MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 1 भय

MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 1 भय (निबंध, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)

भय अभ्यास

भय अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘भय’ कायरता या भीरुता की संज्ञा कब प्राप्त करता है? (2014, 16)
उत्तर:
भय जब स्वभावगत हो जाता है, तब वह कायरता या भीरुता की संज्ञा को प्राप्त करता है।

प्रश्न 2.
किस प्रकार के भय को आशंका कहा गया है? (2015)
उत्तर:
जब आपत्ति या दुःख का पूर्ण निश्चय न रहने पर उसकी मात्र सम्भावना होती है, तब जो आवेगशून्य भय होता है,उसे आशंका कहते हैं।

प्रश्न 3.
भय किन-किन रूपों में सामने आता है? (2016)
उत्तर:
भय अपने अनेक रूपों, जैसे-असाध्य,साध्य,कायरता, आशंका इत्यादि रूपों में सामने आता है।

प्रश्न 4.
किस भय के कारण व्यापारी व्यवसाय में हाथ नहीं डालते?
उत्तर:
अर्थहानि के भय के कारण बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते हैं।

भय लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भय और आशंका में क्या अन्तर है? (2009)
उत्तर:
भय और आशंका में सूक्ष्म अन्तर है। आने वाली मुसीबत की भावना या दुःख के कारण एक प्रकार का आवेगपूर्ण तथा स्तम्भ-कारक मनोभाव पैदा होता है,उसे भय कहते हैं। भय में दुःख के बाहर जाने की भावना होती है। दूसरी ओर, दुःख या आपत्ति का पूर्ण निश्चय न रहने पर उसकी सम्भावना मात्र का अनुमान, जो आवेगशून्य भय है, वह आशंका है। आशंका में आकुलता नहीं होती, उसका संचार धीमा व अधिक समय तक रहता है। आशंका को भय का लघु रूप कहा गया है।

प्रश्न 2.
भय किन-किन स्थितियों में ‘साध्य’ का स्वरूप प्राप्त करता है?
उत्तर:
भय का साध्य स्वरूप भय है,जब भय को प्रयत्न अथवा प्रयास द्वारा दूर किया या रखा जा सकता है। साध्य का स्वरूप परिस्थिति की विशेषता,मनुष्य की प्रकृति और विश्वास पर निर्भर होता है।

अभ्यास,साहस,क्षमता,शारीरिक शक्ति,ज्ञान शक्ति तथा हृदय शक्ति इत्यादि तत्त्व प्राणी को भय से बचाव में सफल बनाते हैं और यही सफलता भय को साध्य का स्वरूप प्रदान करती है।

प्रश्न 3.
जंगली जातियाँ भय से स्थायी रक्षा हेतु क्या उपाय करती हैं?
उत्तर:
परिचय क्षेत्र अति सीमित होने के कारण जंगली व असभ्य जातियों में भय सबसे अधिक होता है। भय से स्थायी रक्षा हेतु वह जिससे भयभीत होता है,उसे श्रेष्ठ मान लेता है और उसी की पूजा व स्तुति करने लगता है। उनके देवी-देवता भय के कारण ही कल्पित होते हैं। अतः आपत्ति के भय से रक्षा हेतु वह भय और भयकारक का सम्मान करता है।

भय दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सभ्यता के विकास-क्रम में भय की स्थितियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भय एक मनोविकार है जो किसी आने वाली आपदा की भावना या दुःख के कारण का सामना होने पर मन में आवेग या आश्चर्य उत्पन्न करता है। भय हर प्राणी या समाज में एक. समान नहीं होता है। भय सभ्यता के विकास के साथ-साथ कम होता जाता है। जैसे जंगली तथा असभ्य जातियों में भय अधिक होता है, और इसी भय के द्वारा वे अपने काम निकालती हैं तथा जिससे भयभीत होती हैं,उसे श्रेष्ठ मानकर उसकी पूजा व सम्मान करती हैं। इसका कारण यह है कि असभ्य या जंगली जातियों का परिचय क्षेत्र छोटा होता है तथा जानकारियाँ कम होती हैं। परन्तु जैसे-जैसे सभ्यता के विकास के कारण प्राणी सभ्य होता जाता है और समाज विस्तृत होता जाता है,भय की सम्भावना कम होती जाती है।

