MP Board Class 9th Hindi Vasanti Solutions Chapter 22 हिन्दी साहित्य का इतिहास

MP Board Class 9th Hindi Vasanti Solutions Chapter 22 हिन्दी साहित्य का इतिहास (संकलित)

प्रश्न 1.
हिंदी साहित्य के इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए उसके काल-विभाजन का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर
प्रत्येक वस्तु का इतिहास होता है। इसी प्रकार हिन्दी साहित्य का भी अपना इतिहास है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में प्रमुखतः गार्स द तॉसी, शिवसिंह सेंगर, जार्ज ग्रियर्सन, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. राजकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. भगीरथ प्रसाद, डॉ. लक्ष्मीनारायण वार्ष्णेय, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे अनेक विद्वानों ने अपना सहयोग प्रदान किया।

हिन्दी साहित्य का इतिहास लगभग 1000 वर्ष पहले से प्रारम्भ होता है। कालविभाजन की दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया गया है। यह विभाजन उस काल की समय सीमा में मिलने वाले साहित्य की विशेषताओं पर आधारित है। काल-विभाजन के नामकरण का मुख्य आधार उस काल की प्रवृत्तियों, परिस्थितियों और उस काल की विशेषताओं को बनाया गया है। इस आधार पर हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन इस प्रकार है :

  1. आदिकाल (वीरगाथा काल) – संवत् 1050 से 1375 तक
  2. मध्य काल – संवत् 1375 से 1900 तक
    • पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) – संवत् 1375 से 1700 तक
    • उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) – संवत् 1700 से 1900 तक
  3. आधुनिक काल (गद्यकाल) – संवत् 1900 से अब तक

प्रश्न 2.
आदिकाल के नामकरण और इसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
आदिकाल (वीरगाथा काल)-आदिकाल का नामकरण अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग विशेषताओं के आधार पर किया है। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल का समय सं. 1050 से सं. 1375 तक अर्थात् महाराजा भोज के समय । से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना है। आदिकाल में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार साहित्य सृजन हुआ जिसे हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल में स्पष्ट देखा जा सकता है। आदिकाल को चारण काल भी कहा गया है। यह इसलिए कि आदिकाल की समय सीमा में सम्राट हर्षवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात् विदेशी आक्रमणकारियों विशेषकर यवनों के आक्रमणों के चारों ओर अशान्ति और अराजकता की स्थिति निर्मित थी अतः कवि एक ओर तलवार के गीत गा रहे थे, तो दूसरी ओर आध्यात्मिकता की बात भी कर रहे थे। आदि काल को वीरगाथा काल भी कहा गया है। यह इसलिए कि इस काल में वीरता लोक जीवन शृंगार के प्रमुख काव्य के विषय थे।आदिकालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ

आदिकाल की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. आदिकालीन साहित्य में युद्ध वर्णन में सजीवता और अधिकता है।
  2. आदिकालीन साहित्य में ‘रासो काव्य परम्परा’ का प्रादुर्भाव हुआ। ‘रासो’ शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत के एक छन्द ‘रासक’ को माना है। बाद में अपभ्रंश में भी ‘रास’ या ‘रासा’ छन्द का वर्णन मिलता है।
  3. राजाओं के शौर्य और पराक्रम का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया।
  4. वीर और श्रृंगार रस के साथ शान्त, करुण, विभत्स आदि रस युक्त रचनाओं का वर्णन किया गया।
  5. अलंकारों का स्वाभाविक समावेश इस युग के साहित्य में मिलता है। अलंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि की प्रधानता रही।

प्रमुख कवि – रचनाएं

  1. स्वयंभू – पउम चरिउ
  2. पुष्पदन्त – जसहारचरिउ
  3. मुनि शालिभद्र – बुद्धिरास
  4. जिनधर्म सूरि – स्थलिभद्ररास
  5. नरपति नाल्ह – वीसलदेव रासो
  6. जगनिक – परमाल रासो
  7. दलपति विजय – खुमान रासो
  8. चन्दवरदाई – पृथ्वीराज रासो

