MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण

प्रकृति-चित्रण अभ्यास

प्रकृति-चित्रण अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
खंजन पक्षी का दुःख किस ऋतु में मिट जाता है? (2016)
उत्तर:
खंजन पक्षी का दु:ख शरद ऋतु में मिट जाता है।

प्रश्न 2.
किस ऋतु में सूर्य चन्द्रमा के समान दिखाई देता है?
उत्तर:
शिशिर ऋतु में सूर्य भी चन्द्रमा के समान दिखाई देता है।

प्रश्न 3.
नौका विहार कविता में किसकी तुलना चाँदी के साँपों से की है? (2015, 17)
उत्तर:
जल में नाचती हुई चन्द्रमा की चंचल किरणों की तुलना चाँदी के साँपों से की गयी है।

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प्रकृति-चित्रण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सेनापति के अनुसार, वर्षा ऋतु में प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं? (2014)
उत्तर:
सेनापति के अनुसार वर्षा ऋतु में प्रकृति में अनेक परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं। आकाश में बिजली कौंधती है, इन्द्रधनुष चमकता है, काली घटाएँ भयंकर गर्जना करती हैं। कोयल एवं मोर इधर-उधर मधुर कूजन करते हैं। वायु के झोंकों से हृदय शीतल हो जाता है। वर्षा ऋतु के श्रावण माह में चारों ओर जल बरसने लगा है। प्रकृति के ये सभी परिवर्तन बड़े मनभावन होते हैं।

प्रश्न 2.
गंगाजल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा के लिए कवि ने क्या कल्पना की है?
उत्तर:
प्रकृति के अनुपम चितेरे सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’ कविता में चन्द्रमा एवं चाँदनी के नाना रूपों का सुन्दर अंकन किया है। कभी गंगाजल की गोल लहरें चन्द्रमा की रेशमी कान्ति पर साड़ी की सिकुड़न जैसी सिमटी दिखाई पड़ती है तो कभी गंगा नायिका के चाँदी जैसे लहराते श्वेत बालों में चमचमाती लहरों से छिपकर ओझल हो जाती है। गंगाजल में पड़ती दशमी के चन्द्रमा की परछाई की कल्पना करते हुए कवि ने कहा है कि दशमी का चन्द्रमा, उसका प्रतिबिम्ब, मुग्धा नायिका के समान लहरों के घूघट में से अपना टेड़ा मुँह थोड़ी-थोड़ी देर में रुक-रुककर दिखाता जाता है।

प्रश्न 3.
गंगा की धार के मध्य स्थित द्वीप कवि को कैसा दिखाई देता है?
उत्तर:
‘नौका विहार’ कविता में कवि ने गंगा की विविध छवियों का भव्य अंकन किया है। एक रूप इस प्रकार है-गंगा की धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है जो प्रवाह को रोककर उलट देता है। धारा में स्थित वही शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती पर चिपककर सो गये शिशु जैसा दिखाई दे रहा है।

प्रकृति-चित्रण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सेनापति ने बसन्त को ऋतुराज क्यों कहा है? (2008, 17)
उत्तर:
रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि सेनापति का ऋतु वर्णन अनुपम है। उन्होंने ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर आदि सभी ऋतुओं का मनोरम चित्रण किया है किन्तु बसन्त को उन्होंने ऋतुओं का राजा माना है। वे कहते हैं कि जैसे राजा हाथी, घोड़ा, रथ एवं पैदल की चतुरंगिणी सेना के साथ चलता है वैसे ही बसन्त.रूपी राजा के चहुंओर विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे फूल वन-उपवन में खिले हैं। जैसे राजा का गुणगान बन्दी, भाट आदि करते हैं वैसे ही भौरे, कोयल आदि ऋतुराज बसन्त का मधुर ध्वनि में यशगान करते हैं। जैसे राजा के आने पर सुगन्ध बिखर जाती है। वैसे ही बसन्त के आगमन पर भीनी-भीनी गन्ध चारों ओर व्याप्त हो जाती है। जैसे राजा की शोभायात्रा सुसज्जित होकर निकलती है वैसे ही ऋतुराज बसन्त सभी प्रकार के साज-सामान से युक्त होकर आते हैं। बसन्त के सभी लक्षण राजाओं जैसे हैं। इसीलिए सेनापति ने बसन्त को ऋतुओं का राजा कहा है।

प्रश्न 2.
सेनापति ने ग्रीष्म की प्रचण्डता का वर्णन किस प्रकार किया है? (2010)
उत्तर:
सेनापति ने ग्रीष्म की भयंकरता का सटीक वर्णन किया है। भीषण गर्मी देने वाली वृष राशि पर विराजमान सूर्य की हजारों किरणों के तेजस्वी समूह, भयंकर ज्वालाओं की लपटों की वर्षा कर रहे हैं। धरती तीव्र ताप से तप रही है। आग के तेज ताप से जगत जला जा रहा है। इस भीषण गर्मी से व्याकुल राहगीर और पक्षी भी छाया में विश्राम कर रहे हैं। थोड़ी-सी दोपहरी ढलते ही जो भयंकर उमस पड़ती है उसके कारण पत्ता भी नहीं खड़कता है। पूरी तरह चारों ओर सुनसान हो जाता है। गर्मी की इस भीषणता से घबराकर शान्ति देने वाली हवा भी ठण्डा सा कोना खोजकर इस ताप के समय को व्यतीत करने पर विवश हो रही है। इस प्रकार सेनापति ने ग्रीष्म की प्रचण्डता का प्रभावी वर्णन किया है।

प्रश्न 3.
तापस बाला के रूप में विश्राम कर रही गंगा के सौन्दर्य का वर्णन कवि ने किस प्रकार किया है? (2008)
उत्तर:
कोमल कल्पना के कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने अपनी नौका विहार’ कविता में गंगा का तापस बाला के रूप में बड़ा ही मनोरम चित्रण किया है। शान्त, प्रिय और स्वच्छ चाँदनी चारों ओर बिखरी है। आकाश अपलक नेत्रों से एवं धरती शान्त भाव से दत्तचित्त होकर गंगा को देख रहे हैं। तपस्वी कन्या जैसी पवित्र एवं क्षीणकाय गंगा बालू की दूध के समान श्वेत सेज पर शान्त, थकी सी स्थिर भाव से लेटी है। उसकी कोमल हथेलियाँ चाँदनी से चमत्कृत हो रही हैं। उस गंगा रूपी तापस बाला के हृदय पर तरंगों की छाया रूपी कोमल केश लहरा रहे हैं, उसके गौर वर्ण वाले जल में प्रतिबिम्बित नीला आकाश तरंगों के कारण उस बाला के आँचल की तरह लहरा रहा है। तापस बाला के स्पर्श से उसका शरीर सिहरन के कारण तरल एवं चंचल बना हुआ है। गंगाजल पर पड़ने वाली आकाश की लहराती परछाईं चन्द्रमा की रेशमी आभा से भरकर साड़ी की सिकुड़नों के समान सिमटी हुई है। इस प्रकार गंगा का तापस बाला के रूप में सजीव चित्रण किया गया है।

