MP Board Class 11th Special Hindi सहायक वाचन Solutions Chapter 1 कर्मयोगी लाल बहादुर शास्त्री
कर्मयोगी लाल बहादुर शास्त्री अभ्यास प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए
प्रश्न 1.
लाल बहादुर शास्त्री को निष्काम कर्मयोगी क्यों कहा गया? (2014)
उत्तर:
प्रस्तावना-लाल बहादुर शास्त्री के नाम के साथ यदि ‘कर्मयोगी’ भी जोड़ दिया जाए, तो यह अधिक उपयुक्त होगा। उनका सम्पूर्ण जीवन कर्म से परिपूर्ण था। शास्त्री जी एक सामान्य परिवार में जन्मे, पले, बड़े हुए और शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा भी सामान्य स्तर से प्रारम्भ हुई। इस तरह एक साधारण परिवार का बालक प्रधानमन्त्री के उत्तरदायित्वपूर्ण पद तक पहुँचे, यह एक अति आश्चर्य की बात मानी जाएगी। उनके जीवन में असुविधाएँ ही असुविधाएँ थीं। कठिनाइयों का तो कोई जोड़-तोड़ ही नहीं रहा। लेकिन इन सबके पीछे स्वयं शास्त्री जी की विचारधारा और कर्म प्रधान जीवन में ही उनके जीवन की सफलता का रहस्य छिपा था। उनको जीवन का रास्ता स्वयं निर्मित करना पड़ा। उन्हें किसी के द्वारा बना-बनाया रास्ता नहीं मिला।
जीवन शैली और दर्शन :
अब आती है बात, शास्त्री के जीवन की शैली और उनके जीवन के प्रति दर्शन की। वे ऐसे लोगों में से नहीं थे जो भाग्य में विश्वास करते थे और यह सोचकर बैठ जाते कि जो भाग्य में होगा, वही प्राप्त होगा और देखा जाएगा। भाग्यवादी लोगों को कभी अचानक सफलता मिल जाती है, ऐसा उनके साथ नहीं था। यह उनके जीवन की शैली नहीं थी। वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें अपने चिन्तन और कर्म शक्ति पर अधिक भरोसा होता है। वे अपने हाथ की लकीरों को मिटाकर चलने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने अपने जीवन का रास्ता स्वयं चुना और उस पर आगे बढ़ते गये।
कर्मफल में निष्काम भाव :
शास्त्री ने अपने कर्म और उत्तरदायित्व का निर्वाह किया। कर्म साधना ही उनके लिए ईश्वर की साधना थी, भक्ति थी। वे अपने कर्म के लिए समर्पित थे। कर्म के फल और उसकी परिणति में उन्हें कभी भी आशा नहीं थी। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे निराशावादी थे। सम्पूर्ण भाव से कर्म में निरत रहना, उनकी ईश आराधना और भक्ति से कम नहीं थी। उन्हें अपने कर्म फलानुसार जब भी अवसर प्राप्त हुए, वे उस कर्म के फल की ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि ही अपनाते रहे। इस तरह ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान् श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म की व्याख्या करते हुए जो मार्ग दिखाया है, उसी का अनुपालन उन्होंने अपने जीवन में पूरे समय किया। इस सबका यह निष्कर्ष निकलता है कि श्री शास्त्री जी निष्काम कर्मयोगी थे।
प्रश्न 2.
