MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions गद्य Chapter 7 कर्म कौशल

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions गद्य Chapter 7 कर्म कौशल (निबन्ध, डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी)

कर्म कौशल अभ्यास

बोध प्रश्न

कर्म कौशल अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नैसर्गिक नियमों को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
व्यक्ति के जीवन को चलाने के लिए जो नैसर्गिक नियम बनाये गये हैं, उन्हें प्राकृतिक नियम कहा जाता है।

प्रश्न 2.
किस ग्रन्थ में विवेचित कर्म सिद्धान्त की विशिष्ट पहचान है?
उत्तर:
श्रीमद्भगवद्गीता में विवेचित कर्म सिद्धान्त जो सार्वकालिक, सार्वजनीय एवं सत्य से अनुप्राणित है, की आज विश्व में विशिष्ट पहचान है।

प्रश्न 3.
कर्ता को किस प्रकार का कार्य करना चाहिए?
उत्तर:
कर्ता द्वारा वही कार्य करना चाहिए जिसके कार्य का सम्पन्न होना उसके लिए लाभदायक हो।

प्रश्न 4.
किस कारण से मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है?
उत्तर:
अज्ञान एवं मिथ्या अभियान के कारण ही मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है।

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कर्म कौशल लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीव समुदाय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
ईश्वर की अनुपम रचना है-प्रकृति जिसमें सजीवनिर्जीव, सुन्दर-कुरूप, लाभदायक-हानिकारक, सत्-असत् आदि समस्त रचनाएँ आती हैं। इसी प्रकार प्रकृति जीव-समुदाय से परिपूर्ण है। अतः जीव समुदाय का तात्पर्य है-वृक्ष, वनस्पति, जीव-जन्तु और मानव संसृति। यहाँ पर लेखक के द्वारा प्रकृति में केवल सजीव वस्तुओं को ही लिया गया है।

प्रश्न 2.
कर्म के पाँच कारण कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर:
इस जीव-जगत् में कोई भी जीव (प्राणी) एक पल भी बिना कर्म के नहीं रह सकता और प्रत्येक कर्म का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। इसलिए गीता में कहा गया है कि सम्पन्न किए जाने वाले किसी भी कर्म के पाँच कारण होते हैं-अधिष्ठान, कर्ता, कारण, इन्द्रिय चेष्टाएँ तथा देव। सभी कर्म इन पाँच तत्वों के समूहीकरण के द्वारा उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 3.
युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए योगेश्वर ने अर्जुन से क्या कहा?
उत्तर:
युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि परिणाम पर दृष्टि न रखते हुए मनुष्य को अपना कर्म अत्यन्त श्रद्धा एवं पूर्ण समर्पण भाव से करना चाहिए क्योंकि मनुष्य कर्म का निमित्त मात्र है, कर्ता तो योगेश्वर हैं। जो संस्कार युक्त बुद्धि न होने के कारण यह समझे कि एक मैं ही कर्म का कर्ता हूँ, वह प्राणी की भूल है।

प्रश्न 4.
किस कारण से कर्ता का समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है?
उत्तर:
मनुष्य स्वाभाविक रूप से कर्म से बँधा है। वह कर्म किए बिना एक पल भी नहीं रह सकता, परन्तु जब मनुष्य केवल फल-प्राप्ति का चिन्तन करके कर्म करता है तो कर्ता का समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है। फल प्राप्त होने के पश्चात् वह उसी फल-भोग में उलझकर रह जाता है। इस प्रकार फल-प्राप्ति के चिन्तन और फल-भोग में उसका सारा समय नष्ट हो जाता है।

प्रश्न 5.
श्रेष्ठ व्यक्ति का चरित्र कैसा होता है?
उत्तर:
श्रेष्ठ व्यक्ति का चरित्र अन्य व्यक्तियों के लिए सदा ही अनुकरणीय अर्थात् अनुसरण करने के योग्य होता है और वही लोक में प्रमाण बन जाता है। अतः समाज के श्रेष्ठ व्यक्तियों को यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि वे कहीं अपने सद्कर्म से गिर तो नहीं गये हैं या भटक तो नहीं गये हैं। उन्हें सदैव सद्कर्मों पर अटल रहना चाहिए। श्रेष्ठ व्यक्तियों का चरित्र ही एक आदर्श समाज की रचना करता है।