प्रश्न 4.
रात्रि के प्रथम प्रहर की चाँदनी में नदी, तट व नाव का सौन्दर्य क्यों बढ़ गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर है। चारों ओर श्वेत चाँदनी छिटक रही है। नदी के किनारों पर बिछी बालू पर चमकती चाँदनी को देखकर ऐसा लगता है मानो मुस्कराती हुई खुली सीपी पर सुन्दर मोती कौंध रहा है। श्वेत चाँदनी तथा शान्त वातावरण ने नाव का सौन्दर्य भी दोगुना कर दिया है। छोटी सी नाव मदमस्त हंसिनी के समान मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर गति से पाल रूपी पंख फैलाकर गंगा की सतह पर तैरने लगी है। गंगा के चाँदनी से चमकते श्वेत तट गंगाजल रूपी स्वच्छ दर्पण में दोगुने ऊँचे प्रतीत हो रहे हैं। इस तरह शान्त वातावरण में फैली श्वेत चाँदनी ने नदी तट तथा नाव के सौन्दर्य को अत्यन्त मनोहारी बना दिया है।

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प्रश्न 5.
सुमित्रानन्दन पन्त ने नौका विहार की तुलना जीवन के शाश्वत रूप से किस प्रकार की है? (2009, 13)
उत्तर:
सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’ कविता में नौका विहार की तुलना जीवन के शाश्वत रूप से की है। जीवन रूपी नौका का विहार नित्य है। गंगा की धारा की तरह उस सृष्टि की रचना सनातन है। इसकी गति भी चिरन्तन है। इस जगत की धारा के साथ जीवन का मिलन भी शाश्वत है। जैसे नीले आकाश की अद्भुत क्रीड़ाएँ, चन्द्रमा की चाँदी से श्वेत हँसी और छोटी-छोटी लहरों का विलास चिरन्तन है वैसे ही जीवन’रूपी नौका विहार शाश्वत है। धारा के रूप में प्राप्त जीवन के चिरन्तन प्रमाण ने आभास करा दिया है कि जन्म और मृत्यु के आर-पार आत्मा अमर है। वह कभी समाप्त नहीं होगी।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए
(i) चाहत चकोर ………………. सकति है।
(ii) मेरे जान पौनों ……………….. वितवत है।
(iii) मद मन्द-मन्द ………………. क्षण भर।
(iv) माँ के उर पर ……………… विपरीत धार।
उत्तर:
(i) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में शीत ऋतु की सजीव झाँकी प्रस्तुत की गयी है। साथ ही शिशिर के प्रभाव का मर्मस्पर्शी चित्रण है।

व्याख्या :
शिशिर ऋतु में ठण्ड बढ़ जाती है और वातावरण में इतनी अधिक शीतलता . होती है कि सूर्य भी चन्द्रमा का रूप धारण कर लेता है अर्थात् चन्द्रमा के समान शीतल लगता है। धूप भी चाँदनी की चमक प्रतीत होती है (धूप भी चाँदनी के समान लगती है)। सेनापति कहते हैं कि ठण्ड हजार गुनी बढ़ जाती है और दिन में भी रात की झलक दिखती है (सूर्य के तेज रहित होने के कारण दिन में रात की झलक दिख पड़ती है। दिन भी रात की तरह शीतल है।)

चकोर पक्षी यद्यपि चाँद का प्रेमी होता है, पर शिशिर में वह भी सूर्य की ओर अपलक दृष्टि से देखे जा रहा है। चक्रवाक पक्षी रातभर अपनी चकवी से बिछुड़ कर रहता है। शिशिर में दिन में जब रात का भ्रम होता है तो चक्रवाक पक्षी का दिल बैठने लगता है कि कहीं रात तो नहीं हो गयी और उसका धीरज छूटने लगता है। चन्द्रमा के भ्रमवश कुमुदिनी अत्यन्त प्रसन्न होती है। (वह दिन में भी सूर्य को शीतलता के कारण चाँद समझ बैठती है।) लेकिन चन्द्रमा की शंका में पड़कर कमलिनी दिन में भी विकसित नहीं हो पा रही है।

(ii) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने प्रस्तुत पद्यांश में ग्रीष्म ऋतु की भयंकरता का सजीव चित्रण किया है। साथ ही साथ जीव एवं दुनिया पर ग्रीष्म के ताप के भयंकर प्रभाव का सजीव चित्रण प्रस्तुत है।

व्याख्या :
यहाँ पर कवि सेनापति ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृष राशि पर सूर्य स्थित है। (ज्योतिष की मान्यता के अनुसार जब वृष राशि पर सूर्य आ जाता है तो भीषण गर्मी पड़ती है।) उसकी सहस्रों तेजस्वी किरणों के समूह से ऐसी भीषण गर्मी पड़ रही है, मानो भयंकर ज्वालाओं के जाल अर्थात् लपटों के समूह अग्नि की वर्षा कर रहे हों। पृथ्वी भी गर्मी की अधिकता से तप रही है। अग्नि की तीव्रता से संसार जल रहा है। यात्री और पक्षी ठण्डी छाया को ढूँढ़कर विश्राम करते हैं। सेनापति कहते हैं कि तनिक दोपहर ढलते ही विकराल गर्मी के कारण सन्नाटा हो जाता है कि पत्ता तक नहीं खड़कता, अर्थात् सर्वत्र सुनसान हो जाता है। कोई भी बाहर नहीं निकलता। ऐसी गर्मी में हवा भी नहीं चलती है कि कुछ शीतलता मिले। कवि कहते हैं कि मेरी समझ में तो हवा भी गर्मी से घबरा कर कोई ठण्डा-सा कोना ढूँढ़कर छिप गयी है और कहीं ऐसी जगह में गर्मी बिता रही है।

(iii) शब्दार्थ :
सत्वर = शीघ्र; सिकता = रेती, बालू; सस्पित = मुस्कराती; ज्योत्सना = चाँदनी; मन्थर-मन्थर = धीरे-धीरे; तरणि = नौका; पर = पंख; निश्चल = शान्त; रजत = चाँदी; पुलिन = किनारे; प्रमन = प्रसन्न मन; वैभव-स्वप्न = वैभव भरे सपने।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में नौका-विहार के मनोरम दृश्यों का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर है। हम नौका विहार के लिए नाव लेकर शीघ्र ही चल दिये हैं। गंगा नदी की रेती पर चाँदनी इस प्रकार चमक रही है कि मानो मुस्कराती हुई खुली सीपी पर मोती चमक रहा हो। इस प्रकार की रमणीय बेला में नाव के पाल नौका विहार हेतु चढ़ा दिये गये और लंगर उठा लिया है। फलस्वरूप हमारी छोटी सी नाव एक सुन्दर हंसिनी की तरह मन्द-मन्द, मंथर पालों रूपी पंख खोलकर गंगा की सतह पर तैरने लगी है। गंगा के शान्त तथा निर्मल जल रूपी दर्पण पर प्रतिबिम्बित चाँदनी से चमकते श्वेत तट एक क्षण के लिए दोहरे ऊँचे प्रतीत होते हैं। गंगा के तट पर स्थित कालाकांकर का राजभवन जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ इस प्रकार का प्रतीत हो रहा है मानो वैभव के अनेक स्वप्न संजाए निश्चित भाव से सो रहा हो।

