MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

1. मीराबाई

जीवन परिचय

हिन्दी साहित्य में मीराबाई का विशेष महत्व है। मीरा भक्त कवयित्री हैं। उनकी रचनाएँ हृदय की अनुभूति मात्र हैं।

मीराबाई का जन्म राजस्थान में जोधपुर के मेड़ता के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1503 ई. (संवत् 1560 ई) में हुआ था। वे राठौर रत्नसिंह की पुत्री थीं। बचपन में ही मीरा की माता का निधन हो गया था। इस कारण ये अपने पितामह राव दूदाजी के साथ रहती थीं। राव दूदा कृष्ण भक्त थे। अत: मीरा भी कृष्ण भक्ति में रंग गई। मीरा का विवाह उदयपुर के महाराज भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ वर्ष उपरान्त ही इनके पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य कष्ट ने इनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया। इससे उनमें विरक्ति का भाव पैदा हो गया। वे साधु सेवा में ही जीवन-यापन करने लगीं। वे राजमहल से निकलकर मंदिरों में जाने लगी और साधु संगति में कृष्ण-कीर्तन करने लगीं। इनकी अनन्य कृष्ण भक्ति और संत समागम से राणा परिवार रुष्ट हो गया। इससे चित्तौड़ के तत्कालीन राणा ने उन्हें भाँति-भाँति की यातनाएँ देना शुरू कर दिया। कहते हैं कि एक बार मीरा को विष भी दिया गया, किन्तु उन पर उसका असर नहीं हुआ। राणा की यातनाओं से ऊब कर ये कृष्ण की लीलाभूमि मथुरा-वृन्दावन चली गईं और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया। मीरा की भक्ति-भावना बढ़ती गई और वे प्रभु प्रेम में दीवानी बन गईं। संसार से विरक्त, कृष्ण भक्ति में लीन मीरा की वियोग भावना ही इनके साहित्य का मूल आधार है। मीरा अपने अन्तिम दिनों में द्वारका चली गईं। वहाँ ही सन् 1546 ई.(संवत् 1603 वि) में वे स्वर्ग सिधार गईं।

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  • साहित्य सेवा

मीराबाई द्वारा लिखित काव्य उनके हृदय की मर्मस्पर्शी वेदना है और भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने सीधे सरल भाव से अपने हृदय के भावों को कविता के रूप में व्यक्त कर दिया है। उनका साहित्य भक्ति के आवरण में वाणी की पवित्रता है और संगीत का माधुर्य है। मन की शान्ति के लिए और भक्ति मार्ग को पुष्ट करने के लिए मीरा की साहित्य सेवा सर्वोच्च

  • रचनाएँ

मीराबाई के नाम से जिन कृतियों का उल्लेख मिलता है उनके नाम हैं-‘नरसी जी को माहेरो’, ‘गीत गोविन्द की टीका’, ‘राग-गोविन्द’, ‘राग-सोरठा के पद’, ‘मीराबाई का मलार’, ‘गर्वागीत’, ‘राग विहाग’ और फुटकर पद। भौतिक जीवन से निराश मीरा की एकान्त निष्ठा गिरधर गोपाल में केन्द्रित है। ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ कहकर मीरा ने कृष्ण के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त किया है। भक्ति का यह भी एक लक्षण है।

  • भाव पक्ष

मीराबाई द्वारा रचित काव्य साहित्य में उनके हृदय की मर्मस्पर्शिनी वेदना है, प्रेम की आकुलता है तथा भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने अपने मन की अनुभूति को सीधे ही सरल, सहज भाव में अपने पदों में अभिव्यक्ति दे दी है। मीरा के पदों के वाचन और गायन से संकेत मिलता है कि मीरा की भक्ति-भावना अन्तःकरण से स्फूर्त है। उन्होंने मुक्त भाव से सभी भक्ति सम्प्रदायों से प्रभाव ग्रहण किया है।

उनकी रचनाओं में माधुर्य समन्वित दाम्पत्य भाव है। मीरा का विरह पक्ष साहित्य की दृष्टि से मार्मिक है। उनके आराध्य तो सगुण साकार श्रीकृष्ण हैं। मीरा के बहुत से पदों में रहस्यवाद स्पष्ट दिखाई देता है। रहस्यवाद में प्रिय के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के चित्र हैं।