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प्रश्न 3.
मध्यकाल का सामान्य परिचय और उसके भेदों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
हिन्दी साहित्य का मध्यकाल दो खण्डों में विभक्त है जो इस प्रकार हैं-पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल। पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल तथा उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहा गया। पूर्व मध्यकाल अर्थात् भक्ति काल का समय संवत् 1375 से 1700 तक। इस काल में भक्ति की प्रधानता थी। इस समय सीमा में कवि भक्त थे, अतः उनकी रचनाएँ भक्ति से ओत-प्रोत हैं। उस समय समाज में अनेक प्रकार ३. के भेदभाव थे। इसके विरोध में भक्ति का स्रोत इस काल में प्रस्फुटित हुआ। इस – काल में धर्म साधना की नई भावना का उदय हुआ। इन भक्त कवियों को धन, यश और राजाश्रय की चाह नहीं था बल्कि समाज-व्यक्ति तथा राष्ट्र को आगे बढ़ाने की भावना थी। यह भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था, इसक परिणाम यह हुआ कि लगभग पूरे देश में मध्य प्रदेश की काव्य भाषा हिन्दी (ब्रजभाषा) का प्रचार-प्रसार हुआ। भक्ति आन्दोलन हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम काल माना जाता है। भक्तिकाल की समय सीमा में दो प्रकार की काव्यधाराएँ थीं
1. निर्गुण धारा
2. सगुण धारा
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प्रश्न 4.
निर्गुण भक्ति काव्य-धारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसकी प्रमुख विशेषताएं लिखिए।
उत्तर
निर्गुण भक्ति काव्य-धारा के कवियों ने निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर दिया। उन्होंने योग साधना और ब्रह्म ज्ञान को प्रधानता दी। इसे अपनी-अपनी रचनाओं के द्वारा चित्रित किया। धार्मिक उन्माद और आडम्बर का विरोध कर उन्होंने मन की पवित्रता, सदाचार और समता पर बल दिया था।
निर्गुणधारा की दो शाखाएँ हैं :
(क) ज्ञानाश्रयी शाखा
(ख) प्रेमाश्रयी शाखा।

(क) ज्ञानाश्रयी शाखा : इस शाखा के सभी कवि सन्त साधु कहलाए। उन सभी ने ज्ञान की चर्चा की। सन्तों ने जाति-पाँति को तिलांजलि देकर सबके लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया।
विशेषताएँ :
ज्ञानाश्रयी शाखा की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. नाम की उपासना पर अधिक जोर दिया गया।
  2. गुरुः को भगवान से भी अधिक बढ़कर बताया गया।
  3. आडम्बरों का खंडन किया गया।
  4. सदाचार और साधना को महत्त्व दिया गया।
  5. जाति-पांति के बन्धन का विरोध किया गया।
  6. भाषा साहित्यिक न होकर सधुक्कड़ी थी।

प्रमुख कवि : शाखा के प्रमुख कवि कबीर, रैदास, धर्मदास, गुरुनानक, दादूदयाल, सुन्दरदास और मलूकदास आदि हैं।

(ख) प्रेमाश्रयी शाखा-‘सूफी’ शब्द की उत्पत्ति ‘सोफिया’ अथवा ‘सफा’ शब्द से मानी जाती है जिसका अर्थ है क्रमशः ज्ञान अथवा शुद्ध एवं पवित्र । एक अन्य मत के अनुसार सूफी शब्द का सम्बन्ध ‘सूफ’ से है जिसका अर्थ सूफी लोग सफेद ऊन से बने हुए चोंगे पहनते थे। उनका आचरण शुद्ध होता था। प्रेमाश्रयी शाखा के कवि.सूफी संन्त थे। इन कवियों ने मुक्ति प्रेम को महत्व दिया है। उन्होंने बतलाया कि प्रेम की साधना के लिए गुरु का सहयोग अनिवार्य है।

विशेषताएँ : प्रेमाश्रयी शाखा की निम्नलिखित विशेषताएं हैं.

  1. प्रेम की.पीर की व्यंजना अधिक है।
  2. प्रेमाश्रयीं सूफी काव्य, प्रबन्धात्मक है।
  3. इनकी भाषा अवधी है।।
  4. दोहा, चौपाई. की प्रधानता है।
  5. इन कवियों ने भारतीय लोक जीवन में प्रचलित कथाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है।
  6. कथानक में रूढ़ियों के प्रयोग हैं
  7. भारतीय और ईरानी पद्धति का समन्वय है।
  8. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना है।

