MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण संक्षेपण

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण संक्षेपण

संक्षेपण का अर्थ और स्वरूप 

संक्षेपण या संक्षेपीकरण अथवा संक्षिप्तीकरण प्रेसी (Precis) का भाषा अनुवाद है। लेटिन भाषा के प्रेसीडर (Praecidere) से प्रेसी शब्द बना है जिसका अर्थ होता है काँट-छाँट कर छोटा करना। संक्षेपण या संक्षेपीकरण शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। संक्षेपीकरण की तरह सारांश, सरलीकरण, भावार्थ, मुख्यार्थ, आशय आदि में भी संक्षिप्त रूप में लिखने पर बल दिया जाता है, पर संक्षेप इनसे स्वतंत्र कला है। इसकी अपनी शैली है।

संक्षेपण वह कला है जिसमें संक्षेपक का ध्यान सार-ग्रहण की ओर रहता है और वह आसार को छोड़ता चला जाता है। ऐसा करने में वह संक्षेपण की विधि और प्रक्रिया का ध्यान रखता है।

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संक्षेपण वह कला है जिसके द्वारा किसी वक्तव्य को, किसी विषय को कम-से-कम शब्दों … में प्रस्तुत किया जाए तो भी स्वयं में पूर्ण हो। उसमें मूल का न कोई अंश छूटता है और न ही उसके अनिवार्य आशय के समझने में कोई न्यूनता आती है।

संक्षेपण में पदान्वय के समान मूल वक्तव्य का संपूर्ण ब्यौरा नहीं रहता और न ही वह मूल ‘अंश के समान आकार वाला होता है। संक्षेपण मूल वक्तव्य से सदैव आकार में छोटा होता है। समास और व्यास शैली आदि भेद के कारण यद्यपि कोई नियम तय नहीं होता तथापि मूल का लगभग एक तिहाई भाग ही होता है।

संक्षेपण से किसी भी लेख, भाषण, अवतरण के मल तत्त्वों का ज्ञान तो होता ही है. साथ ही इस माध्यम से अभिव्यंजना और आलोचना में विशेष सहायता प्राप्त होती है। संक्षेपण करने में संक्षेपक लाक्षणिक शैली का प्रयोग नहीं करता। इसमें वह स्वाभाविक शैली व सीधे-साधे शब्दों का प्रयोग करता है।

संक्षेपक संक्षेपण करते समय औचित्य के लिए मूल अवतरण या विषय के क्रम में परिवर्तन कर उसे अधिक संगत बना देता है। इसके साथ ही संक्षेपण करते समय वाक्यों की संगति रखना भी आवश्यक होता है जिससे विचारों के तारत्य में अन्तर न आ जाए।

सार यह है कि संक्षेपण वह कला या रचना है जिसमें किसी वक्तव्य, लेख. अनच्छेद. आदि में व्यक्त भावों को मूल की अपेक्षा कम शब्दों में प्रतिपादित किया जाए। संक्षेपण में मूल का लगभग एक तिहाई भाग होता है।

महत्त्व और उपयोगिता

आज के व्यस्त जीवन में सब जगह संक्षेपण का महत्त्व है। यों भी जीवन में ऐसे व्यक्ति को महत्त्व दिया जाता है, जो संक्षेप में बात कहता है और व्यर्थ में अपने कथन को विस्तार नहीं देता। साहित्यकारों में गागर में सागर भरने की प्रवृत्ति इसी कारण है। संक्षिप्तता को वाग्वैदग्ध्य की आत्मा कहा जाता है।

संक्षेपण की कला की अपनी उपयोगिता है। इस कला से विद्यार्थी में स्वतंत्र निर्णय लेने की योग्यता बढ़ती है। वह असार छोड़कर सार ग्रहण करने में समर्थ होता है। किंतु इसके लिए अभ्यास की परम आवश्यकता है। संक्षेपण से भाषा लिखने का सामर्थ्य आता है। संक्षेपण से लेखक की योग्यता का विकास होता है। संक्षेपण कार्यालयों में कार्यप्रणाली का प्रमुख हिस्सा है। इसके बिना कार्यालय का काम-काज ठप्प हो सकता है। पत्रकारों और संवाददाताओं के लिए भी इस कला का बहुत महत्त्व है।