स्थायी रक्षा की संभावना भी कम होती जाती है। सभ्यता के विकास में असभ्य काल जैसा भूतों का डर तो छूट गया है तथा पशुओं की बाधा भी छूट गई है, परन्तु मनुष्य के लिए मनुष्य का भय बढ़ता जा रहा है। वर्तमान में,मनुष्य के दुःख का कारण मनुष्य ही है। सभ्यता के विकास से दुःखदान की विधियाँ गूढ़ व जटिल हो गयी हैं। सभ्यता की वर्तमान स्थिति में एक जाति को दूसरी जाति से,एक देश को दूसरे देश से, भय के स्थायी कारण प्रतिष्ठित हो गये हैं। सबल व सक्षम देशों के मध्य अर्थ-संघर्ष,सबल-निर्बल देशों के बीच अर्थशोषण की प्रक्रिया भय की स्थिति को ही जन्म देती है और विश्व-प्रेम और आध्यात्मिकता का नारा लगाती है। कैसी विषम स्थिति पैदा हो गई है।

प्रश्न 2.
निर्भयता’ की प्राप्ति हेतु क्या अपेक्षित है?
उत्तर:
सुखी एवं आतंक-मुक्त रहना प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। इन दोनों की प्राप्ति के लिए वह जीवन में कर्म को अपनाता है और सुख को साध्य बनाकर निर्भयता का आंचल पकड़ लेता है। अगर हम सामान्य रूप से निर्भयता को प्राप्त करना चाहते हैं तो इसके लिए दो बातें अपेक्षित हैं। पहली तो यह कि दूसरों को हमसे किसी प्रकार का भय या कष्ट न हो। यह उच्च कोटि के शील की बात है। हमारा आचरण व कर्म ऐसा न हो जो भय पैदा करे! इसके लिए संयम व ज्ञान की आवश्यकता है। दूसरी यह है कि दूसरे प्राणी हमें कष्ट अथवा दुःख पहुँचाकर भयाक्रांत करने का साहस न करें। इस अपेक्षा के मूल में शक्ति और पुरुषार्थ छिपा है।

दूसरे प्राणी अपनी शक्ति व पुरुषार्थ का प्रयोग हमें भयभीत करने में न करें। संसार में किसी को न डराने से ही डरने की सम्भावना दूर नहीं हो जाती। उदाहरण के लिए, सज्जन किसी को नहीं डराते पर दुर्जन व क्रूर-लोभी उन सन्त सज्जनों को व्यर्थ में ही दुःख पहुँचाकर भयभीत करते रहते हैं। उन दुष्टों को असफल बनाने अथवा भय को रोकने के लिए कुछ करना ही होता है वरना साधु-सज्जन कैसे निर्भय होकर जीवित रह सकते हैं। दुष्टों के भय पहुँचाने के साहस को रोककर ही निर्भयता प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्न 3.
जीवन में भीरुता किन-किन स्थितियों में दिखाई देती है?
उत्तर:
भय जब स्वभावगत हो जाता है, तब भीरुता या कायरता कहलाता है। कष्ट न सह पाने की भावना और अपनी शक्ति पर अविश्वास ही कायरता के मूल कारण हैं। जीवन में भीरुता या कायरता अनेक स्थितियों में देखी जा सकती है। पुरुषों में पाई जाने वाली भीरुता निन्दनीय होती है। स्त्रियों की भीरुता उनकी लज्जा की स्थिति में दिखाई देती है। व्यापारी अर्थहानि के भय से विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते। पण्डित परास्त होने के भय से शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं।

