MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 10 विविधा-2

MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 10 विविधा-2

विविधा-2 अभ्यास

विविधा-2 अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि ने द्वीप को किसका पुत्र कहा है?
उत्तर:
द्वीप का निर्माण नदी के सतत् बहाव के कारण होता है। द्वीप को स्वरूप नदी ही प्रदान करती है। अतः कवि ने द्वीप को नदी का पुत्र कहा है।

प्रश्न 2.
नदी सदा गतिशील रहकर क्या दान देती है?
उत्तर:
नदी सदैव गतिशील रहती है। वह द्वीप को उसका स्वरूप तथा मनुष्य को जीवन दान देती है।

प्रश्न 3.
साँझ-सकारे भारतमाता की आरती कौन करता है?
उत्तर:
साँझ-सकारे भारतमाता की आरती सूरज और चन्द्रमा करते हैं।

प्रश्न 4.
कवि ने भारतमाता की जय-जयकार का आह्वान किससे किया है? (2017)
उत्तर:
भारतीय सपूतों, श्रमकर्ताओं, रचनाकारों, देशज मित्रों, ग्रह-नक्षत्रों (आम जनता) सभी से जय-जयकार करने का आह्वान किया है।

प्रश्न 5.
झुलसती धरा के लिए किस दान की आवश्यकता है?
उत्तर:
झुलसती धरा के लिए कवि ने सावन दान की आवश्यकता को बताया है।

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विविधा-2 लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नदी द्वीप को आकार किस प्रकार देती है? (2014, 16)
उत्तर:
नदी भू-खण्ड के कोनों (कोणों),मार्ग, भूमि का उठान, बालू के किनारे तथा उसको गोलाकार रूप देकर द्वीप को आकार प्रदान करती है। द्वीप नदी के अन्दर उठे हुए भू-भाग का ही एक रूप होता है।

प्रश्न 2.
‘भारतमाता की जय बोल दो’ कविता में किन-किन प्राकृतिक उपादानों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र, ऋतुएँ, पर्वत, नदी, तारे, नारियल के वन, अन्तरीप, पराग, धरती, बादल, आकाश, धूमकेतु तारा आदि प्राकृतिक उपादानों का उल्लेख किया है। सूर्य प्रात:काल तथा चन्द्रमा शाम को भारतमाता की आरती उतारते हैं। नारियल वन से सुगन्ध फूटने लगती है ! ऋतुएँ नवीन परिधान प्रदान करती हैं। भारतमाता इन प्राकृतिक उपादानों के द्वारा और भी सुन्दर लगती है।

प्रश्न 3.
कवि ने प्रकृति से भारत को सजाने-सँवारने का अनुरोध क्यों किया है?
उत्तर:
सुबह तथा सायंकाल सूरज तथा चन्दा भारतमाता का स्वागत करते हैं। सूर्य से उष्णता तथा चन्द्रमा से शीतलता प्रदान होती है। ऋतुओं से कवि ने आह्वान किया है कि भारत माता को नित्य नूतन परिधानों से सुसज्जित करें। भारत की गंगा नदी, हमारे लिए जीवनदायिनी है। कश्मीर की डल झील भारतीय सुषमा का केन्द्र है।

प्रश्न 4.
कवि मिश्र ने देशवासियों के मिल-जुलकर रहने पर अत्यधिक बल क्यों दिया (2013)
उत्तर:
अनेकता में एकता भारत की प्रमुख विशेषता है। यहाँ पर भिन्न-भिन्न प्रकार के रूप-रंग तथा भाषा-भाषी लोग रहते हैं। आपसी झगड़े सदैव ही हानिकारक होते हैं। इन झगड़ों से समाज में विद्रोह तथा बँटवारा होता है। एकता में शक्ति है। अतः मिल-जुलकर रहने के लिए कवि ने अत्यधिक बल दिया है।

प्रश्न 5.
बलिदानी रंग से कवि का क्या तात्पर्य है? (2009, 12)
उत्तर:
भारत सदैव से ही शान्तिप्रिय देश रहा है। प्रत्येक देश की सम्प्रभुता का ध्यान रखा है। हम अपनी सभ्यता और संस्कृति के रक्षक हैं। भारत की स्वतंत्रता, एकता और अखण्डता पर आँच आयेगी तो भारतीय अपना खून बहाकर देश की रक्षा करेंगे। बलिदानी रंग से अभिप्राय खून से है। ऐसा रक्त है जो देश की रक्षा के लिये बहाया जाये।

