MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-6)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-6)

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[2008, 09, 13, 17]

  • जीवन-परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 11 अक्टूबर, सन् 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अगोना ग्राम में हुआ था। आपके पिता पं. चन्द्रबलि शुक्ल सुपरवाइजर कानूनगो थे। शुक्लजी ने एफ. ए. (इण्टर) तक की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा समाप्ति पर जीविकोपार्जन के लिए मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के शिक्षक हो गये। इस समय तक इनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जब नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ नाम से शब्दकोश के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया, तब शुक्लजी मात्र छब्बीस वर्ष की अवस्था में उसके सहायक सम्पादक नियुक्त किये गये। उसके बाद हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में आप हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गये। सन् 1937 में आप वहाँ हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये। 2 फरवरी, सन् 1940 को आपका निधन हो गया।

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  • साहित्य-सेवा

आचार्य शुक्लजी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे कवि, निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक तथा अनुवादक अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं। आपने “हिन्दी शब्द सागर” और “नागरी प्रचारिणी पत्रिका” का सम्पादन किया। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में हिन्दी को उच्चकोटि के निबन्ध, वैज्ञानिक समालोचनाएँ, साहित्यिक ग्रन्थ एवं सरल कविताएँ प्रदान की। शुक्ल जी ने हिन्दी में समालोचना और निबन्ध कला का उच्च आदर्श स्थापित किया। उनसे पहले की समालोचनाओं में गुण-दोष विवेचन की ही प्रधानता थी। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग की व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति की नींव डाली और जायसी, तुलसी तथा सूर के काव्यों पर उत्कृष्ट व्याख्यात्मक आलोचनाएँ लिखीं। आपने करुणा, उत्साह, क्रोध, श्रद्धा और भक्ति आदि मनोविकारों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। उनके निबन्ध ‘चिन्तामणि’ नामक पुस्तक में संग्रहीत हैं। ‘चिन्तामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक गवेषणापूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा, जिस पर हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग ने पुरस्कार प्रदान किया।

  • रचनाएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएँ अग्र प्रकार हैं

  1. निबन्ध-संग्रह-चिन्तामणि, विचार-वीथी।
  2. आलोचना-त्रिवेणी, रस-मीमांसा।
  3. इतिहास-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
  • वर्ण्य विषय

साहित्य के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाली शुक्लजी की प्रतिभा समालोचना एवं निबन्ध के क्षेत्र में भी प्रखरता के साथ परिलक्षित होती है। निबन्ध एवं आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में शुक्लजी ने लोक मंगल एवं नैतिक आदर्श को प्रमुख स्थान दिया है। निबन्ध-रचना के क्षेत्र में उन्होंने सामाजिक उपयोगिता से सम्बन्धित मानव-मनोभावों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। शुक्लजी ने मनोभावों सम्बन्धी निबन्धों के साथ ही समीक्षात्मक एवं सैद्धान्तिक निबन्धों की भी रचना की।

  • भाषा

आचार्य शुक्लजी की भाषा परिष्कृत, प्रौढ़ एवं साहित्यिक खड़ी बोली है। इस भाषा में सौष्ठव है तथा उसमें गम्भीर विवेचन की अपूर्व शक्ति है। शुक्लजी की भाषा में व्यर्थका शब्दाडम्बर नहीं मिलता। भाव और विषय के अनुकूल होने के कारण वह सर्वथा सजीव और स्वाभाविक है। गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में भाषा अपेक्षाकृत क्लिष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है। वाक्य-विन्यास भी कुछ लम्बे हैं। सामान्य विचारों के विवेचन में भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग से उसमें सरसता आ गयी है। शुक्लजी की भाषा व्यवस्थित तथा पूर्ण व्याकरण सम्मत है तथा उसमें कहीं भी शिथिलता देखने को नहीं मिलती। भाषा की इसी कसावट के कारण उसमें समास शक्ति पायी जाती है तथा कहीं-कहीं तो भाषा सूक्तिमयी बन गयी है–“बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।”

  • शैली

शुक्लजी अपनी शैली के स्वयं निर्माता थे। उनकी शैली समास के रूप से प्रारम्भ होकर व्यास शैली के रूप में समाप्त होती है अर्थात् एक विचार को सूत्र रूप में कहकर फिर उसकी व्याख्या कर देते हैं। मुख्य रूप से शुक्लजी की शैली चार प्रकार की है-