“शास्त्री जी अत्यन्त लोकप्रिय थे”, कारण सहित उनकी लोकप्रियता पर प्रकाश डालिए। (2008, 09)
उत्तर:
प्रस्तावना :
शास्त्री जी सदैव ही भारतीय आजादी के आन्दोलनों के दौरान- चाहे जेल में रहे या जेल से बाहर; वे समाजगत समस्याओं के निराकरण के लिए जूझते रहे। उनके जीवन का उद्देश्य समाज और देश में रचनात्मक कार्यों को प्राथमिकता से पूरा करना था। इस दिशा में, वे पूरी लगन और तत्परता से प्रयत्नशील रहे और कार्यों को सम्पन्न किया और सहयोगीजनों से सहयोग प्राप्त किया।
शास्त्रीजी और जनसेवा :
रचनात्मक कार्यों के अतिरिक्त एक पदाधिकारी के रूप में भी जनसेवा को महत्त्व प्रदान किया। वे सन् 1935 ई. में संयुक्त प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे और सन् 1938 तक जनसेवा में लगे रहे। खासतौर से उनका लगाव किसानों की सेवा व उनके उत्थान के उपायों के प्रति रहा। उन्होंने किसानों को संगठित किया। इस कार्य शैली और जीवन दिशा की सोच के कारण उन्हें उस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया, जो किसानों की दशा का अध्ययन कर रही थी। यह सन् 1936 की बात है। उन्होंने अपनी पक्की लगन और दृढ़ आस्था से अपनी रिपोर्ट तैयार की और उस रिपोर्ट में जमींदारी उन्मूलन पर विशेष बल दिया था।
इलाहाबाद की नगरपालिका से भी लगातार 6 वर्षों तक किसी न किसी रूप में जुड़े रहे। वे ग्रामीण जीवन शैली से पूर्णतः परिचित थे ही। अब इसके साथ इलाहाबाद नगरपालिका ने जनसेवा का भी अनुभव जोड़ दिया। लोकतन्त्र की आधारभूत इकाई इलाहाबाद नगरपालिका थी। इसके कार्य करने से देश की छोटी-छोटी समस्याओं और उनके निराकरण की व्यावहारिक प्रक्रिया से वे बहुत अच्छी तरह परिचित हो चुके थे।
शास्त्रीजी का संसदीय जीवन :
शास्त्री जी के व्यक्तित्व में कार्य के प्रति निष्ठा और परिश्रम करने की अदम्य क्षमता व्याप्त थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें सन् 1937 ई. में संयुक्त प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित कर लिया गया। अगर सही अर्थ की बात मानें तो शास्त्री जी का संसदीय जीवन यहीं से प्रारम्भ हुआ और उसका समापन देश के प्रधानमन्त्री के पद तक पहुँचने में हुआ।
उपसंहार :
शास्त्रीजी को भारतीय राजनीति की इतनी सही और गहरी पकड़ थी कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा कि वे उनके राजनीतिक गुरु थे और उन्हीं के मार्गदर्शन में उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई।
प्रश्न 3.
शास्त्री जी के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (2012)
अथवा
कर्मयोगी लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व की दो विशेषताएँ लिखिए। (2016)
उत्तर:
शास्त्री जी के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं-
(1) शास्त्री जी का निष्काम कर्मयोग :
शास्त्री जी एक सामान्य स्थिति के परिवार से ऊपर उठकर देश के प्रधानमन्त्री के अति महत्त्वपूर्ण पद तक पहुँचे, इस सबका रहस्य उनके कर्मयोगी होने में निहित है। लोगों को बहुत से आसान तरीके मिल जाते हैं और वे आगे तक सुविधाभोगी जीवन बिताते हैं। लेकिन शास्त्री जी ऐसे नहीं थे। वे भाग्य पर भरोसा करके बैठे रहने वाले व्यक्ति नहीं थे। वे तो उन लोगों में से थे, जो अपने हाथ की लकीर मिटाकर अपने चिन्तन और कर्म की शक्ति पर भरोसा करते थे और आगे बढ़ते थे। शास्त्री जी के लिए कर्म ही ईश्वर था। वे किसी भी कर्म के फल के प्रति आशावान नहीं थे। वे तो मात्र कर्म में ही समर्पित थे। उनका जीवन दर्शन गीता के निष्काम कर्मयोग से प्रभावित था।
