MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 12 आदि शंकराचार्य
आदि शंकराचार्य अभ्यास
आदि शंकराचार्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शंकर का जन्म कहाँ हुआ था?
उत्तर:
शंकर का जन्म भारत के केरल प्रान्त में पूर्णा नदी के किनारे बसे एक छोटे से गाँव कालड़ी में हुआ था।
प्रश्न 2.
शंकर के माता-पिता का नाम बताइए।
उत्तर:
शंकर की माताजी का नाम ‘आर्यम्बा’ तथा पिताजी का नाम ‘शिवगुरु’ था।
प्रश्न 3.
ओंकारेश्वर में शंकर ने किससे दीक्षा ली?
उत्तर:
मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध तीर्थस्थल ओंकारेश्वर में शंकर ने गौड़पादाचार्य के शिष्य गोविन्दपाद से दीक्षा ली।
प्रश्न 4.
‘तत्वोपदेश’ नामक ग्रन्थ में किसके उपदेश संग्रहीत हैं?
उत्तर:
‘तत्वोपदेश’ नामक ग्रन्थ में शंकराचार्य द्वारा दीक्षा के समय मंडन मिश्र को दिये गये उपदेश संग्रहीत हैं।
प्रश्न 5.
शंकराचार्य और मण्डन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ का निर्णायक कौन था?
उत्तर:
शंकराचार्य और मण्डन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ का निर्णायक मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी उभय भारती थीं।
आदि शंकराचार्य लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
कनकधारा स्त्रोत किसके लिए और क्यों प्रसिद्ध है?
उत्तर:
एक दिन गुरुकुल में अध्ययन के समय ब्रह्मचारी शंकर भिक्षा के लिए निकले। एक झोंपड़ी के सामने पहुँचकर जब उन्होंने भिक्षा की गुहार लगायी तो गृहिणी के पास ब्रह्मचारी को दान में देने के लिए घर में मात्र एक सूखा आंवला था। गृहिणी ने दीनतापूर्वक वह सूखा आंवला शंकर के भिक्षा पात्र में रख दिया। भिक्षा पाकर शंकर को उस घर की दयनीय अवस्था का ज्ञान हो गया। उन्होंने धन और सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी माँ महालक्ष्मी से प्रार्थना की। लक्ष्मीजी शंकर की स्तुति से प्रसन्न हुईं। कहा जाता है कि आकाश से सोने के आंवलों की वर्षा होने लगी। वह स्तुति कनकधारा स्त्रोत के रूप में प्रसिद्ध है।
प्रश्न 2.
शंकर को संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा माँ से कब, किस स्थिति में प्राप्त हुई?
उत्तर:
एक दिन माँ के साथ स्नानादि के लिए शंकर पूर्णा नदी गये थे। माँ स्नान कर किनारे पर खड़ी थी कि उसने शंकर की चीख सुनी। माँ, ने देखा कि कमर तक पानी में डूबे शंकर को कोई अन्दर की ओर खींच रहा है। शंकर ने कहा माँ, मगर मुझे पानी में खींच रहा है, लगता है भगवान मुझे आपसे दूर कर रहे हैं। आप मुझे संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा दें, संभव है मगर मेरा पैर छोड़ दे। तब माँ ने शंकर को संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा दी।
प्रश्न 3.
अद्वैत का सार लिखिए।
उत्तर:
एक बार योगाचार्य गोविन्दपाद द्वारा शंकर से उसका परिचय पूछने पर शंकर ने उत्तर दिया-“मैं पृथ्वी नहीं हूँ, जल भी नहीं, तेज भी नहीं, न आकाश, न कोई इन्द्रिय अथवा उनका समूह भी। मैं तो इन सबसे अवशिष्ट केवल जो परम तत्व शिव है, वहीं हूँ।” वास्तव में यह मात्र शंकर का परिचय नहीं अपितु अद्वैत का सार ही है।
प्रश्न 4.
शंकर ने ‘मनीषपंचक’ नाम से विख्यात पाँच श्लोकों की रचना किन परिस्थितियों में की थी?