  1. समीक्षात्मक शैली-शुक्लजी ने व्यावहारिक, समीक्षात्मक एवं समालोचनात्मक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में वाक्य छोटे, संयत एवं गम्भीर हैं। इसमें विषय का प्रतिपादन सरलता के साथ इस प्रकार किया गया है कि सहज ही हृदयंगम हो जाता है।
  2. गवेषणात्मक-अनुसन्धानपरक तथा सैद्धान्तिक समीक्षा सम्बन्धी तथा तथ्यों के विश्लेषण-निरूपण में शुक्लजी ने इस शैली का प्रयोग किया है। यह शैली गम्भीर तथा कुछ सीमा तक दुरूह है। शब्द-विन्यास क्लिष्ट तथा वाक्य-विन्यास जटिल है। यह शैली सामान्य पाठकों के लिए बोधगम्य नहीं है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली में वाक्य कहीं छोटे तथा कहीं लम्बे हैं तथा भाषा कुछ-कुछ अलंकारिक हो गयी है। इसमें भावनाओं का धाराप्रवाह रूप मिलता है।
  4. हास्य-विनोद एवं व्यंग्य प्रधान शैली-इस शैली के दर्शन मनोविकारों तथा समीक्षात्मक निबन्धों में यत्र-तत्र ही होते हैं, क्योंकि हास्य तथा व्यंग्य शुक्लजी के निबन्धों का मुख्य विषय नहीं है, फिर भी इस शैली के प्रयोग से निबन्धों में रोचकता आ गयी है।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा साहित्य की अनेक विधाओं में सृजन किया। लेकिन उनकी विशेष ख्याति निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार के रूप में है। उन्होंने हिन्दी में वैज्ञानिक आलोचना-प्रणाली को जन्म दिया, निबन्ध-साहित्य को समृद्ध किया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए एक आधार प्रदान किया। शुक्लजी की भाषा तथा शैली आने वाले साहित्यकारों के लिए आदर्श रूप है। वे युग प्रवर्तक निबन्धकार हैं।

2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
[2008, 10, 14, 16]

  • जीवन-परिचय

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, सन् 1907 में बलिया जिले के दुबे का छपरा नामक ग्राम में हुआ था। द्विवेदी जी के पिता का नाम अनमोल दुबे तथा माता का नाम ज्योतिकली देवी था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई और वहाँ से उन्होंने सन् 1920 में मिडिल की परीक्षा पास की। इसके बाद कुल-परम्परा के अनुसार संस्कृत का अध्ययन करने के लिए आप काशी गये। काशी विश्वविद्यालय से साहित्य एवं ज्योतिष में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर के बाद अस्वस्थ हो जाने के कारण आप बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण न कर सके।

सन् 1940 ई. में हिन्दी एवं संस्कृत के अध्यापक के रूप में आप शान्ति निकेतन गये। यहाँ लगभग 20 वर्ष तक हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। आपने महाकवि रवीन्द्र के संसर्ग में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का विकास किया। आपने विश्वभारती’ का सम्पादन भी किया।

सन् 1949 ई. में लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। सन् 1956 ई. में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष बने। आपने पंजाब विश्वविद्यालय में भी हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद को सुशोभित किया। हिन्दी साहित्य की सेवा करते-करते 19 मई, 1979 को यह दैदीप्यमान नक्षत्र सदैव के लिए विलीन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

आचार्य द्विवेदी जन्मजात प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। कविता के क्षेत्र में दिशा निर्देशन व्योमकेश शास्त्री से प्राप्त किया। शनैः-शनैः इनकी प्रतिभा प्रखर होने लगी। रवीन्द्रनाथ के बंगला साहित्य से आप विशेषतः प्रभावित हुए। उनका एक शब्द तथा वाक्य उनके लिए अमूल्य सिद्ध हुआ। निबन्धकार, इतिहास लेखक, उपन्यासकार, शोधकर्ता के रूप में आप हिन्दी साहित्य में विशेष रूप से जाने-पहचाने जाते हैं। आप एक सफल आलोचक थे। सिद्ध, जैन एवं अपभ्रंश साहित्य को आपने उजागर किया है। उनके उपन्यास तथा निबन्ध शैली, भावों तथा विचारों की दृष्टि से नूतनता तथा गहनता से ओत-प्रोत हैं। आपने ‘हिन्दी-संस्थान’ के उपाध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया है। ‘कबीर’ नामक रचना पर आपको मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ मिला। भारत सरकार ने आपकी साहित्यिक उपलब्धियों को ध्यान में रखकर सन् 1950 में ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से भी सम्मानित किया। ‘सूर साहित्य’ पर आपको इन्दौर साहित्य समिति ने स्वर्ण पदक’ प्रदान किया था। आपने भक्ति साहित्य पर उच्चकोटि के समीक्षक ग्रन्थों की रचना की तथा ‘अभिनव भारती’ ग्रन्थमाला का सराहनीय सम्पादन किया है।

  • रचनाएँ

आचार्य द्विवेदी जी ने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- .