जंगली और असभ्य जातियों में भीरुता श्रेष्ठ की पूजा करने की स्थिति में दिखायी देती है। बच्चों में अपरिचय की स्थिति में भय दिखाई देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भीरुता अनेक स्थितियों में दिखाई देती है,जो मानव का दोष है। एक और प्रकार की भीरूता है, जिसे धर्मभीरुता कहते हैं, जिसकी प्रशंसा होती है। लेकिन शुक्लजी धर्म से डरने वालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होने वालों की प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि जीवन में भीरुता स्वभावगत, लज्जा, अर्थहानि, सम्मान हानि, अपरिचय आदि की स्थितियों में दिखाई देती है।

प्रश्न 4.
“कर्मक्षेत्र के चक्रव्यूह में पड़कर जिस प्रकार सुखी होना प्रयत्न-साध्य होता है, उसी प्रकार निर्भय रहना भी।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने मनोवैज्ञानिक निबन्ध ‘भय’ में भय से छुटकारा पाने का साधन कर्म बताया है। मनुष्य के लिए प्रत्येक वस्तु साध्य है और उस साध्य का माध्यम कर्म है। प्राणी प्रयत्न के द्वारा ही सुखी हो सकता है। सुखी होने की यही भावना निर्भयता कहलाती है। निर्भयता प्राप्ति के लिए प्राणी को कर्मशील के साथ-साथ सहनशील, स्वयं की शक्ति में विश्वास, भीरुता से दूर,साहसी आदि बनना अनिवार्य है। प्राणी कर्मरत रहकर अपने दुःखों पर विजय प्राप्त कर लेता है और निर्भय हो जाता है। अतः कर्म के द्वारा निर्भयता को प्राप्त किया जा सकता है। इसी कर्म का संदेश श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को देते हुए कहा था,“हे क्षत्रिय! तेरा कर्म युद्ध करना है, पारिवारिक मोह में पड़ना नहीं।”

प्रश्न 5.
सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(1) किसी आती हुई ………… उसी को भय कहते हैं।
(2) भीरुता के संयोजक ……….. विश्वास नहीं रखता।
(3) दुःख या आपत्ति ………….. काल तक रहता है।
(4) ऐसे अज्ञानी ……….. रहता है।
(5) भय की इस ……….. हटाता चलता है।
उत्तर:
उपरोक्त गद्यांशों की व्याख्या पाठ के ‘व्याख्या हेतु गद्यांश भाग में देखिए

भय भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम लिखिए
साध्य, क्षमता, विश्वास, सुखात्मक।
उत्तर:
असाध्य, अक्षमता, अविश्वास, दुःखात्मक।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों में से उपसर्ग और प्रत्यय पृथक करके लिखिए
सार्वभौमिक, परिस्थिति, अज्ञान, अपरिचित, भीरुता, विशेष।
उत्तर:
उपसर्ग – परिस्थिति-परि।, अज्ञान-अ।, अपरिचित-अ।, विशेष-वि
प्रत्यय – सार्वभौमिक-क।, भीरुता-ता।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित वाक्यों के लिए एक-एक शब्द लिखिए

  1. जिसकी कल्पना न की जा सके।
  2. जिसका अंत न हो।
  3. जिसके समान कोई दूसरा न हो।
  4. बिना सोचे समझे किया गया विश्वास।

उत्तर:

  1. अकल्पनीय
  2. अनन्त
  3. अद्वितीय
  4. अंधविश्वास।

प्रश्न 4.
नीचे दिये वाक्यों में से सरल, संयुक्त और मिश्र वाक्य छाँटिए

  1. मेरा विचार है कि आज घूमने चलें।
  2. मैंने एक व्यक्ति को देखा जो बहुत लंबा था।
  3. बालिकाएँ गा रही हैं और नाच रही हैं।
  4. बच्चे लाइन में जाएँगे।
  5. अध्यापक चाहता है कि उसके सभी शिष्य अच्छे बनें।
  6. मैंने उसे मना लिया है।

उत्तर:

  1. मिश्र वाक्य
  2. मिश्र वाक्य
  3. संयुक्त वाक्य
  4. सरल वाक्य,
  5. मिश्र वाक्य
  6. सरल वाक्य।

