MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 11 गीता और स्वधर्म

MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 11 गीता और स्वधर्म (निबंध, आचार्य विनोबा भावे)

गीता और स्वधर्म अभ्यास

गीता और स्वधर्म अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अर्जुन के स्वभाव में कौन-सी वृत्ति विद्यमान थी?
उत्तर:
कृत-निश्चय होकर और कर्तव्य भाव से समर-भूमि में खड़े अर्जुन के स्वभाव में क्षात्रवृत्ति विद्यमान थी।

प्रश्न 2.
किस सजा से अपराधी के सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है?
उत्तर:
फाँसी की सजा अमानुषी होने के कारण मनुष्य को शोभा नहीं देती क्योंकि इससे अपराधी के सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है।

प्रश्न 3.
लेखक किस सागर में डुबकी लगाकर बैठ जाता है?
उत्तर:
लेखक विनोबा भावे जब अकेले होते हैं तब गीता के अमृत सागर में गहरी डुबकी लगाकर बैठ जाते हैं।

प्रश्न 4.
किसने श्रीकृष्ण से अपना सारथ्य स्वीकार कराया? (2016)
उत्तर:
दुर्योधन के द्वारा संधि प्रस्ताव ठुकराने पर अर्जुन ने अनेक देशों के राजाओं को एकत्र करके श्रीकृष्ण से अपना सारथ्य स्वीकार कराया।

प्रश्न 5.
युद्ध में आप्त स्वजन सम्बन्धियों की कितनी पीढ़ियाँ एकत्र हुई थी?
उत्तर:
युद्ध भूमि के मध्य खड़े होकर अर्जुन ने देखा कि दादा, बाप, बेटे, पोते, आप्त-स्वजन सम्बन्धियों की चार पीढ़ियाँ एकत्र थीं।

प्रश्न 6.
अर्जुन के मन में कौन-सा भाव उत्पन्न हो गया था?
उत्तर:
युद्ध के लिए तत्पर स्वजन समूह को देखकर सदैव विजयी रहने वाले अर्जुन के मन में अहिंसा का भाव उत्पन्न हो गया था।

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गीता और स्वधर्म लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गीता के गगन में लेखक किन उपकरणों से उड़ान भरता है?
उत्तर:
जिस प्रकार एक पक्षी अपने दो पंखों की सहायता से नीले खुले गगन में स्वछन्द होकर यथाशक्ति दूर तक उड़ान भरता है। ठीक उसी प्रकार लेखक तर्क को त्यागकर श्रद्धा और प्रयोग,इन दो उपकरणों से गीता के गगन में यथाशक्ति उड़ान भरता रहता है।

प्रश्न 2.
अर्जुन ने अकेले ही किन-किन के दाँत खट्टे कर दिए थे? (2017)
उत्तर:
जिस समय पांडव अज्ञातवास में थे उस समय कौरवों की सेना ने उत्तर कुमार की गायों का हरण करने का प्रयास किया तब अर्जुन ने उत्तर कुमार का सारथी बनकर अकेले ही धीर भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और सूर्यपुत्र कर्ण के दाँत खट्टे कर दिए थे।

प्रश्न 3.
युद्ध टालने के लिए कौन-कौन सी दोनों बातें बेकार हो चुकी थीं?
उत्तर:
अर्जुन के स्वभाव में क्षात्रवृत्ति थी। वह कृत निश्चय होकर और कर्त्तव्य भाव से समर-भूमि में खड़ा था। लेकिन युद्ध के विनाशकारी परिणामों का उसे आभास था। अत: युद्ध को टालने के लिए अर्जुन ने पहली, कौरवों के पास कम से कम माँग का प्रस्ताव भेजा-दूसरी, कृष्ण को मध्यस्थ बना कर भेजा। लेकिन विनाशकारी बुद्धि वाले दुर्योधन ने एक भी बात को स्वीकार नहीं किया।

प्रश्न 4.
लेखक के अनुसार गीता के जन्म का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
युद्धभूमि में अर्जुन धर्म-सम्मूढ़ हो गया था, इस कारण उसके मन में स्वधर्म के विषय में मोह पैदा हो गया था। इस मोह को अर्जुन स्वयं स्वीकार करता है। अतः स्पष्ट है कि गीता का जन्म स्वधर्म में बाधक जो मोह है, उसके निवारणार्थ हुआ है। गीता के जन्म का प्रधान उद्देश्य यही था। गीता सुनने के बाद अर्जुन कृष्ण से कहता है-भगवन्, मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे स्वधर्म का भान हो गया है।