प्रमुख कवि : कुतुबन, मंझन, जायसी, उसमान, कासिम, नूर-मोहम्मद और फाजिल शाह आदि।

हिन्दी साहित्य का इतिहास सगुण भक्ति काव्य-धारा

प्रश्न 5.
सगुण भक्ति काव्य-धारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसकी प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर
सगुण भक्ति काव्य-धारा के उपासकों का राम और कृष्ण अवतार और लीला पर अधिक आग्रह रहा है। इस धारा के प्रमुख कवि तुलसी और सूर हुए हैं और उन्होंने अपने रचनाओं द्वारा मध्ययुगीन साहित्य का चहुँमुखी विकास किया है। सगुण भक्ति धारा को दो उपशाखाओं में विभाजित किया गया है :
(क) रामभक्ति शाखा : निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं के कवियों ने राम की उपासना की है। हिन्दी क्षेत्र के रामभक्त कवियों का सम्बन्ध रामानन्द से है। रामानन्द, राघवानन्द के शिष्य एवं रामानुजाचार्य की परम्परा के आचार्य थे। वे अत्यन्त उदार गुरु थे। उनके शिष्य सभी वर्गों के लोग थे।

विशेषताएं-

  1. राम के स्वरूप को परब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठा दी गई। .
  2. यह काव्य प्रधानतः लोकमंगल और सामाजिक मर्यादा को महत्त्व दिया गया।
  3. यह धारा प्रायः सभी काव्य रूपों, छन्दों और लोकगीतों पर आधारित हैं।
  4. वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में लाने का प्रयास परस्पर एकता लाने का प्रयास किया गया।
  5. रामभक्तों के आराध्य देव राम विष्णु के अवतार हैं और परम ब्रह्म हैं। राम की शक्ति, शील और सौन्दर्य को लौकिक-पारलौकिक रूप में चित्रित किया गया।
  6. इस काव्य धारा में प्रायः सभी काव्य-शैलियों के प्रयोग किए गए-जैसे-छप्पयपद्धति, गीति पद्धति, कवित्त सवैया पद्धति, दोहा-चौपाई पद्धति आदि।
  7. इस काव्य धारा में नवों रसों के प्रयोग हुए हैं।
  8. इस काव्य धारा में मुख्य रूप से अनुप्रास रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, विशेषोक्ति आदि अलंकार हैं।
  9. इस धारा के कवियों ने अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं का प्रयोग किया है।

प्रमुख कवि : तुलसीदास, नाभादास, प्राणचन्द चौहान, हृदयराम, अग्रदास और बाल आली आदि।

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(ख) कृष्ण भक्ति शाखा : कृष्ण भक्ति शाखा के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य थे। आचार्य वल्लभ ने कृष्ण को ही परब्रह्म पुरुषोत्तम कहा है। कृष्ण भक्त कवियों ने भगवान के लीलामय मधुर रूप का वर्णन किया है।

विशेषताएँ-

  1. श्रीकृष्ण को साकार और निर्गुण ब्रह्म के रूप में चित्रित किया गया।
  2. भागवद् पुराण को आधार बनाकर कृष्ण चरित्र को चित्रित किया गया।
  3. ब्रह्म के लोक रक्षक एवं लोक रंजक रूप की स्थापना।
  4. रहस्यवादी कविता का प्रारम्भ।
  5. प्रकृति-चित्रण की अधिकता रही।
  6. व्यक्तिगत साधना और लोकसाधना का सामंजस्य प्रस्तुत किया गया।
  7. सामाजिक पक्ष को महत्त्व दिया गया।
  8. प्रबन्ध, मुक्तक तथा खण्ड दोनों ही प्रकार के काव्य की रचना हुई।
  9. ब्रज और अवधी दोनों भाषा में काव्य-रचना।
  10. इस काव्य धारा में चौपाई, दोहा, सवैया, कवित्त, हरिगीतिका आदि छन्द हैं।
  11. शैली मुख्य रूप से गेय है।
  12. उपमा, अनुप्रास, रूपक, अतिशयोक्ति आदि अलंकार हैं।
  13. शृंगार, शान्त, अद्भुत आदि इस प्रवाहित हुए हैं।

प्रमुख कविः सुरदास, कुंभनदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, नन्ददास, मीरा, रसखान आदि।।

हिन्दी साहित्य का इतिहास उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल)

प्रश्न 6.
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) का सामान्य परिचय देते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
हिन्दी साहित्य के रीतिकाल का युग सामन्तों और राजाओं का युग था। फलस्वरूप इस काल के अधिकांश कवि राजाश्रित थे। यही कारण है कि उनकी रचनाओं की प्रमुख प्रवृत्ति रीति निरूपण और श्रृंगार थी। रीतिकाल के कवियों की यह भी विशेषता थी कि उन्होंने प्रायः काव्यशास्त्र के लक्षणों को समझाने के लिए काव्य रचना की। उन्होंने रस, छन्द, अलंकार आदि का विवेचन करने वाले ग्रन्थों को रीतिग्रन्थ कहा जाता है। ऐसे रीतिग्रन्थों की भरमार के कारण ही इस युग को रीतिकाल कहा गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल को उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल कहा है। उनके इस नामकरण को ध्यान रखकर व अपने अध्ययन-मनन के द्वारा कुछ विद्वानों ने शृंगार काल, अलंकृत काल, काव्यकला काल और रीति शृंगार काल आदि नाम दिए। रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि केशव, भूषण, पद्माकर, बिहारी और बोधा का सम्बन्ध मध्यप्रदेश से रहा है। इन कवियों के बगैर रीतिकाल अधूरा-सा लगता है। इसीलिए रीतिकाल को मध्यप्रदेश की देन कहा जाता है।