भय पाठ का सारांश

हिन्दी आलोचना के आधार स्तम्भ और मनोवैज्ञानिक निबन्धों के लेखक ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ द्वारा लिखित प्रस्तुत निबन्ध ‘भय’ में लेखक ने व्यक्ति के मन में रहने वाली ‘भय’ नामक मूल प्रवृत्ति की साहित्यिक विवेचना की है।

निबन्ध की पहली पंक्ति में ही ‘भय’ को परिभाषित करते हुए शुक्लजी ने लिखा है कि, भय आने वाली विपत्ति या दुःख के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। इस स्थिति में मन की दशा या तो स्तम्भित हो जाती है अथवा आवेग से भर जाती है। भय के दो रूप-असाध्य व साध्य होते हैं। जब प्राणी भय को विवशता, अक्षमता अथवा साहस के अभाव के कारण दूर नहीं कर पाता है तो यह असाध्य अवस्था है। परन्तु साहसी, सक्षम व निडर व्यक्ति जब भय पर विजय प्राप्त कर लेता है,तो वह साध्य अवस्था है। भय का एक अन्य रूप भी है,वह है कायरता। जिन पुरुषों में कष्ट न सहने की भावना व अविश्वास विद्यमान होता है, उनमें भय कायरता के रूप में दिखाई देता है। स्त्रियों में भय उनके नारी सुलभ गुण लज्जा के रूप में रहता है तो पण्डित मानहानि के भय से शास्त्रार्थ नहीं करता। परन्तु शुक्लजी धर्मभीरुता के प्रशंसक हैं।

भय आशंका के रूप में भी दिखाई देता है, जिसका संचार धीमा व अधिक समय तक रहता है। लेखक ने भय व क्रोध में अन्तर बताते हुए लिखा है कि क्रोध दुःख के कारण पर प्रभाव डालता है तो भय दु:ख के बाहर आने के लिए। दुःख का सामाजिक प्रभाव जंगली व असभ्य जातियों पर अधिक होता है। मनुष्य अपनी आन्तरिक आँख खोलकर बाहुबल व ज्ञानबल से भय को जीतकर दुःख से छुटकारा पा सुख व आनन्द का भागी बन जाता है। शुक्लजी ने निर्भयता को मनुष्य,समाज व विश्व के कल्याण के लिए अनिवार्य माना है।

शुक्लजी ने प्रस्तुत निबन्ध में भय जैसे मनोभाव का गम्भीर वैचारिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। भाषा क्लिष्ट होते हुए भी प्रवाहमय है, विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से विचारों को स्पष्टता प्रदान की गई है। गद्यांशों के अन्त में लघु वाक्यों के प्रयोग,तत्सम शब्दावली व सामासिक पदशैली ने भाषा को सरस बना दिया है।

भय कठिन शब्दार्थ

आपदा = मुसीबत। स्तंभकारक = संज्ञाहीन करने वाला, जड़ता कारक, अवाक् कर देने वाला। निर्दिष्ट = स्पष्ट। असाध्य = लाइलाज, अच्छा न होने वाला। निवारण = दूर करना। विवशता = मजबूरी। अवलंबित = निर्भर। अक्षमता = अयोग्यता। भीरुता = डर। क्लेश = दुःख। श्रेष्ठ = उत्तम। ज्ञानबल = बुद्धि की शक्ति। व्यतिक्रम = विपरीत। परिहार – छुटकारा पाना। क्षोभकारक = खलबली,व्याकुलता पैदा करने वाला। आवरण = पर्दा। क्रूर – निर्दयी। त्रस्त = भयभीत, डरा हुआ। अनिष्ट = हानिकारक। प्रतिष्ठा = स्थापना, सम्मान। अर्थोन्माद = धन का घमण्ड। फैशन = चलन। अपेक्षित = आवश्यक। उत्कृष्ट = उच्च कोटि का।

भय संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) किसी आती हुई आपदा की भावना या दुःख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है, उसी को भय कहते हैं। (2013, 15)

सन्दर्भ :
प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के निबन्ध ‘भय’ से उद्धृत है। इसके लेखक ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ हैं।