कर्म कौशल दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सबसे प्रमुख सावधानी की ओर अर्जुन का ध्यान आकृष्ट करते हुए श्रीकृष्ण ने क्या कहा?
उत्तर:
गीताकार ने कर्म करते समय अर्जुन को अनेक सावधानियाँ बरतने के लिए कहा था जिसमें सबसे प्रमुख सावधानी की ओर कृष्ण ने अर्जुन का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था कि किसी सिद्धि और असिद्धि तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता में समान भाव रखकर मन, वाणी और क्रिया के पूर्ण भाव से युक्त होकर कर्म करे। तात्पर्य है कि कर्म का फल अच्छा हो या बुरा, यह सोचे बिना मन, वाणी और क्रिया के साथ कर्म करें। व्यक्ति का जीवन एक युद्ध के समान है अत: उसमें जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख-दुःख दोनों ही सम्भव हैं। इन दोनों बातों की परवाह किए बिना मोह को त्याग कर कर्म करना है। इसी निष्काम कर्म करने की सावधानी बरतने के लिए कृष्ण ने अर्जुन से कहा। कामना रहित या निष्काम कर्म करना ही प्रमुख सावधानी है और फल के प्रति समान भाव रखना भी, जिसे योग कहते हैं, प्रमुख सावधानी है।

प्रश्न 2.
फल प्राप्ति में सन्देह का प्रश्न किस स्थिति में नहीं रहता है?
उत्तर:
फल प्राप्ति में सन्देह का प्रश्न निम्नलिखित स्थितियों में नहीं रहता है-

  1. कर्ता की दृष्टि या भाव शुद्ध हों।
  2. कर्म में बुद्धि की पूर्णता का समावेश हो।
  3. फल प्राप्ति का चिन्तन न हो।
  4. निष्काम कर्म की भावना हो।
  5. कर्म अनासक्त भाव से किया जाए।
  6. फल के प्रति समत्व की भावना हो।
  7. मन, वाणी और कर्म में शुद्धता हो।
  8. स्वार्थपरायणता को त्यागने की भावना हो।

प्रश्न 3.
अपने संकल्प से विपरीत होने पर भी मनुष्य को कर्म क्यों करना पड़ता है?
उत्तर:
मनुष्य का स्वभाव है कर्म करते रहना, इसीलिए मनुष्य कर्म के पराधीन होता है। कहावत है-‘कर्म प्रधान सब जग जाना’। अनेक बार उसे बिना इच्छा के बिना चाहे हुए कर्म करना पड़ता है। उसका स्वभाव तथा ये पाँच कारण-अधिष्ठान, कर्ता, करण, इन्द्रिय चेष्टाएँ और देवसिद्धि सर्वोपरि शक्तियाँ-सामूहिक रूप से मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य निर्धारित कर्म को नहीं छोड़ सकता। कर्म को छोड़ना उसके लिए असम्भव होता है। इसीलिए मनुष्य को न चाहते हुए भी कर्म करना होता है। वह अपने संकल्पों को त्यागकर कर्म करता है क्योंकि उसका स्वभाव कर्म से बँधा होता है। जीवन में कर्म अनिवार्य होता है। मनुष्य के लिए कर्म त्याग असम्भव होता है, इस कारण उसे सत्कर्म ही करना चाहिए।

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कर्म कौशल भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए-
नैसर्गिक, समुदाय, मिथ्या, योगेश्वर, व्यवधान।
उत्तर:

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यांशों के लिए शब्द लिखिए
उत्तर:

  1. अपयश को देने वाला = अपयशदायक।
  2. हानि करने वाला = हानिकारक।
  3. कामना से रहित कर्म = निष्काम कर्म।
  4. जो योग का ईश्वर हो = योगेश्वर।
  5. स्वार्थ से रहित भाव वाला व्यक्ति = नि:स्वार्थी।