उत्तर:
वाराणसी में एक दिन शंकर से शंकराचार्य बन चुके शंकर अपने शिष्यों के साथ गंगा स्नान को जा रहे थे। अचानक एक चांडाल अपनी पत्नी व चार कुत्तों के साथ सामने से आ रहा था। उसे देखते ही शिष्यों ने उसे एक ओर हट जाने के लिए कहा, ताकि उसका किसी से स्पर्श न हो जाये। यह सुनकर चांडाल सपरिवार वहीं खड़ा हो गया। उसने पूछा-महात्मा आप किसे दूर हटने की आज्ञा दे रहे हैं? मेरे शरीर को या मेरी आत्मा को? शरीर तो नश्वर है, आत्मा सर्वव्यापी है। आप अद्वैत सिद्धान्त में यही उपदेश दे रहे हैं कि ब्राह्मण और चांडाल में कोई अंतर नहीं है। तब आपमें और मुझमें अन्तर कैसा?
शंकराचार्य शांति से चांडाल की बात सुनते रहे। उनको अपने शिष्य की भूल पर बड़ा पश्चाताप हुआ। उसी समय उन्होंने मनीषपंचक नाम से प्रसिद्ध पाँच श्लोकों की रचना की।
प्रश्न 5.
शंकर ने किस विद्वान और विदुषी (पति-पत्नी) से शास्त्रार्थ किया था? उसका क्या परिणाम हुआ?
उत्तर:
शंकर ने माहिष्मति निवासी विश्वनाथ मिश्र उर्फ मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी उभय भारती से शास्त्रार्थ किया। परिणामस्वरूप शंकर से ये दोनों पराजित हो गये और दोनों ने शंकर से संन्यास की दीक्षा ले ली।
आदि शंकराचार्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
शंकर ने संन्यास मार्ग अपनाने का निश्चय क्यों किया?
उत्तर:
शंकर के गुरुकुल में अध्ययन करते समय ही उनके पिता शिवगुरु का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु से दुःखी शंकर के मन में विचार आया कि जब एक दिन यह नाशवान शरीर छूटना ही है तो कीड़े-मकोड़ों की तरह साधारण जीवन क्यों जिया जाए क्यों न किसी महान लक्ष्य को लेकर सत्य के मार्ग पर चला जाए। फलस्वरूप सांसारिक बंधनों से मुक्त रहकर शंकर ने समाज जागरण के लिए संन्यास मार्ग पर चलने का निश्चय किया।
प्रश्न 2.
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों के नाम लिखिए।
उत्तर:
आदि शंकराचार्य ने देश में वेदाध्ययन की परम्परा को पुनः जीवंत करने के उद्देश्य से देश की चारों दिशाओं में चार मठों-काञ्ची, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी और शारदामठ की स्थापना की। वेदों के प्रचार-प्रसार के निमित्त प्रत्येक मठ को एक वेद के अध्ययन-अध्यापन का दायित्व सौंपा। प्रत्येक मठ का एक देवी-देवता निश्चित किया।
प्रश्न 3.
गोविन्दपाद कौन थे? उन्होंने किसे विधिवत संन्यास की दीक्षा दी थी?
उत्तर:
गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के बाद शंकर देश की परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए उत्तर दिशा में चल पड़े। पैदल यात्रा करते हुए वह मध्य प्रदेश के सुविख्यात तीर्थस्थल ओंकारेश्वर पहुंचे।
ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर वे माँ नर्मदा के घाट पर बैठे थे कि उन्हें सूचना मिली कि समीप ही एक गुफा में गौड़पादाचार्य के परमशिष्य एवं महान संत गोविन्दपाद तपस्यारत हैं। समाधिमग्न गोविन्दपादाचार्य के दर्शन से शंकर को अद्भुत शांति मिली। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गोविन्दपाद महान आचार्य गौड़पादाचार्य के शिष्य थे और उन्होंने शंकर की असाधारण प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर विधिवत संन्यास की दीक्षा दी।
प्रश्न 4.
शृंगेरीमठ का प्रथम आचार्य किसे नियुक्त किया और क्यों?
उत्तर:
कुमारिलभट्ट के निर्देश पर शंकराचार्य उनके शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने माहिष्मती पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने वेदों के प्रकाण्ड पण्डित मंडन मिश्र एवं उनकी विदुषी पत्नी उभय भारती को शास्त्रार्थ में पराजित किया। प्रतिज्ञानुसार पति-पत्नी दोनों ने शंकराचार्य से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद मंडन मिश्र का नाम सुरेश्वराचार्य हो गया। शंकराचार्य ने मंडन मिश्र उर्फ सुरेश्वराचार्य की विद्वता के चलते उन्हें काञ्ची पीठ से सम्बद्ध शृंगेरी मठ का प्रथम अधिपति अर्थात् आचार्य नियुक्त किया।
प्रश्न 5.