  1. आलोचना साहित्य-‘सूर-साहित्य’,’हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘हमारी साहित्य समस्याएँ’, ‘साहित्य का धर्म’, ‘नख दर्पण में हिन्दी कविता’, “हिन्दी साहित्य’,’समीक्षा साहित्य’ आदि।
  2. उपन्यास-‘चारुचन्द्र लेख’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ तथा पुनर्नवा’।
  3. निबन्ध- विचार और वितर्क’, ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पना’, ‘साहित्य के साथी’, ‘कुटज’, ‘कल्पलता’, आदि।
  4. शोध सम्बन्धी साहित्य-‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’, ‘हिन्दी साहित्य का अदिकाल’, ‘प्राचीन भारत का कला विकास’ आदि।
  5. अनूदित साहित्य-‘प्रबन्ध चिन्तामणि’, ‘लाल कनेर’, ‘मेरा बचपन’, ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह’, ‘प्रबन्ध कोष’ आदि आपकी अनूदित रचनाएँ हैं।।
  • वर्ण्य विषय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी द्विवेदी जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में विविध प्रकार से साहित्य की रचना की है। आलोचना, निबन्ध, उपन्यास, अन्वेषण आदि रचनात्मक विधाओं के अतिरिक्त आपने अनुवाद के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है। आपके निबन्धों में साहित्य तथा संस्कृति का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। आपके साहित्य में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट देखी जा सकती हैं। ललित निबन्धों में इनकी विशेषताएँ हैं कि अपनी विद्वता की स्थायी छाप पाठक के हृदय पर छोड़ते हैं।

  • भाषा

आचार्य द्विवेदी जी ने सरल, सुस्थिर, संयत एवं बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है। सामान्यत: वे तत्सम प्रधान, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। भाव और विषय के अनुसार इनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उन्होंने निबन्धों की भाषा में संस्कृत शब्दों को ही प्राथमिकता दी है। संस्कृत शब्दावली की प्रचुरता के कारण कहीं-कहीं क्लिष्टता भी आ गयी है। सामान्यतः उसमें स्पष्टता और प्रवाह बना रहा है। द्विवेदी जी ने व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें उर्दू, अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग है। इनकी भाषा में ‘देशज’ और ‘स्थानीय’ बोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग है, लेकिन मुहावरों का कम ही प्रयोग हुआ है।

  • शैली

द्विवेदी जी एक महान् शैलीकार थे। उनकी शैली में विभिन्नता, विविधता है। उनकी शैली चुस्त और गठी हुई है। द्विवेदी जी के साहित्य को शैली की दृष्टि से हम निम्नलिखित रूपों में विभाजित कर सकते हैं

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  1. गवेषणात्मक शैली-यह द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। उनकी आलोचनात्मक एवं विचारात्मक रचनाएँ इस शैली में लिखी गयी हैं। इसमें स्वाभाविकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस शैली में उनकी संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा की प्रधानता रहती है।
  2. आलोचनात्मक शैली-आलोचनात्मक रचनाएँ तथा ‘कबीर’, ‘सूर साहित्य’ जैसी व्यावहारिक आलोचना की रचनाएँ इस शैली में हैं। इस शैली की भाषा संस्कृत-प्रधान और स्पष्टवादिता से पूर्ण है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग द्विवेदी जी ने वैयक्तिक और ललित निबन्धों में किया है। भावुकता, माधुर्य और प्रवाह शैली की विशेषताएँ हैं।
  4. व्यंग्यात्मक शैली-द्विवेदी जी के निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सुन्दर और सफल प्रयोग हुआ है। उनके व्यंग्य सार्थक होते हैं। इस शैली में भाषा प्रवाहमय तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों से युक्त है। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी की रचनाओं में अनेक स्थलों पर उद्धरण, व्याख्यात्मक, व्यास एवं सूक्ति शैलियों के भी दर्शन होते हैं।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उच्चकोटि के विद्वान, निबन्धकार, उपन्यासकार, सबल समीक्षक, साहित्य-इतिहासकार के रूप में अपार श्रद्धा के पात्र थे। उनके निबन्धों में विचारों की गम्भीरता, विषय की स्पष्टता तथा विश्लेषण की सूक्ष्मता मिलती है। आधुनिक हिन्दी आलोचकों एवं निबन्धकारों में आपका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निश्चय ही वे हिन्दी गद्य साहित्य की महान् विभूति थे।

3. डॉ. विद्यानिवास मिश्र
[2008, 09, 11, 12]

