MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 9 विविधा-1

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 9 विविधा-1

विविधा-1 अभ्यास

विविधा-1 अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कौआ और कोयल में क्या समानता है?
उत्तर:
कौआ और कोयल दोनों में काले रंग की समानता है।

प्रश्न 2.
‘घर अन्धेरा’ से कवि का संकेत किस ओर है?
उत्तर:
‘घर अन्धेरा’ से कवि का संकेत है कि घर में निर्धनता जनित दुःखों का अन्धकार छाया है।

प्रश्न 3.
‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे बसते हैं।’ से कवि क्या कहना चाहते हैं? (2010)
उत्तर:
‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे बसते हैं।’ से कवि कहना चाहता है समाज इतना संवेदनहीन हो गया है कि किसी के दुःख-दर्द में न बोलना चाहता है और न सुनना चाहता है।

प्रश्न 4.
कवियों ने किसकी बोली का बखान किया है?
उत्तर:
कवियों ने मधुर स्वर वाली कोयल का बखान किया है।

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विविधा-1 लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केले के पौधे को देखकर कवि को क्या अचम्भा होता है? (2016)
उत्तर:
दीनदयाल गिरि कवि को यह अचम्भा होता है कि रंभा मात्र एक जन्म के लिए रूप के गर्व से भर कर झूमती फिरती है। एक जीवन बहुत छोटा होता है, उसमें भी रूप का चमत्कार यौवन में ही रहता है। इस प्रकार यह बहुत अस्थायी तथा अल्पकालिक है। कवि मानते हैं कि रूप, धन आदि तो आते-जाते रहते हैं, ये स्थिर नहीं है। अतः इनके कारण व्यक्ति को गर्व नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 2.
‘यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।’ का आशय लिखिए।
उत्तर:
कवि दुष्यन्त कुमार ने संघर्ष भरे जीवन की यातनाओं को सटीक अभिव्यक्ति दी है। ‘यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।’ के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि निर्धनता और निर्बलता के दीन-हीन जीवन में दिन-रात यातनाएँ ही भरी रहती हैं। निर्धन का जीवन कष्टों के अन्धेरे में घिरा रहता है, क्योंकि यह पंक्ति रात्रि के बारह बजे के सन्दर्भ में कही है। अत: आशय यह है कि रात में नींद में आने वाले स्वप्नों में भी यातनाओं के मध्य से गुजरना होता है अर्थात् स्वप्न भी दुःख भरे ही आते हैं।

प्रश्न 3.
‘मिट्टी का भी घर होता है।’ इसका क्या अर्थ है? (2014)
उत्तर:
सामान्यतः घर ईंट, सीमेंट, चूना आदि से बनाये जाते हैं किन्तु अति निर्धन वर्ग मिट्टी के घर बनाकर रहता है। यद्यपि यह घर इतना मजबूत और टिकाऊ नहीं होता है जितना ईंट-सीमेंट का बना घर किन्तु घर तो होता ही है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में एक घर का स्वप्न देखता है। निर्धनता के कारण वह अच्छा नहीं बना सकता है, तो घरौंदा ही सही रहने का सहारा तो होता ही है।

प्रश्न 4.
कौआ और कोयल का भेद कब ज्ञात होता है? (2017)
उत्तर:
सामान्यतः रंग, आकार, प्रकार की दृष्टि से कौआ और कोयल समान प्रकार के प्रतीत होते हैं। इनमें इतनी समानता होती है कि यदि कौआ कोयलों के बीच बैठ जाय तो उसे पहचानना कठिन होगा। दोनों का रंग काला होता है। बनावट, पंख आदि भी एक ही तरह के होते हैं किन्तु जब बोलते हैं तो दोनों का भेद स्पष्ट पता लग जाता है। कोयल की पीऊ-पीऊ बड़ी मधुर और कर्णप्रिय होती है, जबकि कौए की काँऊ-काँऊ बड़ी तीखी और कर्ण कट होती है।

विविधा-1 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दुष्यन्त कुमार की गजलों के आधार पर कवि के विचार अधिकतम तीन बिन्दुओं में व्यक्त करें। (2012)
अथवा
“दुष्यन्त कुमार की गजलें आम आदमी की पीड़ा को जनमानस तक पहुँचाने में सफल हुई हैं।” विवेचना कीजिए। (2008, 09)
उत्तर:
इसके उत्तर के लिए ‘दुष्यन्त की गजलें’ शीर्षक का सारांश पढ़िए।