संक्षेपण के गुण या तत्त्व

व्यावहारिक जगत् में, विविध कार्यालयों में, प्रेस कांफ्रेंस आदि में विस्तृत वक्तव्य या अवतरण की रूपरेखा संक्षिप्त करना आजकल आवश्यक है। संक्षेपण के अभाव में ऐसा करना असंभव है। इसके लिए आधारभूत निम्न तत्त्व कहे गए हैं। इन्हें ही गुण भी कह दिया जाता है :

  1. पूर्णता : संक्षेपण अपने आप में पूर्ण होना चाहिए। पढ़ने के बाद ऐसा लगना चाहिए कि उसका कोई मुद्दा छूटा नहीं है।
  2. संक्षिप्तता : संक्षेपण करते समय मूल अवतरण के दृष्टांत, व्याख्या और अलंकारिकता आदि उससे अलग कर देने चाहिए। साधारणतः संक्षेपण का एक तिहाई भाग स्वीकृत माना जाता है।
  3. स्पष्टता : संक्षेपण का पाठक मूल अनुच्छेद नहीं पढ़ता, इसलिए इसमें कोई मुद्दा नहीं छूटना चाहिए। अगर इसमें व्यर्थ का विस्तार किया जाता है तो इससे अस्पष्टता आ जाती है।
  4. तारतम्य : अच्छे संक्षेपण में एक तारतम्य होना चाहिए। विचारों में असम्बद्धता नहीं होनी चाहिए। इसमें एकसूत्रता होनी चाहिए। प्रत्येक वाक्य में शृंखलाबद्धता होनी चाहिए जिससे क्रम में हानि न हो।
  5. प्रभावोत्पादकता : मू वतरण के बिखरे क्रम में परिवर्तनकर उसे प्रभावोत्पादक बनाया जाता है। यह अच्छे संक्षेपक का गुण है। भावों की क्रमबद्धता अच्छे संक्षेपण में प्रभाव पैदा करने की क्षमता रखती है।
  6. सारता : अच्छा संक्षेपण मूल अवतरण का सारमात्र होना चाहिए, अतः अनुच्छेद से न कुछ कम होना चाहिए और न विस्तार होना चाहिए।

इन तत्त्वों के अतिरिक्त संक्षेपण अप्रत्यक्ष कथन शैली में किया जाना चाहिए, मूल अनुच्छेद के शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। आकार की वृद्धि रोकने के लिए मुहावरे, लोकोक्तियां व दृष्टांत आदि निकाल देने चाहिए। विशेषणों और क्रिया विशेषणों को हटा देना चाहिए। टीका-टिप्पणी निकाल देनी चाहिए। भूमिका व उपसंहार आदि का भी महत्त्व नहीं है।

इस प्रकार इन सब तत्त्वों या गुणों को ध्यान में रखकर संक्षेपण करना चाहिए।

संक्षेपण की विधि

संक्षेपण करते समय संक्षेपण लेखक को इसके गुणों अथवा तत्त्वों को ध्यान में रखना चाहिए और लिखने के लिए पूर्ण मनोयोग के साथ बैठना चाहिए। संक्षेपक संक्षेपण करते समय निम्नलिखित विधि अथवा प्रणाली अपना सकता है:

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1. मूल अनुच्छेद का पठन : संक्षेपण करते समय संक्षेपक को मूल अवतरण कम-से-कम तीन बार पढ़ना चाहिए। पढ़ते हुए उसे विशिष्ट वाक्यों को रेखाकिंत कर लेना चाहिए अथवा असार वाक्यों को रेखाकिंत करना चाहिए। अगर किसी शब्द का ज्ञान नहीं है तो उसे शब्द कोश का आश्रय लेना चाहिए।