शब्दार्थ :
चपला = चंचल नौका; दूरस्थ = दूरी पर स्थित; कृश = दुबला-पतला; विटप-माल – वृक्षों की पंक्ति; भू-रेखा = भौंह; अराल = टेढ़ी; उर्मिल = लहरों से युक्त; प्रतीप = उल्टा; कोक = चकवा।

(iv) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यावतरण में चाँदनी रात में गंगा नदी की बीच धारा में नौका-विहार के समय की प्राकृतिक सुषमा को चित्रित किया गया है।

व्याख्या :
जब चंचल नौका गंगा की बीच धारा में पहुँची तो चाँदनी में चाँद-सा चमकता हुआ रेतीला कगार हमारी दृष्टि से ओझल हो गया। मैंने देखा कि गंगा के दूर-दूर तक स्थित तट फैली हुई दो बाँहों के समान लग रहे हैं, जो गंगा धारा के दुबले-पतले कोमल-कोमल नारी के शरीर का आलिंगन करने (अपने में भरकर कस लेने) के लिए अधीर हैं और उधर, बहुत दूर क्षितिज पर वृक्षों की पंक्ति है। वह पंक्ति धरती के सौन्दर्य को अपलक (बिना पलक झपकाये) निहारते हुए आकाश के नीले-नीले विशाल नयन की तिरछी भौंह के समान प्रतीत हो रही है।

पास की धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है; जो लहरों वाले प्रवाह को रोककर उलट देता है। धारा में स्थित वही शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती पर चिपककर सो गये नन्हें बच्चे जैसा लग रहा है। और वह उड़ता हुआ.पक्षी कौन है? क्या वह अपनी प्रिया चकवी से रात्रि में बिछड़ा हुआ व्याकुल चकवा तो नहीं है? शायद वही है, जो जल में पड़े हुए प्रतिबिम्ब को देखकर उसे चकवी समझा बैठा है और विरह दुःख मिटाने के लिए उससे मिलन हेतु उड़ रहा है।.

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प्रकृति-चित्रण काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए. बरन, पंछी, सोभा, सहसौं, पौनों, पाउस, साँप, चाँदी, बरसा।
उत्तर:
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प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों के सामने अलंकारों के कुछ विकल्प दिए गए हैं। सही विकल्प छाँटकर लिखिए
(अ) बरन-बरन तरु फूले उपवन वन। (उपमा/यमक/अनुप्रास)
(आ) मेरे जान पौनों सीरी ठौर का पकरि कौंनो, घरी एक बैठि कहुँ, घामै वितवत है। (उत्प्रेक्षा/रूपक/उपमा)
(इ) माँ के उर पर शिशु सा, समीप सोया धारा में एक द्वीप। (उत्प्रेक्षा/रूपक/उपमा)
उत्तर:
(अ) अनुप्रास
(आ) उत्प्रेक्षा
(इ) उपमा।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचानकर लिखिए
(क) चन्द के भरम होत मोद है कमोदिनी को।
(ख) ससि संक पंकजिनी फूलि न सकति है।
मेरे जान पौनों, सीरी ठौर कौं पकरि कौंनो।
घरी एक बैठि कहूँ घामै वितवत है।
उत्तर:
(क) तथा
(ख) पंक्तियों में भ्रम से निश्चयात्मक स्थिति होने के कारण भ्रान्तिमान’ अलंकार है।

प्रश्न 4.
कविवर पन्त के संकलित अंश से मानवीकरण के कुछ उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर:

  1. सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल।
  2. विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल।
  3. दो बाहों से दूरस्थ तीर, धारा का कृश कोमल शरीर। आलिंगन करने को अधीर।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों में शब्द गुण पहचान कर लिखिए
(अ) गुंजत मधुप गान गुण गहियत है।
आवै आस पास पुहुपन की सुवास सोई
सौंधे के सुगन्ध माँझ सने रहियत है।
(आ) मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौं पकरि कौंनो,
घरी एक बैठि कहूँ घामै वितवत है।
उत्तर:
(अ) माधुर्य गुण
(आ) प्रसाद गुण।

प्रश्न 6.
इस पाठ से पुनरुक्तिप्रकाश के उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
(i) बरन-बरन तरू फूले उपवन-वन।
(ii) गोरे अंगों पर सिहर-सिहर लहराता तार तरल सुन्दर।
(iii) लहरों के घूघट से झुक-झुक, दशमी की राशि निज तिर्यक मुख। दिखलाता, मुग्धा सा रुक-रुक।
(iv) डांडों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार, बिखराती जल में तार हार।
(v) लहरों की लतिकाओं में खिल सौ-सौ शशि सौ-सौ उहै झिलमिल।
(vi) ज्यों-ज्यों लगती नाव पार।

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प्रश्न 7.
आवन कहयो है मनभावन सु, लाग्यो तरसावन विरह जुर जोर तें। ………..में कौन-सा रस है?
उत्तर:
इस पद्यांश में वियोग शृंगार रस है।

ऋतु वर्णन भाव सारांश

रीतिकाल की परम्परा से परे काव्य सृजन करने वाले सेनापति ने प्रकृति का अद्वितीय वर्णन किया है। आपने बड़े सूक्ष्म, चमत्कृत एवं कलात्मक ढंग से प्रकृति का वर्णन किया है। आपने ऋतुराज बसन्त के मनोरम सौन्दर्य, ग्रीष्म की भयंकर तपन, वर्षा की आर्द्रता, शरद की निर्मलता, शिशिर की शीतलता का स्वाभाविक एवं हदयस्पर्शी अंकन किया है। आपके काव्य में लाक्षणिकता, प्रौढ़ता, सानुप्रासिकता का सौन्दर्य सर्वत्र देखा जा सकता है। ऋतु वर्णन में उनके उस कौशल का प्रत्यक्ष प्रभाव प्रस्तुत है।

ऋतु वर्णन संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियत है।
बन्दी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियत है।
आवे आस पास पुहुपन की सुबास सोई,
सौंधे के सुगन्ध माझ सने रहियत है।
सोभा को समाज ‘सेनापति’ सुख साज आजु
आवत बसन्त रितुराज कहियत है ।।1।। (2008)