प्रश्न 2.
दीनदयाल गिरि की कुण्डलियों का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
इसके उत्तर के लिए ‘कुण्डलियाँ’ शीर्षक का सारांश पढ़िए।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित पंक्तियों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) करनी विधि …………….. अधीने।
(आ) वायस …………… बखानी।
(इ) कोई रहने …………….. घर होता है।
(ई) वे सहारे …………… प्यारे न देख।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में भाग्य के विधान की महिमा को उजागर किया गया है।

व्याख्या :
दीनदयाल कवि कहते हैं कि देखिए, ब्रह्मा के द्वारा रचित भाग्य के कार्य बड़े अद्भुत हैं, उनका वर्णन करना सम्भव नहीं है। हिरणी के बड़े सुन्दर नेत्र होते हैं, वह बड़ी आकर्षक होती है फिर भी वह दिन-रात जंगलों में मारी-मारी फिरती है। वह वन में रहते हुए अनेक बच्चों को जन्म देती है। दूसरी ओर कोयल काले रंग वाली होती है फिर भी सारे कौए उसके वशीभूत होते हैं। कवि बताते हैं कि दिनों की टेक को देखकर धैर्य धारण करना चाहिए। भाग्य के विधान से प्रिय के मध्य रहते हुए भी विरह की अवस्था बनी रहती है। भाग्य बहुत बलवान होता है।

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि नीच व्यक्ति भले ही सज्जनों के मध्य पहुँच जाय किन्तु वह अपने नीच स्वभाव को नहीं छोड़ता है।

व्याख्या :
कवि दीनदयाल कहते हैं कि हे कौए ! तू कोयलों के बीच बैठकर स्वयं पर क्यों गर्व करता है। वंश के स्वभाव से तुम्हारे बोलते ही पहचान हो जाएगी कि तुम मृदुभाषी कोयल नहीं, कौए हो। तुम्हारी वाणी तीखी, कर्ण कटु है जबकि जिनके बीच तुम बैठे हो वे कोयल पंचम स्वर में बड़ी मधुर ध्वनि करती हैं जिसकी प्रशंसा बड़े-बड़े कवियों ने की है। कवि स्पष्ट करते हैं ‘कि कौए के सामने कोई दूध की बनी स्वादिष्ट खीर ही क्यों न परोस दे, पर स्वभाव से नीच ये कौए उसे छोड़कर गन्दी चीजें खाये बिना नहीं मानेंगे। आशय यह है कि नीच स्वभाव का व्यक्ति अपनी स्वाभाविक नीचता को नहीं छोड़ पाता है।

(इ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इन गजलों में यथार्थ जीवन की यातनाओं का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
दिन तो सांसारिक संघर्ष में कटता ही है किन्तु रात भी कष्ट में ही गुजरती है। नित्य प्रति जब रात को बारह बजने के घण्टे बजते हैं। उस समय भी व्यक्ति कष्टों के अन्धकार से गुजर रहा होता है अर्थात् रात में आने वाले स्वप्न भी उसे यातनाएँ ही देते हैं।

मेरे जीवन के जो स्वप्न हैं उनके लिए इस संसार में नया कोई स्थान उपलब्ध है क्या? अर्थात् कोई जगह नहीं है। इसलिए स्वप्नों के लिए घरौंदा ही ठीक है। चाहे वह मिट्टी का ही सही, घर तो है।

जीवन की यातनाओं ने ये हालत कर दी है कि कभी सिर से लेकर छाती तक, कभी पेट से लेकर पाँव तक पीड़ा होती है और वास्तविकता यह है कि एक जगह होता हो तो बताया जाय कि इस स्थान पर दर्द होता है। नीचे से ऊपर तक बाहर से भीतर तक, सब जगह दर्द ही दर्द है।

(ई) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में व्यक्ति को संघर्षशील संसार में अकेले ही सामना करने के लिए प्रेरित किया गया है।

व्याख्या :
कवि व्यक्ति को हिम्मत बँधाते हुए कहते हैं कि अब तक जिन सहारों से इस जगत का सामना कर रहे थे, अब वे भी नहीं रहे हैं। अब तो तुम्हें स्वयं के बल पर जीवन का युद्ध लड़ना है। जो हाथ कट चुके हैं अर्थात् जो सम्बन्ध समाप्त हो चुके हैं अब उन सहारों के सहयोग की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अब तो अपने आप ही परिस्थितियों का सामना करना होगा।