(2) अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ आस्था :
शास्त्री जी अपने कर्म उद्देश्य को प्राप्त करने में आस्था रखते थे। उद्देश्य में सफलता उनका ध्येय होता था।
(3) उद्देश्य प्राप्ति के लिए कर्म :
शास्त्री जी अपने निर्धारित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित थे। अपनी समग्र क्षमताओं से विश्वास के द्वारा उद्देश्य प्राप्ति के लिए कर्म करते जाना उनके जीवन का प्रधान लक्ष्य था।
(4) उद्देश्य प्राप्ति हेतु कर्म करने के लिए समर्पित :
शास्त्री जी सदैव ही अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के प्रति सद्प्रयासों से कर्म के प्रति संकल्पित थे। इस संकल्प की पूर्ति करने तक वे कर्म निष्पादन में समर्पित रहते थे।
(5) स्वस्थ चिन्तन :
शास्त्री जी का चिन्तन पूर्णतः स्वस्थ था। अपने स्वस्थ चिन्तन से ही वे अपनी सफलताएँ प्राप्त करते चले गये। शास्त्री का चिन्तन ही ऐसा था जिससे स्वयं अपना, देश का विकास आगे बढ़ सका। इस चिन्तन में भी भक्ति और कर्म का सिद्धान्त निहित था।
(6) श्रम, सेवा, सादगी और समर्पण :
शास्त्री जी को कोई भी उत्तरदायित्व सौंपा गया, वे उस उत्तरदायित्व का निर्वाह श्रम से, सेवाभाव से, सादगी से और समर्पण (त्याग) की भावना से करते थे। इस तरह किसी भी कर्म के फल के प्रति उनका स्वार्थ अथवा लगाव नहीं था।
(7) सादगी, विनम्रता एवं सरलता :
शास्त्री जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी सादगी। वे साधारण परिवार में उत्पन्न हुए, सादगी से ही परवरिश हुई परन्तु देश के प्रधानमन्त्री पद पर आरूढ़ शास्त्री जी सदैव सामान्य बने रहे, सादगी से जीवन बिताते रहे। विनम्रता, सादगी और सरलता ने उनके व्यक्तित्व में एक विचित्र आकर्षण पैदा कर दिया था।
(8) कठिनाइयों में भी न घबराना :
शास्त्री जी ने सन् 1930 से सन् 1942 तक के जीवन के सफर में अर्थात् बारह वर्ष की इस समयावधि में लगभग सात वर्ष तक जेल का जीवन काटा। उस साधारण स्थिति वाले व्यक्ति के लिए इस तरह की साधना अत्यन्त कठिनताओं से भरी हुई थी। वे अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं हुए। राजनैतिक अथवा सामाजिक तौर पर उन्हें कोई भी कार्य सौंपा गया, वे उस कार्य के सम्पादन में सफल हुए, घबराए नहीं।
(9) लोकप्रियता :
शास्त्री जी अपनी कार्य शैली और विविध पहलुओं की पूर्ति सम्बन्धी कार्यों के लिए लोगों में बहुत ही प्रिय और प्रसिद्ध हो गए।
(10) आत्मसंयम :
देश में शास्त्री को अति महत्त्वपूर्ण पदों पर स्वाभाविक रूप से अधिकार भी प्राप्त थे परन्तु उन अधिकारों का उपयोग कर्त्तव्यपालन से किया, जिसमें शास्त्री जी का आत्मसंयम ही काम आया। आत्मसंयम से एक श्रेष्ठ नागरिक के गुण विकसित किये जा सकते हैं, ऐसा विचार था शास्त्री जी का।
शास्त्री जी सोचते थे कि हमारा देश प्रजातन्त्रात्मक रूप से आजाद है। अतः उस आजादी का उपभोग एक व्यवस्थित समाज के हित में स्वेच्छा से लगाए गए प्रतिबन्धों के तहत होना चाहिए। इस तरह शास्त्री जी का व्यक्तित्व एक अनुशासित रूप से कर्त्तव्य और अधिकार सम्पन्न कर्मशीलत्व लिए हुए धैर्य और शौर्य (वैचारिक दृढ़ता) का अनुकरणीय उदाहरण है।
प्रश्न 4.
शास्त्री जी ने किन रूपों में प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया?