2. शीर्षक का चुनाव : प्रायः शीर्षक अवतरण के केन्द्रीय भाव से जुड़ा होता है। यह आकार में लघु होना चाहिए अथवा कुछ शब्दों में होना चाहिए। यह एक पंक्ति से बड़ा नहीं होना चाहिए। यह कथ्य के साथ मेल खाने वाला होना चाहिए। इस शीर्षक में गंभीरता होनी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो संक्षेपक दो-तीन शीर्षक का चुनाव कर सकता है और उसमें भी सबसे उपयुक्त का चुनाव कर सकता है।

शीर्षक प्रायः अनुच्छेद के आरम्भ में एक शब्द से सूचित होता है। कभी-कभी यह भूमिका .. अथवा उपसंहार में होता है। कभी शीर्षक अवतरण के मध्य होता है। कभी यह अवतरण के अन्त में होता है। यदि इनमें भी शीर्षक न मिले तो मूल कथ्य को पढ़कर शीर्षक तैयार किया जा सकता है।

3. शब्द संख्या से संक्षेपण के आकार का निर्माण : शब्द संख्या से संक्षेपण के आकार का निर्माण किया जाता है। संक्षेपक मूल अनुच्छेद को पढ़कर और उसके शब्दों की गणना कर, मूल अनुच्छेद के एक-तिहाई शब्दों में (थोड़ा बहुत या अधिक) संक्षेपण करे। शब्द गणना करते समय अगर विभक्तियाँ शब्दों के साथ जुड़ी हुई हों तो उस रूप में और अलग हों तो उस रूप में गणना करे। प्रायः परीक्षा में संकेत दे दिया जाता है कि संक्षेपण इतने शब्दों में किया जाना चाहिए। अगर ऐसा संकेत न हो तो एक पंक्ति के शब्दों की गणना कर उन्हें कुल पंक्तियों से गुणा कर शब्द संख्या निकाल लेनी चाहिए।

4. संक्षेपण के प्रारूप का निर्माण : अगर विद्यार्थी के पास समय हो तो संक्षेपण का पहले प्रारूप तैयार करना चाहिए। यह मूल अनुच्छेद के आधे के बराबर होना चाहिए। प्रारूप में अन्य पुरुष का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस प्रारूप में विशेषणों, कहावतों व मुहावरे आदि को निकाल देना चाहिए। क्रिया विशेषणों को भी अलग कर देना चाहिए।

5. तथ्यात्मकता का प्रारूप : शीर्षक चुनाव के बाद मुख्य विषय से संबंधित सामग्री का चुनाव करना चाहिए। इसके लिए मुख्य तत्त्वों को रेखांकित करना चाहिए अथवा अनावश्यक सामग्री को रेखांकित करना चाहिए। इन दोनों प्रकारों में एक को अपनाकर संक्षेपण तैयार करना चाहिए। किंतु मूल कथ्य में ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

6. लेखन : लेखन संक्षेपण का मूल अन्तिम सोपान है। इससे पूर्व में जो प्रारूप तैयार किया जाता है उसे संक्षिप्त करने और केंद्रीय भाव को ध्यान में रखकर संक्षिप्तता, एकसूत्रता और प्रभावोत्पादकता बनाए रखना चाहिए। लेखन की भाषा सहज और स्वाभाविक होनी चाहिए। उसमें किसी तरह कोई आडम्बर नहीं दिखना चाहिए।

संक्षेपण के प्रकार

संक्षेपण के कई प्रकार हैं :