रीतिकाल में तीन धाराएँ प्रवाहित हुई है। जिन कवियों ने काव्य-रीतियों का पालन करते हुए अनेकानेक ग्रन्थों की रचना की उनकी इस धारा को रीतिबद्ध काव्य धारा कहा गया। इस प्रकार धारा के कवियों में केशव, सेनापति, देव, भूषण, पद्माकर मतिराम आदि हैं। इस रीतिबद्ध काव्य धारा के समानान्तर इसमें प्रेम और सौन्दर्य वर्णन की एक ऐसी धारा भी प्रवाहित हुई। उसने रीति के पालन की प्रायः उपेक्षा की। इस धारा के कवियों में घनानन्द, बोधा, ठाकुर, और आलम आदि का नाम उल्लेखनीय है। यह धारा रीति मुक्त काव्य धारा के नाम से जानी गई। काल में एक तीसरी धारा भी प्रवाहित हुई। उसे रीति सिद्ध काव्य धारा नाम दिया गया। बिहारी इस रीति सिद्ध धारा के कवि कहे गए हैं। इस प्रकार रीतिकालीन काव्य की तीन धाराएं हैं :
1. रीतिबद्ध काव्य धारा
2. रीतिमुक्त काव्यधारा
3. रीतिसिद्ध धारा प्रधान है।

विशेषताएँ-

  1. लक्षण ग्रन्थों की प्रधानता।
  2. इस काल के काव्य में शृंगार रस के दोनों रूपों की प्रधानता रही।
  3. प्रकृति-चित्रण उद्दीपन में किया गया।
  4. भक्ति-भावना (राधा-कृष्ण) को स्थान दिया गया।
  5. नीति-उपदेश को प्रमुखता दी गई।
  6. मुक्तक कविता होने के कारण कवित्त, सवैया, दोहे आदि छन्दों को कवियों ने अधिक अपनाया।
  7. राजा के आश्रितता के कारण कवियों में मौलिकता का अभाव रहा।
  8. भाषा ब्रजभाषा रही।।

प्रमुख कवि : केशव दास, चिन्तामणि, मतिराम, देव, रसलीन, प्रताप सिंह, पद्माकर, जसवन्त सिंह, श्रीपति, भिखारीदास, रसिक गोविन्द, बिहारी और बोधा आदि।

हिन्दी साहित्य का इतिहास आधुनिक काल

प्रश्न 7.
आधुनिक काल का सामान्य परिचय देते हुए उसके भेद बताइए।
उत्तर
आधुनिक काल का उदय रीतिकालीन मूल्यहीनता, रूढ़िवादिता जड़ता,और नैतिक हीनता के विरोध में हुआ। इस प्रकार जो नया क्रम जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आरम्भ हुआ, उसे आधुनिक काल कहा गया।
भेद-प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर आधुनिक काल को निम्नलिखित युगों में बाँटा जा सकता है

  1. भारतेन्दु युग (पुनर्जागरण काल) : सन् 1857 से 1900 ई.
  2. द्विवेदी युग (जागरण सुधार काल): सन् 1900 से 1918 ई.
  3. छायावाद युग : सन् 1918 से 1938 ई.
  4. छायावादोत्तर काल
    • प्रगति प्रयोगकाल : सन् 1938 से 1953 ई.
    • नई कविता या नवलेखक काल : सन् 1953 से अब तक