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विविधा-2 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
द्वीप की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
द्वीप किसी नदी या विशाल जलराशि में स्थित भूखण्ड होता है। भौगोलिक दृष्टि से यह कठोर चट्टानों से निर्मित होता है और जलराशि से टकराकर सुगढ़ आकृति धारण कर लेता है। यह अपना अलग ही महत्व रखता है। यह प्राणियों के निवास के साथ-साथ उनके आवागमन का माध्यम है तथा नावों और पानी के जहाजों को ठहरने के लिए स्थान उपलब्ध कराता है। यह विशाल भूखण्ड न होकर छोटा भूखण्ड होता है, लेकिन हमारी तरह ही वहाँ भी जीवन सुलभ है। रात में जगमगाती बिजली की रोशनी इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देती है। इसकी शोभा अत्यन्त ही सुहावनी और आकर्षक होती है। यहाँ पर सभी वस्तुएँ सुलभता से उपलब्ध हो जाती हैं।

प्रश्न 2.
नदी हमें किस प्रकार संस्कार देती है? स्पष्ट कीजिए। (2009, 11)
उत्तर:
“नदी के द्वीप” कविता में नदी समाज का प्रतीक है तथा द्वीप व्यक्ति का प्रतीक है। नदी हमारे किनारों को काट-छाँटकर सही आकार प्रदान करके सुधारती है। बालक में यदि कुसंगति के कारण कोई कमी (विकृति) आती है तो समाज (नदी) उन कमियों को धीरे-धीरे दूर करने का प्रयास करता है। हम नदी (समाज) के पुत्र हैं। समाज के द्वारा हम सभी का पालन-पोषण होता है। समाज हमें सद्गुणों से युक्त बनाता है, हमारी बुराइयों को दूर करता है। अतः हम संस्कारवान बनकर अपने देश के लिए सुयोग्य नागरिक बनते हैं। देश के विकास में अपना योगदान देते हैं।

प्रश्न 3.
‘नदी के द्वीप’ कविता का मूल भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
अज्ञेय जी की प्रारम्भिक कविताएँ प्रकृति प्रेम से सम्बन्धित हैं। इनका अधिकांश काव्य प्रेम,प्रकृति तथा समाज आदि से युक्त है। उत्तरवर्ती कविताओं में व्यक्तिवादिता के दर्शन होते हैं। व्यक्ति तथा समाज का अपना अलग-अलग महत्त्व है। व्यक्ति तथा समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। कवि का इस कविता के आधार पर मानना है कि समाज एक नदी के जैसा है। व्यक्ति एक द्वीप जैसा है। द्वीप को आकार नदी के द्वारा प्राप्त होता है। उसी प्रकार समाज के द्वारा व्यक्ति का निर्माण होता है व्यक्ति अपनी पहचान समाज में पूरी तरह से नहीं कर सकता। व्यक्ति की अपनी अलग पहचान होती है। उस पहचान को बनाये रखना भी आवश्यक है। समाज तथा व्यक्ति दोनों में तालमेल होना अनिवार्य है। इस तालमेल के द्वारा ही समाज के विकास को सुरक्षित रख सकते हैं।

प्रश्न 4.
कवि मिश्र ने प्रकृति के उपादानों से भारतमाता के लिए क्या-क्या करने को कहा है?
उत्तर:
ग्रह-नक्षत्रों से भारत की जय-जयकार करने का आह्वान किया है। ऋतुओं से भारत माता को नित्य नूतन परिधानों से सुशोभित करने को कहा है। सतरंगी परिधानों से भारतमाता का स्वागत करने,उसे सजाने तथा सँवारने को कहा है। कुंकुम के पत्तों से भारत की जय बोलने को कहा है। तारे लालटेन की भाँति शोभनीय लग रहे हैं। नारियल वन से सुगन्ध प्रवाहित करने को कहा है। पुष्पों की सुन्दर पराग का भी कवि ने आह्वान किया है।

प्रश्न 5.
वह माली है, वह खुशबू है, हम चमन।
वह मूरत है, वह मंदिर है, हम नमन।
इन पंक्तियों में माली, खुशबू, मूरत और मन्दिर किसे कहा गया है और क्यों?
उत्तर:
इन पंक्तियों में माली भारतमाता के लिए, खुशबू देशभक्ति की भावना के लिए, मूरत राष्ट्र देव के लिए, मन्दिर राष्ट्र के निवासियों के लिए प्रयुक्त किया है। माली जिस प्रकार बगीचे की रक्षा करता है। उसी प्रकार, भारतमाता हम सभी का पालन-पोषण करती है। इसका अन्न,जल ग्रहण करके हम बड़े होते हैं। खुशबू देशभक्ति की भावना के लिए प्रयुक्त है,क्योंकि प्रत्येक नागरिक में देशभक्ति की भावना होना अनिवार्य है। मन्दिर में देवी देवताओं की प्रतिमाएँ न होकर राष्ट्र देव की प्रतिमा हो। हम सभी भारतीय एक मन्दिर के समान हैं।