  • कला पक्ष
  1. भाषा-मीरा की भाषा राजस्थानी और ब्रजभाषा है, किन्तु पदों की रचना ब्रजभाषा में ही है। उनके कुछ पदों में भोजपुरी भी दिखाई देती है। मीरा की भाषा शुद्ध साहित्यिक भाषा न रहकर जनभाषा ही रही।
  2. शैली-मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। उनके पदों में गेयता है। भाव सम्प्रेषणता मीरा की गीति शैली की प्रधान विशेषता है।
  3. अलंकार इनकी रचनाओं में अधिकतर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों को सर्वत्र देखा जा सकता है।
  • साहित्य में स्थान

मीरा ने अपने हृदय में व्याप्त वेदना और पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। भक्तिकाल के स्वर्ण युग में मीरा के भक्ति भाव से सम्पन्न पद आज भी अलग ही जगमगाते दिखाई देते हैं।

2. केशवदास

जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य के कवियों एवं आचार्यों में केशव का साहित्य विलक्षण एवं प्रभावशाली है। इन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक माना जाता है। केशवदास के जन्मकाल के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार इनका जन्मकाल सन् 1555 ई. (संवत् 1612) तथा मृत्यु सन् 1617 ई. (संवत् 1674) माना गया है। इनका जन्म स्थान ओरछा, मध्यप्रदेश है। ये दरबारी कवि थे। इन्हें ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के दरबार में विशेष सम्मान प्राप्त था। नीति निपुण एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा बहुमुखी है। उनकी रचनाओं में उनके आचार्य, महाकवि और इतिहासकार का रूप दिखाई देता है। आचार्य का आसन ग्रहण करने पर इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने की चिन्ता हई जो जीवन के अन्त तक बनी रही। इनके पहले भी रीतिग्रन्थ लिखे गए किन्तु व्यवस्थित और सर्वांगीण ग्रन्थ सबसे पहले इन्होंने ही प्रस्तुत किए। अनुप्रास,यमक और श्लेष अलंकारों के ये विशेष प्रेमी थे। इनके श्लेष संस्कृत पदावली के हैं। अलंकार सम्बन्धी इनकी कल्पना अद्भुत है।

  • साहित्य सेवा

केशवदास ने लक्षण ग्रन्थ,प्रबन्ध काव्य, मुक्तक सभी प्रकार के ग्रन्थों की रचना की है। ‘रसिक प्रिया’,’कवि प्रिया’ और ‘छन्दमाला’ उनके लक्षण ग्रन्थ हैं। रीतिग्रन्थों की रचना इनके कवि रूप में आविर्भाव से पूर्ण भी होती रही। परन्तु जिस तरह के व्यवस्थित और समय ग्रन्थ इन्होंने प्रस्तुत किए, वैसे अन्य कोई कवि रीति ग्रन्थ प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुआ।

इनका कवि रूप इनकी प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। संवादों के उपयुक्त विधान का इनमें विशिष्ट गुण है। मानवीय मनोभावों की इन्होंने सुन्दर व्यंजना की है। संवादों में इनकी उक्तियाँ विशेष मार्मिक हैं तथापि प्रबन्ध के बीच अनावश्यक उपदेशात्मक प्रसंगों का नियोजन उसके वैशिष्ट्य में व्यवधान उपस्थित करता है। इनके प्रशस्ति काव्यों में इतिहास की सामग्री प्रचुर मात्रा में है। मध्यकाल में किसी के पांडित्य अथवा विद्वता की परख की कसौटी थी-केशव की कविता। केशव यदि ‘रसिक प्रिया’ जैसी भाषा लिखते रहते तो वे कठिन काव्य के प्रेत’ कहलाने से बच जाते। कल्पना शक्ति-सम्पन्न और काव्यभाषा

में प्रवीण होने पर भी केशव पाण्डित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण नहीं कर सके।

  • रचनाएँ –

‘रसिक प्रिया’, कवि प्रिया’, ‘रामचन्द्रिका’, ‘वीर चरित्र’, विज्ञान गीता’ और ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’,इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। संस्कृत के ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक के आधार पर विज्ञान गीता’ निर्मित हुई है। ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ में जहाँगीर के दरबार का वर्णन है। जनश्रुति है कि रामचन्द्रिका का सृजन उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के कहने से किया।