शब्दार्थ :
बरन-बरन = विभिन्न रंगों के; तरु = वृक्ष ; सोई = वही; चतुरंग = चतुरंगिणी सेना (चार प्राकर की सेना-हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल); दल सेना; लहियत = शोभायमान होना; बन्दी = चारण, भाट; जिमि = जिस प्रकार; विरद = प्रशंसा, बड़ाई; कोकिल = कोयल; मधुप = भीरा; पुहुपन = फूलों की; सुबास = सुगन्ध; माझ = में; सने = सुवासित; रहियत = रहता है; रितुराज = ऋतुओं का राजा, बसन्त; सने = सुगन्धित।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्रकृति चित्रण’ पाठ के ‘ऋतु वर्णन’ शीर्षक से उद्धृत है। इसके रचयिता कविवर सेनापति हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में बसन्त के आगमन का मनोहारी अंकन है।

व्याख्या :
बसन्त ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। इसमें बसन्त ऋतु को राजा मानकर उसका वर्णन किया गया है। जिस प्रकार कोई राजा अपनी चतुरंगिणी सेना (हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल-ये चार प्रकार की चतुरंगिणी सेना) को लेकर प्रस्थान करता है, उसी प्रकार ऋतुराज बसन्त भी अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों को जो वन-उपवन में खिले हैं, लेकर उपस्थित हुआ है। तात्पर्य यह है कि बसन्त ऋतु में वन-उपवन में सर्वाधिक फूल खिलते हैं। जिस प्रकार राजाओं का गुणगान करने बन्दी, भाट, चारण उनकी विरुदावली गाते आगे-आगे चलते हैं, उसी प्रकार भ्रमर और कोकिल [जार और कुहू कुहू की ध्वनि कर रहे हैं, वे ऋतुराज बसन्त की अगवानी में मानो उसका यशोगान कर रहे हैं। जिस प्रकार राजा के आने पर सर्वत्र प्रसन्नता छा जाती है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों बसन्त ऋतु पास आने लगती है फूलों की सौंधी-सौंधी सुगन्ध से ऋतु ओत-प्रोत रहती है। कवि सेनापति कहते हैं कि यह शोभायात्रा सुख को सज्जित करती है अर्थात् सुख को और बढ़ाती है। ऐसी बसन्त रूपी राजा की शोभायात्रा अपने सभी साज-सज्जा से सुसज्जित होकर पृथ्वी पर पदार्पण कर रही है। बसन्त नहीं, वरन् बसन्त रूपी राजा ही मानो आ गया है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस पद में सांगरूपक अलंकार है। सांगरूपक में उपमान के समस्त अंगों का आरोप उपमेय में होता है। यहाँ पर राजा उपमान है और बसन्त ऋतु उपमेय।
  2. वर्णों की आवृत्ति से छेकानुप्रास है।
  3. ‘स’ वर्ण की आवृत्ति से वृत्यानुप्रास है।
  4. व्यंजन शब्द-शक्ति है।
  5. माधुर्य शब्दगुण है। मनहरण कवित्त छन्द है।
  6. आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण है।
  7. ब्रजभाषा का सुन्दर प्रयोग है।

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[2] वृष कों तरनि तज सहसौं किरन करि,
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं।
‘सेनापति’ नैकुंदुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर को पकरि कोनों
घरी एक बैठि कहूँघामै बितवत हैं।।2।। (2009)

शब्दार्थ :
वृष राशि का एक नाम, वृषभ राशि; सहसौं = हजारों; तरनि= सूर्य; बिकराल = भयंकर; तचति-धरनि = पृथ्वी तप रही है; झरनि = ताप, गिराने वाली; सीरी = ठण्डी; पंथी = राहगीर; पंछी = पक्षी; बिरमत = विश्राम करना; नैकु = थोड़ी; धमका = उमस; विषम = भयानक; पात = पत्ते; खरकत = खटकना (हिलना); मेरे जान = मेरी समझ से; पौनों = हवा; घरी = क्षण; ठौर = स्थान; घामै = गर्मी; बितवत = बिताना, व्यतीत करना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने प्रस्तुत पद्यांश में ग्रीष्म ऋतु की भयंकरता का सजीव चित्रण किया है। साथ ही साथ जीव एवं दुनिया पर ग्रीष्म के ताप के भयंकर प्रभाव का सजीव चित्रण प्रस्तुत है।

व्याख्या :
यहाँ पर कवि सेनापति ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृष राशि पर सूर्य स्थित है। (ज्योतिष की मान्यता के अनुसार जब वृष राशि पर सूर्य आ जाता है तो भीषण गर्मी पड़ती है।) उसकी सहस्रों तेजस्वी किरणों के समूह से ऐसी भीषण गर्मी पड़ रही है, मानो भयंकर ज्वालाओं के जाल अर्थात् लपटों के समूह अग्नि की वर्षा कर रहे हों। पृथ्वी भी गर्मी की अधिकता से तप रही है। अग्नि की तीव्रता से संसार जल रहा है। यात्री और पक्षी ठण्डी छाया को ढूँढ़कर विश्राम करते हैं। सेनापति कहते हैं कि तनिक दोपहर ढलते ही विकराल गर्मी के कारण सन्नाटा हो जाता है कि पत्ता तक नहीं खड़कता, अर्थात् सर्वत्र सुनसान हो जाता है। कोई भी बाहर नहीं निकलता। ऐसी गर्मी में हवा भी नहीं चलती है कि कुछ शीतलता मिले। कवि कहते हैं कि मेरी समझ में तो हवा भी गर्मी से घबरा कर कोई ठण्डा-सा कोना ढूँढ़कर छिप गयी है और कहीं ऐसी जगह में गर्मी बिता रही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस पद में कवि ग्रीष्म ऋतु की गर्मी की विकरालता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब वृष राशि पर सूर्य होता है तो उसकी तेजस्वी हजारों किरणों का समूह आग की लपटों के जाल की तरह भयंकर रूप से गर्मी बरसाता है।
  2. यहाँ अनुप्रास और उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग दृष्टव्य है। हवा का मानवीकरण है। कवित्त छन्द एवं भाषा ब्रजभाषा है।
  3. लक्षणा शब्द शक्ति है।
  4. प्रकृति का आलम्बन वर्णन है।

[3] दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की झमक अति घोर घनघोर तैं।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तैं।
‘सेनापति’ आवन कह्यो है मनभावन, सु।
लाग्यो तरसावन विरह जुर जोर तें।
आयो सखी सावन, मदन सरसावन
लाग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तैं ।।3।।

शब्दार्थ :
दामिनी दमक = बिजली की चमक; सुर = इन्द्रधनुष; कलापी = मयूर; हीतल = हृदय तल; मनभावन = प्रियतम कोकिला= कोयल; जित-तित = जहाँ-तहाँ; सीतल = ठण्डा; समीर = वायु; विरह-जुर = वियोगरूपी ज्वर (रूपक); मदन= कामदेव, काम-वासना को बढ़ाने वाला; बरसावन = बरसना; सलिल = पानी; चहुँ ओर = चारों तरफ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-महाकवि सेनापति ने वर्षा ऋतु का मनभावन चित्रण किया है।