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प्रश्न 6.
कवि ने भारतीयों को ‘रक्त चरित्रो’ कहकर क्यों सम्बोधित किया है?
उत्तर:
हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि देश की एकता को कायम रखें। अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करें। शान्ति और स्वाधीनता की जो गंगा प्रवाहित हो रही है उसमें यदि कोई भी बाधक बने तो अपना बलिदान देकर अपने देश की रक्षा करें। भारत के अमर सपूतो भारत की जय बोलो। रक्त लाल होता है। अतः भारत के लालों को रक्त चरित्र कहकर सम्बोधित किया है।

प्रश्न 7.
मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर में मानव कैसे कैद हो सकता है? इनमें कैद मानव को मुक्त कैसे किया जा सकता है?
उत्तर:
मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर में बाह्य आडम्बर, पुराने रीति-रिवाजों की भरमार है। पूजा-अर्चना के नाम पर दिखावा अधिक है। मनुष्य धर्म के नाम पर संकीर्णताओं में फंसकर रह गया है। धार्मिक भावना तो हितकर होती है, किन्तु धार्मिक कट्टरता कभी भी किसी भी राष्ट्र के लिए हितकर नहीं है। मनुष्य की सोच संकुचित हो गयी है। मनुष्य इनमें कैद हो चुका है। संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सच्चे ज्ञान से इस कैद से मानव को मुक्त किया जा सकता है।

विविधा-2 काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
अलंकार छाँटिए
(क) छाया है माथे पर आशीर्वाद-सा,
वह संस्कृतियों के मीठे संवाद-सा।
उत्तर:
उपमा अलंकार।

(ख) स्थिर समर्पण है हमारा,
हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
उत्तर:
रूपक अलंकार।

प्रश्न 2.
नवगीत और अतुकांत पदों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
आधुनिक कविता का नवीनतम विकास नवगीत के रूप में हुआ है। नवगीत हिन्दी काव्य का एक आन्दोलन है। जहाँ मानव मन किसी सौन्दर्य, राग, सत्य के किसी कोण से गहरे छू जाता है। वहाँ गीत की भूमि होती है। इसमें अनुभूति की सरलता तथा सघनता होती है। नवगीत में संगीतात्मकता तथा गेयता का गुण पाया जाता है। जिन पदों में संगीतात्मकता का अभाव है उनमें गद्यात्मकता का गुण है। उन्हें अतुकान्त अथवा मुक्त छन्द कहते हैं।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित सामासिक पदों का विग्रह कर समास का नाम लिखिए
रचनाकार, भूखंड, कर्मनाशा, नारियल वन।
उत्तर:
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प्रश्न 4.
निम्नांकित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए
धरती, सुगंध, नदी, पुत्र, पैर।
उत्तर:
धरती – भू, भूमि।
सुगंध – खुशबू,सुबास।
नदी – सरिता,पयस्विनी।
पुत्र – बेटा,सुत।
पैर – पग, चरण।

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नदी के द्वीप भाव सारांश

प्रस्तुत कविता ‘नदी के द्वीप’ विख्यात कवि ‘अज्ञेय’ द्वारा लिखित है। इस कविता में कवि ने प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग करते हुए मनुष्य व समाज के मध्य के सम्बन्ध को समझाने का सुन्दर प्रयास किया है।

अज्ञेय जी मूलतः प्रज्ञा पुरुष हैं। उनके काव्य सृजन का केन्द्र बिन्दु उनका बौद्धिक चिन्तन है। उन्होंने प्राकृतिक प्रेम से युक्त रचनाएँ रची। कवि का विचार है कि समाज एक नदी के समान है। व्यक्ति उस नदी में द्वीप के समान है। यह सत्य है कि व्यक्ति का निर्माण समाज के द्वारा होता है, परन्तु व्यक्ति की अपनी भी पहचान होती है। इस पहचान को बनाये रखना जरूरी है। मनुष्य को स्वयं तथा समाज के बीच तालमेल स्थापित करना अनिवार्य है। अपनी रक्षा के साथ-ही-साथ समाज की रक्षा भी अनिवार्य है।