उत्तर:
प्रस्तावना :
श्री लाल बहादुर शास्त्री जी स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गाँधी जी द्वारा निर्देशित रचनात्मक कार्यों में लगे रहे। इसके अतिरिक्त उन्होंने एक पदाधिकारी के रूप में जनसेवा के कार्यों को भी महत्त्व दिया।
संयुक्त प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के सचिव :
शास्त्री जी सन् 1935 ई. में संयुक्त प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के सचिव बनाए गये। इस पद पर सन् 1938 ई. तक बने रहे। किसानों के प्रति उनके मन में विशेष लगाव था। इसलिए किसानों की दशा का अध्ययन करने के लिए एक विशेष कमेटी बनाई गई और उस कमेटी का उन्हें अध्यक्ष बनाया गया।
जमींदारी उन्मूलन की सिफारिश :
शास्त्री जी ने किसानों की दशा का अध्ययन पूरी लगन से किया। काम पूरा करके एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिस रिपोर्ट में जमींदारी उन्मूलन पर विशेष जोर दिया गया।
नगरपालिका इलाहाबाद से जुड़ाव :
इसके बाद छः वर्ष तक वे इलाहाबाद की नगरपालिका में किसी न किसी रूप में जुड़े रहे। इससे शास्त्री जी के व्यक्तित्व और चिन्तन को नागरिकों की समस्याओं का अति निकटता से अनुभव प्राप्त हुआ। नगरपालिका प्रजातन्त्र की एक आधारभूत इकाई होती है। अतः इसमें कार्य करने से वे देश की छोटी-छोटी समस्याओं और उनके निराकरण की व्यावहारिक प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित हो गए थे।
संयुक्त प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित :
शास्त्री जी सन् 1937 ई. में संयुक्त प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित हुए। इस निर्वाचन के पीछे शास्त्री जी की कार्य के प्रति निष्ठा और मेहनत करने की अदम्य क्षमता थी। सही अर्थ में यदि देखा जाए तो शास्त्री जी के संसदीय जीवन की शुरूआत यहीं से हुई। इसके साथ ही शास्त्री जी प्रधानमन्त्री के पद पर सुशोभित हुए तो इस पद तक पहुँचने के साथ ही संसदीय जीवन का समापन हो गया।
भारतीय राजनीति की सही और गहरी पकड :
शास्त्री जी को भारतीय राजनीति की इतनी सही और गहरी पकड़ थी कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानती थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश और केन्द्र में भिन्न-भिन्न पदों पर कार्य करने का विशद अनुभव था। उन्होंने रेल, परिवहन, संचार, वाणिज्य, उद्योग और गृह मन्त्रालय जैसे महत्त्वपूर्ण पदों को सम्भाला।
उपसंहार :
अन्त में यह कहा जा सकता है कि शास्त्री जी ने भारतीय प्रदेश और संघीय सरकार के पदों पर रहकर अपनी प्रशासकीय दक्षता का परिचय दिया, वह एक उदाहरण के रूप में देश के लिए एक गौरव की बात है। अपने मन्त्रालयों के कार्यों में उनका दृष्टिकोण अत्यन्त व्यावहारिक बना रहा एवं सभी प्रकार की औपचारिकताओं से परे रहा। उन्होंने देश की सेवा एक शासक के रूप में नहीं, वरन् एक जनसेवक के रूप में की। लोक सेवक शास्त्री जी को अपनी कार्य शैली के कारण लोकप्रियता प्राप्त हुई। वे एक लोकप्रिय नेता थे। आत्मानुशासन, अधिकार और कर्तव्य का तालमेल लोकतन्त्र प्रशासकीय पद्धति का मूल आधार होता है, ऐसा मानते हुए एक व्यवस्थित समाज के लिए निष्ठा, भक्ति और श्रद्धा से निष्काम कर्म करना अति महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 5.
“शास्त्री जी श्रम, सेवा, सादगी और समर्पण की प्रतिमूर्ति थे।” उदाहरण देकर समझाइए। (2009)
उत्तर:
प्रस्तावना-श्री लाल बहादुर शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन श्रम, सेवा, सादगी और समर्पण (त्याग) की भावना से भरा हुआ था। श्रम’ से उन्होंने जन्म से ही नाता जोड़ा हुआ था। सेवा और सादगी उनके व्यवहार और वार्तालाप से परिलक्षित होते थे। समर्पण (त्याग) तो उनकी जीवन शैली थी।
समन्वय :
उनके ये गुण केवल उनके कार्यों और विचारों में ही अभिव्यक्ति नहीं पाते थे। वरन् उनको देखने मात्र से ही इन सभी भावों का अहसास हो जाता था। उनमें श्रम, सेवा, सादगी और समर्पण का समन्वय था। वे अपने मुख से जो भी कहते, उसे तद्नुसार ही करके रहते थे।