संघर्षशील जीवन में मनोरंजन भी आवश्यक है किन्तु इतना मनोरंजन नहीं कि कठोर जगत को भूल कल्पना की उड़ानें भरनी प्रारम्भ कर दी जायें। विकास के लिए भविष्य के स्वप्न देखना आवश्यक है, किन्तु इतने प्यारे स्वप्न नहीं कि उन्हीं में डूबकर रह जायें। स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्यक्ष यथार्थ का सामना करने की क्षमता भी आवश्यक है।

विविधा-1 काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिएकोयल, कौआ, मोर, बादल।
उत्तर:
कोयल – पिक, कोकिला
कौआ – काक, वायस
मोर – मयूर, केकी
बादल – मेघ, जलद।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए
हकीकत, खौफ, इजाजत, सफर, जिस्म, जलसा।
उत्तर:
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प्रश्न 3.
निम्नलिखित मुहावरों और लोकोक्तियों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
गागर में सागर भरना, का वर्षा जब कृषि सुखाने, टेढ़ी खीर होना, ऊँट के मुँह में जीरा, दाँत खट्टे करना, अधजल गगरी छलकत जाय।
उत्तर:
गागर में सागर भरना – बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया है।
का वर्षा जब कृषि सुखाने – मरीज की मृत्यु हो गई तब डॉक्टर आने लगा, तो घर वालों ने कह दिया का वर्षा जब कृषि सुखाने।
टेढ़ी खीर होना – पाकिस्तान के अड़ियल रवैये के कारण कश्मीर समस्या को हल करना टेढ़ी खीर हो गया है।
ऊँट के मुँह में जीरा – दारासिंह के लिए दो सौ ग्राम दूध ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है।
दाँत खट्टे करना – 1962 के युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सैनिकों के दाँत खट्टे कर दिये थे।
अधजल गगरी छलकत जाय – राजेश शहर से पढ़कर गाँव में आया तो बड़ी-बड़ी बातें करने लगा। उसकी बातों को सुनकर एक वृद्ध ने कह ही दिया कि अधजल गगरी छलकत जाय।

प्रश्न 4.
‘कुण्डलियाँ’ छन्द किन मात्रिक छन्दों के योग से बनता है? उदाहरण देकर समझाइये।
उत्तर:
कुण्डलियाँ’ छन्द दोहा और रोला मात्रिक छन्दों के योग से बनता है।
करनी विधि की देखिये, अहो न बरनी जाति।
हरनी के नीके नयन बसै बिपिन दिन राति।।
बसै बिपिन दिनराति, बराबर बरही कीने। कारी
छवि कलकंठ किये फिर काक अधीने।।
बरनै दीनदयाल धीर धरते दिन धरनी।
बल्लभ बीच वियोग, विलोकहु विधि की करनी।।

प्रश्न 5.
सही विकल्प छाँटिए
(अ) कोकिला शब्द है-(तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी)
(ब) वायस का अर्थ है-(तोता, कौआ, बाज, कबूतर)
उत्तर:
(अ) तद्भव
(ब) कौआ।

प्रश्न 6.
दुष्यन्त कुमार की गजलों की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
वर्तमान समय के सामाजिक यथार्थ को सशक्त अभिव्यक्ति देने वाले दुष्यन्त कुमार की गजलों में भाव एवं कला पक्ष की विभिन्न विशेषताएँ उपलब्ध हैं।

सामाजिक यथार्थ का चित्रण :
दुष्यन्त कुमार का समाज की विषमताजन्य समस्याओं से पूरा परिचय है। अर्थ, कार्य, भोजन, आवास आदि की भिन्नताएँ उन्हें बैचेन करती हैं। वे कह उठते हैं-
रोज जब रात को बारह बजे का गजर होता है
यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।।

दीन-हीन की पीड़ा का वर्णन :
निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति रखने वाले दुष्यन्त कुमार की गजलों में विविध प्रकार की यातनाओं का सजीव अंकन हुआ है। यातनाओं के कारण दर्द की यह स्थिति होती है-
सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी।
एक जगह हो तो कहें, दर्द इधर होता है।।

संघर्षशील होने की प्रेरणा-दुष्यन्त पलायनवादी नहीं हैं। वे मानते हैं कि समस्याओं का डटकर सामना करना चाहिए। वे कहते हैं-
अब यकीनन ठोस है धरती, हकीकत की तरह।
वह हकीकत देख, लेकिन खौफ के मारे न देख।।