नदी के द्वीप संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अन्तरीप, उभार, सैकत-कूल,
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ है वह । है, इसी से हम बने हैं।

शब्दार्थ :
स्रोतस्विनी = नदी; अंतरीप = द्वीपों के मध्य की उठान; आकार = रूप; कोण = कोने; गलियाँ = रास्ते; उभार = उठाव; सैकत-कूल = बालू के किनारे; गढ़ी = निर्मित।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ विविधा-2 के ‘नदी के द्वीप’ से अवतरित है। इसके रचयिता श्री अज्ञेय जी हैं।

प्रसंग :
कवि द्वीप के प्रतीकात्मक अर्थ के माध्यम से कहते हैं कि जिस प्रकार नदी द्वीप का निर्माण करती है, उसी प्रकार समाज के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नदी ही द्वीप की निर्मात्री है। वही द्वीप को आकार में ढालती है। द्वीप नहीं चाहता कि नदी उसकी उपेक्षा करती हुई आगे बह जाय। द्वीप के कोण,उसके मध्य का उठान,उसके मार्ग,बालू के किनारे सभी गोलाकार आकृति नदी की ही देन है। द्वीप को नदी से अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, मनुष्य का निर्माण समाज के द्वारा होता है। उसका अस्तित्व समाज के कारण ही है।

काव्य-सौन्दर्य :

  1. भाषा तत्सम शब्दावली से युक्त।
  2. गेयता का अभाव है। अतुकान्त छन्दों का प्रयोग किया है।
  3. प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग है। नदी, समाज का प्रतीक है तथा द्वीप व्यक्ति का प्रतीक है।

(2) किन्तु हम हैं द्वीप, हम धारा नहीं हैं,
स्थिर समर्पण है हमारा, हम सदा से द्वीप हैं स्त्रोतस्विनी के
किन्तु हम बहते नहीं हैं, क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे, प्लवन होगा, ढहेंगे, सहेंगे, बह जायेंगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धारा बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गॅदला ही करेंगे
अनुपयोगी ही बनायेंगे।

शब्दार्थ :
समर्पण = त्याग; प्लवन = धरती का जल से पूर्ण होना; ढहेंगे = टूटकर गिर जायेंगे; सलिल = जल; तनिक = थोड़ा-सा; गैंदला = गन्दा; अनुपयोगी = बेकार।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि द्वीप का अस्तित्व स्थिर रहने पर ही है। यदि नदी इसका कटाव कर देगी तो वह अस्तित्व विहीन होगा।

व्याख्या :
कवि कहता है कि द्वीप कभी भी धारा नहीं बन सकते। धारा सतत् प्रवाहित रहती है। द्वीप का अस्तित्व स्थिर रहते हुए त्याग की भावना में है। हम हमेशा ही नदी के द्वीप कहलाते हैं। हम नदी की गति के साथ नहीं चलते। यदि हम नदी की धारा के साथ प्रवाहित हो जायेंगे तो स्वयं रेत बन जायेंगे यदि हम नदी के साथ बहेंगे तो हमारा अस्तित्व स्वयं ही समाप्त हो जायेगा। हम अपने स्थान से डिग जाएँगे,तो सभी स्थान जल से पूर्ण हो जायेंगे, हमारे किनारे कट-छंटकर गिरेंगे,इसको सहन करेंगे। यदि हमारा चूर्ण (चूरा) भी हो जाये तो क्या हम धारा बन सकेंगे। रेत बनने के बाद केवल हम जल को गंदा ही करेंगे,उस जल को उपयोग के रहित ही बनायेंगे।

व्यक्ति का अस्तित्व समाज के अनुरूप चलने में है। समाज के विपरीत चलने में उसका कोई अस्तित्व नहीं है। समाज के हित में कार्य करेंगे तो निश्चित ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होगा। व्यक्ति अपनी विकृतियों को समाज में मिश्रित न होने दे। इससे समाज का परिवेश दूषित ही होगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. द्वीप का अस्तित्व स्थिर रहने में है।
  2. तत्सम तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग भाषा में किया है।
  3. गेयता का पूर्ण अभाव है। अतुकान्त शैली का प्रयोग।
  4. उपमा अलंकार।

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(3) द्वीप हैं हम। यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड़ में।
वह वृहद भूखण्ड से हमको मिलाती है।
और वह भूखण्ड अपना पितर है।
नदी, तुम बहती चलो।
भूखण्ड से जो दाय हमको मिला है मिलता रहा है,
माँजती, संस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो-
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से, अतिचार से।