व्याख्या :
यहाँ पर कवि सेनापति वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वर्षा के कारण विरहिणी नायिका अपनी सखी से कह रही है कि इस ऋतु में चारों ओर बिजली चमकने लगी है। इन्द्रधनुष चमक रहे हैं, काली घटाएँ जोर से गर्जन कर रही हैं। घनघोर घटाएँ छाई हैं। कोयल और मयूर इधर-उधर सुन्दर वाणी में कूजन कर रहे हैं। हृदयस्थल हवा के झोंकों से शीतल है। कवि सेनापति नायिका के विरह का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मनभावन प्रियतम वर्षा प्रारम्भ होने के पूर्व आने के लिए कह गये थे, पर अभी तक नहीं आए। अत: उनके न आने से विरह-ताप जोर से बढ़ गया है और मन को व्याकुल करने लगा है। एक सखी दूसरी से कहती है-हे सखि ! विरह के दुःख को और बढ़ाने वाला सावन चारों ओर से जल बरसाने लगा है। प्रकृति में तो वर्षा हो रही है जो मेरी कामवासना को उदीप्त कर रही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इसमें सभंग यमक का प्रयोग हुआ है। ‘सावन’ शब्द पद-भंग से बार-बार भिन्न-भिन्न अर्थों में आया है।
  2. इसमें प्रकृति को उद्दीपन के रूप में चित्रित किया गया है।

[4] पाउस निकास तारौं पायो अवकास, भयो
जोन्ह कौं प्रकास, सोभा ससि रमनीय कौं।
विमल अकास, होत वारिज विकास, सेना
पति फूले कास, हित हंसन के हीय कौं।
छिति न गरद, मानो रँगे हैं हरद सालि
सोहत जरद, को मिलावै हरि पीय कौं।
मत्त है दुरद, मिट्यौ खंजन दरद, रितु
. आई है सरद सुखदाई सब जीय कौं ।।4।।

शब्दार्थ :
पाउस = पावस, वर्षा ऋतु; अवकाश = छुटकारा; जोन्ह = चाँदनी; ससि = चन्द्रमा (शशि); रमनीय = रमणीय, मनोहर; विमल = निर्मल; वारिज = कमल; हीय = हृदय; छिति = पृथ्वी; गरद = धूल; हरद = हल्दी; सालि = धान; जरद = पीला; मत्त = मस्त, प्रसन्न; दुरद = द्विरद, हाथी; दरद = दर्द, पीड़ा; जीय = जीव।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
वर्षा के बाद शरद ऋतु आती है। वर्षा की गन्दगी, अंधेरापन आदि से मुक्त शरद बड़ी सुखदाई होती है। यहाँ शरद का बड़ा मनोहारी अंकन हुआ है।

व्याख्या :
वर्षा ऋतु निकल गयी है उसके जाने से वर्षा के कारण होने वाले अन्धकार, गन्दगी आदि से छुटकारा मिल गया है। स्वच्छ आकाश में चारों ओर निर्मल चाँदनी प्रकाश फैल गया है और अपनी पूरी आभा से आलोकित मनोहारी चन्द्रमा बड़ा शोभायमान लग रहा है। बादलों के न होने के कारण आकाश निर्मल दिखाई दे रहा है। कमल प्रफुल्लित हो रहे हैं। कविवर सेनापति कहते हैं कि चारों ओर श्वेत पुष्पों वाले कास फूले हुए। इससे हंसों के हृदय में बड़ी प्रसन्नता हो रही है। वर्षा में जो हंस पर्वतों की ओर चले गये थे, अब वे प्रसन्न होते हुए इस मनोरम वातावरण को और सुन्दर बना रहे हैं।

धरती पर धूल नहीं छाई है। चारों ओर पीली-पीली धान पकी फसलों को देखकर ऐसा लगता है मानो उन्हें हल्दी से रंगकर पीला कर दिया हो। विरहिणी नायिका कहती है कि इस प्रकार की उत्तेजक ऋतु में मेरे प्रियतम को कौन बुलाए। मादक बना देने वाली उस शरद ऋतु में हाथी मदमस्त हो रहे हैं। गर्मी से दुःखी होकर पलायन कर गये खंजन पक्षियों की पीड़ा मिट गयी है। अब वे अपने देश में लौट आये हैं। इस प्रकार सभी जीवों को सुख देने वाली शरद ऋतु आ गई है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इसमें शरद ऋतु के सुखद आगमन का चित्रण हुआ है जिसमें धरती, आकाश सभी में निर्मलता, मनोरमता छाई है।
  2. अनुप्रास, उत्प्रेक्षा अलंकारों तथा पद-मैत्री की छटा अवलोकनीय है।
  3. प्रकृति का उद्दीपन रूप में अंकन हुआ है।

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[5] सिसिर में ससि को सरूप पावै सविताऊ,
घाम हूँ में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहस गुनी,
रजनी की झाँई वासर में झलकति है।
चाहत चकोर सूर और दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होय मोद है कुमोदिनी को,
ससि संक पंकजिनी फूलि न सकति है ।।5।।

शब्दार्थ :
सिसिर = (शिशिर) शीत ऋतु; सविताऊ = सूर्य भी; घाम = धूप; दुति = चमक; दमकति = चमकती; सहस गुमी = हजारों गुनी, बहुत अधिक; झाँई = छाया; वासर = दिन; धसकति = दिल बैठ जाना, निराशा, नीचे की ओर धंसना; मोद = आनन्द; संक= सन्देह; पंकजिनी = कमलिनी; ससि = चन्द्रमा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में शीत ऋतु की सजीव झाँकी प्रस्तुत की गयी है। साथ ही शिशिर के प्रभाव का मर्मस्पर्शी चित्रण है।

व्याख्या :
शिशिर ऋतु में ठण्ड बढ़ जाती है और वातावरण में इतनी अधिक शीतलता . होती है कि सूर्य भी चन्द्रमा का रूप धारण कर लेता है अर्थात् चन्द्रमा के समान शीतल लगता है। धूप भी चाँदनी की चमक प्रतीत होती है (धूप भी चाँदनी के समान लगती है)। सेनापति कहते हैं कि ठण्ड हजार गुनी बढ़ जाती है और दिन में भी रात की झलक दिखती है (सूर्य के तेज रहित होने के कारण दिन में रात की झलक दिख पड़ती है। दिन भी रात की तरह शीतल है।)

चकोर पक्षी यद्यपि चाँद का प्रेमी होता है, पर शिशिर में वह भी सूर्य की ओर अपलक दृष्टि से देखे जा रहा है। चक्रवाक पक्षी रातभर अपनी चकवी से बिछुड़ कर रहता है। शिशिर में दिन में जब रात का भ्रम होता है तो चक्रवाक पक्षी का दिल बैठने लगता है कि कहीं रात तो नहीं हो गयी और उसका धीरज छूटने लगता है। चन्द्रमा के भ्रमवश कुमुदिनी अत्यन्त प्रसन्न होती है। (वह दिन में भी सूर्य को शीतलता के कारण चाँद समझ बैठती है।) लेकिन चन्द्रमा की शंका में पड़कर कमलिनी दिन में भी विकसित नहीं हो पा रही है।