  1. संवादों का संक्षेपण : प्रत्येक संवाद का संक्षेपण आवश्यक नहीं होता, जहाँ नई बात हो वही रेखांकित की जानी चाहिए। प्रत्यक्ष कथन को अप्रत्यक्ष कथन में कहना चाहिए। पात्रों की भाव-भंगिमा तथा मनोदशा के सूचक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। उद्धरण चिह्नों को हटा देना चाहिए। संज्ञाओं के स्थान पर सर्वनामों का प्रयोग करना चाहिए।
  2. समाचारों का संक्षेपण : प्रत्येक संवादों के सक्षेपण में तिथि, स्थान तथा संबद्ध व्यक्तियों का नामोल्लेख किया जाना चाहिए। इस प्रकार के संक्षेपणों में शीर्षक प्रभावी होना चाहिए।
  3. पत्रचारों का संक्षेपण : सभी कार्यालयों में पत्राचारों के संक्षेपण की आवश्यकता होती है। कार्यालयों के पत्राचारों में समानता होने के कारण प्रायः विषमताओं को उभारना चाहिए।

पत्राचारों के संक्षेपण के दो प्रकार हैं : सामान्य संक्षेपण और सूचीकरण संक्षेपण। सामान्य . संक्षेपण को विस्तृत रूप से संक्षिप्त करना होता है जबकि सूचीकरण संक्षेपण में कमसंख्या, पत्रसंख्या, दिनांक, प्रेषक, प्रेषिती और पत्र के विषय का ध्यान रखा जाता है।

संक्षेपण के कुछेक उदाहरण

1. भारत के पास कुछ ऐसी संपदाएँ हैं तथा लाभ हैं जिनके बारे में विश्व के कुछ देश गर्व से दावा कर सकते हैं। हमें अपने गौरवशाली अतीत और वर्तमान योगदानों तथा अपने भविष्य की रूपरेखा बनाने के लिए प्राप्त प्रतिस्पर्धात्मक लाभ को पहचानना चाहिए। विश्व एक बौद्धिक समाज में परिवर्तित हो रहा है, जहाँ समन्वित ज्ञानराशि तथा धन का स्रोत होगा। यही वह समय है, जब भारत खुद को एक बौद्धिक शक्ति में बदलने और फिर अगले दो दशकों के भीतर एक विकसित देश बनने के लिए इस अवसर का लाभ उठा सकता है। इस रूपांतरण के लिए यह जानना आवश्यक है कि हम प्रतिस्पर्धात्मकता के मामले में कहाँ हैं जो एक बौद्धिक शक्ति बनाने की दिशा में अग्रसर होने के लिए वास्तविक इंजन है।

शब्द संख्या : 122

संक्षेपण

शीर्षक

प्रतिस्पर्धा की पहचान
संक्षेपण : भारतीय को गौरवमय अतीत, वर्तमान उपलब्धियों व भविष्य के प्रारूप को जानने की आवश्यकता है क्योंकि संसार बौद्धिक होता जा रहा है और ज्ञानशक्ति व धन का स्रोत . बनता जा रहा है। विकास के लिए उसे प्रतिस्पर्धा में स्वयं को पहचानना होगा कि वह कहाँ है।

– शब्द संख्या : 40

2. इन सब के पीछे राजनीति है। यह कोई नई बात नहीं है। नालंदा विश्वविद्यालय की कई महिमा रही है। शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा दबदबा रहा है नालंदा का। दस हजार विद्यार्थी और पन्द्रह सौ आचार्य थे। बौद्ध दर्शन, दर्शन, इतिहास, निरुक्त, वेद, हेतुविद्या, न्याय शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष आदि के शिक्षण की व्यवस्था। इस विश्वविद्यालय में। आचार्य शीलभद्र, नागार्जुन, आचार्य धर्म कीर्ति, आचार्य ज्ञानश्री, आचार्य बुद्ध भद्र, आचार्य गुणपति, आचार्य स्थिरमति, आचार्य सागरमति जैसे विख्यात आचार्यों का नाम नालंदा से जुड़ा रहा। लेकिन नालन्दा के इतिहास में काला धब्बा भी लग गया है। यह काला धब्बा नालंदा के पुस्तकालय को लेकर है। बख्तियार खिलजी के आक्रमणों से देश की जो सबसे बड़ी हानि हई, वह थी वहाँ के इन पुस्तकालयों को आग के हवाले करना। इस अग्निकाण्ड में वे अमूल्य ग्रन्थ सदा के लिए भस्म हो गए। जिनका उल्लेख मात्र तिब्बती और चीनी ग्रंथों में मिलता है। युवानच्चाङ ने नालंदा के पुस्तकालय का बड़ा गौरवपूर्ण उल्लेख किया है। तिब्बती विवरणों से पता चलता है कि नालंदा में पुस्तकालयों का एक विशिष्ट क्षेत्र था। उसे वह ‘धर्मगंज’ कहते थे। इसमें ‘रत्नसागर’, ‘रत्नोदधि’ और रत्नंजक नामक तीन विशाल पुस्तकालय थे। ‘रत्नसागर’ का भवन नौ-मंजिला. था।