शब्दार्थ :
शाप = अभिशाप; नियति = भाग्य; क्रोड़ = गोद; वृहद = विशाल; भूखण्ड = भू-भाग; पितर = पिता, पूर्वज; दाय = आकार; भाग; माँजती = साफ करना; संस्कार = सद्गुण; आह्लाद = प्रसन्नता; स्वैराचार = स्वेच्छाचार; अतिचार = अत्याचार, अन्याय।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
द्वीप का यह भाग्य ही है कि वह नदी के बीच में है। नदी ने उसे सजाया तथा सँवारा है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि द्वीप बनना एक अभिशाप नहीं है। यह तो हमारा भाग्य है कि हम नदी के पुत्र हैं तथा उसकी बीच धारा में बैठे हैं अर्थात् उसकी गोद में स्थित हैं। नदी हमारा अस्तित्व शेष भू-भाग से जोड़ती है शेष हिस्सों से सम्पर्क में रखती है। इस विशाल भू-भाग से ही अपना निर्माण हुआ है, अत: यह भू-भाग अपने पिता के समान है। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को समाज ने ही मानवीय गुणों से युक्त किया है। समाज ही उसके व्यक्तित्व का निर्माता है। समाज के बीच में ही व्यक्ति रहता है। अतः समाज मनुष्य का जन्मदाता है। नदी द्वीप के आकार को तराशती है, उसे सही आकार प्रदान करती है। तुम प्रसन्नतापूर्वक हमें संस्कारित करती हो। कभी-कभी अन्य के स्वेच्छाचार या अत्याचार से तुम हमारी रक्षा भी करती हो। समाज में कभी-कभी अवांछनीय तत्वों के अत्याचार से हमारी (व्यक्ति की) रक्षा होती है। समाज सद्गुणों का विकास करता है। संस्कारवान व्यक्ति की समाज में विशेष भूमिका रहती है।

काव्य-सौन्दर्य :

  1. भाषा-तत्सम शब्दावली से युक्त, जैसे—नियति, क्रोड़, भूखण्ड आदि।
  2. प्रतीकात्मक शैली।
  3. अतुकान्त छन्दों का प्रयोग। गेयता का अभाव है। कवि ने छन्दों के बन्धन को स्वीकार नहीं किया है।

4. तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा, कीर्तिनाशा और घोर काल प्रवाहिनी बन जाय-
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार।
मात; उसे फिर संस्कार तुम देना।

शब्दार्थ :
प्लावन = जल से पूर्ण होना; काल प्रवाहिनी = विनाशकारी; आकार = आकृति,स्वरूप; घरघराता = घर-घर की ध्वनि।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
द्वीप के माध्यम से अपने व्यक्तित्व को संस्कारित बनाने की शिक्षा इस पद्यांश में दी गयी है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नदी तुम लगातार गतिशील रहो। तुम्हारे जल के द्वारा घर-घर की ध्वनि होने लगे। चारों ओर जल-ही-जल हो जाए यह जीवनदायिनी नदी अपने विकराल स्वरूप के कारण कर्मनाशा नदी के समान बन जाये। भले ही अपयश के स्वरूप को धारण कर ले, विनाशकारी ही क्यों न बन जाये। हमें तुम्हारा प्रत्येक स्वरूप स्वीकार है। जल-प्लावन के कारण हम पूरी तरह से रेत बन जायें। पुनः कभी-न-कभी हम अपने स्वरूप को प्राप्त करेंगे। किसी भी स्थान पर हम अपने व्यक्तित्व का निर्माण करेंगे। हे माता ! तुम संस्कारों से हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती रहना।

इस समाज में विषम परिस्थितियों के कारण भले ही व्यक्ति का अपना अस्तित्व समाप्त हो जाये। इस समाज में घोर कष्ट भले ही प्राप्त हों। समाज के इस स्वरूप को भी हम स्वीकार करेंगे। अपना अस्तित्व पुनः स्थापित करने में सक्षम होंगे। संस्कारवान बनकर समाज को नयी दिशा प्रदान करेंगे।

काव्य सौन्दर्य :

  1. भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है, जैसे-स्रोतस्विनी, कीर्तिनाशा, प्रवाहिनी आदि।
  2. कवि ने निराशावाद में आशावाद के स्वर देखे हैं, जैसे कहीं भी फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार।
  3. प्रतीकात्मक शैली। बिम्ब-विधान का सफल चित्रण।
  4. अतुकान्त छन्दों का प्रयोग जिनमें सदैव ही गेयता का अभाव होता है।