शंकराचार्य के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शंकराचार्य की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) मेधावी शंकर बचपन से ही अत्यन्त अद्भुत मेधा के धनी थे। उनकी इस विलक्षण प्रतिभा से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वे शीघ्र ही ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ वाली कहावत को चरितार्थ करेंगे। माता-पिता ने उन्हें अध्ययन के लिए गुरुकुल भेजा। वहाँ भी शंकर ने ‘अल्पकाल बहु विद्या पाई’ जैसी उक्ति को चरितार्थ किया। उनके सम्पर्क में आने वाले उनकी प्रतिभा और तेजस्वी व्यक्तित्व को देखते ही हतप्रभ हो जाते थे। मात्र 5 वर्ष की आयु में ही उन्हें वेदों के अध्ययन के लिए गुरुकुल भेजा गया था।
(2) तीव्र स्मरण शक्ति-गुरुकुल में शंकर पढ़ाये गये पाठ इत्यादि को एक बार में समझ जाते थे और उसे लम्बे समय तक स्मृति में अंकित कर लेते थे। वास्तव में, वे श्रुतिधर थे अर्थात कोई भी बात मात्र सनने पर ही उन्हें कण्ठस्थ हो जाती थी।
(3) करुणामयी व्यवहार-एक बार गुरुकुल के दिनों में जब वह भिक्षा प्राप्ति के लिए एक निर्धन की झोंपड़ी के द्वार पर पहुँचे और भिक्षा के लिए गुहार लगाई तो उस झोंपड़ी की गृहिणी ने उन्हें देखा और उन्हें कुछ न कुछ दान देना चाहा। किन्तु निर्धनता के कारण उसके पास एक सूखे आंवले के अतिरिक्त भिक्षा देने के लिए कुछ भी न था। उसने वह सूखा आंवला शंकर के भिक्षा-पात्र में रख दिया। भिक्षा पाकर शंकर को उस घर की दयनीय अवस्था का भान हुआ। वह करुणा से भर उठे। उन्होंने लक्ष्मी से प्रार्थना की ताकि उस झोंपड़ी की निर्धनता दूर हो सके। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि उनका मन अत्यंत करुणामयी था।
(4) आज्ञाकारी एवं सेवाकारी सुपुत्र शंकर अपने माता-पिता के आज्ञाकारी सुपुत्र थे। बचपन में ही उनके सिर से उनके पिता का साया उठ गया। पिता की असमय मृत्यु पर विचलित हो बालक शंकर ने सांसारिक बंधनों में न बँधकर समाज के जागरण के लिए संन्यासी बनने की ठानी और इसके लिए उन्होंने अपनी माँ की अनुमति लेना ही श्रेष्ठ माना। संन्यासी जीवन के दौरान जब उन्हें अपनी माँ की अस्वस्थता का पता चला तब वह एक सेवाकारी सुपुत्र की तरह अविलम्ब अपनी माँ के पास लौट आये और अन्तिम समय तक अपनी माँ की सेवा-सुश्रुषा की। माँ के देहान्त होने पर प्रचलित मान्यताओं के विपरीत एक संन्यासी होने के बाद भी उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार स्वयं किया।
(5) प्रकाण्ड ज्ञानी-शंकर को अत्यन्त छोटी आयु से ही वेदों का पूर्ण ज्ञान हो गया था। उन्होंने गोविन्दपाद को अपना गुरु बनाया और ज्ञान की ज्योति चारों ओर फैलाने के ध्येय के साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा की। बड़े-बड़े विद्वान पंडित भी इनकी विद्वता से प्रभावित शंकर से शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए। मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में ही वे कई नामचीन विद्वानों से शास्त्रार्थ करने लगे थे। इसी क्रम में उन्होंने मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी उभय भारती को शास्त्रार्थ में पराजित किया और दोनों को दीक्षा दी। उज्जैन प्रवास के समय शंकराचार्य ने कापालिकों के अमर्यादित आचरण को देखकर उनसे शास्त्रार्थ किया और उन्हें पराजित किया।