शब्द संख्या : 193

संक्षेपण

शीर्षक-
नालंदा विश्वविद्यालय की महिमा

नालंदा विश्वविद्यालय की शिक्षा के क्षेत्र में कभी धाक रही है। यहाँ बौद्ध दर्शन, दर्शन, इतिहास, निरुक्त, वेद शास्त्र, हेतु विद्या, न्याय शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, ज्योतिष आदि तत्कालीन सभी विषयों की उत्तम व्यवस्था थी। कई नामी शिक्षक थे किंत बख्यिार खिलजी के आक्रमणों के समय इसके पुस्तकालयों को जला दिया गया जिसके कारण इसमें स्थित अमूल्य ग्रंथ नष्ट हो गए जिनकी चर्चा केवल तिब्बती और चीनी ग्रंथों में होती है।

शब्द संख्या : 72.

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3. मन की एकाग्रता की समस्या सनातन है। आज के प्रौद्योगिकी युग में जहाँ भौतिक उन्नति की संभावनाएँ अपार हैं ऐसे में छात्र जब अध्ययन करने बैठता है, तब उसके मन को अनेक तरह के विचार घेरने लगते हैं। वह सोचता है इस अर्थ प्रधान युग में मुझे उत्कृष्ट पद प्राप्ति के लिए एकाग्र मन से पढ़कर परीक्षा में उच्चतम श्रेणी प्राप्त करना आवश्यक है। लेकिन वह जब पढ़ने बैठता है तो क्रिकेट, सिनेमा या मित्र-मण्डली की मौज-मस्ती के विचार में उसका मन भटकने लगता है। मन का यह विचलन बुद्धि की एकाग्रता भंग कर देता है। यह घबरा कर सोचता है, परीक्षा तिथि पास है, मन उद्विग्न है, कैसे अध्ययन करूँ? क्या करूँ? व्यर्थ के विचारचक्र से बुद्धि अस्थिर और मन चंचल बना रहता है। वह सोचता है यदि परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। पद, प्रतिष्ठा, वैभव कुछ नहीं मिलेगा, जीवन बोझ बन जाएगा, वह बार-बार हताशा से घिर जाता है। अनियंत्रित मन और एकाग्रहीनता उसे चिंताओं में डुबा देती है। अर्जुन की यह स्वीकारोक्ति कि ‘चंचल मन का निग्रह वायु की गति रोकने के समान दुष्कर है उसे उचित प्रतीत होने लगता है।’

शब्द संख्या : 198

संक्षेपण

शीर्षक
मन की एकाग्रता
मन की एकाग्रता की समस्या सदा से रही है। छात्र पढ़ने बैठता है तो उसके मन में अनेक विचार घूमने लगते हैं। उन्नति के लिए वह एकाग्र करने का मन बनाता है पर मनोरंजन के साधन उसे भटका देते हैं। मन की एकाग्रहीनता उसे चिंतामग्न कर देती है। अनुभव करने लगता है कि चंचल मन को एकाग्र करना दुष्कर है।
शब्द संख्या : 61

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