राष्ट्रहित :
शास्त्री जी का वचन, उनका कथन और उनकी करनी इन तीनों की समय पर अन्विति होती थी जिसमें राष्ट्रहित, कल्याण समाहित रहता था। वे जो भी करते अथवा कहते उस सब में राष्ट्र के लाभ की बात छिपी रहती थी। उनका वचन और कथन एकमात्र राष्ट्र-लाभ की भावना से प्रेरित रहता था।
समर्पण :
शास्त्री जी में समर्पण भाव भरा हुआ था। उनके समर्पण के भाव की विशेषता उनके चरित्र से आभासित होती थी। इस चारित्रिक विशेषता के कारण देशवासी उनका विश्वास करते थे और वे सम्पूर्ण भारतीय नागरिकों की प्रथम पसंद थे।
विनम्रता और सूझबूझ :
शास्त्री जी विनम्रता और सूझबूझ के धनी थे। उनकी प्रत्येक बात से, आचरण से, वेशभूषा से उनकी विनम्रता झलकती थी। उनके वचनों की विनम्रता के आगे शक्तिसम्पन्न राष्ट्र भी नतमस्तष्क थे। राजनैतिक सूझबूझ ने तो उन्हें इतना विशाल हृदय और उदारता प्रदान की हुई थी कि देश की जनता का प्रतिनिधित्व शास्त्री जी जैसा व्यक्तित्व ही कर सका।
उपसंहार :
अन्त में, कहा जा सकता है कि शास्त्री जी की ताकत और शख्त-नम्र व्यक्तित्व ही पंडित जवाहरलाल नेहरू की समृद्ध राजनैतिक विरासत को सँभालने में सफल हो सका। वे ही उस विरासत को आगे बढ़ा सके। अन्य किसी के लिए यह काम बहुत ही कठिन रहा होता। सम्पूर्ण देश ने इन सभी विशेषताओं के समन्वित स्वरूप को शास्त्री जी में देखा और उनके निर्मल चरित्र और दृढ़ संकल्प शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण देश की इस आकांक्षा को पूरा किया।
प्रश्न 6.
“संवैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति शास्त्री जी के क्या विचार थे?” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तावना :
सन् 1964 ई. में पं. नेहरू का देहावसान हो गया। इनके बाद, देश ने श्री लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया। इसका एकमात्र कारण था शास्त्री जी का भारतीय जनता के प्रति सेवा का भाव। वे स्वयं को शासक नहीं सेवक मानते थे। उनकी लोकप्रियता एवं श्रम साध्य कर्मों में सफलता ने ही शास्त्री जी को पं. नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के रूप में देश ने स्वीकार किया। शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री के रूप में मात्र 19 महीने की बहुत छोटी सी अवधि में जितनी लोकप्रियता और सफलताएँ अर्जित की वे एक उदाहरण हैं।
प्रत्येक व्यक्ति भारत का नागरिक है :
शास्त्री जी ने 19 दिसम्बर, 1964 ई. में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में अपने सम्बोधन में कहा था कि आपके जीवन के उद्देश्य अलग-अलग हो सकते हैं, आपकी मंजिलें जो भी हों, लेकिन आप सभी को यह सोचना चाहिए कि आप सबसे पहले देश के नागरिक हैं।
अधिकार और कर्त्तव्य :
विशाल भारतीय संघ के नागरिक होने के कारण आप सभी को संविधान द्वारा कुछ अधिकार दिए गए हैं, लेकिन साथ ही आप सभी नागरिकों पर कुछ कर्बव्यों का बोझ भी स्वतः ही आ गया है अर्थात् अधिकारों की प्राप्ति कर्त्तव्यों के निर्वाह करने में ही परिणति होती है। यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसका समझना अति आवश्यक है।
स्वैच्छिक प्रतिबन्धों में ही स्वतंत्रता का उपयोग :
श्री शास्त्री जी ने आगे कहा कि हमारे देश में प्रजातांत्रिक (लोकतंत्रात्मक) शासन पद्धति प्रस्तावित की है। अत: यहाँ के प्रत्येक नागरिक को निजी स्वतंत्रता भी प्राप्त है। लेकिन उन्हें इस स्वतंत्रता का उपयोग स्वेच्छा से लगाए गए प्रतिबन्धों के अनुसार करना चाहिए। इसका एक कारण है-हम सभी यह देख चुके हैं कि हमारा समाज एक व्यवस्थित समाज है। उस व्यवस्था का प्रधान समाज के लिए प्रतिबन्ध बहुत अनिवार्य है। इस तरह, इन स्वैच्छिक प्रतिबन्धों का उपयोग और प्रदर्शन जीवन में प्रतिदिन ही होना चाहिए।
उपसंहार :
अन्त में, यह बात स्पष्ट है कि शास्त्री जी ने अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति बड़ी विशेष व्याख्या अत्यल्प शब्दों के प्रयोग में कर दी थी कि अधिकारों की उपभुक्ति कर्त्तव्यों के सुयोग्य सम्पादन से ही सम्भव है।
प्रश्न 7.