(6) महान वेद-प्रचारक वेदों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने देश के चार कोनों में मठों की स्थापना की और स्वयं आदि शंकराचार्य कहलाये। प्रत्येक मठ को एक वेद के अध्ययन-अध्यापन का दायित्व सौंपा गया। प्रत्येक मठ का एक प्रमुख देवी-देवता का निर्धारित किया। उनके शिष्यों की संख्या सहस्त्रों में थी। वे सभी सनातन धर्म के प्रचार के साथ-साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बाँधने में रत रहे।
(7) ग्रंथों के रचनाकार-उन्होंने कई महान ग्रन्थों की रचना की और अनेक भक्ति स्त्रोतों को लिखा। इनमें कनकधारा स्त्रोत, मनीषपंचक तत्वोपदेश, प्रस्थान त्रयी भाष्य, नर्मदाष्टकम् इत्यादि प्रमुख हैं।
(8) निरहंकारी तथा विनम्र-एक बार शंकर वाराणसी में जब गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तब अचानक एक चांडाल अपनी पत्नी व चार कुत्तों के साथ सामने से आ रहा था। शंकर के शिष्यों ने यह सोचकर कि वह कहीं किसी से छू न जाये, उसे एक ओर हटने के लिए कहा। इस पर शंकर ने अपने शिष्यों के द्वारा किये गये व्यवहार पर खेद प्रकट करते हुए चांडाल को अपना गुरु कहा। वास्तव में, कितना निरहंकारी तथा विनम्र था शंकराचार्य का स्वभाव। वह छोटे-से-छोटे को भी अपनाने को तैयार रहते थे, उससे सीख लेते थे और उसे उचित आदर देते थे।
आदि शंकराचार्य भाषा अध्ययन
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों में से उपसर्ग और प्रत्यय बाँटकर लिखिएअसाधारण, दयनीय, अश्रद्धा, विनम्र, प्रखर, निश्चयी, सांसारिक, अलौकिक।
उत्तर:
प्रश्न 2.
निम्नलिखित पदों में समास पहचान कर लिखिएपति-पत्नी, स्वर्गवास, प्रत्येक।
उत्तर:
प्रश्न 3.
दिए गए शब्दों का संधि-विच्छेद कर संधि का नाम लिखिएवेदाध्ययन, संन्यास, चिंतातुर, संकल्प।
उत्तर:
प्रश्न 4.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
हाथ बंटाना, खाली हाथ न लौटना, महासमाधि में लीन होना।
उत्तर:
हाथ बंटाना (सहयोग करना) – प्रत्येक विद्यार्थी को विद्यालय के कार्यों में हाथ बँटाना चाहिए।
खाली हाथ न लौटना (बिना कुछ लिए वापिस न होना) – प्रत्येक सद् गृहस्थ की इच्छा होती है कि याचक उसके घर से खाली हाथ न लौटे।
महासमाधि में लीन होना (प्राणांत) – शंकर अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए महासमाधि में लीन हो गए।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यांशों के लिए दिए गए विकल्पों में से सही एक शब्द लिखिए-
(अ) जो क्रम के अनुसार हो-
(1) यथाक्रम
(2) क्रमबद्ध
(3) सूची
(4) तालिका।
उत्तर:
(1) यथाक्रम
(ब) आदि से अन्त तक-
(1) अन्तिम
(2) आद्यक्षर
(3) आद्यन्त
(4) आद्यादस्तक।
उत्तर:
(3) आद्यन्त
(स) जो छिपाने योग्य है-
(1) छिद्र
(2) गलती
(3) चरित्र
(4) गोपनीय।
उत्तर:
(4) गोपनीय।
(द) जो किए गए उपकार को नहीं मानता-
(1) कृतज्ञ
(2) कृतघ्न
(3) उपकारी
(4) अनुपकारी।
उत्तर:
(2) कृतघ्न
आदि शंकराचार्य पाठ का सारांश
‘आदि शंकराचार्य’ सुविख्यात साहित्यकार ‘श्रीधर पराड़कर’ की प्रयल लेखनी द्वारा जीवनी विधा में लिखित एक अत्यन्त मार्मिक, प्रेरक एवं प्रभावशाली रचना है। प्रस्तुत आलेख आदि शंकराचार्य और उनके जीवन-दर्शन का प्रतिबिम्ब है।
अनादिकाल से वेद-वेदान्त के प्रख्यात विद्वानों की जन्मस्थली एवं निवास स्थान रहे, भारत के केरल प्रान्त में पूर्णा नदी के किनारे बसे एक छोटे से गाँव कालड़ी’ में शंकर का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम शिवगुरु एवं माता का नाम आर्यम्बा था। शंकर के दादाजी विद्याराम नंबूदरी वेदों के धुरंधर विद्वान थे।
