MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 9 जीवन दर्शन

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 9 जीवन दर्शन

जीवन दर्शन अभ्यास

बोध प्रश्न

जीवन दर्शन अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘काँटे कम से कम मत बोओ’ का क्या आशय है?
उत्तर:
इस पंक्ति का आशय यह है कि यदि तुमसे दूसरों की भलाई न हो सके तो कम-से-कम दूसरों के लिए मुसीबतें तो मत खड़ी करो।

प्रश्न 2.
भय से कातर होने पर मनुष्य की स्थिति कैसी हो जाती है?
उत्तर:
भय से कातर होने पर मनुष्य की स्थिति बड़ी ही दयनीय हो जाती है।

प्रश्न 3.
जीवन का सच क्या है?
उत्तर:
जीवन का सच मात्र संघर्ष है।

प्रश्न 4.
जीवन मार्ग में काँटे और कलियाँ क्या हैं?
उत्तर:
जीवन मार्ग में काँटे से अभिप्राय संकट और मुसीबतों से है तथा कलियों से अभिप्राय सुख-सम्पन्नता से है।

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जीवन दर्शन लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि अंचल के अनुसार दुनिया की रीति क्या
उत्तर:
कवि अंचल के अनुसार दुनिया की रीति यह है कि यातना तो शरीर सहता है पर रोता मन है। उसी तरह इस संसार में करता कोई है और भोगता कोई है। समाज में भी प्रायः यह देखा जाता है कि सम्पन्न लोगों की गलतियों का परिणाम निरीह गरीब लोगों को भोगना पड़ता है।

प्रश्न 2.
“संकट में यदि मुस्का न सके” भय से कातर हो मत रोओ” पंक्ति में कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर:
इस पंक्ति में कवि यह कहना चाहता है कि मनुष्य में इतना आत्मबल नहीं है कि वह संकट में मुस्करा न सके तो उसे भय से कातर होकर रोना भी नहीं चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से उसके व्यक्तित्व की दुर्बलता प्रकट होती है।

प्रश्न 3.
गुप्तजी ने जीवन का संदेश किसे माना है और क्यों?
उत्तर:
श्रीजगदीश गुप्त ने जीवन का यह संदेश दिया है कि मनुष्य को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे उसका जीवन जड़वत् न रह जाए। जीवन में चाहे कैसी भी विपत्तियाँ आएँ अथवा सुखसम्पन्नता आए, मनुष्य को अपने लक्ष्य से डिगना नहीं चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति ही अपनी मंजिल को पा सकता है।

प्रश्न 4.
गुप्ता जी ने अपने हृदय को सशक्त बनाने के लिए क्या मार्ग सुझाया है?
उत्तर:
कवि ने अपने हृदय को सशक्त बनाने के लिए निरन्तर संघर्ष का मार्ग चुनने का उपदेश दिया है। जो व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने के लिए निरन्तर संघर्षशील रहता है वही मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करता है।

जीवन दर्शन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“काँटे कम-से-कम मत बोओ” कविता की केन्द्रीय भावना लिखिए।
उत्तर:
इस कविता का केन्द्रीय भाव यह है कि मानव को कभी भी अपने आपको दुर्बल नहीं समझना चाहिए। हमें जीवन पूरी जिन्दादिली से जीना चाहिए। यदि हम दूसरों के जीवन में सुख के फूल नहीं उगा सकते तो कम-से-कम हमें उनके मार्ग में काँटे तो नहीं बोना चाहिए। कहने का भाव यह है कि यदि बन सके तो दूसरों का हित करो उनको दुःख मत दो।

प्रश्न 2.
‘वह जिन्दगी क्या जिन्दगी जो सिर्फ पानी सी बही’ कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति का आशय यह है कि मनुष्य को परिस्थितियाँ अपने अनुकूल बनाने के लिए संघर्ष करना चाहिए न कि परिस्थितियों से हार मानकर चुप बैठ जाना चाहिए। व्यक्ति को पानी के उस स्वभाव को त्याग देना चाहिए कि जिधर भी ढलान मिले उधर बह ले। मनुष्य में तो इतनी सामर्थ्य है कि वह अपना मार्ग स्वयं बना लेता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित काव्यांश का भावार्थ स्पष्ट कीजिए-
(अ) यदि बढ़ न सको……………………मत बोओ।
उत्तर:
कवि का कथन है कि संकल्प बाहरी दुनिया के आडम्बर से उत्पन्न नहीं होता, यह तो मन के भीतर स्वतः उपजता है। यदि हम कुछ नया करना चाहते हैं तो इससे हमारी परेशानियाँ बढ़ती ही हैं, इससे हमारे कष्ट कम नहीं होते हैं।