स्वाभाविक अभिव्यक्ति :
दुष्यन्त कुमार सीधी, सरल, सपाट भाषा में प्रभावी ढंग से अपनी बात कहते हैं। चमत्कार या आडम्बरों के लिए उनकी गजलों में कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार दुष्यन्त कुमार का काव्य भाव एवं कला दोनों दृष्टियों से सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता रखता है।

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कुण्डलियाँ भाव सारांश

विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कहने में कुशल दीनदयाल गिरि की कुण्डलियों में जीवन के अनुभव का सार समाहित है। उन्होंने नीति पर बड़ी सटीक बातें कही हैं। थोड़े ही दिन के रूप सौन्दर्य पर गर्व न करने की नीति बताते हुए वे कहते हैं कि रूप तथा सौन्दर्य तो अस्थायी तथा क्षणिक है। गुणों के महत्त्व को उजागर करते हुए वे बताते हैं कि कौए का कोयलों के बीच बैठकर गर्व करना व्यर्थ है क्योंकि जैसे ही वह बोलेगा, उसकी पहचान कर्णकटु वाणी से हो जायेगी। कोयल सुमधुर स्वर में पीऊ-पीऊ करेगी तो वह तीखी ध्वनि में काँऊ-काँऊ करेगा। उसे कितनी ही स्वादिष्ट खीर क्यों न खिलाई जाय, वह गन्दी चीज खाये बिना नहीं मानेगा। इसी प्रकार अवगुणी गुणवानों के मध्य अपने दुर्गुणों से शीघ्र प्रकट हो जायेगा। भाग्य की महिमा को उजागर करते हुए कवि ने कहा है कि विधि का विधान बड़ा विचित्र है उसका वर्णन करना सम्भव नहीं है।

हिरणी बहुत सुन्दर नेत्रों वाली होकर दिन-रात वनों में घूमती-फिरती है। वह वहाँ प्रसूता होकर कष्ट भोगती रहती है जबकि कोयल श्याम वर्ण की होते हुए भी सभी कौओं को अपने वश में रखती है। इस प्रकार कवि ने इन पद्यों से व्यावहारिक अनुभव के आधार पर नीतिपरक ज्ञान बढ़ाने का सफल प्रयास किया है।

कुण्डलियाँ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] रंभा ! झूमत हौं कहा थोरे ही दिन हेत।
तुमसे केते है गए अरु कै हैं इहि खेत।।
अरु कै हैं इहि खेत मूल लघु साखा हीने।
ताहू पै गज रहे दीठि तुमरे प्रति दीने।।
बरनै दीनदयाल हमें लखि होत अचंभा।
एक जन्म के लागि कहा झुकि झूमत रंभा।।

शब्दार्थ :
रंभा – सुन्दरी, रूप सौन्दर्य के लिए विख्यात एक अप्सरा; हेत = प्रेम; केते = कितने; 8 गए = हो गये; इहि = इस; खेत = क्षेत्र, संसार; मूल = जड़; साखा = टहनियाँ; हीने = रहित; दीठिगज = हाथी दिखाई दे रहे; लखि = देखकर; अचम्भा = आश्चर्य; लागि = लिए।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक के विविधा भाग-1′ के ‘कुण्डलियाँ’ शीर्षक से उद्धृत है। इसके रचयिता दीनदयाल गिरि हैं।

प्रसंग :
इस पद्य में अल्पकालीन रूप सौन्दर्य पर गर्व न करने का परामर्श दिया गया है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि रंभा समान रूपवान हे सुन्दरी ! तुम गर्व से युक्त होकर मदमस्त होकर क्यों घूम रही हो? यह प्रेम थोड़े दिन का ही है। रूप स्थायी नहीं होता है। तुम कोई अकेली रूपवान नहीं हो। इस संसार में तुम जैसे पता नहीं कितने हो चुके हैं और भविष्य में कितने ही होंगे। इस संसार में होने वाले ये रूपवान अस्थिर होते हैं। न इनकी जड़ें होतीं न शाखाएँ अर्थात् ये तो अल्पकालीन हैं, स्थिर रहने वाले नहीं हैं। इस पर भी मोहित होने वाले युवक रूपी हाथी भी तुम्हारे प्रति उदास ही दिखाई दे रहे हैं। दीनदयाल कवि बताते हैं कि हमें यह जानकर आश्चर्य होता है कि मात्र एक जन्म के अल्पकाल के लिए प्राप्त रूप सौन्दर्य पर सुन्दरी गर्व से भरकर झूमती हुई घूम रही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. अस्थायी रूप सौन्दर्य पर गर्व न करने का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  3. सरल, सुबोध एवं भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