शंकर बचपन से ही प्रतिभासम्पन्न एवं मेधावी थे। मात्र 5 वर्ष की बाल्यावस्था में ही उन्हें वेदों के अध्ययन के लिए गुरुकुल भेजा गया। शंकर श्रुतिधर थे। वह एक बार बताने पर ही पाठ समझ लेते थे। उन्होंने गुरुकुल में अल्पकाल में ही बहुत ज्ञान अर्जित कर लिया था। जो भी एक बार उनके सम्पर्क में आता था वह बिना उनसे प्रभावित हुए नहीं रहता था। गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करते हुए ही शंकर यह तथ्य जान चुके थे कि समाज ज्ञान के भण्डार वेदों के अनुसार आचरण नहीं कर रहा है। छोटी आयु में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। इससे शंकर बहुत दुःखी हुए। उनके मन में विचार आया कि पिता की तरह उनका भी एक दिन जब यह नश्वर शरीर छूटना ही है तो क्यूँ न इसे किसी महान ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाया जाये।
इन्होंने समाज के जागरण के लिए संन्यास मार्ग पर चलने का व्रत लिया। एकाकी जीवन जी रही माता आर्यम्बा से संन्यासी जीवन की अनुमति प्राप्त कर वे योग्य गुरु की खोज में देशाटन पर निकल गये। ओंकारेश्वर में उन्होंने गौड़पादाचार्य के शिष्य गोविन्दपाद को अपना गुरु बनाया और उनसे विधिवत् संन्यास की दीक्षा ली। गुरु गोविन्दपाद ने अपने प्रतिभावान शिष्य को ब्रह्मसूत्र, महावाक्य चतुष्टय एवं वेदान्त धर्म की सांगोपांग शिक्षा प्रदान कर धर्म प्रचार के सर्वथा योग्य बनाया। गुरु ने उन्हें अद्वैत का प्रचार करने की आज्ञा दी। इस बीच उन्हें माता की अस्वस्थता का समाचार ज्ञात हुआ। वे तुरन्त अपने गाँव कालड़ी के लिए चल पड़े। माताजी की अस्वस्थता में सेवा-सुश्रुषा की और उनके स्वर्गवास पर उनका अंतिम संस्कार किया। उन्होंने राष्ट्र कल्याण की भावना से कार्य कर रहे लोगों को संगठित करने का प्रण किया। इसकी शुरुआत के लिए उन्होंने भारत की आत्मा कहे जाने वाले नगर वाराणसी को चुना।
वाराणसी में विद्वान इनकी विद्वता से प्रभावित हुए। वे शंकर से शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इस समय उनकी आयु मात्र 12 वर्ष की थी। यहीं उन्होंने ‘मनीषपंचक’ नाम से विख्यात पाँच श्लोकों की रचना की। अपनी विद्वता का परिचय देते हुए उन्होंने मंडन मिश्र और उनकी धर्मपत्नी विदुषी उभय भारती को शास्त्रार्थ में हराया। देशाटन करते हुए शंकराचार्य ने प्रमुख तीर्थों के दर्शन किये तथा सर्वस्य अद्वैत मत की विजय पताका फहरायी। शंकराचार्य सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बाँधना चाहते थे। उन्होंने वेदान्त का भक्ति के साथ समन्वय कर अद्भुत कार्य किया।
आदि शंकराचार्य का देश के हृदयस्थल मध्यप्रदेश से गहरा सम्बन्ध रहा। ओंकारेश्वर में उन्होंने प्रस्थान त्रयी’ भाष्य तथा ‘नर्मदाष्टकम्’ स्त्रोत की रचना की। शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओं के कोनों में चार मठों की स्थापना की। अन्त में अपने लक्ष्य की पूर्ति करते हुए वे केदारनाथ पहुंचे और यहीं पर मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में महासमाधि में लीन हो गये।
आदि शंकराचार्य कठिन शब्दार्थ
