MP Board Class 12th Special Hindi Sahayak Vachan Solutions Chapter 9 तन हुए शहर के/तुम थक न बैठो

MP Board Class 12th Special Hindi सहायक वाचन Solutions Chapter 9 तन हुए शहर के/तुम थक न बैठो (नवगीत, सोम ठाकुर/जय कुमार जलज)

तन हुए शहर के/तुम थक न बैठो अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
“तन हुए शहर के, पर मन जंगल के हुए” इस पंक्ति में निहित कवि के आशय को समझाइए।
उत्तर:
तथाकथित आधुनिकता और पश्चिम का अंधानुकरण करने वाले इस वर्तमान समाज को चेताते हुए कवि सोम ठाकुर कहते हैं कि यह ठीक है कि आज के इंसान ने तमाम भौतिक सुख-सुविधाएँ एकत्रित कर ली हैं, किन्तु उस दौड़ में जो वह खो चुका है शायद उससे अनभिज्ञ है। अपनी बाह्य रूप-सज्जा को सँवारने-निखारने की जुगत में हम अपने अन्तस में कभी झाँक ही न सके। परिणाम यह हुआ कि हमारा बाहरी आवरण तो जगमगा गया, किन्तु अन्दर उपजे जंगल रूपी अन्धकार में हम घिरते चले गये।

प्रश्न 2.
कवि ने ‘आयातित अंधकार’ किसे कहा है? (2009)
उत्तर:
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ऊर्जा और प्रकाश का सनातन स्रोत,सूर्य,पूर्व में निकलता है और शाम होते-होते पश्चिम दिशा में जाकर अस्त हो जाता है। एक समय था जब हम भारतवासी (पूर्व वाले) विश्वगुरु कहलाते थे और अपने ज्ञान, कौशल और विद्या के दम पर समूचे विश्व में हमारा डंका बजता था, किन्तु बदलते परिवेश और पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण ने हमसे हमारा मानो विवेक छीन लिया हो। बिना भले-बुरे, लाभ-हानि का भेद किये हम पश्चिम रूपी आयातित विलासिता के गहन अंधकार में घिरते जा रहे हैं। स्पष्ट है कि ‘आयातित अंधकार’ से कवि का आशय तथाकथित आधुनिकता एवं विलासिता की वस्तुओं को प्राप्त करने के निहितार्थ,पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण करने से है।

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प्रश्न 3.
आज के विषाक्त शहर की विसंगतियाँ लिखिए।
उत्तर:
आज के इस भौतिकवादी और विलासिता भोगी युग में मनुष्य ने सफलता के नित नए सोपान चढ़े हैं। वह अपने पूर्वजों की तुलना में कहीं बेहतर सुख-सुविधाओं और आराम के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। किन्तु इन सबको प्राप्त करने की जुगत में वह आदमीयत के मोर्चे पर लगातार पिछड़ता चला गया। उसने लोहे सीमेण्ट और कंक्रीट की गगनचुम्बी इमारतें तो खड़ी कर लीं किन्तु इस आपाधापी में हृदय की संवेदनाओं और मर्म को खोता गया। यह आज के विषाक्त शहर की विसंगति ही तो है कि आज शहरों-कॉलोनियों में लोगों को उनके नाम अथवा काम के आधार पर नहीं बल्कि उनके कोठियों, फ्लेटों के नम्बरों के आधार पर जाना अथवा पहचाना जाता है। तथाकथित विकास की इस अंधी दौड़ में आज प्रत्येक शहरवासी मुँह उठाए पश्चिमी सभ्यता का जिस प्रकार अन्धानुकरण कर रहा है, सच्चाई यह है कि वह अपनी जड़ों,अपनी परम्पराओं और अपने गौरवशाली अतीत से दूर होता जा रहा है।।

प्रश्न 4.
कवि ने अपनी श्रेष्ठ लोक-परम्पराओं को किन-किन रूपों में स्मरण किया है?
उत्तर:
प्रस्तुत कविता में कवि ने अपने गौरवशाली अतीत की उन श्रेष्ठ लोक-परम्पराओं का स्मरण करते हुए उल्लेख किया है, जिन्हें आज का मनुष्य पश्चिमी हवा के झोंकों में उड़कर भूलता जा रहा है। कवि के अनुसार ‘हाय हैल्लो’ के इस दौर में हमारे सुनहरे अतीत के वे अभिवादन और आदर के सम्बोधन भी लुप्त प्रायः हो चले हैं। साथ ही हमारी लोक-परम्पराओं में प्रचलित नाना प्रकार के शुभ-संकेत और दीवारों पर उकेरे जाने वाली आकृतियाँ भी अब अतीत का ही एक हिस्सा-सा बन गयी लगती हैं। किसी शुभ कार्य के लिए निकलते समय अथवा किसी दुष्कर कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने पर घर को बड़ी बुआ द्वारा घर के प्रवेश द्वार पर किये जाने वाले आरते अब बस कहानी बनकर रह गये हैं।