  • जीवन-परिचय

विख्यात निबन्धकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का जन्म गोरखपुर जिले के पकड़डीहा ग्राम में 14 जनवरी, 1926 में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम में ही अर्जित कर आप उच्च शिक्षा के अध्ययन हेतु इलाहाबाद चले गये। वहाँ संस्कृत में एम. ए. करने के पश्चात् गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। कुछ समय तक आपने उत्तर प्रदेश तथा विध्य प्रदेश के सूचना विभागों में कार्य किया। इसके बाद गोरखपुर तथा आगरा विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। आप क. मुं. हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विद्यापीठ, आगरा के निदेशक रहे। काशी विद्यापीठ तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त हुए। भारत सरकार ने आपको पद्म भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। एक दुर्घटना में 14 फरवरी, 2005 को आपका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

प्रारम्भ से ही साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न विद्यानिवास मिश्र ने विविध प्रकार से हिन्दी साहित्य की सेवा की। साहित्य सृजन के साथ-साथ आप नवभारत टाइम्स समाचार पत्र के प्रधान सम्पादक रहे। आपने ‘साहित्य अमृत’ पत्रिका का सम्पादन किया। मिश्र जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, काशी नागरी प्रचारिणी सभा एवं नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा आदि हिन्दी सेवी संस्थाओं से जुड़े रहे। आपने अमेरिका के वर्कले विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। अन्तिम समय तक आप साहित्य सेवा में संलग्न रहे।

  • रचनाएँ

विद्यानिवास मिश्र का साहित्य बहुआयामी है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. निबन्ध संग्रह-‘चितवन की छाँह’, कदम की फूली डाल’, ‘तुम चन्दन हम पानी’, ‘आँगन का पंछी और बनजारा मन’,’तमाल के झरोखे से’, ‘मैंने सिल पहुँचाई’, ‘हल्दी, दूब और अक्षत’, वसंत आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं’, ‘कंटीले तारों के आर पार’ आदि।
  2. आलोचना-साहित्य की चेतना।।
  3. संस्मरण-अमरकंटक की सालती स्मृति।

इसके अतिरिक्त ‘पानी की पुकार’ (कविता संग्रह), ‘रीति विज्ञान’, हिन्दी शब्द सम्पदा आदि आपकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

  • वये विषय

विद्यानिवास मिश्र ने शिक्षा, भाषा, राष्ट्रीयता, धर्म, जीवन आदि विषयों पर निबन्धों की रचना की है। इन निबन्धों में शास्त्र-ज्ञान तथा लोक जीवन का मणिकांचन योग दिखाई देता है। इनके निबन्धों में लोक जीवन तथा ग्रामीण समाज मुखरित हो उठा है। आपने स्थान-स्थान पर पौराणिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक सन्दर्भ देकर विषय को समझाने का स्तुत्य प्रयास किया है।
आपने भावात्मक, विचारात्मक, समीक्षात्मक, संस्मरणात्मक आदि विविध प्रकार के निबन्ध लिखे हैं।

  • भाषा

मिश्र जी की भाषा में विषय के अनुसार विविधता परिलक्षित होती है। आपकी तत्सम प्रधान खड़ी बोली में तद्भव, विदेशी एवं देशज शब्दों को आवश्यकतानुसार अपनाया गया है। भाषा की ताजगी, उक्तियों का चमत्कार, भंगिमाओं की सुसज्जा ने आपके निबन्धों में सम्प्रेषणीयता का अद्भुत गुण पैदा कर दिया है। मिश्र जी भाषा के कुशल पारखी हैं। इसीलिए जिस स्थान पर जो शब्द आना चाहिए वही प्रयोग हुआ है।

• शैली
मिश्र जी ने विषयानुरूप शैली के विविध रूप अपनाये हैं

  1. भावात्मक शैली-मिश्र जी के ललित निबन्धों में इस शैली का प्रयोग हुआ है। भावुकता से परिपूर्ण होकर आप पाठक को अपने साथ बहाए ले जाते हैं। उसमें यत्र-तत्र गद्य काव्य का सा आनन्द अनुभव होता है।
  2. विचारात्मक शैली-विचार प्रधान गूढ़ गम्भीर विषय का विवेचन इस शैली में किया गया है। इस शैली के वाक्य कुछ लम्बे हो गए हैं किन्तु उनमें स्पष्टता का गुण विद्यमान रहता है।
  3. समीक्षात्मक शैली-आलोचनात्मक रचनाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा तत्सम प्रधान शुद्ध साहित्यिक हो गई है।
  4. विश्लेषणात्मक शैली-विषय का विश्लेषण करते समय इस शैली का प्रयोग किया गया है। इस शैली की भाषा सरल, सुबोध तथा स्पष्ट होती है।
  5. उद्धरण शैली-मिश्र जी अपनी बात को स्पष्ट करने तथा पुष्ट करने के लिए शास्त्र आदि से उद्धरण देना नहीं भूलते हैं। लोक जीवन के उदाहरण देकर आप कथन को सहज सम्प्रेष्य बना देते हैं।