हरित = हरा। शस्य श्यामल = धनधान्य सम्पन्न। तट = किनारे। अनादिकाल = प्राचीन समय। प्रख्यात = प्रसिद्ध। धुरंधर = श्रेष्ठ गुणवान। धर्मनिष्ठ = धर्म में निष्ठा रखने वाले। कामना = इच्छा। मेधावी = बुद्धिमान। आह्लाद = हर्ष। प्रतीति = विश्वास। श्रुतिधर = सुनते ही याद करने वाले। नश्वर = नाशवान। ध्येय = लक्ष्य। ग्रहण = स्वीकार। अनुमति = आज्ञा। देशाटन = भ्रमण। आश्वस्त = विश्वास दिलाना। अवलोकन = देखना। दृष्टिक्षेप = नजर डालना। अवशिष्ट = अवशेष। गहन = गहरी। सांगोपांग = अंग व उपांगों सहित, पूर्ण। भासित = प्रतीत। प्रखर = तीव्र। आकांक्षा = इच्छा। अविलम्ब = शीघ्र ही। प्रतिष्ठित = स्थापित। निरहंकार = अभिमान रहित। दिग्विजय = दिशाएँ जीतने। दग्ध = जला हुआ। विदुषी = ज्ञानवान। अनुगत = अनुयायी। महत् = महान।
आदि शंकराचार्य संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
1. शंकर बचपन से ही मेधावी थे। उसकी प्रतिभा धीरे-धीरे प्रकट होने लगी। आर्यम्बा पुत्र की बुद्धिमत्ता की बातें सुनती तो उसका हृदय आह्वलाद से परिपूर्ण हो जाता। इसकी प्रतीति तब अधिक हुई जब 5 वर्ष का होने पर उन्हें वेदाध्ययन के लिये गुरुकुल भेजा गया। शंकर श्रुतिधर थे। एक बार बताने पर वे पाठ समझ लेते थे।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘शंकराचार्य’ नामक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता ‘श्रीधर पराड़कर’ हैं।
प्रसंग :
बाल शंकराचार्य की अकूत प्रतिभा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या :
बाल्यावस्था से ही शंकर अत्यन्त प्रतिभाशाली थे। विभिन्न माध्यमों से इस मेधावी बालक के अन्दर छिपी मेधा के दर्शन उनके आसपास रहने वाले लोगों को होने लगे थे। शंकर की माता आर्यम्बा अपने होनहार सुपुत्र की वाहवाही की चर्चा जब सुनतीं तो उनका हृदय प्रसन्नता के भावों से भर उठता था। मात्र 5 वर्ष की अल्पायु में ही जब शंकर को ज्ञान के अनन्त स्त्रोत वेदों का अध्ययन करने के लिये गुरुकुल भेजा गया तो उनके बुद्धि-कौशल एवं प्रतिभा पर सहज विश्वास हुआ। शंकर बचपन से ही तेज मस्तिष्क के थे। वे मात्र एक बार सुनने अथवा बताने पर ही सम्बन्धित पाठ को न सिर्फ समझ लेते थे अपितु उसे स्मरण भी कर लेते थे। इसीलिए उन्हें श्रुतिधर कहा गया है।
विशेष :
- भाषा सरल, बोधगम्य एवं सहज है।
- वाक्य विन्यास लघु है।
- शंकर की विलक्षण प्रतिभा का सुन्दर वर्णन किया गया है।
2. गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करते हुए शंकर जान चुके थे कि उन्होंने जिन वेदों का अध्ययन किया है समाज में उसके अनुसार आचरण नहीं हो रहा है। केवल वेद अध्ययन करने मात्र से कुछ नहीं होगा। वेदों के प्रति समाज की अश्रद्धा को दूर करना होगा।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि शंकर अपने अध्ययन काल में ही समझ चुके थे कि समाज में वेदों के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं है, उसे समाप्त करना आवश्यक है।
व्याख्या :
शंकर जब गुरुकुल में पड़ते थे तब ही उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि जिन वेदों का अध्ययन हम कर रहे हैं, समाज उनके अनुरूप आचरण नहीं करता है। समाज में वेदों के प्रति श्रद्धा का अभाव है। वे समझ गये थे कि वेदों को पढ़ने मात्र से कोई लाभ नहीं होगा। अपितु यह आवश्यक है कि समाज में वेदों के प्रति श्रद्धा भाव जगाया जाए। समाज को वेदों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना होगा।
विशेष :
- समाज में वेदों के प्रति श्रद्धा का जो अभाव है, उसे दूर करना आवश्यक है।
- सरल, सुबोध भाषा-शैली में समझाया गया है।
3. संन्यास का अर्थ संसार को छोड़कर वन में तपस्या करना नहीं अपितु देश व धर्म के कर्म करना था जो मनुष्य को कर्मबंधन में नहीं बाँधते।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में संन्यास का वास्तविक अर्थ बताया गया है।