कर्म कौशल संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) प्रकृति अनेकानेक जीव-समुदाय से परिपूर्ण है। जीव-समुदाय का तात्पर्य है वृक्ष, वनस्पति, जीव-जन्तु और मानव संसृति। प्रत्येक के जीवन-संचालन हेतु जो नैसर्गिक नियम बने उन्हें प्राकृतिक नियम कहा गया पर मानव-बुद्धि ने निरन्तर परिष्कार करके जिस नियम पद्धति का विकास किंया उसे कर्तव्य या कर्म कहा गया। कर्म या कर्म साधना की आवश्यकता एवं अनिवार्यता न केवल सभ्य समाज के लिये अपरिहार्य है अपितु सृष्टि के स्थायित्व के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।

कठिन शब्दार्थ :
नैसर्गिक = प्राकृतिक। परिष्कार = सुधार। अपरिहार्य = जिसे टाला न जा सके। सृष्टि = संसार।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश ‘कर्म कौशल’ निबन्ध से अवतरित है। इसके लेखक डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी हैं।

प्रसंग :
कुरुक्षेत्र में मैदान में खडे अर्जन को जो युद्ध रूपी कर्म से मोह के कारण विमुख हो गया था। उसे कृष्ण नै निष्काम कर्म का उपदेश दिया था इन पंक्तियों में कर्म का अर्थ व उसकी आवश्यकता को बताया गया है।

व्याख्या :
डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी कहते हैं कि इस संसार में अनेक प्राकृतिक जीव-प्राणियों के वर्ग हैं। जीव-प्राणियों का अर्थ केवल मनुष्य से ही नहीं है बल्कि पशु, पक्षी, पेड़, पौधे अर्थात् जीवित प्रत्येक वस्तु जीव जगत् में मानी जाती है। प्रत्येक जीव-प्राणी को अपना जीवन बिताने के लिय कुछ-न-कुछ कार्य अवश्य करना पड़ता है तथा उन कार्यों के करने के कुछ नियम हैं। इन नियमों को प्राकृतिक या अनिवार्य नियम कहा जाता है। परन्तु मनुष्य ने बुद्धि पाई है इस कारण वह अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है तथा नियमों में परिवर्तन करता रहता है।

साथ ही प्रकृति व बुद्धि दोनों ही परिवर्तनशील हैं, अतः वह प्रतिदिन नये-नये नियम बनाता रहता है। इन नियमों के बनाने की प्रक्रिया को ही कर्म कहते हैं। यह कर्म सभ्य समाज के लिए ही आवश्यक नहीं है वरन् इस संसार को स्थायी बनाये रखने के लिए भी कर्म आवश्यक है। इसका अर्थ यह हुआ कि सम्पूर्ण जीव-जगत् के लिए कर्म जरूरी है जिससे यह संसार बना रहे और संसार के क्रियाकलाप चलते रहें। भगवान की इस संसार रूपी सुन्दर रचना का अन्त न हो।

विशेष :

  1. कर्म की अनिवार्यता बताई गई है।
  2. भाषा अति क्लिष्ट खड़ी बोली है।
  3. संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।
  4. गम्भीर व विचारात्मक शैली का प्रयोग है।

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(2) कर्म शुद्धि का साधन यही है कि मनुष्य वासनाओं एवं आसक्ति की अशुद्धताओंतथा अपूर्णताओंका मन सेमूलोच्छेदन कर दे। कर्मों का संचालन आत्मा अर्थात् एक विशिष्ट सत्ता करती रहती है। मनुष्य अनन्यभाव से सम्पूर्ण कर्मफल को ईश्वरार्पण करके अनासक्त स्थिति में परम लक्ष्य को प्राप्त होता है और उसके परम उद्देश्य में ईश्वर भी सहायक होता है।

कठिन शब्दार्थ :
आसक्ति = मोह। मूलोच्छेदन = जड़ से उखाड़ना। अनन्यभाव = एक ही भाव को समर्पित। अनासक्त = बिना मोह के।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
लेखक डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव है प्रतिपल कर्म करना, अर्थात् मनुष्य कर्म को त्याग नहीं सकता। इसलिए मनुष्य को सदैव सत्कर्म ही करने चाहिए। तब ही उसे अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