प्रश्न 5.
लेखक के अनुसार गीता का मुख्य काम क्या-क्या है?
उत्तर:
यदि गीता के उपक्रम और उपसंहार को मिलाकर देखें तो स्वधर्म में बाधक मोह-ममत्व तथा स्वजनासक्ति दूर करना गीता का मुख्य काम है,मोह का निवारण करना ही गीता का काम है। गीता ही नहीं,सम्पूर्ण महाभारत का काम लोक हृदय के मोहावरण को दूर करना है। यही काम गीता ने किया जिसके परिणामस्वरूप अर्जुन का मोह नष्ट हो गया और उसे क्षात्रधर्म का ज्ञान हो गया।

गीता और स्वधर्म दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विनोबा जी का गीता के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध था?
उत्तर:
विनोबा जी का गीता के साथ जो सम्बन्ध था उसे बताना कठिन है क्योंकि वह अलौकिक था जिसे तर्क द्वारा नहीं बताया जा सकता है। विनोबा जी कहते हैं कि उनके शरीर का निर्माण तो माँ के दूध से हुआ किन्तु उनके हृदय और बुद्धि का पोषण गीता के दूध अर्थात् गीता के संदेशों से हुआ। इस सम्बन्ध को हम हार्दिक सम्बन्ध कह सकते हैं। हार्दिक सम्बन्धों में तर्क बहस,दलील या चर्चा का कोई महत्व नहीं होता। तर्क के स्थान पर श्रद्धा और प्रयोग इन दो बातों के आधार पर गीता को समझने का प्रयास किया जाता है।

गीता उनका प्राणतत्व है, आत्मा है। जब वह गीता के मोह निवारण पर चर्चा करते हैं तो मानो, वह गीता रूपी सागर पर तैर रहे होते हैं अर्थात् गीता के श्लोकों का शब्दार्थ कर रहे हैं परन्तु जब वह एकाकी होकर मोह निवारण का माप श्रद्धा व प्रयोग के आधार पर हृदय में मनन करते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है, मानो वे अमृत-सागर में डुबकी (गोता) लगा रहे हैं जिससे उनकी आत्मा को परम सुख की प्राप्ति होती है। इसी आत्मा के परम सुख की प्राप्ति के रूप में ही विनोबा जी का सम्बन्ध गीता से है। यह सम्बन्ध अलौकिक होने के साथ-साथ हृदय के तारों से मधुर ईश्वरीय संगीत को सुनाने वाला है।

प्रश्न 2.
अर्जुन को महावीर क्यों कहा गया?
उत्तर:
विनोबा जी ने अर्जुन को महावीर कहा है, उनका यह कथन बिल्कुल सत्य है, क्योंकि अर्जुन में अठारह अक्षौहिणी सेना से अधिक शक्ति थी। वह सैकड़ों लड़ाइयों में अपना जौहर दिखा चुका था। उत्तर-गो ग्रहण के समय उसने अकेले ही भीष्म, द्रोण और कर्ण के दाँत खट्टे कर दिए थे। वह सदा विजय प्राप्त करने वाला और सब नरों में एक ही सच्चा नर था। वीरवृत्ति उसके रोम-रोम में भरी थी। उसके विचार कृत-निश्चय और कर्त्तव्य भाव से पूर्ण थे। क्षात्रवृत्ति उसके स्वभाव में थी। वीरवृत्ति का उत्साह उसकी प्रेरणा थी। युद्ध क्षेत्र में उसने असंख्य वीरों का संहार किया था।

उसका गांडीव हाथ से कभी नहीं गिरा था। उसके शरीर में कभी कम्पन नहीं हुआ था न आँखें गीली हुई थीं। वह सदैव युद्ध-प्रवृत्त ही था। युद्ध उसकी दृष्टि से उसका स्वभाव प्राप्त और अपरिहार्य रूप से निश्चित कर्त्तव्य था। पलभर के लिए उसके मन में परिवार के प्रति आसक्ति तथा मोह जाग्रत हुआ था। परन्तु कृष्ण ने उसके इस मोह को गीता सुनाकर नष्ट कर दिया था। गीता कर्मयोग तथा युद्धयोग दोनों का प्रतिपादन करती है जिसे अर्जुन ने पूर्ण रूप से अपनाया था। इन्हीं सब कारणों से अर्जुन को महावीर कहा गया।