1. भारतेन्दु युग:
बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी युग के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने हिन्दी की प्रत्येक विधा का सूत्रपात किया। भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना हो जाने से हिन्दी कविता ने नई मोड़ ली। उस हमारे देश में सामाजिक सुधार व राष्ट्रीय उत्थान के प्रयास जोर पकड़ रहे थे। राजा राममोहन राय और स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों ने रूढ़िवाद को दूर किया। रीतिकालीन काव्य परम्पराएं विलीन होने लगीं। सन 1857 के विद्रोह ने राष्ट्रीयता की तीव्र लहर फैला दी। नए विचार, नई शैली और नई भाषा का आन्दोलन चल पड़ा। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पूर्वाग्रह के विरोधी थे। उन्हीं से हिन्दी कविता का वर्तमान युग प्रारम्भ होता है। भारतेन्दु हिन्दी को स्वस्थ रूप देने के लिए ‘भारतेन्दु मण्डल’ की स्थापना की। भारतेन्दु तथा भारतेन्दु मण्डल के कवियों में राष्ट्रीयता और देश-प्रेम का तीव्र स्वर सुनाई पड़ता है। भारतेन्दु युग के कवियों में .अम्बिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र, ठाकुर जगमोहन सिंह, श्री निवासदास, राधाचरण गोस्वामी और बद्रीनारायण चौधरी प्रमुख हैं।

2. द्विवेदी युग :
भारतेन्दु युग के बाद द्विवेदी युग का उदय हुआ। द्विवेदी युग के काव्य में राष्ट्रीयता और सामाजिकता की प्रवृत्ति अधिक तीव्र,थी। द्विवेदी युग में ब्रज भाषा के स्थान पर काव्य में खड़ी बोली सुशोभित हो गई। इस प्रकार खड़ी बोली के रचनाकारों में आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, राम चरित उपाध्याय, नाथूराम शर्मा शंकर, रामनरेश त्रिपाठी, जगन्नाथदास रत्नाकर, सत्य नारायण, कविरत्न, श्रीधर पाठक, लोचन प्रसाद पांडेय, डॉ. गोपाल शरण सिंह, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, आदि द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हैं। द्विवेदी युग की कविता पर स्वतन्त्रता आन्दोलन और गाँधी विचारधारा का विशेष प्रभाव पड़ा। प्रिय प्रवास और साकेत इस युग के प्रमुख महाकाव्य हैं।

3. छायावाद और छायावादोत्तर युग :
द्विवेदी युग में द्विवेदी युग की प्रतिक्रियास्वरूप ही छायावाद और रहस्यवाद हिन्दी काव्य क्षेत्र में आया। प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी का नाम इस क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय है। छायावादी युग में प्रकृति को आलम्बन के रूप में ग्रहण किया गया और गीत काव्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। छायावादी कवियों ने कविता को छन्द के नियमों से मुक्त किया। कामायनी, छायावादी काव्यधारा का प्रमुख काव्य है। आधुनिक काल में सत्यनारायण कविरत्न, जगन्नाथ दास रत्नाकर और वियोगी हरि ने ब्रज भाषा में सरस काव्य की रचनाएँ कीं।

प्रगतिवाद, छायावाद की प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दी प्रगतिवाद का उदय हुआ। राष्ट्रीयता, मानवीय संवेदना, समाज सुधार, समाजवादी व्यवस्था आदि क्रांतिवादी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं। किसान और मजदूरों की समस्याओं के समाधान में कविगण रूसी-साहित्य से भी प्रभावित हैं। राजनीति का साम्यवाद ही साहित्य में प्रगतिवाद बन गया है। प्रमुख रूप से प्रगतिवादी कवियों में डॉ. रामविलास शर्मा, सुमित्रानन्दन पंत, निराला, नागार्जुन, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, शिव मंगल सिंह ‘सुमन’, नरेन्द्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल आदि हैं।

प्रयोगवाद:
अज्ञेय के नेतृत्व में प्रयोगवाद की नवीनतम धारा भी काव्य क्षेत्र में प्रवाहित हुई। इसके प्रमुख कवि गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद मिश्र भारतभूषण अग्रवाल, नेमिचन्द्र जैन, गजानन माधव मुक्तिबोध, नरेश मेहता, शमशेरबहादुर सिंह, रघुवीर सहाय, रमेश कुंतल मेघ आदि हैं। राष्ट्रीय विचारधारा के कवियों में पं. माखन लाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि प्रमुख हैं।

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प्रश्न 8.
गद्य की प्रमुख विधाएँ बतलाइए और उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर
गद्य की प्रमुख विधाएँ : आचार्य रामचन्द्र सहित सभी आलोचकों ने आधुनिक काल को गद्यकाल की संज्ञा दी है। यह इसलिए कि इस काल में गद्य की शुरुआत हुई। यह ध्यातव्य है कि इस काल में पद्य साहित्य भी अधिक मात्रा में रचा गया। इसलिए इसे गद्यकाल के स्थान पर आधुनिक काल कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।