[2] वायस ! तू पिक मध्य खै कहा करै अभिमान।
है हैं बस सुभाव की बोलत ही पहिचान।।
बोलत ही पहिचान कानकटु तेरी बानी।
वे पंचम धुनि मंजु करैं जिहिं कविन बखानी।।
बरनै दीनदयाल कोऊ जौ परसौ पायस।
तऊन न तजै मलीन मलिन खाये बिन वायस।।

शब्दार्थ :
वायस = कौआ; पिक = कोयल; मध्य = बीच; बंस = वंश, कुल; कानकटु = कर्ण कटु, कठोर; बानी = वाणी; मंजु = मनोहर; जिहिं = जिसका; बखानी = प्रशंसा, वर्णन किया है; परसो = परोस दो; पायस = खीर, दूध का बना स्वादिष्ट पदार्थ; तऊन = तो भी; तजै = छोड़ता है; मलीन = नीच; मलिन = गन्दा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि नीच व्यक्ति भले ही सज्जनों के मध्य पहुँच जाय किन्तु वह अपने नीच स्वभाव को नहीं छोड़ता है।

व्याख्या :
कवि दीनदयाल कहते हैं कि हे कौए ! तू कोयलों के बीच बैठकर स्वयं पर क्यों गर्व करता है। वंश के स्वभाव से तुम्हारे बोलते ही पहचान हो जाएगी कि तुम मृदुभाषी कोयल नहीं, कौए हो। तुम्हारी वाणी तीखी, कर्ण कटु है जबकि जिनके बीच तुम बैठे हो वे कोयल पंचम स्वर में बड़ी मधुर ध्वनि करती हैं जिसकी प्रशंसा बड़े-बड़े कवियों ने की है। कवि स्पष्ट करते हैं ‘कि कौए के सामने कोई दूध की बनी स्वादिष्ट खीर ही क्यों न परोस दे, पर स्वभाव से नीच ये कौए उसे छोड़कर गन्दी चीजें खाये बिना नहीं मानेंगे। आशय यह है कि नीच स्वभाव का व्यक्ति अपनी स्वाभाविक नीचता को नहीं छोड़ पाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. नीच व्यक्ति कितना ही अच्छे लोगों के पास पहुँच जाय, पर स्वाभाविक नीचता उसमें बनी ही रहती है।
  2. कौआ नीच व्यक्तियों का तथा कोयल श्रेष्ठ व्यक्तियों के प्रतीक हैं।
  3. निनोक्ति, अनुप्रास अलंकार।
  4. सरल, सुस्पष्ट ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

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[3] करनी विधि की देखिये, अहो न बरनी जाति।
हरनी के नीके नयन बसै बिपिन दिनराति।।
बसै बिपिन दिनराति बराबर बरही कीने।
कारी छवि कलकण्ठ किये फिर काक अधीने।।
बरनै दीनदयाल धीर धरते दिन धरनी।
बल्लभ बीच वियोग, विलोकहु विधि की करनी।। (2009)

शब्दार्थ :
विधि = भाग्य; बानी = वर्णित करना; हरनी = हिरणी; नीके = सुन्दर, भले; करनी = कार्य; नयन = नेत्र; बिपिन = वन, जंगल; बरही = प्रसूता, बच्चों को जन्म देने वाली; छवि = शोभा; कलकण्ठ= सुन्दर गला, कोयल; काक = कौए; अधीने = वश में; धीर = धैर्य; बल्लभ = प्रिय; विलोकहु = देखिए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में भाग्य के विधान की महिमा को उजागर किया गया है।

व्याख्या :
दीनदयाल कवि कहते हैं कि देखिए, ब्रह्मा के द्वारा रचित भाग्य के कार्य बड़े अद्भुत हैं, उनका वर्णन करना सम्भव नहीं है। हिरणी के बड़े सुन्दर नेत्र होते हैं, वह बड़ी आकर्षक होती है फिर भी वह दिन-रात जंगलों में मारी-मारी फिरती है। वह वन में रहते हुए अनेक बच्चों को जन्म देती है। दूसरी ओर कोयल काले रंग वाली होती है फिर भी सारे कौए उसके वशीभूत होते हैं। कवि बताते हैं कि दिनों की टेक को देखकर धैर्य धारण करना चाहिए। भाग्य के विधान से प्रिय के मध्य रहते हुए भी विरह की अवस्था बनी रहती है। भाग्य बहुत बलवान होता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. विधि के विधान की महिमा का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रभावी प्रयोग हुआ है।