व्याख्या :
सामान्यतः लोग मानते हैं कि संन्यास अर्थ संसार को त्यागकर जंगल में जाकर तपस्या करना है। शंकर ने गुरुकुल में पढ़ते समय ही जान लिया था कि समाज वेदों के अनुसार आचरण नहीं कर रहा है। इसलिए उन्होंने संन्यास ग्रहण का अर्थ संसार छोड़कर वन में तपस्या करना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने माना कि संन्यास का अर्थ देश और धर्म के लिए ऐसे कर्म करना है जो मनुष्य को कर्मबंधन में नहीं बाँधते हों। उन्होंने समाज कल्याण के लिए इसी प्रकार का संन्यासी बनना स्वीकार किया।
विशेष :
- यहाँ संन्यास के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट किया गया है।
- सरल, सुबोध भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है।
4. परमगुरु को भी शंकर में अलौकिक प्रतिभा भासित हुई। उससे भी अधिक उन्होंने देखा कि उसके पास अपने देश और धर्म की दशा को देखकर रोने वाला हृदय भी है तथा इसा दशा को दूर करने की एक अत्यन्त प्रखर आकांक्षा भी दिखाई दी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर परमगुरु गौड़पादाचार्य ने जो विशेषताएँ शंकर में देखीं, उनका वर्णन किया गया है।
व्याख्या :
शंकर को शिक्षा देने के बाद गुरु गोविन्दपादाचार्य शंकर को अपने गुरु गौड़पादाचार्य से मिलाने बदरीनाथ ले गये। परमगुरु गौड़पादाचार्य ने जब शंकर को देखा तो उन्हें इस बात का आभास हुआ कि उस बालक में अद्भुत प्रतिभा विद्यमान है। इसके साथ ही उन्हें उस बालक के पास देश तथा धर्म की दयनीय दशा देखकर दु:खी होने वाला हृदय होने का भी अनुभव हुआ। उन्हें यह भी आभास हुआ कि इस बालक में देश और धर्म की दयनीय स्थिति से छुटकारा दिलाने वाली तीव्र इच्छा भी मौजूद है। उन्हें शंकर में विवेक, संवेदना तथा कार्यक्षमता की विद्यमानता का भी आभास हुआ।
विशेष :
- इसमें बालक शंकर की असाधारण प्रतिभा, संवेदन की अनुभूति तथा उत्कट कर्मठता पर प्रकाश डाला गया है।
- सहज, सरल भाषा तथा विवेचनात्मक शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है।
5. वे तो सम्पूर्ण भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बाँधना चाहते थे। समाज को अद्वैत का पाठ पढ़ाना चाहते थे। उन्होंने वेदान्त और भक्ति का समन्वय किया। उन्होंने किसी भी देवता का खण्डन नहीं किया, लोगों की श्रद्धा को नष्ट न करते हुए केवल श्रद्धा का केन्द्र बदल दिया।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-उपरोक्त गद्यांश में शंकराचार्य जी के कार्यों के बारे में बताया गया है।
व्याख्या :
शंकराचार्य का लक्ष्य महान था। उनकी इच्छा थी कि समस्त भारत एकता के सूत्र में बँधा हो। वे समाज को अद्वैत की दीक्षा देने के इच्छुक थे। उन्होंने इसके लिए बड़ा सहज उपाय खोज निकाला। उन्होंने वेदान्त और भक्ति में समन्वय स्थापित करने का अनूठा कार्य किया। लोग भिन्न देवताओं के पुजारी थे, इसलिए उन्होंने किसी भी देवता का निषेध नहीं किया। सभी देवताओं की पूजा का समर्थन करते हुए लोगों के हृदय में अद्वैत के प्रति श्रद्धा जाग्रत कर दी। इस तरह वे लोगों का श्रद्धा-केन्द्र बदलकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल रहे।
विशेष :
- इसमें शंकराचार्य द्वारा भारत की एकता, अद्वैत की शिक्षा तथा वेदान्त व भक्ति के समन्वय सम्बन्धी कार्यों को स्पष्ट किया गया है।
- सरल, सुबोध भाषा तथा विवेचनात्मक शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है।