इस प्रकार घर के द्वार पर चूने और गेरू से उकेरे जाने वाले सातिये एवं अन्य मंगलकारी संकेत एवं आकृतियाँ भी तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में मीलों पीछे छूट गये लगते हैं। किसी शुभ कार्य अथवा गृह-प्रवेश के समय बहिनों द्वारा द्वार के दोनों ओर हल्दी और गेरू से लगाये जाने वाले हाथों के थापे भी अब नदारद हो गये हैं। घर के मुख्य द्वार पर सजने वाली अशोक के चिकने पत्तों से बनी बन्दनवार का स्थान अब प्लास्टिक और फाइबर की महँगी लताओं ने ले लिया। कवि के अनुसार आज का मनुष्य समय अभाव का रोना रोकर अपने परम्परागत तीज-त्यौहारों तक से दूर होता चला जा रहा है।

प्रश्न 5.
वर्तमान और पुरातन जीवन-शैली में कौन-कौन-सी भिन्नताएँ हैं?
उत्तर:
हम भारतीयों की वर्तमान जीवन-शैली में कई विसंगतियाँ घर कर गई हैं। पुरातन जीवन-शैली से यदि हम तुलना करें तो पाते हैं कि प्राचीनकाल में व्यक्ति तनावरहित जीवन जीता था। यद्यपि उसके पास आज के जैसे सुख-सुविधाओं के भौतिक साधन उपलब्ध न थे और न ही तब इतनी प्रचुर मात्रा में धन ही था किन्तु फिर भी वह निरोगी और दीर्घायु था। इसके विपरीत वर्तमान में सुख-सुविधाओं के वैज्ञानिक उपादानों की भरपूर फौज उपलब्ध होने और विकास के नित-नये कीर्तिमान गढ़ने के बावजूद आज का मानव निराश, हताश और तनावग्रस्त है। वह अक्सर समय की कमी का रोना रोता है। उसकी उम्र भी कम हुई है। वह हर तरफ से स्वयं को उपेक्षित एवं आतंकित-सा महसूस करता है। अपने भविष्य को लेकर भी वह तमाम प्रयासों के बावजूद आशान्वित नहीं है। एक अजीब-सी असुरक्षा की भावना से ग्रस्त वह दूसरे को भी सशंकित दृष्टि से देखने को मजबूर है।

पहले जहाँ व्यक्ति प्रकृति के नजदीक रहकर व उसके साथ सामंजस्य बैठाकर अपना जीवन सादगी के साथ व्यतीत करता था वहीं आज के दौर के आदमी ने अपने तथाकथित विकास के लिए प्रकृति को ही अपना निशाना बनाना प्रारम्भ कर दिया और प्रकृति के बनाये नियम-कानूनों से ही छेड़छाड़ करने लगा। परिणाम यह हुआ है कि उसे तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाओं से लगातार दो-चार होना पड़ रहा है।

प्रश्न 6.
“ठण्डे सैलाब में बहीं बसन्त पीढ़ियाँ”-पंक्ति का भाव-विस्तार कीजिए। (2012)
उत्तर:
“ठण्डे सैलाब में बहीं बसन्त पीढ़ियाँ” इस पंक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि आज की हमारी युवा पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध से सम्मोहित हो बौरा-सी गई है। इस क्रम में वह अपने सुनहरे अतीत और गौरवशाली परम्पराओं तक को बिसरा चुकी है। वह पूरब की सुगन्धित बसन्ती हवाओं को त्याग कर पश्चिम की प्रदूषित पवन को अंगीकार करने हेतु लालायित दिखाई पड़ती है। कवि इस सबको भारतीय संस्कृति का बड़ा ह्रास मानता है और इस स्थिति से बहुत चिन्तित दिखाई देता है।