शास्त्री जी देश के प्रधानमंत्री कब बने? (2015)
उत्तर:
भारत राष्ट्र के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का देहावसान 27 मई, 1964 ई. को हो गया। इसके निधन के बाद देश ने श्री लाल बहादुर शास्त्री में वे महान् गुण और विशेषताओं को देखा जिनसे वे पं. नेहरू द्वारा प्रस्थापित समृद्ध राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ा सकते थे। अतः सन् 1964 ई. में ही श्री लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने।
प्रश्न 8.
इस पाठ से हमें क्या प्रेरणा मिलती है? लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ से हम सभी छात्रों एवं पाठकों को इस बात की प्रेरणा मिलती है कि हम सभी कर्मयोगी बनें। क्रियाशील व्यक्ति रचनात्मक शैली के गुण से सम्पन्न होता है। वह सदैव कर्म सम्पादन में संलग्न होकर स्वयं को उस स्थान तक ले जाता है, जहाँ से उसमें निस्वार्थ भाव की जागृति हो। निस्वार्थ भाव से किया कर्म ही असली और निष्काम भाव की उत्पत्ति करता है। प्रलोभनों से ऊपर उठकर अपने कर्तव्य कर्म का निर्वाह करते रहें।
अपने जीवन के निर्धारित उद्देश्यों और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपनी आन्तरिक और बाह्य क्षमताओं में दृढ़ विश्वास रखें। अपने आपको कर्म में समर्पण भाव से, निष्ठा से लगा देंगे तो हमें चारित्रिक बल की प्राप्ति होगी जिसके द्वारा राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र के सभी कार्यों का निष्पादन करते जायेंगे।
हमारा चिन्तन स्वस्थ रहना चाहिए। जीवन में श्रम, सेवा, सादगी और समर्पण भाव का विकास हमें उन्नत बनाता है। साथ ही व्यक्तित्व में विनम्रता मनुष्य को पृथ्वी का वारिस बना देती है। कठिनाइयों के दौर में भी धैर्य और शौर्य व शील का त्याग नहीं होना चाहिए। हमारा व्यावहारिक पक्ष खुला और समृद्ध हो, इसका हमें प्रयास करना चाहिए।
हमें अपने अधिकारों की माँग न करके अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने वाला होना चाहिए क्योंकि कर्त्तव्यों की इति अधिकारों के रूप में प्रतिफलित होती ही है। व्यक्तिगत आजादी के उपयोग में भी प्रतिबन्धन होते हैं। तब ही सम्पूर्ण समाज व्यवस्थित रूप से चल सकता है। वहाँ उच्छृखलता के लिए कोई अवकाश नहीं है।
सर्वोपरि मुख्य बात है जिसकी प्रेरणा हमें मिलती है, वह है आत्मसंयम। आत्मसंयम खो देने से किसी भी कार्य के सम्पादन की शक्ति का ह्रास हो जाता है।
उपर्युक्त सभी गुणों को अपने अन्दर विकसित करने की प्रेरणा प्रस्तुत पाठ से हमें प्राप्त होती है।
कर्मयोगी लाल बहादुर शास्त्री अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
‘कर्मयोगी’ विशेषण किसके नाम के साथ जोड़ना उपयुक्त है?
उत्तर:
पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी के नाम के साथ कर्मयोगी विशेषण जोड़ना बिल्कुल उपयुक्त है।
प्रश्न 2.
शास्त्री जी के चरित्र एवं जीवन दर्शन में कौन-सी तीन बातें स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती हैं?