काव्य सौन्दर्य :
इस पद में इन कवि सत्यों का प्रयोग किया गया है-

  1. चकोर पक्षी चन्द्रमा को एकटक देखता है।
  2. चक्रवाक पक्षी अपनी चकवी से रात भर मिल नहीं पाता, अतः रोता रहता है। सफेद रंग की कुमुदिनी चन्द्रविकासी है; अतः रात में ही खिलती है।
  3. लाल रंग का पंकज (अरविन्द) सूर्यविकासी होता है, अतएव दिन में खिलता है। अलंकार भ्रान्तिमान, अतिशयोक्ति, सन्देह तथा अनुप्रास अलंकार का प्रयोग सहज ही हो गया है।
  4. रस-शृंगार।

नौका विहार भाव सारांश

छायावाद के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानन्दन पन्त की ‘नौका विहार’ कविता में प्रकृति के कोमलकान्त स्वरूप का अंकन हुआ है। काला कांकर के राजभवन में निवास करते समय एक चाँदनी रात में पास ही बह रही गंगा में कवि नौका विहार करते हैं। उसी का भावात्मक अंकन इस कविता में है।

शान्त, प्रिय एवं स्निग्ध, चाँदनी से आलोकित रमणीय वातावरण में आकाश और धरती मग्न होकर सौन्दर्य का अवलोकन कर रहे हैं। इस मनोहारी वातावरण में क्षीणकाय गंगा चाँदनी से दूध के समान श्वेत बालू की सेज पर स्थिर भाव से लेटी है। उसकी हथेलियाँ चमत्कृत हैं। तापस वाला के समान निर्मल गंगा के हृदय पर तरंगों की छायारूपी बाल लहरा रहे हैं। गंगा के जल में आकाश का नीला प्रतिबिम्ब आँचल सा लग रहा है।

इस प्रकार की चाँदनी रात्रि के पहले प्रहर में कवि गंगा में नौका विहार को निकल पड़ते हैं। छोटी नौका गंगा की धारा में तैरने लगती है। काला कांकर का राजभवन गंगा के जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ ऐसा जान पड़ता है मानो वह समग्र वैभव को समेटे हुए निश्चित भाव से सो रहा हो। आकाश के तारे पानी की लहरों में हिलते से दिख रहे हैं। तारों और चाँदनी की विविध छटाएँ जल की तरंगों में उभर रही हैं। दशमी का चन्द्रमा लहरों के घूघट से तिरछी दृष्टि से देख रहा है।

तैरती हुई नौका जब गंगा के मध्य में पहुंची तो दोनों किनारों को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो वे दो बाँहें हैं जो गंगा को अपने आलिंगन में कस लेना चाहती हैं। धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है जो लहरों के प्रवाह को रोक रहा है। वह शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती से चिपककर सोए बच्चे जैसा लगता है। प्रिया चकवी से बिछुड़ा चकवा पानी में अपनी ही परछाईं देखकर चकवी समझ बैठता है और उसे पकड़ने को दौड़ पड़ता है।

पतवार घुमाने पर नाव विपरीत धारा में घूम गई जिससे श्वेत बुलबुले उठने लगे। उन्हें देखकर लगा कि मानो तारों का हार बिखर गया है या तरंगों रूपी लताएँ खिल रही हैं अथवा सैकड़ों-सैकड़ों चन्द्रमा एवं तारे झिलमिला रहे हैं। जैसे-जैसे नाव किनारे पर आने लगी वैसे-वैसे ही रहस्य उजागर होता है कि गंगा की धारा के समान ही यह जीवन शाश्वत है। प्रमाणित हो गया कि जन्म-मृत्यु के आर-पार आत्मा अमर है। इस प्रकार जीवन सम्बन्धी दर्शन के साथ कविता समाप्त होती है।

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नौका विहार संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] शान्त, स्निग्ध, ज्योत्सना, उज्ज्वल।
अपलक अनन्त, नीरव भूतल।
सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल
तापस बाला गंगा निर्मल, शशि, मुख से दीपित मृदु करतल,
लहरे उर पर कोमल कुन्तल।
गोरे अंगों पर सिहर सिहर लहराता तार तरल सुन्दर,
चंचल अंचल सा नीलाम्बर
साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमा विभा से भर,
सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर। (2013)

शब्दार्थ :
स्निग्ध = चिकनी, स्नेह युक्त; ज्योत्सना = चाँदनी; अपलक = बिना पलक झपके अनन्त = आकाश; नीरव = शान्त; सैकत शैया = बालू की सेज; धवल = सफेद; तन्वंगी= दुबली-पतली; विरल = पतली; श्रान्त = शान्त क्लान्त = थकी हुई; तापस बाला = तपस्वी की कन्या; दीपित = प्रकाशित; कुन्तल = बाल; नीलाम्बर = नीला आकाश; विभा = कान्ति; वर्तुल = गोलाकार, चक्राकार।

सन्दर्भ :
यह पद्यांश प्रकृति के कुशल चितेरे तथा श्रेष्ठ विचारक श्री सुमित्रानन्दन पन्त की ‘नौका विहार’ कविता से अवतरित किया गया है।

प्रसंग :
इस पद्यांश में नौका विहार प्रारम्भ करने से पूर्व श्वेत चाँदनी से चमत्कृत क्षीण धारा वाली गंगा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
शान्त, प्रिय तथा चिकनी, श्वेत चाँदनी चारों ओर फैली है। इस रम्य वातावरण को आकाश बिना पलकें झपके निहार रहा है तथा पृथ्वी शान्त भाव से दत्तचित्त होकर देख रही है।

इस प्रकार के शान्त तथा मनोहारी वातावरण में गर्मी के कारण दुबली-पतली हो, क्षीणकाय गंगा बालू की दूध के समान श्वेत सेज पर शान्त, थकी हुई तथा स्थिर भाव से लेटी हुई है। तपस्वी कन्या जैसी पवित्र गंगा की कोमल हथेलियाँ चन्द्रमा की चाँदनी से चमत्कृत हो रही हैं। उस गौर वर्ण वाली गंगा रूपी बाला के हृदय पर लहरों की छाया रूपी कोमल बाल लहरा रहे हैं। श्वेत जल युक्त गंगा गौर वर्ण वाली सुन्दरी है। उसके श्वेत जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ नीला आकाश लहरों के कारण आँचल के समान लहरा रहा है।

वह गंगा के शरीर को छूकर सिहरन का अनुभव करता है और तार-तार की तरह तरल होकर चंचल बना हुआ है। भाव यह है कि आकाश की गंगाजल में पड़ने वाली परछाईं लहरों से चमत्कृत तथा विच्छिन्न-सी दिखायी देने लगी है। यह पानी में लहराता आकाश के प्रतिबिम्ब गंगारूपी नायिका का आँचल जैसा प्रतीत होता है। उस पर गंगाजल की गोल आकाश वाली लहरें चन्द्रमा की रेशमी कान्ति से भर कर साड़ी की सिकुड़नों की तरह सिमटी हुई हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ग्रीष्म ऋतु में पतली धार वाली गंगा का चाँदनी से प्रकाशित रात्रि में सुन्दर दृश्य अंकित किया है।
  2. छायावादी प्रवृत्तियों के अनुपम सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्रण हुआ है।
  3. मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश आदि अलंकारों का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  4. कोमलकान्त पदावली से युक्त भावानुरूप भाषा का प्रयोग किया गया है।