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भारतमाता की जय बोल दो भाव सारांश

प्रस्तुत कविता ‘भारत माता की जय बोल दो’ ओज के महत्वपूर्ण कवि वीरेन्द्र मिश्र’ की प्रबल लेखनी द्वारा लिखित है। इस कविता में कवि ने देशवासियों से अपनी मातृभूमि को विजयी बनाने की बात कही है।

वीरेन्द्र मिश्र छायावादोत्तर काल के गीतकार हैं। उनके गीतों में राष्ट्रीय भावना ओत-प्रोत है। प्रेम, प्रकृति चित्रण तथा समाज के विभिन्न रूपों का चित्रण उनके काव्य में मिलता है। वे सच्चे अर्थों में संस्कृति के पुजारी एवं रक्षक हैं। अतः इस कविता में कवि ने सांस्कृतिक चेतना तथा प्राकृतिक सुषमा का वर्णन किया है। कवि ने भारतीयों से आह्वान किया है कि भारत माता को विजयी बनायें।

भारतमाता की जय बोल दो संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) साँझ-सकारे चंदा-सूरज करते जिसकी आरती
उस मिट्टी में मन का सोना डाल दो
ग्रह-नक्षत्रो ! भारत की जय बोल दो।
वह माली हैं, वह खुशबू है, हम चमन,
वह मूरत है, वह मन्दिर है, हम नमन,
छाया है माथे पर आशीर्वाद-सा,
वह संस्कृतियों के मीठे संवाद-सा,
उसकी देहरी पर अपना माथा टेककर,
हम उन्नत होते हैं उसको देखकर
ऋतुओ ! उसको नित नूतन परिधान दो,
झुलस रही है धरती, सावन दान दो,
सरल नहीं परिवर्तन में मन ढालना,
हर पर्वत से भागीरथी निकालना।

शब्दार्थ :
साँझ = संध्या,शाम; सकारे = सुबह; ग्रह-नक्षत्र = आकाशीय पिण्ड; प्रतीक अर्थ में आम जनता; माली = रक्षक; चमन = बगीचा; आशीर्वाद = शुभ आशीष; देहरी = चौखट, दरवाजा; टेककर = स्पर्श करके; नूतन = नवीन; परिधान = वस्त्र; झुलसना = गर्मी से व्याकुलता; परिवर्तन = बदलाव; भागीरथी = गंगा।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ विविधा-2 के ‘भारत की जय बोल दो’ से अवतरित है। इसके रचयिता गीतकार वीरेन्द्र मिश्र हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि ने भारतमाता के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। इसकी सांस्कृतिक विरासत को बनाये रखने का आह्वान भी युवकों से किया है।

व्याख्या :
श्री मिश्र जी कहते हैं जिस देश का गुणगान सुबह-शाम सूरज तथा चन्द्रमा किया करते हैं। उस भारतमाता की सेवा पूर्ण मन से करो। उसकी सेवा में अपने मन को पूरी तरह लगा दो। ग्रह-नक्षत्रो (आम जनता) भारतमाता की जय-जयकार करो। भारतमाता का हम अन्न जल प्राप्त करके बड़े होते हैं। प्रत्येक भारतीय में देशभक्ति की भावना व्याप्त है। हम सभी उस बगीचे के फूल हैं। इसमें राष्ट्रदेव की प्रतिमा है। हमारा इसको नमन स्वीकार हो। देश हमारे ऊपर आशीर्वाद के तरह छाया किये हुए है। विभिन्न संस्कृतियों में आपस में मधुर सम्बन्ध हो। साथ ही वार्तालाप भी मधुर हो। हम भारतमाता को अपना मस्तिष्क (माथा) झुकाकर,स्पर्श करके नमन करते हैं।

भारत भूमि को देखकर सदैव गर्व का अनुभव करते हैं। कवि ने ऋतुओं का आह्वान किया कि हे ऋतुओ! तुम सतरंगी वस्त्र प्रदान करो। भारत में स्थान-स्थान पर हिंसा, साम्प्रदायिकता की आग लगी है। चारों ओर तनावपूर्ण वातावरण है। हे युवको ! इसे मानवीय गुणों से परिपूर्ण करो। ऐसे तनावपूर्ण वातावरण में इंसानियत के गुणों का संचार करना काफी कठिन है। यह उसी प्रकार कठिन है जैसे प्रत्येक पर्वत से गंगा को प्रवाहित नहीं किया जा सकता।

काव्य सौन्दर्य :