इसके अतिरिक्त व्यंग्यात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक आदि शैलियों का प्रयोग मिश्र जी की रचनाओं में हुआ है।

  • साहित्य में स्थान

मिश्र जी के व्यक्तिपरक निबन्धों में ललित अनुभूति के साथ लोक जीवन के अनुभव मिलकर एक नवीन गरिमा का सृजन करते हैं। व्यक्ति व्यंजक निबन्धों के लेखक के रूप में मिश्र जी की छवि अद्वितीय है। निबन्धकार, समीक्षक, भाषाविद् एवं विचारक के रूप में मिश्र जी की हिन्दी जगत् में एक विशिष्ट पहचान रही है।

4. श्रीराम परिहार
[2008]

  • जीवन-परिचय

ललित निबन्धकार डॉ. श्रीराम परिहार का जन्म 16 जनवरी, 1952 को मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले के केकरिया ग्राम में हुआ। आपको अपने किसान पिता श्री देवाजी परिहार का भरपूर प्यार मिला। आपकी माता जी श्रीमती लखूदेवी से आपको लोक संस्कारों और लोकगीतों के सरस वातावरण का आनन्द प्राप्त हुआ। गाँव में प्रकृति के उन्मुक्त परिवेश में ही आपका बचपन पुष्ट हुआ। आपने स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वर्तमान में मध्य प्रदेश शासन की उच्च शिक्षा महाविद्यालयीन सेवा में कार्य कर रहे हैं। आप श्री नीलकण्ठेश्वर महाविद्यालय, खण्डवा में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक एवं अध्यक्ष पद सँभाले हुए हैं।

  • साहित्य-सेवा

गाँव के मनोरम प्राकृतिक परिवेश में माता के लोक गीतों तथा लोक-संस्कारों से प्रभावित श्रीराम परिहार की प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति गहरी रुचि रही है। लोक संस्कृति में रचे-बसे परिहार के लेखन पर भी इसका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। आपकी सेवाओं को ध्यान में रखकर अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है। आप वागीश्वरी पुरस्कार, ईसुरी पुरस्कार, दुष्यन्त कुमार राष्ट्रीय अलंकरण जैसे सम्मानों से अलंकृत हो चुके हैं।

  • रचनाएँ

अब तक आपकी 11 रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा लगभग पचास शोध आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. ललित निबन्ध संग्रह-‘आँच अलाब की’, ‘अँधेरे में उम्मीद’, ‘धूप का अवसाद’, ‘बजे तो बंसी गूंजे तो शंख’, ‘ठिठके पल पाँखुरी पर’, ‘रसवन्ती बोलो तो’, ‘झरते फूल हरसिंगार के’, ‘हंसा कहो पुरातन बात’।
  2. समीक्षा-रचनात्मकता और उत्तर परम्परा।
  3. लोक साहित्य-कहे जनसिंगा।
  4. नवगीत संग्रह-चौकस रहना है।
  5. सम्पादन-‘अक्षत’ पत्रिका का सम्पादन।

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  • वर्ण्य विषय

भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी आस्था रखने वाले श्रीराम परिहार के साहित्य में लोक जीवन एवं लोक-संस्कारों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मिलती है। आपने अतीत एवं वर्तमान के विविध संदर्भो को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। आप विषय से अन्तरंगता रखते हुए लिखते हैं। यही कारण है कि पाठक उसके साथ बँधा हुआ रहता है।

  • भाषा

श्रीराम परिहार की भाषा तत्सम प्रधान खड़ी बोली है जिसमें तद्भव, देशज एवं विदेशी शब्दों को भी यथास्थान लिया गया है। वाक्य रचना सहज एवं सरल है। लक्षणा एवं व्यंजना के पुट भी स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं। भाषा में दुरूहता या उबाऊपन का नितान्त अभाव है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता विद्यमान है।

  • शैली

परिहार जी ने प्रमुखतः ललित शैली को अपनाया है। उनकी शैली के विविध रूप निम्न प्रकार हैं

