्वजप्रसरः = विजय पताका का लहराना। प्रतिमठम् = प्रत्येक मठ (या आश्रम) में। सम्प्रत्यपि = इस समय भी। निर्मीयन्ते = तैयार किये जाते हैं। निर्विष्णम् = विरल हृदय को। राष्ट्रभावभाविताः = राष्ट्रिय भावना वाले। प्रोत्साहनार्थम् = उत्साह बढ़ाने के लिए। शतशः = सैकड़ों। दुर्गराजम् = विशाल दुर्ग या बड़ा किला। युवगणाः = युवक समूह। व्यायामयोगोपचित = व्यायाम और योग से प्राप्त। स्वकर्मणि = अपने कार्य में। अभिप्रवृत्तम् = लगा हुआ। अङ्गसत्वाः = अंगों की शक्ति वाले। वीक्ष्य = देखकर। विद्याकलादण्डनयप्रतिष्ठिताः = विद्याओं, कलाओं, दण्डनीति में कुशल। प्रतिष्ठेडहम् = मैं प्रस्थान करता हूँ। धर्मप्रवचनाय = धर्म के उपदेश देने के लिए। उपधाविशोधिता = धर्म, अर्थ में परीक्षित या संस्कारित। दुर्गान्तरम् = दूसरे दुर्ग (किला) को। अनुग्राह्यः = कृपा करने योग्य। भाविरणे= भविष्य में होने वाले समर में। भूयः = फिर। सम्पादयतु = पूरा करें। सहायाः = सहायता करने वाले। अभीष्टम् = इच्छित। भवन्तु = होवें। परमार्थतः = वस्तुतः।