  1. कवि ने भारतमाता की वन्दना की है।
  2. प्रकृति के विभिन्न उपादानों का प्रयोग है।
  3. पद्यांश में गेयता का गुण विद्यमान है।
  4. लक्षण-प्रधान भाषा का प्रयोग किया है।

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(2) जिस मन्दिर-मस्जिद-गिरजे में कैद पड़ा इंसान हो,
आओ, उसमें किरन ! किवाड़ा खोल दो,
कुंकुम-पत्रो ! भारत की जय बोल दो,
उसको करो प्रणाम, दृगों में नीर है,
झेलम की आँखों वाला कश्मीर है,
बजरे और शिकारे उसकी झील के,
लगते बनजारे तारे कंदील-से,
किसी नारियल-वन की गेय सुगन्ध से,
अंतरीप के दूरागत मकरंद से,
फूटा करता नए गीत का अंतरा,
कुछ क्षण को दुख भूल, विहँसती है धरा,
दो छवि कालों के अन्तर-आवास में,
कोई बादल घुमड़ रहा आकाश में।

शब्दार्थ :
कैद = बंदी; किरन = किरण; कुंकुम = रोली,सिंदूर; दृग = आँखें; शिकारे एवं बजरे = छोटी नाव; कंदील = लालटेन, चिमनी; अंतरीप = द्वीपों के मध्य की उठान; मकरंद = पराग; अंतरा = विराम; आवास = निवास; दूरागत = दूर से आती हुई, बिहँसती है = खुश होती है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
चारों ओर अशान्ति का वातावरण है। पूजा-अर्चना के नाम पर पाखण्ड है। इन संकीर्णताओं से ऊपर उठने की हम सभी को आवश्यकता है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि मुझे ऐसे मन्दिर,मस्जिद और गिरजाघर (चर्च) में कोई आस्था नहीं है। जिन इबादतगाहों ने मनुष्य और इन्सानियत को बन्दी बना लिया है,मानव संकीर्णताओं में फँसकर रह गया है। इन पूजागृहों के दरवाजे खोलकर इनके पास तक सच्चा ज्ञान आने दो। भारत के अमर सपूतो भारत की जय-जयकार करो। जो दुखी हैं, परित्यक्त हैं उनका भी सम्मान करो। आगे कवि भारत का चित्रात्मक वर्णन करते हुए कहते हैं कि हमारे देश में धरती का स्वर्ग कश्मीर है। झेलम नदी इसकी आँखों के समान है। कश्मीर की सुन्दर झीलों में स्थित शिकारा तथा बजरे उसकी सुन्दरता को और अधिक बढ़ा रहे हैं। आकाश में चमकने वाले तारे एक लालटेन के समान लग रहे हैं।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि नारियल वन की सुगन्ध प्राप्त करने योग्य है। किसी उठी हुई भूमि के भाग से पराग की खुशबू लगातार आ रही हैं। सभी ओर प्राकृतिक शोभा उपस्थित हैं। इसके पश्चात् हमारे मन से प्रसन्नतापूर्वक गीत की पंक्ति अनायास ही निकलने लगती है। ऐसी स्थिति में धरती माता अपने पहले दुःखों को भूल जाती है। वह प्रसन्न होने लगती है। धरती पर खुशहाली तथा प्रसन्नता का वातावरण छा जाता है। स्वतंत्रता से पहले की स्थिति तथा बाद के बीच का अन्तराल हमें बलिदानों का स्मरण करा देता है। जिस प्रकार आकाश में बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं ठीक उसी प्रकार हमारे हृदय में भाव जागरण का दृश्य उपस्थित हो रहा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. कवि ने तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग किया है। यथा-कुंकुम पत्रो, दृग, दूरागत, बिहँसती।
  2. गेयता तथा संगीतात्मकता का गुण।
  3. तुकान्त शैली।
  4. अनुप्रास अलंकार की छटा निराली है।

(3) सर्जन की मंगल-बेला में धूमकेतु क्या चाहता
बच्चों की पावन उत्सुकता तौल दो,
देशज मित्रो ! भारत की जय बोल दो।
हम अनेकता में भी तो हैं एक ही,
हर झगड़े में जीता सदा विवेक ही,
कृति, आकृति, संस्कृति भाषा के वास्ते,
बने हुए हैं मिलते-जुलते रास्ते।

शब्दार्थ :
सर्जन = रचनात्मक, रचना; मंगल-वेला = पावन समय; धूमकेतु = पुच्छल तारा,लक्षणा के अर्थ में अलगाववादी शक्तियाँ; पावन = पवित्र; उत्सुकता = जिज्ञासा; देशज = पड़ोसी देश, देश से उत्पन्न; विवेक = ज्ञान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
भारत अनेकता में एकता का देश है। कवि ने स्वतंत्रता के उपरान्त की पावन बेला का वर्णन इस पद में किया है।