  1. भावात्मक शैली-श्रीराम परिहार सांस्कृतिक भावानुभूतियों से परिपूर्ण रचनाकार हैं। लालित्य से युक्त आपके निबन्धों में ललित शैली का प्रयोग हुआ है। आपकी रचनाओं में भाव प्रधानं स्थलों पर भावात्मक शैली का सौन्दर्य देखा जा सकता है।
  2. आलंकारिक शैली-परिहार जी अपने निबन्धों में अवसर के अनुरूप अलंकारों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग करते हैं। आपकी आलंकारिक शैली में पाठक के हृदय का स्पर्श करने की भी शक्ति मौजूद है।
  3. चित्रात्मक शैली-श्रीराम परिहार शब्द-चित्र उकेरने में बड़े चतुर हैं। इस शैली के रचित अंश पाठक के मनपटल पर चित्र अंकित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त तरंग शैली, प्रवाह शैली, समीक्षात्मक आदि शैली रूप भी आपकी रचनाओं में उपलब्ध हैं।
  • साहित्य में स्थान

परिहार जी ने अपनी लेखनी की क्षमता से हिन्दी साहित्य को अनूठी रचनाएँ प्रदान की हैं। वर्तमान के ललित निबन्धकारों में आपका सम्मानजनक स्थान है। हिन्दी साहित्य को आपसे अनेक अपेक्षाएँ हैं।

5. जयशंकर प्रसाद
[2008, 09, 14]

  • जीवन-परिचय

युग-प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के प्रसिद्ध सुघनी साहू नामक वैश्य परिवार में 30 जनवरी, सन् 1889 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम देवीप्रसाद था। प्रसाद जी की बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई की भी मृत्यु हो गयी। इस कारण सारे परिवार का बोझ इन पर ही आ पड़ा। पिता की मृत्यु के बाद गृह-कलह आरम्भ हुआ तथा पैत्रिक व्यवसाय को इतनी अधिक हानि पहुँची कि वैभव सम्पन्न सुघनी साहू परिवार ऋण के भार से दब गया।

प्रसाद जी की प्रतिभा इन सभी संकटों के बीच भी अपना आलोक फैलाने लगी। प्रसाद जी ने साहस, आत्मविश्वास, योग्यता तथा लगन के साथ अपने गिरे हुए व्यवसाय को सँभाला। अपने परिवार को प्रतिष्ठा प्रदान की तथा लाखों रुपये के ऋण से भार-मुक्त हुए। प्रसाद जी ने अपने घर पर ही वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन, संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, फारसी का गहन अध्ययन किया। इन्होंने तीन शादियाँ की, किन्तु तीनों ही पत्नियों की असमय मृत्यु हो गयी। 15 नवम्बर, सन् 1937 में 48 वर्ष की अल्प आयु में ही यह सरस्वती-पुत्र इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गया।

  • साहित्य-सेवा

प्रसाद जी को बाल्यकाल से ही कविता से प्रेम था। उनके साहित्यिक जीवन में साधु का सा मौन विद्यमान था। प्रारम्भ में वे ‘कलाधर’ नाम से ब्रजभाषा में कविताएँ करते थे। बाद में उन्होंने खड़ी बोली में रचनाएँ की। प्रसाद जी ने सन् 1906 में हिन्दी साहित्य के सृजन का कार्य प्रारम्भ किया। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। प्रसाद जी ‘इन्दु’ नामक मासिक-पत्र में निरन्तर रचनाएँ प्रकाशित कराते रहे। प्रसाद जी ने नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, मुक्तक काव्य एवं प्रबन्ध काव्य सभी रूपों में हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि की। आपने गम्भीर निबन्ध लिखकर अपने गहन अध्ययन, पाण्डित्य और सूक्ष्म विवेचन-शक्ति का परिचय दिया।

  • रचनाएँ

प्रसाद जी ने अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में विविध विषयों पर ग्रन्थ लिखे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. निबन्ध-‘काव्यकला और अन्य निबन्ध।’ इन निबन्धों में प्रसाद जी का साहित्य सम्बन्धी दृष्टिकोण और गम्भीर चिन्तक रूप प्रकट हुआ है।
  2. कहानी-संग्रह-प्रसाद जी की कहानियाँ-प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी तथा इन्द्रजाल कहानी संग्रहों में संकलित हैं। आपकी पुरस्कार, आकाशदीप, ममता आदि अनेक प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
  3. नाटक-प्रसाद जी ने स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, राज्यश्री, जनमेजय का नागयज्ञ आदि ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है।
  4. उपन्यास-कंकाल, तितली तथा इरावती (अधूरा) प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
  5. काव्य-कामायनी महाकाव्य प्रसाद जी की सर्वश्रेष्ठ रचना है। लहर, आँसू, झरना आदि आपकी अन्य काव्य कृतियाँ हैं।
  • वर्य विषय