गद्य साहित्य का विकास वैसे तो हिन्दी साहित्य के उदय के साथ ही माना जा सकता है। जो प्रामाणिक नहीं है। इसलिए लिखित गद्य साहित्य का प्रादुर्भाव 1850 के बाद स्वीकार किया जाता है। 1850 के पूर्व पद्य साहित्य ही लिखा जाता था। गद्य साहित्य ने केवल एक शताब्दी में ही विकास के अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं और यही कारण है कि आज गद्य साहित्य की अनेक विधाओं से हम परिचित हैं। गद्य का अर्थ है बोलना, बताना या कहना। अतएव दैनिक जीवन में गद्य का ही प्रयोग होता है। गद्य की प्रमुख विधाएँ निम्नलिखित हैं :

  1. निबन्ध
  2. नाटक
  3. कहानी
  4. उपन्यास
  5. एकांकी
  6. रेखाचित्र
  7. संस्मरण
  8. रिपोर्ताज
  9. यात्रा-वृत्तान्त
  10. जीवनी।

1. निबन्ध
निबन्ध का अर्थ है : बन्धन युक्त करना अथवा बाँधना। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि निबन्ध में भावों तथा विचारों को सुव्यवस्थित, सुसंगठित रूप से बाँधा जाता है। इसके द्वारा विषय का गम्भीर विवेचन तथा नवीन तथ्यों के अन्वेषण को प्रस्तुत किया गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार-“यदि पद्य कवियों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।” बाबू गुलाब राय के विचार में निबन्ध उस गद्य रचना को कहते हैं, जिसमें सीमित आकार के भीतर, किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन, एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव, सजीवता, तथा आवश्यक संगति और सम्बद्धता के साथ किया गया है।

निबन्धकार को किसी भी बात को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रस्तुत करने की स्वतन्त्रता रहती है। इसमें निबन्धकार का व्यक्तित्व ही उसका प्रमुख तत्त्व होता है।

निबन्ध सामान्यतः चार प्रकार के होते हैं

  1. विवरणात्मक
  2. वर्णनात्मक
  3. विचारात्मक
  4. भावात्मक।

हिन्दी में निबन्ध का विकास, आधुनिक काल में ही हुआ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाबराय, सरदार पूर्ण सिंह, बाबू श्याम सुन्दर दास, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नन्द दुलारे वाजपेयी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय की गणना हिन्दी के श्रेष्ठ निबन्धकारों में की जाती है।

2. नाटक :
नाटक दृश्य काव्य श्रव्य काव्य दोनों ही है। इसका प्रदर्शन रंगमंच पर ही हो सकता है। जिसे दर्शक-श्रोता देखकर-सुनकर रसमग्न होते हैं। नाटक एक ऐसा साहित्य रूप है जिसमें रंगमंच पर पात्रों के द्वारा किसी कथा का प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शन अभिनय, दृश्य सज्जा, संवाद, नृत्य, गीत आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। नाटक के सात तत्त्व माने जाते हैं :

  1. कथावस्तु
  2. पात्र और चरित्र-चित्रण
  3. कथोपकथन
  4. देशकाल और वातावरण
  5. अभिनेयता एवं रंगमंच निर्देश
  6. भाषा-शैली
  7. उद्देश्य।

हिन्दी के प्रमुख नाटककारों में भारतेन्दु, हरिश्चन्द्र, लाला श्रीनिवासदास, राधाकृष्णदास, किशोरीलाल गोस्वामी बालकृष्णभट्ट प्रतापनारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, गोविन्द वल्लभ पन्त, जी.पी श्रीवास्तव, लक्ष्मी नारायण मिश्र, वृन्दावनलाल वर्मा, सेठ गोविन्ददास, उदयशंकर भट्ट, धर्मवीर भारती, उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

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3. एकांकी:
एकांकी एक ही अंक का नाटक होता है इसलिए इसे एकांकी कहते हैं, पर इसके एक से अधिक दृश्य हो सकते हैं, पर एकांकी, नाटक का लघु संस्कृरण मात्र न होकर, अपनी निजी सत्ता रखने वाली साहित्य की एक स्वतन्त्र विधा होती है। डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार एकांकी में एक ही घटना होती है और वह नाटकीय कौशल से कौतूहल का संचय करते हुए चरमसीमा तक पहुँचती है। इसमें कोई गौण प्रसंग नहीं रहता है। पात्र सीमित होते हैं। कथावस्तु भी स्पष्ट और कौतूहल से युक्त होती है, उसमें विस्तार के लिए अवकाश नहीं होता। एकांकी के सात तत्त्व हैं

  1. कथावस्तु
  2. पात्र और चरित्र-चित्रण
  3. कथोपथन
  4. देशकाल एवं वातावरण
  5. अभिनेयता एवं रंगमंच निर्देश
  6. भाषा-शैली
  7. उद्देश्य।