प्रसंग :
इस पंक्ति में लेखक ने भय का अर्थ बताते हुए कहा है कि भविष्य के दुःख की कल्पना ही भय है।

व्याख्या :
भय का शाब्दिक अर्थ है-‘डर’। डर हृदय में उत्पन्न वह भाव है, जो व्याकुलता तथा आश्चर्य को जन्म देता है। अत: आने वाले दुःख अथवा मुसीबत की कल्पना से उत्पन्न मनःस्थिति का नाम भय है । जब प्राणी का सामना आने वाले दुःखों से होता है, तब उसके मन में एक अजीब-सी आकुलता और आश्चर्यजनक मनोभाव जाग्रत होता है । इसी मनोभाव को साहित्य में भय के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार दुःख या हानि की कल्पना ही भय है।

विशेष :

  1. ‘भय’ मनोभाव का मनोवैज्ञानिक रूप से अर्थ स्पष्ट किया है।
  2. संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है।
  3. सम्पूर्ण व्याख्या अंश का रूप एक मिश्र वाक्य है।
  4. विचारात्मक व गवेषणात्मक शैली का प्रयोग है।

(2) भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागने वाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तथा अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। (2009)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
भयभीत रहना स्वभाव बन जाने पर भीरुता या कायरता को पैदा करता है। कायर प्राणी में, अपनी शक्ति में विश्वास न होने के कारण कष्ट सहने की भी क्षमता नहीं होती है।

व्याख्या :
आचार्य शुक्ल भीरु या कायर व्यक्ति की अयोग्यता के विषय में लिखते हैं कि आने वाले दुःख या कष्ट से वही प्राणी भयभीत होता है, जो उस दुःख को सहन करने की शक्ति नहीं रखता तथा उसे अपनी सहन-शक्ति पर विश्वास नहीं होता है। साहसी व्यक्ति शत्रु का डटकर सामना करके विजयी होता है। इसके विपरीत एक कायर अथवा डरपोक व्यक्ति दुःख या आपदा रूपी शत्रु का मुकाबला नहीं कर पाता और वह कष्टों से भागता फिरता है। वह स्वयं को शक्तिहीन मानकर स्वयं की शक्तियों के प्रति अविश्वास की भावना रखता है। इस प्रकार अपनी योग्यता व शक्ति में विश्वास न होने के कारण वह कष्टों से भागता ही जाता है।

विशेष :

  1. भीरु व्यक्ति की शारीरिक कष्ट सहन करने की अक्षमता तथा स्वयं की शक्ति पर भरोसा न होने की बात कही गई है।
  2. शुद्ध साहित्यिक शब्दावली के साथ भावों की स्पष्टता है।
  3. शैली विवेचनात्मक व व्याख्यात्मक है।

(3) दुःख या आपत्ति का पूर्ण निश्चय न रहने पर उसकी सम्भावना मात्र के अनुमान से जो आवेगशून्य भय होता है, उसे आशंका कहते हैं। उसमें वैसी आकुलता नहीं होती। उसका संचार कुछ धीमा, पर अधिक काल तक रहता है। (2009, 12)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में आशंका मनोभाव को भय का एक लघु रूप बताया गया है। जब भय में आकुलता कम और अवधि अधिक होती है, तब उसे ‘आशंका’ कहा जाता है।

व्याख्या :
भय के समानान्तर एक अन्य मनोभाव, आशंका है। आशंका भी भविष्य में आने वाले कष्ट या पीड़ा की कल्पना है। दुःख या आपत्ति निश्चित रूप से आयेगी ही,ऐसा नहीं होता, अपितु अज्ञात भय उस आपत्ति के प्रति बना रहता है अथवा आपत्ति के आने का विचार मन में आता है, उस समय मन में एक भय उत्पन्न होता है, जिसमें न जोश होता है और न बेचैनी या घबराहट होती है। उस भय का उद्वेग बहुत कम होता है परन्तु उस उद्वेग का समय लम्बा होता है, इसी कारण आशंका लम्बे समय तक बनी रहती है। अतः भय व्यापक है तो आशंका उसका लघु रूप है।