प्रसाद जी की प्रतिभा बहुआयामी थी। उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मानवीय मूल्य, ग्रामांचल आदि को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उनकी नूतन व्यवस्थाएँ तथा अद्भुत विवेचनाएँ गहन विचारशीलता को उजागर करती हैं। आपने इतिहास तथा दर्शन का मधुर समन्वय किया है। मानव मनोवृत्तियों का सफल चित्रण उनके साहित्य की विशेषता है। भावों तथा कल्पना के योग से उन्होंने मोहक शब्द चित्र उकेरे हैं। नारी के प्रति सहानुभूति का भाव, राष्ट्रीयता, दार्शनिकता, प्रेम और सौन्दर्य आपके काव्य के प्रमुख तत्त्व हैं।

  • भाषा

सामान्यतःप्रसाद जी की भाषा शुद्ध एवं संस्कृतनिष्ठ है। उनकी भाषा में तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है। संस्कृत शब्द होने के कारण कहीं-कहीं भाषा में क्लिष्टता आ गयी है, किन्तु स्वाभाविकता तथा प्रवाह भाषा में सदैव बना रहता है। एक-एक शब्द मोती की भाँति जड़ा हुआ है। खड़ी बोली में लालित्य और मधुरता लाने का श्रेय प्रसाद जी को ही है। भाषा भावों के अनुकूल है। ‘मुहावरों’ और ‘कहावतों’ को आवश्यकतानुसार साहित्यिक रूप देकर अपनाया गया है। प्रसाद जी की भाषा प्रांजल, प्रौढ़ और परिमार्जित है। विचारों की प्रौढ़ता, भाषा का प्रवाह, सुन्दर शब्द चयन, काव्योचित लालित्य, अर्थ गाम्भीर्य आदि उनकी भाषा की प्रमुख विशेषताएँ हैं। आपकी भाषा प्रसाद गुण युक्त है।

  • शैली

प्रसाद जी ने निबन्ध, कहानी आदि में विविध शैलियाँ अपनायी हैं-

  1. भावात्मक शैली-प्रसाद जी एक भावुक कवि थे। इसलिए गद्य में भी जहाँ कहीं भावपूर्ण स्थल आये हैं, वहाँ उनकी शैली भावात्मक है।
  2. चित्रात्मक शैली-प्रसाद जी ने जहाँ वस्तुओं, स्थानों और व्यक्तियों के शब्द चित्र उपस्थित किये हैं, वहाँ उनकी शैली चित्रात्मक हो गयी है।
  3. आलंकारिक शैली-कवि हृदय प्रसाद जी गद्य में भी अलंकारों का सहज प्रयोग किये बिना नहीं रहे हैं। अतः जहाँ अलंकार आये हैं, वहाँ उनकी शैली आलंकारिक हो गयी है। उनकी अलंकारपूर्ण शैली ने काव्यात्मक सौन्दर्य और सरसता की सृष्टि की है।
  4. संवाद शैली-प्रसाद जी ने उपन्यास, कहानी और नाटकों में संवाद शैली का प्रयोग किया है। नाटकों में ‘प्रसाद’ के संवाद अति प्रवाहपूर्ण हैं। उनके संवाद पात्रानुकूल एवं सरस हैं।
  5. वर्णनात्मक शैली-प्रसाद जी ने उपन्यास, कहानी आदि में जहाँ घटनाओं, वस्तुओं और व्यक्तियों का वर्णन किया है, वहाँ उनकी शैली वर्णनात्मक है। इस शैली में वाक्य छोटे हैं और भाषा सरल है।
  • साहित्य में स्थान

प्रसाद जी एक ऐसे पारस थे, जिसके स्पर्श से हिन्दी की अनेक विधाएँ कंचन बन गयीं। वे हिन्दी के मूर्धन्य कवि, नाटककार, उपन्यासकार, अद्वितीय कहानीकार एवं श्रेष्ठ निबन्धकार थे। प्रसाद जैसे महान् कलाकार को पाकर हिन्दी गौरवान्वित हो गयी और हिन्दी साहित्य प्रसाद के प्रसाद को पाकर धन्य हो उठा।

6. मालती जोशी
[2011, 15]

  • जीवन-परिचय

मालती जोशी का जन्म 4 जून, 1934 ई. को महाराष्ट्र के औरंगाबाद नगर के मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ। आपने प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्नातक किया और एम. ए. (हिन्दी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्य सृजन का स्तुत्य कार्य किया। आपकी प्रारम्भ से ही साहित्यिक अभिरुचि रही। किशोरावस्था से ही कवि सम्मेलनों में आप बहुत चर्चित कवयित्री रहीं। कवयित्री, बाल साहित्यकार, कहानीकार आदि रूपों में आपने ख्याति प्राप्त की। आपकी रचनाएँ मराठी, कन्नड़, गुजराती तथा अंग्रेजी में अनूदित हुई हैं। आपको साहित्यकार के रूप में अनेक पुरस्कार, सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। रेडियो तथा दूरदर्शन पर आपकी कहानियों के नाट्य रूपान्तर प्रसारित होते रहे हैं। आप आज भी साहित्य सजन में संलग्न हैं।