हिन्दी के प्रमुख एकांकीकारों में भारतेन्दु हरिचन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद, भुवनेश्वर, सेठ गोविन्ददास, रामनरेश त्रिपाठी, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, डॉ. रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेन्द्र नाथ अश्क जगदीश चन्द्र माथुर भगवतीचरण वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, भारत भूषण अग्रवाल, नरेश मेहता, चिरंजीत, मोहन राकेश, विष्णु ‘प्रभाकर’, प्रभाकर माचवे आदि का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है।

4. कहानी :
कहानी को परिभाषित करते हुए बाबू गुलाब राय लिखते हैं-“छोटी कहानी एक स्वतः पूर्ण रचना है, जिसमें प्रभावों वाली व्यक्ति केन्द्रित घटना या घटनाओं का आवश्यक परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्याशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला कौतूहलपूर्ण वर्णन हो”। कहानी के छः तत्त्व होते हैं :

  1. कथावस्तु
  2. पात्र और चरित्र-चित्रण
  3. संवाद
  4. देशकाल व वातावरण
  5. शैली
  6. उद्देश्य।

कहानी में एक ही प्रमुख पात्र के इर्द-गिर्द सारी घटना घूमती रहती है। इसका आकार संक्षिप्त होता है। लघुता और तीव्रता कहानी कला की मुख्य विशेषता है।
तत्त्वों के आधार पर कहानी के चार प्रमुख भेद हैं :

  1. घटना प्रधान
  2. वातावरण प्रधान
  3. चरित्र-प्रधान
  4. भाव-प्रधान।

हिन्दी कहानीकारों में भारतेन्दु, मुंशी प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, फणीश्वर नाथ रेणु, सुदर्शन, जैनेन्द्र, अज्ञेय, कमेलश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, शैलेश मटियानी, जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, भगवती चरण वर्मा, यशपाल, शिव प्रसाद सिंह, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, अमरकान्त, मालती जोशी, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन, महेश कटारे, उदय प्रकाश आदि का योगदान प्रशंसनीय रहा है।

5. उपन्यास :
‘उपन्यसेत इति उपन्यास’ परिभाषा के अनुसार उपन्यास शब्द का अर्थ है-सामने रखना है। डॉ. भागीरथ मिश्र के अनुसार-“युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली में स्वाभाविक जीवन की एक पूर्ण झाँकी प्रस्तुत करने वाला गद्य काव्य उपन्यास कहलाता है।” मुंशी प्रेमचन्द का कथन है-मैं उपन्यास को मानव-जीवन का चित्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। उपन्यास के छह तत्त्व पाए जाते हैं

  1. कथावस्तु
  2. चरित्र-चित्रण
  3. संवाद
  4. देशकाल या वातावरण
  5. शैली
  6. उद्देश्य।

हिन्दी में उपन्यास लेखन तो भारतेन्दु युग से ही प्रारम्भ हो गया था, लेकिन प्रेमचन्द्र (1880-1936 ई.) के उपन्यासों में इस विधा ने अभूतपूर्व व्यापकता और गम्भीरता प्राप्त की। प्रेमचन्द की संवेदना अत्यन्त व्यापक थी। उपन्यास विधा के चरम उत्कर्ष के लिए जिस सहज भाषा-शैली की आवश्यकता होती है वह भी प्रेमचन्द के पास थी। मुंशी प्रेमचन्द को तो उपन्यास सम्राट की संज्ञा दी गई है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा, आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ जानना चाहते हैं तो प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। हिन्दी के उपन्यासकारों में श्रीनिवास दास, राधाकृष्णदास, देवकीनंदन खत्री, गोपाल राय गहपरी, किशोरी लाल गोस्वामी मुंशी प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी, नागार्जुन, भगवती चरण वर्मा, भगवती प्रसाद वाजपेयी, फणीश्वरनाथ रेणु, शैलेश मटियानी, शिव प्रसाद सिंह, अज्ञेय, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, चतुरसेन शास्त्री, भीष्म साहनी, कृष्णा सोवती, राही मासूम रजा, मनोहर श्याम जोशी, यशपाल, श्रीलाल शुक्ल, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर आदि के नाम महत्त्वपूर्ण है।