[2] चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर
सिकता की सस्पित सीपी पर, मोती की ज्योत्सना रही विचर,
लो, पालें चढ़ी, उछा लंगर
मृदु मन्द-मन्द मन्थर-मन्थर, लघु तरणि हंसनि सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर, बिंबित हो रजत पुलिन निर्भर,
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर
कालाकांकर का राजभवन, सोया जल में निश्चित प्रमन,
पलकों पर वैभव स्वप्न सघन।

शब्दार्थ :
सत्वर = शीघ्र; सिकता = रेती, बालू; सस्पित = मुस्कराती; ज्योत्सना = चाँदनी; मन्थर-मन्थर = धीरे-धीरे; तरणि = नौका; पर = पंख; निश्चल = शान्त; रजत = चाँदी; पुलिन = किनारे; प्रमन = प्रसन्न मन; वैभव-स्वप्न = वैभव भरे सपने।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में नौका-विहार के मनोरम दृश्यों का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर है। हम नौका विहार के लिए नाव लेकर शीघ्र ही चल दिये हैं। गंगा नदी की रेती पर चाँदनी इस प्रकार चमक रही है कि मानो मुस्कराती हुई खुली सीपी पर मोती चमक रहा हो। इस प्रकार की रमणीय बेला में नाव के पाल नौका विहार हेतु चढ़ा दिये गये और लंगर उठा लिया है। फलस्वरूप हमारी छोटी सी नाव एक सुन्दर हंसिनी की तरह मन्द-मन्द, मंथर पालों रूपी पंख खोलकर गंगा की सतह पर तैरने लगी है। गंगा के शान्त तथा निर्मल जल रूपी दर्पण पर प्रतिबिम्बित चाँदनी से चमकते श्वेत तट एक क्षण के लिए दोहरे ऊँचे प्रतीत होते हैं। गंगा के तट पर स्थित कालाकांकर का राजभवन जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ इस प्रकार का प्रतीत हो रहा है मानो वैभव के अनेक स्वप्न संजाए निश्चित भाव से सो रहा हो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. नौका विहार के समय जल में प्रतिबिम्बित तटों तथा राजभवन का रमणीय वर्णन हुआ है।
  2. शान्त रस की नियोजना तथा प्रसाद गुण एवं उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों की शोभा अवलोकनीय है।
  3. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

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[3] नौका में उठती जल हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर- छोर
विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल,
ज्योतित करनभ का अंतस्तल, जिनके लघु दीपों को चंचल,
अंचल की ओट किए अविरल,
फिरती लहरें लुक छिप पल पल।
सामने शुक्र की छवि झलमल, तैरती परी सी जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल।
लहरों के घूघट से झुक झुक, दशमी का शशि निज तिर्यकमुख,
दिखलाता, मुग्धा सा रुक रुक।

शब्दार्थ :
विस्फारित = पूर्णतः खुले अविरल = निरन्तर; शुक्र = शुक्र नाम का तारा; कल=सुन्दर; रुपहरे = चाँदी के कचों = बालों; तिर्यक = तिरछा, टेढा; मुग्धा = प्रेम की प्रथम अनुभूति में मग्न नायिका।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने चाँदनी रात में गंगा के चंचल जल में प्रतिबिम्बित तारों और चन्द्रमा का सौन्दर्य चित्रित किया है।

व्याख्या :
नौका चलने से हिलोर उठने के कारण गंगा के जल में प्रतिबिम्बित होते हुए तारे हिलने लगते हैं। वे चंचल तारे अपने नेत्र फाड़कर अपलक निहारते हुए, जल में प्रतिबिम्बित आकाश के हृदय को प्रकाशित करके कुछ खोजते से जान पड़ते हैं। उनके साथ ही नन्हें-नन्हें से दीपक लिए हुए निरन्तर उन (तारों) को अपने अंचल की ओट में छिपाये हुए चंचल लहरें हर पल लुकती-छिपतो फिर रही हैं।

सामने ही जल में तेज चमकते हुए शुक्र तारे की झिलमिलाती हुई छवि दिखायी देती है। वह जल में परी के समान तैरती हुई सुन्दर लगती है जो कभी अचानक ही अपने चाँदी जैसे लहराते श्वेत बालों (चाँदनी) में चमचमाती लहरों में छिपकर दृष्टि से ओझल हो जाती है। आज दशमी है। दशमी का चन्द्रमा-उसका प्रतिबिम्ब किसी मुग्धा नायिका के समान लहरों के चूंघट से अपना टेढ़ा मुँह थोड़ी-थोड़ी देर में रुक-रुककर दिखाता जाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जल में प्रतिबिम्बित तारों, शुक्र की झिलमिलाहट और दशमी के चन्द्रमा के गतिशील चित्र इन पंक्तियों में अंकित हुए हैं।
  2. कोमलकान्त पदावली से युक्त पन्त की भाषा में यहाँ अद्भुत संगीतात्मकता आ गयी
  3. अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, उत्प्रेक्षा, उपमा, मानवीकरण आदि अलंकारों का सौन्दर्य देखते ही बनता है।
  4. अन्तिम पंक्ति में लहरों की ओट से झाँकते चन्द्रमा के लिए ‘यूंघट’ से टेढ़ा मुख दिखलाती ‘मुग्धा नायिका’ का उपमान बड़ा ही सटीक बन पड़ा है।

[4] अब पहुँची चपला बीच धार, छिप गया चाँदनी का कगार।
दो बाहों से दूरस्थ तीर, धारा का कृश कोमल शरीर।
आलिंगन करने को अधीर।
अति दूर क्षितिज पर विटफ् माल, लगती भू-रेखा सी अराल,
अपलक नभ नील नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता हरने निज विरल शोक?
छाया की कोकी को विलोक।

शब्दार्थ :
चपला = चंचल नौका; दूरस्थ = दूरी पर स्थित; कृश = दुबला-पतला; विटप-माल – वृक्षों की पंक्ति; भू-रेखा = भौंह; अराल = टेढ़ी; उर्मिल = लहरों से युक्त; प्रतीप = उल्टा; कोक = चकवा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यावतरण में चाँदनी रात में गंगा नदी की बीच धारा में नौका-विहार के समय की प्राकृतिक सुषमा को चित्रित किया गया है।