यदि हमारे मन में थोड़ा-सा भी सन्देह रहता है तो उस सूक्ष्म अन्धकार में विश्वास की जड़ें जमती नहीं हैं। अतः विश्वास को मजबूत बनाने के लिए सन्देह के अन्धकार को बिल्कुल नष्ट कर देना चाहिए। हमें अपने विश्वास को इस प्रकार दृढ़ करना चाहिए जैसे बादलों के बीच हवा का जयघोष मुखर रहता है। कहने का भाव यह है कि जब बादल गर्जना करते हैं तब हमें हवा की स्थिति ज्ञात होती है। यदि तुम अपने मन में विश्वास को नहीं जगा सकते तो इस प्रकार का जीवन तुम्हारा व्यर्थ है। बिना विश्वास के तो जीवन इस प्रकार है जैसे श्वांस तो चल रही हो पर शरीर मृत अवस्था में हो। यदि तुम फूल नहीं बो सकते तो संसार में दूसरों के लिए काँटे मत बोओ।

(आ) है अगम चेतना………………….स्वयं शमन।
उत्तर:
कविवर अंचल जी कहते हैं कि हे मनुष्यो! यदि तुम दूसरों के लिए फूल नहीं बो सकते हो तो कम-से-कम उनके लिए काँटे मत बोओ। भाव यह है कि यदि आप दूसरों का हित नहीं कर सकते तो कम-से-कम दूसरों की उन्नति में रुकावट तो मत बनो।

यह संसार अगम्य चेतना की घाटी है और संसारी मनुष्य बड़ा ही कमजोर होता है। जब मनुष्य अपने कार्यों से समाज में ममता की शीतल छाया बिखेरता है तो उससे स्वयं ही कटुता का शमन हो जाता है। जिस समय विपत्ति की ज्वालाएँ घुल जाती हैं तब जीवन के मुँदै हुए नेत्र स्वतः खुल जाते हैं। कहने का भाव यह है कि जब विपत्ति का बुरा समय बीत जाता है तो मानव के हृदय में स्वयं आनन्द की वर्षा होने लगती है और उस समय प्राणों का दुखी पवन निर्मलता धारण कर शान्ति से बहता रहता है।

हे मनुष्यो! यदि तुम संकट की दशा में मुस्करा नहीं सकते हो तो कम-से-कम भय से व्याकुल होकर रोओ तो मत। कहने का भाव यह है कि यदि तुममें इतना साहस और बल नहीं है कि संकट की दशा में भी तुम मुस्करा नहीं सकते हो तो कम-से-कम इतना साहस तो अपने में संचित करो कि भय से व्याकुल होकर रोओ मत अपितु उसका वीरता से सामना करो। यदि तुम दूसरों के जीवन में फूलरूपी खुशी नहीं भर सकते हो तो कम-से-कम इतना तो करो ही कि दूसरों के मार्ग में अथवा कार्य में उनके बाधक मत बनो।

(इ) सच हम नहीं…………………हमको पोंछना।
उत्तर:
आगे कवि कहता है कि हमारे हृदय को किस बात से आनन्द प्राप्त हो सकता है, इस सत्य को हमें ही खोजना है। हमारे कष्ट किस प्रकार दूर हो सकते हैं, इसका समाधान भी हमें स्वयं करना है। बाहर का संसार हमें सुख नहीं दे सकता है। क्या हमारी सहायता आकाश करेगा या फिर पृथ्वी हमारी इस दीन दशा पर आँसू बहायेगी अर्थात् कदापि नहीं। हमें तो उसी रास्ते को चुनना है जिससे हमें ऊर्जा और उत्साह मिले। वास्तव में न सच हम हैं और न सच तुम हो अपितु सच तो मात्र संघर्ष ही है और इसी संघर्ष से मानव के जीवन में उत्कर्ष आता है।

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जीवन दर्शन काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिएहार, बड़ा, विश्वास, अपना।
उत्तर:

शब्द विलोम
हार जीत
बड़ा छोटा
विश्वास अविश्वास
अपना पराया

प्रश्न 2.
वर्तनी सुधारिए-
उत्तर:
निरमल = निर्मल, घाटि = घाटी, विसवास = विश्वास, मरत = मृत्यु, कलीयां = कलियाँ।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पंक्तियों में निहित भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(क) मत याद करो………………….बीता जीवन।
उत्तर:
इस पंक्ति में यह भाव निहित है कि तुम्हारे जीवन में जो भी विपत्तियाँ या संकट आए हैं उन्हें न तो तुम याद करो और न ही उनके विषय में सोचो। अपने जीवन को सुखी रखने का यही एक मंत्र है।

(ख) यदि बढ़ न सको ………….. मत ढोओ।
उत्तर:
इस पंक्ति का भाव यह है कि यदि मनुष्य के मन में कुछ करने का विश्वास नहीं है तो उसका जीवन मृतक के समान है। वह केवल सांसों से अपने मृत शरीर को ढो रहा है।

(ग) जो नत हुआ …………. झरकर कुसुम।
उत्तर:
इस पंक्ति का भाव यह है कि जिस व्यक्ति ने परिस्थितियों से हार मान ली वह मृतक के समान है। जिस प्रकार डाली से झड़कर पुष्प सूख जाता है उसी प्रकार बिना संघर्ष के मनुष्य का जीवन भी सूख जाता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए

  1. अनसुना, अनचीन्हा करने से संकट का वेग नहीं कमता।
  2. जो नत हुआ वह मृत हुआ, ज्यों वृत्त से झरकर कुसुम।
  3. वह जिन्दगी क्या जिन्दगी जो सिर्फ पानी-सी बही।

उत्तर:

  1. अनुप्रास अलंकार
  2. उपमा अलंकार
  3. उपमा अलंकार।

काँटे कम से कम मत बोओ संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

यदि फूल नहीं बो सकते तो
काँटे कम से कम मत बोओ!
है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बड़ा मानव का मन,
ममता की शीतल छाया में होता, कटुता का स्वयं शमन!
ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदै नयन,
होकर निर्मलता में प्रशान्त बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन!
संकट में यदि मुस्का न सको, भय से कातर हो मत रोओ!
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ! ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
फूल = खुशियों का, अच्छे कामों का प्रतीक है; काँटे = राह में रोड़े अटकाने, दूसरों को दुःख पहुँचाने का प्रतीक है; अगम = पहुँच से परे; कटुता = कड़वेपन का, बुराइयों का; शमन = नाश; क्षुब्ध = दुःखी; कातर = डरपोक।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश जीवन-दर्शन’ पाठ के ‘काँटे कम से कम मत बोओ’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता ‘रामेश्वर शुक्ल अंचल’ हैं।

प्रसंग :
इस काव्यांश में कवि ने बताया है कि मनुष्य को कभी भी दूसरों की उन्नति में बाधक न बनकर साधक बनना चाहिए। यही जीवन की सार्थकता है।

व्याख्या :
कविवर अंचल जी कहते हैं कि हे मनुष्यो! यदि तुम दूसरों के लिए फूल नहीं बो सकते हो तो कम-से-कम उनके लिए काँटे मत बोओ। भाव यह है कि यदि आप दूसरों का हित नहीं कर सकते तो कम-से-कम दूसरों की उन्नति में रुकावट तो मत बनो।

यह संसार अगम्य चेतना की घाटी है और संसारी मनुष्य बड़ा ही कमजोर होता है। जब मनुष्य अपने कार्यों से समाज में ममता की शीतल छाया बिखेरता है तो उससे स्वयं ही कटुता का शमन हो जाता है। जिस समय विपत्ति की ज्वालाएँ घुल जाती हैं तब जीवन के मुँदै हुए नेत्र स्वतः खुल जाते हैं। कहने का भाव यह है कि जब विपत्ति का बुरा समय बीत जाता है तो मानव के हृदय में स्वयं आनन्द की वर्षा होने लगती है और उस समय प्राणों का दुखी पवन निर्मलता धारण कर शान्ति से बहता रहता है।