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प्रश्न 3.
युद्ध क्षेत्र में स्वजनों को देखकर अर्जुन के मन में कौन-कौन से भाव उत्पन्न होते है? (2014)
उत्तर:
पाण्डवों ने महाभारत के युद्ध को टालने के लिए दुर्योधन के पास कम-से-कम माँग का प्रस्ताव और श्रीकृष्ण जैसे मध्यस्थ को भेजा परन्तु दुर्योधन नहीं माना तो अर्जुन कृष्ण को अपना सारथी बनाकर रणांगन में पहुँचा और अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करने को कहा। सेनाओं के बीच खड़े होकर उसने सारे स्वजन समूह को देखा तो उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई। उसे बहुत बुरा लगा। अर्जुन के मन में भाव उठे कि दादा, बाप, बेटे, पोते-आप्त,स्वजन-सम्बन्धियों की चार पीढ़ियाँ मरने-मारने के अन्तिम निश्चय से वहाँ एकत्र हुई हैं। इस प्रत्यक्ष दर्शन का उसके हृदय पर हृदय को विचलित कर देने वाला प्रभाव पड़ा।

आज तक उसने अनेक युद्धों में असंख्य वीरों का संहार किया है, परन्तु उस समय उसे बुरा नहीं लगा था। उसका गांडीव हाथ से नहीं गिरा था। शरीर में कंपन नहीं हुआ था, उसकी आँखें गीली नहीं हुई थीं। तो इसी समय ऐसा क्यों हुआ? उसके मन में स्वजनासक्ति के भाव उत्पन्न हुए। कर्त्तव्यविमुख होने के भावों के साथ तत्व ज्ञान (दर्शन) के भाव जाग्रत हुए। वह युद्ध को व्यर्थ समझकर पाप समझने लगा। युद्ध से कुल क्षय होगा, धर्म का लोप होगा। स्वैराचार मचेगा, व्यभिचार फैलेगा, अकाल आ पड़ेगा,समाज पर तरह-तरह के संकट आयेंगे। इस प्रकार के अनेक भाव अर्जुन के मन में उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 4.
न्यायाधीश के उदाहरण से लेखक क्या सीख देना चाहता है?
उत्तर:
एक न्यायाधीश ने सैकड़ों अपराधियों को फाँसी की सजा दी थी। परन्तु जब अपने पुत्र को खून के जुर्म में मृत्युदण्ड देने का समय आया तो पुत्र-स्नेह के कारण वह हिचकने लगा तथा बुद्धिवाद बघारने लगा-फाँसी की सजा बड़ी अमानुषी है, लज्जा की बात है, बड़ा कलंक है। उसकी यह बात आंतरिक नहीं थी। वह आसक्ति-जनित थी। इस प्रकार महावीर अर्जुन भी स्वजन आसक्ति में आकर अहिंसावादी तथा बुद्धिवादी बन गया और युद्ध में दोष बताने लगा। अतः लेखक बताना चाहता था कि यह अर्जुन का तत्व ज्ञान नहीं कोरा प्रज्ञावाद था। मनुष्य परिजनों के स्नेह में पड़कर कर्त्तव्य को भूल जाता है, वह मोह में पड़ जाता है। इसी मोह को दूर करना गीता का धर्म है। मनुष्य को मोह में न पड़कर अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। मोह मनुष्य को नीचे गिरा देता है। अर्जुन की गति न्यायाधीश जैसी हो गई थी।

प्रश्न 5.
श्रीकृष्ण ने अर्जुन की जिज्ञासाओं का कैसे समाधान किया?
उत्तर:
श्रीकृष्ण द्वारा मध्यस्थता करने तथा कम-से-कम मांग के प्रस्ताव को दुर्योधन ने स्वीकार नहीं किया तो युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्षों की सेनाएँ युद्धभूमि में खड़ी थीं। तब अर्जुन के मन में अचानक जिज्ञासा जागी कि वह दोनों सेनाओं के चेहरे देखे। अर्जुन ने कृष्ण को अपनी जिज्ञासा बताई, कृष्ण ने अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दिया। अर्जुन ने अपनी चार पीढ़ियों को देखा और मोहग्रस्त हो युद्ध से विरक्त हो गया। इसी प्रकार स्वधर्म के विषय में उनके मन में मोह पैदा हो गया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की जिज्ञासा व मोह को दूर किया। इसके लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता सुनाई जो गीता महाभारत के मध्यभाग में एक ऊँचे दीपक के समान है तथा समस्त जिज्ञासाओं को हल करने में पूर्णतः सक्षम है।