6. जीवनी
जीवन आधुनिक गद्य-विधा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इसमें सम्पूर्ण जीवन की व्याख्या प्रत्यक्ष एक वास्तविक रूप में मिलती है। जीवनी लेखक अपने चरित्र नायक , के अन्तर और बाह्य स्वरूप का चित्रण कलात्मक ढंग से करता है। जीवनी लेखक अपने चरित्र नायक के जीवन का रोचक ढंग से चित्रण प्रस्तुत करता है ताकि प्रस्तुत घटनाओं के प्रकाश में उसका व्यक्तित्व उभर सके।

हिन्दी के प्रमुख जीवनी लेखक प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, पण्डित बनारसीदास, सत्यदेव विद्यालंकार, सेठ गोविन्द दास, बाबू श्यामसुन्दर दास, हरिभाऊ उपाध्याय, काका कालेलकर, जैनेन्द कुमार, राहुल सांस्कृत्यायन, अज्ञेय, भदन्त आनन्द कौसल्यायन, रामवृक्ष बेनीपुर, महादेवी वर्मा, अमृतराय, डॉ. रामविलास शर्मा, विष्णु प्रभाकर, विष्णु चन्द्र वर्मा, शान्ति जोशी आदि।

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7. आत्म कथा :
आत्मकथा किसी व्यक्ति की स्वलिखित जीवन-गाथा है। आत्मकथा लिखकर लेखक आत्म-परिक्षण एवं आत्म-परिष्कार करना चाहता है, जिसमें उसके अनुभवों का लाभ संसार के अन्य लोग भी ले सकें। हिन्दी की प्रमुख आत्मकथाएं इस प्रकार हैं :

  1. भारतेन्दु हरिश्चन्द – कुछ आप बीती, कुछ जग बीती
  2. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी – मेरी जीवन गाथा
  3. डॉ. श्याम सुन्दर दास – मेरी आत्मा कहानी
  4. बाबू गुलाबराय – मेरी असफलताएँ
  5. राहुल सांस्कृत्यायन – मेरी जीवन यात्रा
  6. आचार्य चतुरसेन शास्त्री – मेरी आत्म कहानी
  7. स्वामी श्रद्धानन्द – कल्याण मार्ग का पथिक
  8. भाई परमानन्द – आप बीती
  9. हरिवंशराय बच्चन – क्या भूलूँ क्या याद करूँ
  10. जवाहरलाल नेहरू – मेरी कहानी
  11. राजेन्द्र प्रसाद – आत्मकथा
  12. यशपाल – सिंहावलोकन
  13. डॉ. रामविलास शर्मा – मैं क्रान्तिकारी कैसे बना
  14. भवानी दयाल संन्यासी – प्रवासी की कहानी
  15. राजाराम – मेरी कहानी
  16.  ओमप्रकाश वाल्मीकी – जूठन।

8. संस्मरण :
जीवनी का एक अन्य रूप संस्मरण है। संस्मरण का अर्थ है-सम्यक स्मरण। इस विधा में लेखक स्वयं अपनी अनुभूति किसी वस्तु, व्यक्ति या घटना का आत्मीयता तथा कलात्मकता के साथ विवरण प्रस्तुत करता है। इसलिए आत्मकथा की अपेक्षा संस्मरण लिखना आसान होता है। संस्मरण का सम्बन्ध प्रायः महापुरुषों से होता है संस्मरण लेखक जब अपने विषय में लिखता है तो उसकी रचना आत्मकथा में प्रक होती है और जब दूसरे के विषय में लिखता है तो जीवनी कहलाती है।

हिन्दी में संस्मरण लेखन का प्रथम श्रेय श्री पद्म सिंह शर्मा को है। राहुर सांस्कृत्यायन, बनारसीदास चतुर्वेदी, अज्ञेय, देवेन्द्र सत्यार्थी, डॉ. नगेन्द्र, यशपाल, श्र रामकृष्णदास तथा रामवृक्ष बेनीपुरी ने अनेक संस्मरण लिखे हैं। हिन्दी के कुछ उल्लेखनीय संस्मरण निम्नलिखित हैं

  1. देवेन्द्र सत्यार्थी-राहुल सांस्कृत्यायन
  2. श्रीराम शर्मा-खूनी बँटवारा
  3. मुंशी महेश प्रसाद-मेरी ईरान यात्रा
  4. सत्यदेव परिव्राजक-अमरीका भ्रमण
  5. भदन्त आनन्द कौसल्यायन-जो भूल न सका
  6. शिवरानी प्रेमचन्द-प्रेमचन्द : घर में
  7. कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ -भूले हुए चेहरे
  8. महादेवी वर्मा-‘स्मृति की रेखाएँ’ व ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’।

इनके अतिरिक्त संस्मरण साहित्य का बहुत बड़ा भाग अभिनन्दन ग्रन्थों में संकलित हैं।

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