हे मनुष्यो! यदि तुम संकट की दशा में मुस्करा नहीं सकते हो तो कम-से-कम भय से व्याकुल होकर रोओ तो मत। कहने का भाव यह है कि यदि तुममें इतना साहस और बल नहीं है कि संकट की दशा में भी तुम मुस्करा नहीं सकते हो तो कम-से-कम इतना साहस तो अपने में संचित करो कि भय से व्याकुल होकर रोओ मत अपितु उसका वीरता से सामना करो। यदि तुम दूसरों के जीवन में फूलरूपी खुशी नहीं भर सकते हो तो कम-से-कम इतना तो करो ही कि दूसरों के मार्ग में अथवा कार्य में उनके बाधक मत बनो।

विशेष :

  1. कवि मनुष्य को सचेत करता है कि मानव का धर्म दूसरों को प्रसन्न करना है, न कि दुःखी करना।
  2. रूपक एवं प्रतीकों का सुन्दर चित्रण हुआ है।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।

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हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी का चन्दन,
मत याद करो, मत सोचो ज्वाला में कैसे बीता जीवन,
इस दुनिया की है रीति यही-सहता है तन, बहता है मन;
सुख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सका, वह है चेतन!
इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर मत सोओ!
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम-से-कम मत बोओ! ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
ज्वाला = प्रतीक है विपत्तियों का; मदिरा = शराब; चेतन = जाग्रत प्राणी; सेज बिछाकर मत – सोओ = अपने जीवन को अकर्मण्य मत बनाओ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि मानव अपने जीवन में जो भी. लक्ष्य निर्धारित कर ले उसे वह पूरे विश्वास के साथ प्राप्त करे।

व्याख्या :
कविवर अंचल कहते हैं कि तुमने अपने जीवन में जो भी स्वप्न बुने हैं अर्थात् लक्ष्य निर्धारित किए हैं, उन्हें तुम अवश्य प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनो। तुम अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लो कि चाँदनी के चन्द्र से उन्हें संतृप्त कर लो। कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार चाँदनी रात में चन्दन की सुगन्ध संसार को सुवासित कर देती है उसी प्रकार तुम भी अपने स्वप्नों को आशाओं की ज्योति से और उमंग की खुशियों से भर लो। तुम अपने कष्टमय अतीत को मत याद करो, न तुम यह सोचो कि तुमने इस संसार में कितने कष्ट सहे हैं क्योंकि यह तो संसार की रीति है कि यातना तो शरीर सहन करता है और रोता हमारा मन है।

अतः अपने मन को मजबूत करके विगत को भुलाकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाओ। यदि जीवन में कभी सुख प्राप्त होता है तो उस सुख की मदिरा में इतना उन्मत्त मत हो जाओ कि स्वयं का विवेक एवं होश भी खो बैठो। सुख में भी जो उन्मत्त नहीं होता वही मनुष्य जाग्रत माना जाता है। यदि तुम सुख में जाग्रत अथवा चेतन नहीं रह सकते तो इस तरह आराम से शैया बिछाकर सोने का भी तुम्हारा अधिकार नहीं है। यदि तुम दूसरों को फूल नहीं बो सकते अर्थात् उन्हें सुख प्रदान नहीं कर सकते तो उनकी राहों में काँटे बिछाने अर्थात् विपत्तियाँ उत्पन्न करने का भी तुम्हारा अधिकार नहीं है।

विशेष :

  1. कवि ने इस पद्यांश में सुख-दुःखे समं कृत्वा’ गीता के उपदेश को समझाया है।
  2. ‘इस दुनिया की है रीति यही, सहता है तन बहता है मन’-मन में विरोधाभास अलंकार।
  3. भाषा भावानुकूल।

पग-पग पर शोर मचाने से मन में संकल्प नहीं जमता,
अनसुना-अचीन्हा, करने से संकट का वेग नहीं कमता।
संशय के सूक्ष्म कुहासे में विश्वास नहीं क्षण-भर रमता,
बादल के घेरों में भी तो जय-घोष न मारुत का थमता।
यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों से मुरदे मत ढोओ,
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ! ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
पग-पग पर = कदम-कदम पर, प्रत्येक पल; अचीन्हा = न पहचाना हुआ; कमता = कम होना; जयघोष = विजय का स्वर; मारुत = पवन; मुरदे = मृतक; ढोओ = वहन करो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्