दुष्यन्त की गजलें भाव सारांश

दुष्यन्त कुमार को हिन्दी में गजल को प्रतिष्ठित कराने का श्रेय प्राप्त है। वे सामाजिक यथार्थ के कुशल चितेरे हैं। अपने समय के समाज की विषमताओं पर करारे प्रहार करते हुए उन्होंने संघर्ष की प्रेरणा दी है।

(1) सामान्य जन को सजग करते हुए वे बताते हैं कि विविध प्रकार के प्रचार-प्रसार आज समाज में चल रहे हैं, तुझे उन सबके झमेले में फंसने से पहले अपने स्वयं के घर-परिवार की कठिनाइयों का समाधान करना है। संसार विशाल है। उसमें स्वयं में करने की जो क्षमता है, उसी अनुसार सचेष्ट होना है। जीवन के यथार्थ संघर्षों से बिना घबराये स्वयं की शक्ति से जूझना है कोरी कल्पनाओं में विचरण नहीं करना है-
दिल को बहला ले इजाजत है, मगर इतना न उड़।
आज सपने देख लेकिन, इस कदर प्यारे न देख।।

(2) संघर्षशील निम्न तबके को दिन-रात कष्टों से ही गुजरना होता है। उनके नींद में आने वाले स्वप्न भी संकटों से भरे होते हैं। जीवन में व्यक्ति की कामना होती है कि उसका भी एक निवास हो, चाहे वह मिट्टी का ही क्यों न हो। यातनाओं की पीड़ा सिर से पाँव तक एक-एक अंश में व्याप्त रहती है। कवि कहते हैं-
सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी।
एक जगह हो तो, कहें दर्द उधर होता है।।

जब किसी हताश व्यक्ति से मिलन हो जाता है तो लगने लगता है कि जीवन में सफल होना सम्भव नहीं । आज तो स्थितियाँ ही भयावह हो गयी हैं। घूमने निकलने पर भी पथराव के शिकार हो सकते हैं।

(3) निर्धनता कमर तोड़ देती है और व्यक्ति नमन की तरह झुक जाता है। विषम व्यवस्था में बँटवारा उचित न होने से एक वर्ग कष्ट ही पाता रहता है। निर्धनता से ग्रस्त को अपने मरण का भी बोध नहीं होता है। जबकि अन्य उसके विषय में जानने के लिए परेशान रहते हैं। शहरों के शोर-शराबे पशुओं के हाँके की तरह लगते हैं। आज की स्वार्थपरता ने मनुष्य को जड़ बना दिया है। उसकी संवेदनाएँ मर चुकी हैं।

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दुष्यन्त की गजलें संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
घर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख
अब यकीनन ठोस है धरती, हकीकत की तरह
वह हकीकत देख, लेकिन खौफ के मारे न देख

शब्दार्थ :
आकाश के तारे देखना = कल्पनाजीवी होना; दरिया = नदी, सागर; बाजुओं = भुजाओं; पतवारें = नाव में पीछे की ओर लगी डण्डी; यकीनन = निःसन्देह; हकीकत = वास्तविकता; खौफ = भय।।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘विविधा भाग-1’ के ‘दुष्यन्त की गजलें’ शीर्षक से अवतरित है। इसके रचयिता दुष्यन्त कुमार हैं।

प्रसंग :
इस पद्यांश में व्यक्ति को यथार्थ का सामना करते हुए सचेष्ट होने की प्रेरणा दी गयी है।

व्याख्या :
दुष्यन्त कुमार ने यथार्थपरक होने का उद्बोधन देते हुए कहा कि आज सड़कों पर अनेक प्रकार के नारे लिखे हैं। व्यक्ति को सड़क के नारों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए यह आवश्यक कि वह अपने घर के कष्टों के अन्धकार को दूर करने पर ध्यान दे। वह कल्पनाजीवी न होकर यथार्थवादी बने।

जगत का सागर बड़ा विस्तृत और विशाल है। वह बहुत दूर तक फैला है। उसे पार करने के लिए व्यक्ति को अपनी भुजाओं के बल को देखना है, न कि नाव की पतवारों को अर्थात् व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से संसार रूपी सागर को पार कर पायेगा, पतवारों से नहीं।