उत्तर:
अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ आस्था, उस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कर्म का भाव तथा उस कर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण-ये तीन बातें शास्त्री जी के सम्पूर्ण चरित्र तथा जीवन दर्शन में दिखाई पड़ती हैं।
कर्मयोगी लाल बहादुर शास्त्री पाठ का सारांश
कर्मयोगी शास्त्री जी :
श्री लालबहादुर शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन कर्म प्रधान ही था। शास्त्री जी एक साधारण परिवार से ऊपर उठकर भारतवर्ष के प्रधानमन्त्री पद तक पहुँचे। यह सब उनकी कर्त्तव्यपरायणता, निष्ठा, देशभक्ति का परिणाम था। उन्होंने अपने कर्म और चिन्तन की विशिष्ट शैली से भाग्य की रेखाओं को पलट दिया। शास्त्री जी को अपने कर्म और ईश्वर पर ही भरोसा था। उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे राजनेता की समृद्ध राजनीति की विरासत को सँभाल कर रखा। यह शास्त्री जी का निष्काम कर्मयोगी का प्रतिरूप ही था।
शास्त्री जी का जीवन दर्शन :
शास्त्री जी के जीवन दर्शन में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें दिखायी पड़ती हैं-(1) उद्देश्य के प्रति दृढ़ आस्था, (2) उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कर्म का भाव, (3) उस कर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण। शास्त्री जी ने सदैव ही यह कहा कि यदि अपने दायित्वों की पूर्ति करना चाहते हो तो अपने कार्य, समर्पण, भक्ति और कर्म में समन्वय होना चाहिए। वे सोचा करते थे कि किसी भी व्यक्ति, समाज और देश के विकास का रहस्य भक्ति और कर्म के सिद्धान्त में निहित है।
सेवा, सादगी का सिद्धान्त :
उन्होंने श्रम, सेवा और सादगी के सिद्धान्त का अनुसरण किया। उन्होंने अपने निर्मल चरित्र और दृढ़ संकल्प शक्ति द्वारा देश की आकांक्षा को पूरा किया। शास्त्री जी का जन्म सामान्य परिवार में हुआ, सामान्य रूप से ही परवरिश हुई। आप देश के प्रधानमन्त्री होकर भी सामान्य बने रहे। विनम्रता, सादगी और सरलता उनके व्यक्तित्व के असाधारण आभूषण थे।
शास्त्री जी और भारतीय आजादी का आन्दोलन :
शास्त्री जी अपनी अल्पायु (17 वर्ष की उम्र) से ही भारतीय आजादी के आन्दोलनों से जुड़े रहे। सन् 1930 से सन् 1942 तक के आजादी के आन्दोलनों के बारह वर्षों के दौरान, शास्त्री जी ने सात वर्ष जेल में बिताए। सबसे लम्बी जेल यात्रा 1942 ई. की थी जो तीन वर्ष तक चली।
साहस और अनुशासन :
शास्त्री जी में अदम्य साहस और अनुशासन की भावना परिपक्वता को प्राप्त थी। वे समस्याओं के निराकरण में पूर्ण सक्षम थे। वे इन्दिरा गाँधी के राजनैतिक गुरु थे। शास्त्री जी ने उत्तर प्रदेश और केन्द्र में विभिन्न पदों पर कार्य किया। उन्हें जिन विभागों का उत्तरदायित्व दिया गया, उन्होंने उन सभी विभागों के कार्य को पूर्ण दक्षता से निभाया।
जनता के सेवक :
शास्त्री जी अपनी छवि ‘जनता के सेवक’ के कारण लोकप्रिय हुए। यद्यपि प्रधानमन्त्री जैसे भारी भरकम पद का कार्य उन्होंने मात्र 19 महीने ही किया लेकिन इस पद पर रहकर सफलताएँ और लोकप्रियता अपने आप में एक उदाहरण हैं। वे प्रायः प्रत्येक भारतीयजन से यही अपेक्षा करते थे कि वे यह समझें कि वे सबसे पहले देश के नागरिक हैं। देश के नागरिक हैं तो संविधान आपको अधिकार तो देता ही है, लेकिन उसके साथ तुम सभी से अपने कर्तव्यों के निर्वाह की आशा भी करता है। आप सभी स्वतन्त्र हैं परन्तु स्वतन्त्रता का उपयोग एक व्यवस्थित समाज के हित में स्वेच्छा से लगाए गए प्रतिबन्धों के अनुसार होना चाहिए। शास्त्री जी कहा करते थे कि अधिकार, कर्त्तव्य और आत्मसंयम अति महत्त्वपूर्ण बात हैं। हमें इनको व्यवहार में लाना चाहिए।