प्रसंग :
प्रस्तुत अंश में कवि का कथन है कि मनुष्य को अपना कार्य संकल्प के साथ करना चाहिए। संकल्प के लिए मन में विश्वास की आवश्यकता होती है। यह बाहर से नहीं, अपितु भीतर से प्राप्त होता है।

व्याख्या :
कवि का कथन है कि संकल्प बाहरी दुनिया के आडम्बर से उत्पन्न नहीं होता, यह तो मन के भीतर स्वतः उपजता है। यदि हम कुछ नया करना चाहते हैं तो इससे हमारी परेशानियाँ बढ़ती ही हैं, इससे हमारे कष्ट कम नहीं होते हैं।

यदि हमारे मन में थोड़ा-सा भी सन्देह रहता है तो उस सूक्ष्म अन्धकार में विश्वास की जड़ें जमती नहीं हैं। अतः विश्वास को मजबूत बनाने के लिए सन्देह के अन्धकार को बिल्कुल नष्ट कर देना चाहिए। हमें अपने विश्वास को इस प्रकार दृढ़ करना चाहिए जैसे बादलों के बीच हवा का जयघोष मुखर रहता है। कहने का भाव यह है कि जब बादल गर्जना करते हैं तब हमें हवा की स्थिति ज्ञात होती है। यदि तुम अपने मन में विश्वास को नहीं जगा सकते तो इस प्रकार का जीवन तुम्हारा व्यर्थ है। बिना विश्वास के तो जीवन इस प्रकार है जैसे श्वांस तो चल रही हो पर शरीर मृत अवस्था में हो। यदि तुम फूल नहीं बो सकते तो संसार में दूसरों के लिए काँटे मत बोओ।

विशेष :

  1. कवि ने जीवन में सन्मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी है।
  2. पग-पग में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
  3. संशय के सूक्ष्म कुहासे में रूपक अलंकार।
  4. भाषा भावानुकूल।

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सच है, महज संघर्ष ही संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

सच हम नहीं, सच तुम नहीं
सच है, महज संघर्ष ही।
संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृंत से झरकर कुसुम।
जो लक्ष्य भूल रुका नहीं।
जो हार देख झुका नहीं।
जिसने प्रणय पाथेय माना जीत उसकी ही रही।
सच हम नहीं सच तुम नहीं।
ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो हैं जहाँ चुपचाप अपने-आप से लड़ता रहे। ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
संघर्ष = मुकाबला; नत = झुका; वृंत= डंठल; कुसुम = फूल; प्रणय = प्रेम का; पाथेय = कलेवा।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘जीवन-दर्शन के अन्तर्गत ‘सच है, महज संघर्ष ही’ शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि जगदीश गुप्त जी हैं।

प्रसंग :
कवि ने यहाँ दर्शाया है कि संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष विहीन जीवन मृत्यु है।

व्याख्या :
कविवर गुप्तजी कहते हैं कि न हम सच हैं और न तुम, सच तो केवल संघर्ष ही है। अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहना ही वास्तविक जीवन है। यदि संच से हटकर हमने जीवन जिया तो क्या जिया। जो व्यक्ति संघर्षों के सम्मुख नत, होकर अर्थात् हार मानकर अपना सिर झुका लेता है तो वह उसी प्रकार मृतक के समान है जैसे कि डंठल से टूटा हुआ पुष्प। इस संसार में वही व्यक्ति जीवित माना जाता है जो अपने लक्ष्य को छोड़कर कभी रुकता नहीं है। जो व्यक्ति अपनी हार से समझौता नहीं करता अपितु जिसने अपने लक्ष्य को ही अपने प्रेम का कलेवा माना वही संघर्ष के लिए तत्पर रहता है और अंत में वही व्यक्ति जीत को प्राप्त करता है। अतः सच न हम हैं और न तुम। अतः हे मनुष्यो! तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे तुम्हारे प्राणों में कहीं भी जड़ता न रहे। जो भी व्यक्ति जिस भी स्थान पर है वह चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे, शान्त न रहे, थके नहीं।

विशेष :

  1. इस अंश में कवि ने संघर्ष को ही सच्चा जीवन माना है।
  2. सम्पूर्ण अनुप्रास की छटा, प्रणय-पाथेय में रूपक, ज्यों वृंत से झरकर सुमन में उपमा अलंकार।
  3. भाषा भावानुकूल है।