व्याख्या :
जब चंचल नौका गंगा की बीच धारा में पहुँची तो चाँदनी में चाँद-सा चमकता हुआ रेतीला कगार हमारी दृष्टि से ओझल हो गया। मैंने देखा कि गंगा के दूर-दूर तक स्थित तट फैली हुई दो बाँहों के समान लग रहे हैं, जो गंगा धारा के दुबले-पतले कोमल-कोमल नारी के शरीर का आलिंगन करने (अपने में भरकर कस लेने) के लिए अधीर हैं और उधर, बहुत दूर क्षितिज पर वृक्षों की पंक्ति है। वह पंक्ति धरती के सौन्दर्य को अपलक (बिना पलक झपकाये) निहारते हुए आकाश के नीले-नीले विशाल नयन की तिरछी भौंह के समान प्रतीत हो रही है।

पास की धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है; जो लहरों वाले प्रवाह को रोककर उलट देता है। धारा में स्थित वही शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती पर चिपककर सो गये नन्हें बच्चे जैसा लग रहा है। और वह उड़ता हुआ.पक्षी कौन है? क्या वह अपनी प्रिया चकवी से रात्रि में बिछड़ा हुआ व्याकुल चकवा तो नहीं है? शायद वही है, जो जल में पड़े हुए प्रतिबिम्ब को देखकर उसे चकवी समझा बैठा है और विरह दुःख मिटाने के लिए उससे मिलन हेतु उड़ रहा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. तटों के मध्य क्षीण धारा हुए क्षितिज पर स्थित वृक्ष पंक्ति, गहरे नीले आकाश, द्वीप, उड़ता चकवा आदि का सजीव अंकन हुआ है।
  2. उपमा, रूपक, मानवीकरण, भ्रान्तिमान अलंकारों का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  3. माधुर्य गुण तथा संस्कृतनिष्ठ भाषा।

[5] पतवार घुमा अब प्रतनु भार। नौका घूमी विपरीत धार।
डांडों के चल करतल पसार,
भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार, बिखराती जल में तार हार।
चाँदी के साँपों की रलमल, नाचती रश्मियाँ जल में चल,
रेखाओं सी खिंच तरल तरल।
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उ झिलमिल।
फैले फूले जल में फेनिल।
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले ले सहज थाह।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!

शब्दार्थ :
प्रतनु = अत्यन्त क्षीण; करतल = हथेली; मुक्ताफल = मोती; फेन-स्फार = बुलबुले, झाग; रलमल = चमकती; रश्मियाँ = किरणें; उडै = तारे; लग्गी = बाँस; सहोत्साह = उत्साहपूर्वक।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में चाँदनी रात में नौका विहार के समय के मनोरम दृश्यों का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
जब हमने पतवार को घुमाया तो हल्की नौका धारा की विपरीत दिशा में घूम गयी और लौटने लगी। ऐसी स्थिति में हमने डाण्डों रूपी हथेलियों को फैलाया तो गंगा के जल में श्वेत बुलबुले उठने लगे। उसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो तारों का हार पानी में बिखरकर चारों ओर फैल गया है। गंगा जल में नाचती लहरें व्याप्त चाँदनी में ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानो चाँदी के साँप तैर रहे हों। चारों ओर फैले झागदार गंगा जल में लहरें रूपी लताएँ खिल रही हैं। वे ऐसी लगती थीं मानो सैकड़ों-सैकड़ों चन्द्रमा, सैकड़ों-सैकड़ों तारे झिलमिला रहे हों। अब नदी का प्रवाह कम हो गया है, पानी की गहराई कम हो गयी है, इसलिए हम लग्गी से उसकी थाह लेते हुए उत्साहपूर्वक घाट की ओर बढ़ दिये हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जल में उठते बुलबुले तथा पानी की लहरों का चाँदनी रात्रि में जो सौन्दर्य बढ़ गया है; उसका रमणीय चित्रण यहाँ हुआ है।
  2. नौका विहार के बंदलते विविध रूपों की साकार अभिव्यक्ति हुई है।
  3. उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण तथा अनुप्रास अलंकारों की छटा अवलोकनीय
  4. भाव के अनुरूप साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

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[6] ज्यों ज्यों लगती है नाव पार, उर में आलोकित शत विचार
.इस धारा-सा ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम
शाश्वत नभ का नीला विकास,
शाश्वत शशि का यह रजत हास
शाश्वत लघु लहरों का विलास,
हे जग-जीवन के कर्णधार !
चिर जन्म मरण के आर-पार, शाश्वत जीवन नौका विहार,
मैं भूल गया अस्तित्वज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण,
करता मुझको अमरत्व दान। (2008)

शब्दार्थ :
आलोकित = चमत्कृत; शत = सैकड़ों;शाश्वत = सनातन, चिरन्तन; उद्गम = प्रारम्भ, उत्पत्ति; संगम = मिलन; विलास = क्रीड़ा, विहार।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में समस्त संसार की सतत् प्रवाहवान धारा के समान और जीवन को नौका विहार के रूप में अंकित किया गया है।

व्याख्या :
जैसे-जैसे नाव किनारे पर आती जा रही है, वैसे ही वैसे मेरे मन में विविध प्रकार के सैकड़ों विचार उठ रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि इस जग का निरन्तर गतिवान क्रम भी इस (नदी की) धारा के समान ही चलता रहने वाला है। गंगा की इस धारा के जल (जीवन) की तरह ही इस जीवन की उत्पत्ति सनातन है। इसकी गति भी चिरन्तन है। इस जगत की धारा के साथ जीवन का संयोग (मिलन) भी शाश्वत है। नीले प्रकाश की विविध क्रीड़ाएँ भी कभी समाप्त नहीं होती हैं। चन्द्रमा की चाँदी के समान हँसी भी अनन्त है तथा छोटी-छोटी लहरों की (मनोरम) क्रीड़ाएँ भी नित्य हैं, अनन्त हैं।

हे संसाररूपी जीवन धारा के नाविक (जीवन की नौका खेने वाले) परमात्मा ! मैं तो अनुभव करता हूँ कि इस नित्य जन्म तथा मरण के आर-पार (इस ओर, उस ओर तथा सभी ओर) इस जीवनरूपी नौका का विहार नित्य है। इस विचारशील अवस्था में मैं अपने अस्तित्व (विद्यमानता) का ज्ञान ही भूल गया हूँ। मुझे स्वयं की विद्यमानता का बोध नहीं है। इस धारा के रूप में मैंने जीवन का चिरन्तन प्रमाण प्राप्त कर लिया है। इस प्रमाण ने मुझे अमरता प्रदान कर दी है। मुझे अनुभव हो रहा है कि मृत्यु तथा जन्म के आर-पार मैं अमर हूँ, मैं कभी समाप्त नहीं हूँगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. कवि ने गंगा की धारा तथा नौका विहार के द्वारा जगत तथा जीवन के सतत् संयोग तथा चिरन्तनता का प्रतिपादन किया है।
  2. यहाँ दार्शनिक चिन्तन की प्रधानता है।
  3. भावानुरूप शुद्ध तथा साहित्यिक भाषा अपनायी है।
  4. उपमा, रूपक, अनुप्रास, रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।

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