विशेष :

  1. आशंका को भय का लघु रूप बताया गया है, जिसमें तीव्रता कम होती है।
  2. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
  3. सूत्रात्मक वाक्यों से भावों की व्याख्या।
  4. शैली में संक्षिप्तता तथा विचारों में स्पष्टता।

(4) ऐसे अज्ञानी प्राणियों के बीच जिसमें भाव बहुत काल तक संचित रहते हैं और ऐसे उन्नत समाज में जहाँ एक-एक व्यक्ति की पहुँच या परिचय का विस्तार बहुत अधिक होता है, प्राय: भय का फल भय के संचार-काल तक ही रहता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत संयुक्त दीर्घ वाक्य में स्पष्ट कहा गया है कि अशिक्षित व असभ्य मनुष्यों में भय का भाव लम्बे समय तक रहता है, तो विकसित बुद्धि वालों में भय बहुत कम समय तक रहता है।

व्याख्या :
लेखक के अनुसार भय हर समाज में एक समान नहीं होता। हर समाज में भय का रूप व समय अलग-अलग होता है। जैसे-अल्पबुद्धि वाले या साधारण समाज के प्राणियों में कोई भी भाव लम्बे समय तक रहता है तथा उनका परिचय क्षेत्र संकुचित होने के कारण वे अपने ही भावों में लगे रहते हैं। परन्तु इसके विपरीत प्रखर बुद्धि वाले समाज, विकसित समाज तथा विस्तृत परिचय वाले समाज के प्राणियों में भय का भाव, भय के फल तक ही रहता है। परिणाम समाप्ति के साथ ही भय भी समाप्त हो जाता है। इस प्रकार भय असभ्य समाज की संचित वस्तु है। इसी भय के द्वारा वह अपने समस्त अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करता है।

विशेष :

  1. असभ्य व उन्नत समाज के स्तर पर भय के रूप को स्पष्ट किया गया है।
  2. भाषा भावों के अनुकूल सरल खड़ी बोली है।
  3. शैली विचारात्मक है।
  4. संयुक्त वाक्य के रूप में पूर्ण गद्य खण्ड।

(5) भय की इस वासना का परिहार क्रमशः होता चलता है। ज्यों-ज्यों वह नाना रूपों से अभ्यस्त होता है, त्यों-त्यों उसकी धड़क खुलती जाती है। इस प्रकार अपने ज्ञानबल, हृदयबल और शरीरबल की वृद्धि के साथ वह दुःख की छाया मानो हटाता चलता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में दुःख से छुटकारा पाने का तरीका बताया गया है। ज्ञान बढ़ने पर दुःख का प्रभाव कम होता है, तो दुःख के कम होने से भय मनोविकार स्वतः ही शून्यता को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या :
मानव-स्वभाव ही ऐसा है कि वह दुःख के स्थान पर सुख की कामना करता है। इसी कारण वह दुःख के विचार से उत्पन्न भय से पीछा छुड़ाना चाहता है। यह क्रिया धीरे-धीरे सम्पन्न होती है। प्राणी में जैसे-जैसे बुद्धि (ज्ञान) का विकास होता है तथा उसके अन्दर दुःखों को सहन करने की शक्ति जाग्रत होती है, उसके विचारों में फैलाव आता है और भय छूट जाता है। भय से छुटकारा पाने के लिए प्राणी को अपने शरीर, हृदय तथा ज्ञान को विकसित (मजबूत) बनाना होता है। जब ये तीनों तत्त्व दृढ़ व उन्नत हो जाते हैं, तो भय नामक मूल प्रवृत्ति को जन्म देने वाला दुःख या आशंका का भाव स्वयं विलीन हो जाता है और मन भयरहित होकर आनन्दित हो उठता है।

विशेष :

  1. ज्ञान के द्वारा प्राणी अपने भय को दूर कर सकता है।
  2. संस्कृत के शब्दों के प्रयोग के साथ भावों की सरलता है।
  3. भाषा परिष्कृत तथा शैली व्याख्यात्मक है।

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