जो भी परिस्थितियाँ मिलें।
काँटे चुभे, कलियाँ खिलें।
हारे नहीं इंसान, है संदेश जीवन का यही।
सच हम नहीं सच तुम नहीं।
हमने रचा आओ हमी अब तोड़ दे मँझधार को।
जो साथ फूलों के चले।
जो ढाल पाते ही ढले।
वह जिन्दगी क्या जिन्दगी जो सिर्फ पानी-सी बही।
सच हम नहीं सच तुम नहीं।
संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।।
पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।। ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
काँटे चुभे = चाहे विपत्तियाँ आएँ; कलियाँ खिलें = जीवन में खुशहाली आए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस काव्यांश में कवि बताता है कि जो पानी के समान सरलता से बहता रहे वह कोई जिन्दगी नहीं है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि चाहे तुम्हारे मार्ग में काँटे चुभे या कलियाँ खिलें तुम्हें तो निरन्तर अपने पथ पर बढ़ते जाना है। कहने का भाव यह है कि चाहे तुम्हारे रास्ते में विपत्तियाँ आएँ या फिर सुख आएँ, तुम्हें किसी भी दशा में हार नहीं माननी है। न सच तुम हो, न सच हम हैं।

आगे कवि कहता है कि हमने जो कुछ भी आज तक रचा है उसे मँझधार में ही छोड़ देते हैं। जो फूलों के साथ चले और जो ढाल पाते ही ढल जाए तो ऐसी जिन्दगी किस काम की। जो जिन्दगी पानी के समान सरलता से बहने लगे वह भी कोई जिन्दगी है अर्थात् नहीं। वास्तव में न हम सच हैं और न तुम सच हो। आज सम्पूर्ण संसार आदमी की चाल देखकर आश्चर्यचकित हो रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि इनके नेत्रों में झाँकने से यह प्रतीत होता है कि ये सभी मनुष्य प्यासे और थके हुए हैं। इनमें से कोई भी अपने जीवन से संतुष्ट नहीं है।

विशेष :

  1. कवि ने जीवन में निरन्तर संघर्ष करने की प्रेरणा दी है।
  2. भाषा लाक्षणिक है।
  3. अनुप्रास की छटा है।

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जब तक बँधी है चेतना।
जब तक हृदय दुख से घना।
तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।
सच हम नहीं सच तुम नहीं।
अपने हृदय का सत्य अपने-आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
आकाश सुख देगा नहीं।
धरती पसीजी है कहीं?
जिससे हृदय को बल मिले है ध्येय अपना तो वही।
सच हम नहीं सच तम नहीं।
सच है महज संघर्ष ही। ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
चेतना = ज्ञानबुद्धि; राह = रास्ते को; नीर = आँसू पसीजी = पिघली, दया से द्रवित; ध्येय = लक्ष्य।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में कवि ने कहा है कि जिस उद्देश्य की पूर्ति से मनुष्य का हृदय संतुष्ट हो उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे निरन्तर संघर्षशील होना चाहिए।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जब तक हमारी चेतना जीवित है और जब तक हृदय दुःख से भारी बना हुआ है तब तक मैं इस रास्ते को कभी भी उचित नहीं मानूँगा। कहने का भाव यह है कि बिना लक्ष्य प्राप्ति जीवन में संतोष पा लेना मेरी नियति नहीं है। वास्तव में न सच हम हैं और न सच तम हो।

आगे कवि कहता है कि हमारे हृदय को किस बात से आनन्द प्राप्त हो सकता है, इस सत्य को हमें ही खोजना है। हमारे कष्ट किस प्रकार दूर हो सकते हैं, इसका समाधान भी हमें स्वयं करना है। बाहर का संसार हमें सुख नहीं दे सकता है। क्या हमारी सहायता आकाश करेगा या फिर पृथ्वी हमारी इस दीन दशा पर आँसू बहायेगी अर्थात् कदापि नहीं। हमें तो उसी रास्ते को चुनना है जिससे हमें ऊर्जा और उत्साह मिले। वास्तव में न सच हम हैं और न सच तुम हो अपितु सच तो मात्र संघर्ष ही है और इसी संघर्ष से मानव के जीवन में उत्कर्ष आता है।

विशेष :

  1. कवि ने संघर्ष में ही अपनी आस्था जताई है।
  2. अनुप्रास अलंकार की छटा।
  3. भाषा भावानुकूल है।

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