प्रत्यक्ष सत्य है कि जगत बहुत ही कठोर है। यहाँ जीवनयापन करना सरल नहीं है। इस सत्य को जानकर संसार से भयभीत न होकर उसका सामना करना है अर्थात् संघर्षशील जगत में घबराने से काम नहीं चलेगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ यथार्थ से सामना करने की प्रेरणा दी गयी है।
  2. उपमा, अनुप्रास अलंकार।
  3. विषय के अनुरूप लाक्षणिक भाषा का प्रयोग हुआ है।
  4. शैली बहुत प्रभावशाली है।

[2] वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख
दिल को बहला ले, इजाजत है, मगर इतना न उड़
आज सपने देख, लेकिन इस कदर प्यारे न देख

शब्दार्थ :
जंग = युद्ध; इजाजत = अनुमति; मगर = परन्तु; कदर = तरह।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में व्यक्ति को संघर्षशील संसार में अकेले ही सामना करने के लिए प्रेरित किया गया है।

व्याख्या :
कवि व्यक्ति को हिम्मत बँधाते हुए कहते हैं कि अब तक जिन सहारों से इस जगत का सामना कर रहे थे, अब वे भी नहीं रहे हैं। अब तो तुम्हें स्वयं के बल पर जीवन का युद्ध लड़ना है। जो हाथ कट चुके हैं अर्थात् जो सम्बन्ध समाप्त हो चुके हैं अब उन सहारों के सहयोग की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अब तो अपने आप ही परिस्थितियों का सामना करना होगा।

संघर्षशील जीवन में मनोरंजन भी आवश्यक है किन्तु इतना मनोरंजन नहीं कि कठोर जगत को भूल कल्पना की उड़ानें भरनी प्रारम्भ कर दी जायें। विकास के लिए भविष्य के स्वप्न देखना आवश्यक है, किन्तु इतने प्यारे स्वप्न नहीं कि उन्हीं में डूबकर रह जायें। स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्यक्ष यथार्थ का सामना करने की क्षमता भी आवश्यक है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यथार्थ जगत में विकास के लिए व्यक्ति को स्वयं की क्षमता का विस्तार करना आवश्यक है।
  2. लाक्षणिकता से युक्त खड़ी बोली में बड़े प्यारे ढंग से विषय को प्रस्तुत किया गया है।

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[3] रोज जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा सही, मिट्टी का भी घर होता है।
सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी
एक जगह हो तो कहें, दर्द इधर होता है।

शब्दार्थ :
रोज = प्रतिदिन; गजर = हर घण्टे पर बजने वाले घण्टे; यातनाओं = मुसीबतों, कष्टों; सफर = यात्रा; घरौंदा = बच्चों के द्वारा खेलने को बनाया गया मिट्टी का छोटा घर; दर्द = पीड़ा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इन गजलों में यथार्थ जीवन की यातनाओं का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
दिन तो सांसारिक संघर्ष में कटता ही है किन्तु रात भी कष्ट में ही गुजरती है। नित्य प्रति जब रात को बारह बजने के घण्टे बजते हैं। उस समय भी व्यक्ति कष्टों के अन्धकार से गुजर रहा होता है अर्थात् रात में आने वाले स्वप्न भी उसे यातनाएँ ही देते हैं।

मेरे जीवन के जो स्वप्न हैं उनके लिए इस संसार में नया कोई स्थान उपलब्ध है क्या? अर्थात् कोई जगह नहीं है। इसलिए स्वप्नों के लिए घरौंदा ही ठीक है। चाहे वह मिट्टी का ही सही, घर तो है।

जीवन की यातनाओं ने ये हालत कर दी है कि कभी सिर से लेकर छाती तक, कभी पेट से लेकर पाँव तक पीड़ा होती है और वास्तविकता यह है कि एक जगह होता हो तो बताया जाय कि इस स्थान पर दर्द होता है। नीचे से ऊपर तक बाहर से भीतर तक, सब जगह दर्द ही दर्द है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. विपरीत परिस्थितिजन्य यथार्थ यातनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई हैं।
  2. रूपक, अनुप्रास अलंकार।
  3. सशक्त खड़ी बोली में किये गये सटीक कथन सहज ही प्रभावित करते हैं।

[4] ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे,
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है।
सैर के वास्ते सड़कों पे निकलते थे,
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है।

शब्दार्थ :
पर = पंख; सैर = भ्रमण; वास्ते = लिए। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-इन गजलों में वर्तमान की यथार्थ परिस्थितियों का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जीवन के उत्थान के लिए कल्पना की उड़ानें भी आवश्यक हैं। किन्तु उनका पूरा होना आवश्यक नहीं है। इसलिए कवि कहते हैं कि जब हमारे हाथ कोई टूटा हुआ पंख होता है तो प्रतीत होने लगता है कि हम कल्पना की उड़ान भरकर भी वहाँ पहुँच पायेंगे? टूटा हुआ पंख उड़ान की असफलता का द्योतक है। अत: उड़ान पूरा हो पाना आवश्यक नहीं है।