व्याख्या :
कवि कहता कि भारत में स्वतंत्रता के बाद नव निर्माण की पावन बेला है। इस अवसर में कुछ विभाजक शक्तियाँ भी कार्य कर रही हैं। जिस प्रकार आकाश में धूमकेतु तारा होता है। उसी प्रकार, हमारे देश में विभाजक शक्तियाँ इसको तोड़ने का कार्य कर रही हैं। हमारी पीढ़ी के मन में स्वतंत्र भारत के बारे में अनेक जिज्ञासाएँ थीं। उनकी जिज्ञासाओं के विषय में भली-भाँति सोचें। मेरे पड़ोसी राष्ट्र तुम तो भारत से ही जन्मे हो। अतः तुम्हें भी भारत के जय-जयकार के नारे लगाने चाहिए। भारत में विभिन्न भाषा-भाषी,संस्कृतियों,रूप-रंग,छोटे-बड़े लोग निवास करते हैं। भारत अनेकता में एकता का देश है। इसके बाद भी हम सभी एक हैं। भारतीय हैं। देश की स्वतंत्रता को बनाये रखना ही सबका उद्देश्य है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. भाषा-तत्सम शब्दों से युक्त।
  2. भारतीय संस्कृति की विशेषता अनेकता में एकता का उल्लेख कवि ने किया है।
  3. लक्षण प्रधान तथा गेय शैली।
  4. अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग कवि ने किया है।

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4. आस्थाओं की टकराहट से लाभ क्या?
मंजिल को हम देंगे भला जवाब क्या?
हम टूटे तो टूटेगा यह देश भी,
मैला वैचारिक परिवेश भी,
सर्जन-रत हो आजादी के दिन जियो,
श्रमकर्ताओ, रचनाकारो, साथियो।
शांति और संस्कृति की जो बहती-स्वाधीन जाह्नवी
कोई रोके, बलिदानी रंग घोल दो,
रक्त चरित्रो ! भारत की जय बोल दो।

शब्दार्थ :
आस्था = विश्वास; टकराहट = लड़ाई, मतभेद; मंजिल = उद्देश्य, भावी पीढ़ी; जवाब = उत्तर; मैला = गंदा, मतभेद; परिवेश = वातावरण; सर्जन-रत = निर्माण कार्य में लीन; श्रमकर्ताओ = मजदूरो; रचनाकारो = साहित्यकारो; जाह्नवी = गंगा; स्वाधीन = स्वतंत्र; रक्त-चरित्रो = भारत माँ के लाल ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
वीरेन्द्र मिश्र यद्यपि संघर्षों के कवि हैं फिर भी इस पद्यांश में कवि ने शान्ति, सुख तथा समृद्धि की कामना की है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि आपसी परम्पराओं, रीति-रिवाजों के टकराने से कोई लाभ नहीं है। ये सभी लोगों की अपनी आस्था के केन्द्र हैं। यदि हम भारतीय आपस में लडते रहे तो भावी पीढ़ी को हम क्या कोई जवाब दे पायेंगे? यदि हम बँटेंगे तो निश्चित रूप से यह देश भी बँट जाएगा, कमजोर होगा। लोगों में आपस में विभिन्न मतभेद हैं। अतः विचारों में संकीर्णता है। इस संकीर्णता को समाप्त करने की आवश्यकता है। रचनात्मक कार्य करते हुए हम स्वाधीन भारत में जियें। स्वाधीन भारत में जीवन-यापन करें। मजदूरो, साहित्यकारो, विभिन्न निर्माण कार्य में लगे लोगो देश हित में लगातार कार्य करते रहो। हम शान्ति तो स्थापित करें, किन्तु शान्ति और संस्कृति की पूर्ण वेग से बहती हुई स्वाधीनता की गंगा को कोई रोकने का प्रयास करे तो उसका मुकाबला हम अपना बलिदान करके दें। हे भारत के नवयुवको ! तुम सदैव भारत माँ की जय-जयकार करने को तैयार रहो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. मिश्रित शब्दावली मुक्त तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है, जैसे-मंजिल,जवाब,परिवेश,शान्ति।
  2. कवि ने आपसी मतभेदों को मिटाने का आह्वान किया है।
  3. संगीतात्मकता तथा गेयता पायी जाती है।

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