प्रश्न 6.
गीता का निष्कर्ष क्या है?
उत्तर:
गीता की योजना महाभारत में की गई थी जो महाभारत के मध्य भाग में एक ऊँचे दीपक की तरह पूर्ण महाभारत को प्रकाशित करती है। गीता का निष्कर्ष केवल कर्म-योग ही नहीं, बल्कि युद्ध-योग का भी प्रतिपादन करता है। युद्ध-भूमि के मध्य खड़ा अर्जुन स्वजन आसक्ति के कारण क्षात्रवृत्ति से विमुख होकर युद्ध के दुष्परिणाम बघारने लगा क्योंकि सारे जन समूह को देखकर उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई थी। कृष्ण अर्जुन के आसक्तिजनित मोह को जानते थे, इसलिए उन्होंने अर्जुन के मोह-पाश का उपाय शुरू किया। स्वधर्म में बाधक जो मोह है उसका निवारण करना ही गीता का उद्देश्य है। मोह, ममत्व, आसक्ति को दूर करके स्वधर्म का भान कराना ही गीता का निष्कर्ष है। गीता ही नहीं सम्पूर्ण महाभारत में लोक हृदय के मोहावरण को दूर करने के लिए यह इतिहास-प्रदीप जलाया गया है। मुख्य निष्कर्ष मोह निरसन ही है।

गीता और स्वधर्म भाषा-अध्ययन

प्रश्न 1.
दिए गए मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए

  1. दाँत खट्टे कर देना
  2. उथल-पुथल मचाना
  3. आँखें गीली होना
  4. जौहर दिखाना
  5. उड़ान भरना
  6.  डुबकी लगाना
  7. जुनून उतर जाना।

उत्तर:

  1. दाँत खट्टे करना – भारतीय सैनिकों ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सैनिकों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
  2. उथल-पुथल मचना – कलिंग युद्ध के मैदान में अनेक सैनिकों की कराहट को सुनकर सम्राट अशोक के हृदय में उथल-पुथल मच गई।
  3. आँखें गीली होना – रेल दुर्घटना के वीभत्स दृश्य को देखकर उपस्थित जनसमूह की आँखें गीली हो गईं।
  4. जौहर दिखाना – झाँसी वाली रानी ने अकेले ही ब्रिटिश सैनिकों के बीच जौहर दिखाया।
  5. उड़ान भरना – जीवन में सफलता पाने के लिए कल्पना की उड़ान भरने के साथ परिश्रम करना भी आवश्यक है।
  6. डुबकी लगाना – श्री विनोबा भावे ने गीता के अमृत सागर में डुबकी लगाकर जीवन। का लक्ष्य प्राप्त कर लिया।
  7. जुनून उतर जाना – स्वजनों के मोह का जूनून उतरने पर ही अर्जुन महाभारत के युद्ध को जीत सका।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों का भाव-विस्तार कीजिए-
(अ) जहाँ हार्दिक सम्बन्ध होता है, वहाँ तर्क की गुंजाइश नहीं होती। (2017)
उत्तर:
भाव विस्तार :
‘गीता और स्वधर्म’ शीर्षक में ‘श्री विनोबा भावे’ने बताया है कि गीता के साथ उनका हार्दिक सम्बन्ध है। इस कारण इस सम्बन्ध को साबित करने के लिए किसी भी प्रकार की दलील नहीं दी जा सकती और न ही बहस की जा सकती है। हार्दिक सम्बन्ध भावना से जुड़े होते हैं जिन्हें अनुभव किया जाता है, परन्तु दलीलों द्वारा नहीं बताया जा सकता। साथ ही यह सम्बन्ध सूक्ष्म होता है। इस सम्बन्ध में बड़ी शक्ति होती है,जो पाषाण हृदय को भी कोमल बना देती है। इस सम्बन्ध के द्वारा आत्मिक प्रसन्नता व शान्ति मिलती है।

(ब) इस आसक्ति जनित मोह ने उसकी कर्त्तव्य निष्ठा को ग्रस लिया और तब उसे तत्त्व ज्ञान याद आया।
उत्तर:
भाव विस्तार :
‘श्री विनोबा भावे’ जी ने अपने निबन्ध ‘गीता और स्वधर्म’ में अर्जुन के मोह व कृष्ण की गीता के विषय में बताया है। अर्जुन युद्धभूमि के मध्य रथ पर सवार था,तब उसने स्वजन समूह को देखा तो उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई। उसके हृदय में परिजनों के प्रति मोह उत्पन्न हुआ, इस कारण वह अपने क्षात्रधर्म अर्थात् युद्ध कर्म को भूल कर प्रज्ञावादी बन गया। युद्ध को पाप व मानव जाति का कलंक कहने लगा। जो अर्जुन युद्ध प्रवृत्त था, युद्ध करना उसका स्वभाव था, अपरिहार्य रूप से उसका कर्त्तव्य था, उस कर्त्तव्य को अर्जुन भूल गया। युद्ध के दुष्परिणामों को बताने लगा यद्यपि जो सत्य थे परन्तु अर्जुन के मुख से सुशोभित नहीं हो रहे थे क्योंकि अर्जुन का कर्तव्य युद्ध में निहित था। उसका तत्व ज्ञान आत्मिक न होकर बौद्धिक था। कहीं न कहीं उस तत्त्व ज्ञान की जड़ में मोह था जिसने अर्जुन को कर्तव्य से गिरा दिया था।