अराजकतापूर्ण स्थिति की विषमता को उजागर करते हुए कवि कहते हैं कि पहले भ्रमण के लिए सड़कों पर निकला करते थे परन्तु अब तो इतनी भयानक स्थिति हो गयी है कि भ्रमण के लिए निकलें और आसमान से पत्थरों की वर्षा प्रारम्भ हो जाये। अतः भ्रमण को निकलना भी खतरनाक है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. विषम स्थिति का अंकन हुआ है।
  2. विषय को उजागर करने में सक्षम लाक्षणिक एवं व्यंजक भाषा का प्रयोग हुआ है।

[5] ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशां हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा। (2008)

शब्दार्थ :
जिस्म = शरीर; सजदे = झुककर नमन करना; गजब = परेशानी। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-यथार्थ जगत के कष्टों का सटीक अंकन इन गजलों में हुआ है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि आपको धोखा हो गया होगा कि मैं झुककर नमन कर रहा हूँ। मैं सजदे में नहीं था। हो सकता है यथार्थ जगत की नाना प्रकार की यातनाओं के भार के कारण मेरा शरीर झुककर दोहरा हो गया हो।
जगत की विषम व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचते-पहुंचते अनेक नदियाँ सूख जाती हैं अर्थात् विभिन्न साधन यहाँ नहीं आ पाते हैं। मुझे पता है कि इन नदियों का पानी अर्थात् दिए गये साधन-सुविधाओं को कहाँ पर रोक लिया गया होगा। आशय यह है कि अव्यवस्था के कारण जहाँ तक कुछ पहुँचना चाहिए वहाँ तक कुछ पहुँचता ही नहीं है, बीच में ही झपट लिया जाता है।

दीन-हीन निर्बल वर्ग निरन्तर मरता जाता है किन्तु परेशानी यह है कि यह वर्ग अपने मरने की आहट को सुन भी नहीं पाता है अर्थात् इस वर्ग के साथ जो अन्याय, अत्याचार हो रहे हैं उनका आभास उन्हें नहीं हो पाता है। दूसरे जो उनके हितों पर आघात करते हैं, उनको मारने के काम करते हैं वे यह जानने को परेशान हैं कि निर्बल वर्ग में क्या प्रतिक्रिया हो रही होगी?

काव्य सौन्दर्य :

  1. यथार्थ जगत की विषमता से उत्पन्न यातनाओं का व्यंग्यात्मक अंकन हुआ है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार।
  3. उर्दू मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

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[6] तुम्हारे शहर में ये शोर सुन सुन कर तो लगता है
कि इन्सानों के, जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा। (2008)

शब्दार्थ :
इन्सानों = आदमियों; हाँका = जोर से पुकारना, हुँकार; फाके = भूखे रहकर; गूंगे = बोल न पाने वाले, मूक; बहरे = सुन न पाने वाले; जलसा = अधिवेशन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद्यांश में यथार्थ जीवन की संवेदनहीनता का सटीक अंकन हुआ है।

व्याख्या :
आज के कौलाहल से पूर्ण नगरीय जीवन पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि तुम्हारे नगर में हो रहे शोर-शराबे को सुनकर तो यह लगता है कि जैसे जंगल में पशुओं का हाँका होता है, ऐसे ही मनुष्यों के जंगल में कोई चिल्ल-पुकार हो रही होगी।

विषम अर्थव्यवस्था पर करारा प्रहार करते हुए कवि ने कहा है कि कई दिनों तक बिना भोजन के रहने के कारण भूख से उसकी मृत्यु हो गयी और लोग उसके बारे में अन्यान्य बातें कह रहे हैं कि इस प्रकार न होकर इस प्रकार उसकी मौत हुई होगी।

संवेदनहीनता पर कटाक्ष करते हुए कवि ने कहा है कि यहाँ पर रहने वाले सभी गूंगे और बहरे हैं। किसी के दुःख-दर्द में न कोई बोलता है न कोई सुनता है। इस प्रकार के माहौल में ईश्वर ही जाने कि किस प्रकार समाज का संचालन हो रहा होगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. आधुनिक जीवन की विविध जड़तामय स्थितियों का सटीक अंकन हुआ है।
  2. उर्दू मिश्रित खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।

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