व्याख्या :
इन पंक्तियों में लेखक ने बताया है कि मनुष्य हर समय कुछ-न-कुछ कर्म अवश्य करता रहता है चाहे वह कर्म अच्छा हो या बुरा। यह प्रकृति का नियम है कि हम अच्छाई की ओर जाते हैं। इस कारण हमें सदा शुद्ध कर्म अर्थात् सत्कर्म ही करना चाहिए। सत्कर्म करने के लिए आवश्यक है कि हम मन में बुरे विचारों को न आने दें। कर्म के फल में हमारा मोह न हो तथा कर्म के पूरा न होने का हमारे मन में भय न हो। कर्म करना मनुष्य के हाथ में नहीं होता, वह तो आत्मा या कहें ईश्वर के हाथ में होता है।

कर्म करना प्राणी के वश की बात नहीं होती, अतः मनुष्य को अपना कर्म तथा कर्म फल ईश्वर को अर्पित करके समान भाव से (सुख-दुःख से परे) करना चाहिए। जब मनुष्य फल प्राप्ति के लालच में नहीं पड़ता है तो उसे अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। कर्म को पूरा करने और उद्देश्य को प्राप्त करने में भगवान भी सहायता करते हैं। जब भगवान सहायता करते हैं तो कर्म में सफलता और सफलता से सुख-शान्ति अवश्य मिलेगी। यही मनष्य का परम लक्ष्य है।

विशेष :

  1. सत्कर्म करने की प्रेरणा दी गई है।
  2. मूलोच्छेदन, अनन्यभाव आदि शब्दों के प्रयोग से भाषा दुरूह हो गई है।
  3. खड़ी बोली का प्रयोग है।
  4. विचारात्मक शैली।

(3) वस्तुतः गीता का चिन्तन जीवन-संग्राम में शाश्वत विजय का क्रियात्मक अथवा व्यावहारिक प्रशिक्षण है। यह सत् एवं असत् प्रवृत्तियों का संघर्ष है। हमारा शरीर ही एक क्षेत्र (खेत) है जिसमें बोया हुआ भला और बुरा बीज संस्कार-रूप में सदैव उगता है। इसीलिये इसमें व्यक्ति को स्वयं को संस्कारित करते हुए निश्चित कर्म-कर्तव्य में निरन्तर रत रहने की दृष्टि समाहित है।

कठिन शब्दार्थ :
वस्तुतः = वास्तव में। शाश्वत = हमेशा रहने वाली। संस्कारित = सुधार कर। रत = लगा हुआ। समाहित = मिली हुई।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी ने बताया है कि गीता मनुष्य को संस्कारित कर्म करने की प्रेरणा देती है। कर्म के अनुसार ही फल मिलता है। अतः सत्कर्म करना ही मनुष्य का उद्देश्य है।

व्याख्या :
गीता में बताया गया है कि कर्म का सिद्धान्त मानव जाति को स्थायी सुख देने वाला है। यह जीवन कर्म का युद्ध है। इस युद्ध में गीता अनन्त विजय को प्राप्त करने का रास्ता दिखाती है। इस विजय को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कर्तव्यशील बनना होगा। उसे इस संसार के व्यवहार को समझना होगा, तब ही उसका कर्म शाश्वत होगा। महाभारत अच्छाई व बुराई का युद्ध है। जिसमें अच्छाई की जीत दिखाई गई है। लेखक एक उदाहरण देकर कर्म का महत्त्व बताता है।

जैसे एक खेत में जैसा बीज बोया जाता है वैसी ही फसल उगती है। ठीक उसी प्रकार इस शरीर में जैसे कर्मों का बीज डाला जाता है वैसे ही संस्कार व आदतें बनती हैं। कर्म का परिणाम संस्कार होते हैं। संसार में जो व्यक्ति अपने में सत् विचारों को धारण करता है, तब कर्म में संलग्न होता है। व्यक्ति कर्म थोड़े समय के लिए न करके लगातार जीवन भर सत् कर्म करता रहता है, तब उसे स्थायी रहने वाली विजय अर्थात् परम आनन्द व सुख मिलता है। अन्त में वह व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इसी मुक्ति को पाने का चिन्तन गीता में किया गया है।

विशेष :

  1. गीता का चिन्तन विषय सत् कर्म बताया गया है।
  2. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
  3. शरीर रूपी खेत तथा संस्कार रूपी बीज में रूपक अलंकार है।
  4. भाषा क्लिष्ट होते हुए भी बोधगम्य है।

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