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गीता और स्वधर्म पाठ का सारांश

भूदान आन्दोलन के प्रणेता तथा किसानों के मसीहा ‘आचार्य विनोबा भावे’ द्वारा लिखित प्रस्तुत निबन्ध ‘गीता और स्वधर्म’ में आचार्य जी ने गीता के माध्यम से मनुष्य को अपनी बुद्धि के आधार पर न्यायपूर्ण कार्य करने का संदेश दिया है।

लेखक का गीता के साथ तर्कपूर्ण नहीं, आत्मिक रिश्ता है। उनके हृदय और बुद्धि का पोषण गीता के दूध से हुआ है। गीता पर उनकी अपार श्रद्धा है। गीता उनके लिए अमृत का सागर है। यह गीता श्रीकृष्ण ने युद्ध स्थल में युद्ध से विमुख हुए अर्जुन को कर्तव्य का ज्ञान कराने के लिए सुनाई थी। इसीलिए गीता महाभारत में दीपक के समान प्रकाश देती है।

माना जाता है कि कृष्ण ने अर्जुन को गीता दो कारणों से सुनाई होगी। एक, अर्जुन की नपुंसकता को दूर करने तथा दूसरी अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति को दूर करने के लिए। लेकिन ये दोनों बातें ही ठीक नहीं हैं.क्योंकि अर्जन ‘महावीर’ थे,उन्होंने उत्तर-गो ग्रहण के समय अकेले ही भीष्म, द्रोण और कर्ण को पराजित किया था। वीर-वृत्ति उनके रोम-रोम में बसी थी। क्षात्रवृत्ति उनके स्वभाव में थी। युद्ध को टालने के लिए कम से कम माँग का प्रस्ताव और कृष्ण ने मध्यस्थता की थी परन्तु दुर्योधन सहमत नहीं था। इस कारण कृष्ण को अपना सारथी बनाकर वीर अर्जुन कुरुक्षेत्र में पहुँचे। वहाँ दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य अपने रथ में बैठे अपनी चार पीढ़ियों के मरण का उत्साह देखकर वह स्वजनाशक्ति में आ गए थे। वीरता का शौर्य दिखाने वाले उस महावीर अर्जुन का गांडीव कभी झुका नहीं था,न शरीर में कम्पन हुआ था और न कभी आँखें गीली हुई थीं।

वहीं अर्जुन जिसमें कभी अहिंसा-वृत्ति ने जन्म नहीं लिया था, उसके आसक्ति जनित मोह ने कर्तव्य को त्याग कर तत्व ज्ञान की शरण ली। कहने लगे कि युद्ध मानव जाति के विनाश का कारण होगा। उस समय अर्जुन की दशा उस न्यायाधीश जैसी थी जो अनेकों को मृत्यु दण्ड दे चुका था परन्तु जब अपने बेटे को खून के जुर्म में मृत्यु दण्ड देने का समय आया तो कहने लगा कि मृत्यु दण्ड अमानुषी सजा है, बड़ा कलंक है। यह कथन आसक्ति जनित है। अर्जुन के इस तत्व ज्ञान को कृष्ण जानते थे इसलिए अर्जुन के मोहपाश को नष्ट करने का उपाय किया और गीता में अर्जुन के इसी मोहपाश पर गदा प्रहार किया है।

अतः गीता का जन्म,स्वधर्म में बाधक जो मोह है,उसके निवारणार्थ हुआ है। गीता सुनाने के बाद कृष्ण ने अर्जुन से पूछा कि अर्जुन तेरा मोह गया? तब अर्जुन ने उत्तर दिया-हाँ भगवन! मेरा मोह नष्ट हो गया, मुझे स्वधर्म का भान हो गया। गीता ही नहीं सम्पूर्ण महाभारत का यही उद्देश्य है। व्यास जी ने महाभारत के आरम्भ में कहा है कि लोक हृदय के मोहावरण को दूर करने के लिए मैं यह इतिहास प्रदीप जला रहा हूँ।