  • साहित्य-सेवा

साहित्यिक रुचि सम्पन्न मालती जोशी ने प्रारम्भ में कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ के माध्यम से लोकप्रियता अर्जित की। तत्पश्चात् आपने बाल साहित्य, कहानी लेखन में पदार्पण किया। सन् 1969 में आपने बच्चों के लिए लिखना प्रारम्भ किया और खूब ख्याति प्राप्त की। आपकी प्रथम रचना सन् 1971 में ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई। तब से अब तक यह क्रम निरन्तर चलता आ रहा है।

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  • रचनाएँ

मालती जोशी का लेखन बहुआयामी है। आपने मराठी तथा हिन्दी दोनों में साहित्य सर्जना की है। कवि, बाल साहित्य तथा कहानीकार के रूप में आपकी एक विशिष्ट पहचान है। श्रीमती जोशी की अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आपकी हिन्दी तथा मराठी साहित्य की 32 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो मराठी कला संग्रह, दो उपन्यास, पाँच बाल कथा संग्रह, एक गीत संग्रह तथा शेष कहानी संग्रह हैं। श्रीमती जोशी के प्रमुख कहानी संग्रह-‘पाषाण युग’,’तेरा घर मेरा घर’, ‘पिया पीर न जानी’, ‘मोरी रंग दीनी चुनरिया’, ‘बाबुल का घर’ एवं ‘महकते रिश्ते’ हैं।

  • वर्ण्य विषय

भारतीयता में रची बसी मालती जोशी की कहानियों का संसार भी भारतीय परिवारों का जीवंत परिवेश रहा है। आपने जन-जीवन के विविध पक्षों को अपनी कहानियों में उभारा है। घर-परिवार के पारस्परिक सम्बन्ध, व्यवहार, स्वरूप आदि को आधार बनाकर सुश्री जोशी ने आनी बात कहने का सटीक प्रयास किया है। आधुनिक युग के बदलते परिवेश के कारण उभरने वाली परेशानियों को आपने सशक्त अभिव्यक्ति दी है। आपने मध्यमवर्गीय परिवारों की मानवीय संवेदनाओं और नारी मन के सूक्ष्म-स्पन्दनों को स्वाभाविकता के साथ प्रस्तुत किया है।

  • भाषा

श्रीमती मालती जोशी की भाषा आडम्बरों से मुक्त सहजता एवं संवेदनशीलता से परिपूर्ण है। आपकी भाषा में मुख्यतः तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु आवश्यकता के अनुसार तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों को भी स्थान मिला है। यत्र-तत्र लक्षणा और व्यंजना का पुट पाठक के मानस का स्पर्श करता है। मुहावरे, अलंकार आदि का प्रयोग भाषा को अधिक सम्प्रेषणीय बनाने में सहयोगी रहा है। वाक्य रचना सरल एवं सुस्पष्ट है।

  • शैली

मालती जोशी की कहानियों में विभिन्न शैली रूपों का प्रयोग हुआ है

  1. संवाद शैली-पात्रों के पारस्परिक कथोपकथनों के माध्यम से जब कहानी का विकास होता है तब संवाद शैली होती है। इस शैली के प्रयोग से आपकी कहानियों में सजीवता, स्वाभाविकता तथा प्रभावशीलता आ गई है।
  2. वर्णनात्मक शैली-जहाँ-जहाँ वर्णनों का सहारा लिया गया है, वहाँ वर्णनात्मक शैली है। श्रीमती जोशी की कहानियों में इस शैली का पर्याप्त प्रयोग हुआ है।
  3. विश्लेषणात्मक शैली-सुश्री जोशी की कहानियों में स्थान-स्थान पर विश्लेषण का सहारा लिया गया वहाँ यह शैली परिलक्षित होती है।

इसके अतिरिक्त आपने आत्मकथात्मक, भावात्मक, विवेचनात्मक, चित्रात्मक, आलंकारिक शैली रूपों का प्रयोग अपनी कहानियों में आवश्यकतानुसार किया है।

  • साहित्य में स्थान

अनुभूति और अभिव्यक्ति के विशिष्ट कौशल के कारण मालती जोशी की पहचान हिन्दी कहानीकारों में अलग ही है। आधुनिक युग के संवेदनशील कहानीकारों में उन्हें बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वर्तमान कथाकारों में उनका विशिष्ट स्थान है।

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