प्रश्न 7.
कवि सोम ठाकुर तथाकथित वर्तमान शहरी विकास से निराश क्यों हैं?
उत्तर:
कवि वर्तमान शहरी विकास का विरोधी नहीं है किन्तु यह तथाकथित विकास यदि अपनी गौरवशाली परम्पराओं की कीमत पर हो, यह बात कवि को सालती है और इस स्थिति पर वह गहरी निराशा प्रकट करता है। आज का समाज जिस प्रकार भौतिकवादी और उसकी संस्कृति जिस प्रकार उपभोक्तावादी होती जा रही है,कवि इस पर अपना अफसोस प्रकट करते हुए इसे पश्चिमी सभ्यता के अतिक्रमण की संज्ञा देता है। विकास की इस अन्धी दौड़ में जिस प्रकार आदमी अपनी आदमीयत भूलता जा रहा है वह चिन्तनीय विषय है। कवि इस बात से भी हताश है कि पहले व्यक्ति आदमी को प्यार करता था और वस्तुओं का उपयोग करता था किन्तु अब बदलते परिवेश में आदमी वस्तुओं से प्यार करने लगा है और आदमी का उपयोग करने लगा है।

कवि का स्पष्ट मत है कि इस तथाकथित वर्तमान शहरी विकास की दौड़ में मानवता,दया, करुणा, परोपकार, प्रेम इत्यादि जैसे उच्च मानवीय मूल्य विलुप्त हो गये हैं और आदमी की पहचान उसका काम न होकर धन, वैभव एवं चल-अचल सम्पत्ति बन गया है।

प्रश्न 8.
“तुम आँधी के पाँवों से चलकर तो देखो”-पंक्ति में निहित कवि का तात्पर्य समझाइए।
उत्तर:
“तुम आँधी के पाँवों से चलकर तो देखो” पंक्ति के माध्यम से कवि कर्तव्य पथ पर डटे उन लोगों को प्रेरित करने का प्रयास करता है जो किन्हीं कारणों से पथ से विचलित होना चाहते हैं। कवि ऐसे लोगों को सम्बोधित करते हुए कहता है कि तुम्हें ऐसी स्थिति में रुकने अथवा हटने का कोई अधिकार ही नहीं है जबकि मंजिल तुम्हारी प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाए खड़ी है। तुम्हें तो दुगुने उत्साह के साथ अपने गन्तव्य की ओर कूच करना चाहिए। कवि उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण कराते हुए उन्हें और तीव्रता से बढ़ने की सलाह देता है। कवि के अनुसार संघर्ष के इन कुछ पलों के पार विजयश्री की भीनी-भीनी सुगन्ध तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।

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प्रश्न 9.
कवि आसमान की तरह हृदय को फैलाने की बात क्यों कहता है?
उत्तर:
कवि प्रगति मार्ग पर डटे लोगों से आसमान की तरह हृदय को फैलाने की बात इसलिए कहता है ताकि वे मेरा-तेरा की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर ‘हमारा’ के भाव को लेकर आगे बढ़ सकें। कवि चाहता है कि सभी को सम्मिलित प्रयास करके पूर्व निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए। कवि व्यक्तिगत की बात त्यागकर व्यापकता अथवा विशालता के भाव को ग्रहण करने की बात कहता है। कवि लक्ष्य-प्रगति के मार्ग में आने वाली छोटी-मोटी बाधाओं और विघ्नों से बेपरवाह रहते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहने का आह्वान भी करता है।

प्रश्न 10.
कवि ने थककर बैठने की बात का निषेध क्यों किया है? (2017)
उत्तर:
कवि मंजिल के समीप पहुँचकर भी थकान के कारण थम गये पगों को आगे बढ़ने के लिए कहता है क्योंकि वह जानता है कि अब लक्ष्य की प्राप्ति दूर नहीं है। कवि के अनुसार यूं थकान के कारण अथवा छोटी-मोटी विघ्न-बाधाओं से घबराकर बैठ जाना अनुसरण करने वाले हजारों-लाखों दूसरे पथिकों के हौंसले और साहस को तोड़ देगा। वे राही जो अपने आगे चलने वाले पथिकों के पद-चिह्नों की सहायता से अपनी मंजिल को पाना चाहते हैं, बिना प्रयास करे ही हार मान लेंगे। इसीलिए कवि ने थककर बैठने की बात का निषेध किया है।