गीता और स्वधर्म कठिन शब्दार्थ

तर्क = दलील। क्लैष्य = नपुंसकता। प्रवृत्त = संलग्न। परावृत्त = दूर भागना। जौहर = वीरता। ख्याति = यश। समर-भूमि = युद्ध-भूमि। क्षात्रवृत्ति = क्षत्रिय धर्म। रणांगण = युद्ध भूमि। स्वजनासक्ति = पारिवारिक जनों के प्रति मोह। प्रतिपादन = सिद्ध करना। क्षय = नष्ट। स्वैराचार = स्वेच्छाचार। नौबत = अवसर। अमानुषी = जंगलीपन। जुनून = धुन। आसक्ति = मोह। प्रज्ञावेद = बुद्धिवाद। अपरिहार्य = जो छोड़ा न जा सके। प्रहार = चोट। निरसन = निराकरण। सारथ्य = सारथी का कार्य। कर्त्तव्यच्युति = अपने कर्त्तव्य से विमुख। अवान्तर = अन्य।

गीता और स्वधर्म संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) गीता का और मेरा सम्बन्ध तर्क से परे है। मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है, उससे कहीं अधिक मेरे हृदय और बुद्धि का पोषण गीता के दूध पर हुआ है। जहाँ हार्दिक सम्बन्ध होता है, वहाँ तर्क की गुंजाइश नहीं रहती। तर्क को काटकर श्रद्धा और प्रयोग, इन दो पंखों से ही मैं गीता-गगन में यथाशक्ति उड़ान भरता रहता हूँ।

संदर्भ :
प्रस्तुत गद्य अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के निबन्ध ‘गीता और स्वधर्म’ नामक पाठ से अवतरित है। इसके लेखक ‘आचार्य विनोबा भावे’ हैं।

प्रसंग :
इन पंक्तियों में गीता तथा विनोबा भावे के सम्बन्ध को तर्कहीन बताकर गीता के प्रति उनकी अपार श्रद्धा को व्यक्त किया गया है।

व्याख्या :
विनोबा भावे गीता पर प्रवचन देते हुए कहते हैं कि उनका और गीता का सम्बन्ध अलौकिक है जिसे शब्दों के द्वारा नहीं बताया जा सकता, न उस सम्बन्ध के विषय में कोई दलील या बहस की जा सकती है। गीता के साथ अपने सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि माँ के दूध व वात्सल्य से उनके शरीर का निर्माण हुआ परन्तु उनके हृदय व बुद्धि का विकास गीता के ज्ञान से हुआ। गीता के रहस्य ने ही उनके हृदय को पवित्र तथा बुद्धि को परिष्कृत किया है। जब किसी से हार्दिक सम्बन्ध हो जाते हैं तो वहाँ बहस या दलील व्यर्थ हो जाती है।

हृदय दलीलों को नहीं मानता, वह तो सत्य व कोमलता को स्वीकार करता है। जिस प्रकार एक पक्षी अपने दोनों पंखों की सहायता से स्वछन्द नीले आकाश में अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उड़ान भरता हुआ प्रसन्न होता है ठीक उसी प्रकार विनोबा जी भी गीता में श्रद्धा रखते हुए तथा उसे अपने जीवन में साक्षात प्रयोग करते हुए गीता के अर्थ को या उसके रहस्य को समझते हैं और सुख का अनुभव करते हैं। श्रद्धा और प्रयोग उनके गहन अध्ययन के दो आधार रूपी पंख हैं।

विशेष :

  1. विनोबा जी की गीता के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त की गई है।
  2. संस्कृतनिष्ठ शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
  3. गीता-गगन में रूपक अलंकार का प्रयोग है।
  4. उदाहरण व गवेषणात्मक शैली का प्रयोग है।

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(2) मैं प्राय: गीता के ही वातावरण में रहता हूँ। गीता मेरा प्राणतत्व है। जब मैं गीता के सम्बन्ध में किसी से बात करता हूँ, तब गीता-सागर पर तैरता हूँ और जब अकेला रहता हूँ तब उस अमृत-सागर में गहरी डुबकी लगाकर बैठ जाता हूँ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत अंश में विनोबा जी गीता के प्रति अपनी श्रद्धा का वर्णन करते हैं। गीता के प्रति उनकी श्रद्धा तर्करहित हार्दिक है। उनके जीवन का हर पल गीता के मूल से जुड़ा है।

व्याख्या :
विनोबा भावे, आसक्ति रहित कर्म करने का संदेश देने वाली गीता से, आजीवन जुड़े रहे। गीता ने उन्हें जीवन प्रदान किया। गीता उनके प्राण-आत्मा थी। गीता की चर्चा करते समय वह उसके बाह्य रूप के सम्पर्क में रहते थे लेकिन एकान्त की अवस्था में वह उसके गूढ़ रहस्य को समझने में लगे रहते थे। परन्तु प्रतिपल वे गीता के सम्पर्क में रहते थे। एकाकी अवस्था में उन्होंने गीता रूपी सागर के निष्काम कर्म रूपी अमृत को पीया। गीता-सागर में डुबकी लगाने अर्थात् उसका गहन अध्ययन करने पर उन्हें सुख मिलता था। जैसे अमृत पीकर मनुष्य अमर हो जाते हैं, उसी प्रकार गीता के रहस्य को समझने पर वे अमर हो गये या कहें कि वे सुख-दुःख से परे हो गए। इस प्रकार गीता व विनोबा जी दो अलग रूप होते हुए एक हो गए थे। गीता ने उन्हें आनन्दपूर्ण जीवन प्रदान किया।

विशेष :

  1. गीता के द्वारा ही मनुष्य मोक्ष पा सकता है।
  2. प्राणतत्व जैसे गूढ़ शब्दों के कारण भाव कठिन हो गए हैं।
  3. अलंकारिक व मुहावरेदार भाषा।
  4. संस्कृत शब्दावली का प्रयोग।
  5. साहित्यिक खड़ी बोली।

(3) अर्जुन, तो लड़ाई से परावृत्त हो रहा था, सो भय के कारण नहीं। सैकड़ों लड़ाइयों में अपना जौहर दिखाने वाला वह महावीर था। उत्तर-गो ग्रहण के समय उसने अकेले ही भीष्म, द्रोण और कर्ण के दाँत खट्टे कर दिये थे। सदा विजय प्राप्त करने वाला और सब नरों में एक ही सच्चा नर, ऐसी उसकी ख्याति थी। वीरवृत्ति उसके रोम-रोम में भरी थी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में बताया गया है कि जब अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में खड़ी अट्ठारह अक्षोहिणी सेना के मध्य अपनी चार पीढ़ियों को खड़ा देखते हैं तो उनके मन में स्वजनासक्ति आ जाती है और वह युद्ध न करने की बात कृष्ण से कहते हैं। तब कृष्ण गीता के माध्यम से क्षात्रधर्म का सन्देश देकर उनमें उत्साह का संचार करते हैं।

व्याख्या :
श्री विनोबा जी बताते हैं कि अर्जुन ने युद्ध करना अस्वीकार किया। इसका कारण विशाल सेना की शक्ति को देखकर वह भयभीत नहीं था। अर्जुन महावीर था, उसने अनेक युद्धों में अपनी वीरता दिखाई थी तथा वह अनेक लड़ाइयाँ जीत चुका था। जिस समय पाण्डव अज्ञातवास में थे तब कौरव सेना, उत्तर कुमार की गायों का अपहरण करने आई थी। जिनमें भीष्म, द्रोण और सूर्यपुत्र कर्ण जैसे अजेय वीर थे, उस समय अर्जुन ने उत्तर कुमार का सारथी बनकर कौरवों की सेना को पराजित किया था।

यह अर्जुन की वीरता और निडरता का उदाहरण है। अत: अर्जुन शत्रु की सेना की शक्ति से नहीं डरा था। अर्जुन की प्रत्येक लड़ाई में विजय हुई थी, वह नर-श्रेष्ठ था। उसकी वीरता का यश दसों दिशाओं में फैला था। अर्जुन के सम्पूर्ण शरीर व रोम-रोम में वीरता की भावना भरी हुई थी। लेखक ने अर्जुन द्वारा युद्ध न किए जाने का कारण स्वजनासक्ति बताया है। उस आसक्ति को कृष्ण ने गीता सुना कर समाप्त किया था।

विशेष :

  1. शुद्ध खड़ी बोली का प्रयोग।
  2. ‘दाँत खट्टे करना’ तथा ‘रोम-रोम में भरा’ जैसे मुहावरों का प्रयोग।
  3. उद्धरण शैली का प्रयोग।
  4. ‘परावृत्त’ जैसे संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।
  5. अर्जुन की वीरता का परिचय दिया गया है।

(4) क्या अशोक की तरह उसके मन में अहिंसा-वृत्ति का उदय हुआ था? नहीं, यह तो केवल स्वजनासक्ति थी। इस समय भी यदि गुरु बंधु और आप्त सामने न होते, तो उसने शत्रुओं के मुण्ड गेंद की तरह उड़ा दिये होते। परन्तु इस आसक्ति जनित मोह ने उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा को ग्रस लिया और तब उसे तत्वज्ञान याद आया।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
विनोबा जी ने बताया है कि युद्धभूमि में अपने परिजनों को देखकर अर्जुन मोह में पड़ गया, इस कारण वह अपने क्षात्रधर्म को भूल गया।