प्रश्न 11.
कवि के अनुसार बिना सोचे आगे बढ़ जाने से क्या परिवर्तन होगा?
उत्तर:
कवि के अनुसार कर्तव्य पथ पर ठहरे पथिकों को अपनी थकान भूलकर दुगुने उत्साह के साथ बिना सोचे-समझे आगे बढ़ना चाहिए। उनके ऐसा करने से जहाँ एक ओर मार्ग में आने वाली छोटी-बड़ी बाधाएँ स्वतः रास्ते से हट जायेंगी, वहीं दूसरी ओर इन पथिकों का अनुसरण करने वाले दूसरे राही भी उत्साह एवं आशा के साथ अपनी मंजिलें पाने के लिए अपनी यात्रा प्रारम्भ कर सकेंगे। साथ ही, आगे बढ़ते जाने से अपने लक्ष्य को शीघ्र पा लेने की ललक और उमंग उनके शरीरों में ऊर्जा का नवसंचार करेगी। कवि के अनुसार विपरीत एवं प्रतिकूल स्थिति में यदि धैर्य और साहस के साथ अपने कार्य को और अधिक परिश्रम से किया जाये तो उस कार्य में सफलता का मिलना निश्चित हो जाता है।

प्रश्न 12.
“तुम थक न बैठो” नवगीत का सारांश चार वाक्यों में लिखिए।
उत्तर:
इस नवगीत के सारांश के लिए विद्यार्थी पाठ के प्रारम्भ में दिये गये ‘तुम थक न बैठो’ कविता के सारांश का अवलोकन करें।

तन हुए शहर के/तुम थक न बैठो अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘तन हुए शहर के’ नामक कविता में कवि ने मूलत: क्या बात कही है?
उत्तर:
तन हुए शहर के’ नामक नवगीत में कवि ‘सोम ठाकुर’ ने वर्तमान समाज की विसंगतियों पर तीव्र प्रहार किये हैं।

प्रश्न 2.
‘तुम थक न बैठो’ के माध्यम से कवि ने किसको प्रेरित किया है?
उत्तर:
‘तुम थक न बैठो’ नामक नवगीत के माध्यम से कवि ने कर्तव्य पथ पर निराशा महसूस कर रहे उन पथिकों को प्रेरित किया है जो मन्जिल के बिल्कुल समीप हैं।

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तन हुए शहर के/तुम थक न बैठो पाठ का सारांश

तन हुए शहर के सारांश

सुविख्यात कवि व देश के शीर्षस्थ गीतकार ‘सोम ठाकुर’ द्वारा लिखित प्रस्तुत नवगीत, ‘तन हुए शहर के’ में कवि ने वर्तमान समाज की विसंगतियों पर तीव्र प्रहार किये हैं।

सोम ठाकुर तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में भाग रहे समाज को शीशा दिखाते हुए कहते हैं कि आज का व्यक्ति चाहे कितनी ही भौतिक सुख-सुविधाएँ एकत्रित कर लें, किन्तु उसके मन को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती है। पश्चिम के फैशन का अनुसरण करते समय हम यह भूल गये कि हम पूर्व वालों का अतीत बेहद गौरवशाली रहा है। आज का व्यक्ति जिस प्रकार अपनी पुरानी परम्पराओं व रीति-रिवाजों से विमुख हो रहा है, उसे देखकर कवि का हृदय दुःख से भर जाता है।

तुम थक न बैठो सारांश

सुप्रसिद्ध गीतकार एवं ‘जय कुमार जलज’ की प्रबल लेखनी द्वारा लिखित प्रस्तुत नवगीत, ‘तुम थक न बैठो’ में कवि ने कर्त्तव्य पथ पर निराशा महसूस कर रहे उन पथिकों को प्रेरित किया है जो मन्जिल के बिल्कुल समीप हैं।

कवि उन पथिकों को,जो अपने गन्तव्य के ठीक समीप खड़े हैं,सम्बोधित करते हुए प्रेरित करता है कि उन्हें मन्जिल के इतने समीप आकर यूँ हार नहीं मान लेनी चाहिए। उन्हें दुगुने उत्साह व वेग से अपने लक्ष्य की ओर कदम उठाने चाहिए। कवि पुनः उनको कर्त्तव्य-बोध कराते हुए कहता है कि उनके इस प्रकार हार मान लेने से उनका अनुसरण कर रहे लोग भी निराशा के गर्त में डूब जायेंगे।

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