व्याख्या :
कुरुक्षेत्र के मैदान में अपने स्वजन समूह को देखकर अर्जुन के हृदय में हलचल मच गई। वह अचानक अहिंसावादी बन गया । अर्जुन की अहिंसा अशोक जैसी अहिंसा नहीं थी, उसकी अहिंसा का कारण परिवार के प्रति मोह था। अशोक युद्ध के वीभत्स परिणामों के कारण अहिंसावादी बना था। अशोक और अर्जुन की अहिंसा में अन्तर था। अर्जुन के सामने यदि उसके गुरु,भाईबन्धु, मित्र आदि न होकर शत्रु पक्ष की सेना होती तो वह विपक्ष को नष्ट कर देता। इस समय परिजनों के प्रति आसक्ति ने उसे मोह में डुबो दिया जिसका परिणाम था कि वह अपने क्षात्रधर्म अर्थात् कर्त्तव्य को भूल गया। वह अहिंसा को श्रेष्ठ मानने लगा तथा अपना तत्त्व-ज्ञान अर्थात् दर्शन बघारने लगा कि युद्ध पाप है,समाज का कलंक है, धर्म का नाश है, व्यभिचार की जड़ है, आदि। इसी मोह को नष्ट करने व क्षात्रधर्म याद कराने के लिए कृष्ण ने अर्जुन को युद्धभूमि में गीता सुनाई थी।

विशेष :

  1. अर्जुन मोहवश अपने कर्तव्य-युद्ध को भूल गया।
  2. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
  3. संस्कृत शब्दों की अधिकता है।
  4. अशोक और अर्जुन की अहिंसा में अन्तर बताया है।
  5. शैली में संक्षिप्तता तथा क्लिष्टता है।

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(5) परन्तु सारी गीता में इस मुद्दे का कहीं भी जवाब नहीं दिया है, फिर भी अर्जुन का समाधान हुआ है। यह सब कहने का अर्थ इतना ही है कि अर्जुन में अहिंसा-वृत्ति नहीं थी, वह युद्ध प्रवृत्त ही था। युद्ध उसकी दृष्टि से उसका स्वभावप्राप्त और अपरिहार्य रूप से निश्चित कर्त्तव्य था। उसे वह मोह के वश होकर टालना चाहता था। और गीता का मुख्यत: इस मोह पर ही गदा प्रहार है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
निबन्ध की अन्तिम पंक्तियों में बताया गया है कि युद्ध न करना अर्जुन का दर्शन नहीं बुद्धिवाद था। अतः कृष्ण ने अर्जुन के बुद्धिवाद पर ध्यान न देकर अर्जुन के मोह को तोड़ा।

व्याख्या :
कृष्ण अर्जुन की परिवार में निहित आसक्ति को जानते थे, वह यह भी जानते थे कि अर्जुन अहिंसावादी नहीं है, उसका स्वभाव युद्ध है, लेकिन इन तथ्यों को गीता में नहीं बताया गया है। कृष्ण ने तो केवल अर्जुन के मोह को नष्ट किया है, उसके कर्त्तव्य की याद दिलाई है। कृष्ण ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे जानते थे कि अर्जुन क्षत्रिय है, युद्ध करना उसका स्वभाव है और एक क्षत्रिय अहिंसा को कभी नहीं अपनाता। युद्ध एक क्षत्रिय का कभी न त्यागने वाला कर्त्तव्य होता है। अर्जुन सच्चे अर्थों में एक वीर योद्धा था। युद्ध के परिणामों को जानते हुए भी वह युद्ध को नहीं त्याग सकता था। लेकिन परिवार के मोह ने उसे युद्ध से विमुख कर दिया था। इसी मोह को श्रीकृष्ण ने गीता के सन्देश के द्वारा नष्ट कर दिया। अन्त में, अर्जुन ने कहा कि उसका भ्रम अर्थात् मोह नष्ट हो गया है और वह अपने धर्म के लिए तैयार है।

विशेष :

  1. कृष्ण के द्वारा अर्जुन का मोह भंग हुआ है।
  2. संस्कृत के शब्दों के प्रयोग के साथ भावों की सरलता है।
  3. लघु वाक्यों ने विचारों को स्पष्ट किया है।
  4. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली।
  5. ‘मुद्दे’ व ‘जवाब’ जैसे उर्दू के शब्दों का प्रयोग।

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