  • भाव पक्ष
  1. रस-केशवदास की रचनाओं में परिस्थिति के अनुसार रसों की निष्पत्ति हुई है। श्रृंगार का वर्णन उत्तम है। वियोग और संयोग दोनों पक्षों का वर्णन उत्कृष्ट है। वीर रस का प्रयोग पात्रों के सम्वादों से हुआ है। शान्त रस निर्वेद की दशा में है।
  2. अर्थ गाम्भीर्य केशवदास द्वारा प्रयुक्त सम्वादों के अर्थ में गम्भीरता है।
  3. नीति तत्व केशव दरबारी कवि थे। अतः उनकी रचनाओं में नीति तत्व की प्रधानता है। इनकी कविता में नैतिक मूल्यों की रक्षा की गई है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा केशव ने अपने ग्रन्थों की रचना ब्रजभाषा में ही की है। कुछ रचनाओं में संस्कृत के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं-कहीं इनकी रचनाओं में दुरूहता आ गई है।
  2. शैली इन्होंने अपनी रचनाओं में प्रबन्ध शैली एवं मुक्तक शैली को अपनाया है। अलंकारप्रधान और व्यंग्यप्रधान शैली को स्थान दिया गया है।
  3. अलंकार-केशव ने उपमा,रूपक,उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।
  4. छन्द इन्होंने दोहा, कवित्त,सवैया,चौपाई, सोरठा आदि का प्रयोग किया है। केशव लक्षण ग्रन्थों के रचयिता रहे हैं। अतः उन्होंने छन्दों,शैली, रस निष्पत्ति आदि पर नए-नए प्रयोग किए हैं।
  5. सम्वाद योजना केशव की सम्वाद योजना बेजोड़ है। पात्र सम्वादों के माध्यम से परस्पर भावजगत की भी अभिव्यक्ति करते चलते हैं।

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  • साहित्य में स्थान

केशवदासजी हिन्दी के प्रमुख आचार्य हैं। उनकी समस्त रचनाएँ शास्त्रीय रीतिबद्ध हैं। ये उच्चकोटि के रसिक थे,पर उनकी आस्तिकता में कमी नहीं आने पाई है। नीतिनिपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। अपने लक्षण ग्रन्थों के लिए वे सदा स्मरणीय रहेंगे।

3. सूरदास [2009, 13, 15]

जीवन परिचय
मध्यकालीन वैष्णव भक्त कवियों में सूरदास का स्थान श्रेष्ठ है। सूरदास ने भक्तिधारा को जनभाषा के व्यापक धरातल पर अवतरित करके संगीत और माधुर्य से मंडित किया। सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित अष्टछाप के अग्रणी भक्त कवि हैं। इनका जन्म सन् 1478 ई.(संवत् 1535 वि) में आगरा के समीप रुनकता नामक गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान दिल्ली के समीप ‘सीही नामक स्थान को इनका जन्मस्थान मानते हैं। बल्लभाचार्य जी ने इन्हें दीक्षा प्रदान की और गोवर्धन स्थित श्रीनाथ जी के मन्दिर में इनको कीर्तन करने के लिए नियुक्त कर दिया। इस प्रकार आप आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की रचना करते रहे और मधुर स्वर से उनका गायन करते रहे।

महात्मा सूरदास का जन्मान्ध होना विवादास्पद है। सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध कवि इतना सजीव और उच्चकोटि का वर्णन नहीं कर सकता। सूरदास की मृत्यु सन् 1583 ई.(सं.1640 वि) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुई। कहा जाता है कि अपने परलोक गमन के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

सूरदास की भाषा ललित और कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा है जिसमें सरलता के साथ-साथ प्रभावोत्पादकता भी मिलती है। सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं जिन्होंने अपने काव्य-कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की और बल्लभाचार्य से दीक्षा ग्रहण करने के बाद दास्यभाव और दैन्यभाव के पदों के स्थान पर वात्सल्य और प्रधान सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया।

  • साहित्य सेवा

सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं, जिन्होंने अपने काव्य-कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की। इनके गुरु बल्लभाचार्य थे। दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने दैन्यभाव के पदों की रचना छोड़कर सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया। अष्टछाप के भक्त कवियों में सूरदास अगणी कवि थे। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य कृष्ण भक्ति का प्रचार करना था। वात्सल्य वर्णन को हिन्दी की अमूल्य निधि कहा जाता है जो सूरदास की रचनाओं में मिलता है। बाल मनोविज्ञान के तो सूरदास अद्वितीय पारखी थे।

  • रचनाएँ

विद्वानों के अनुसार सूरदास ने तीन कृतियों का सृजन किया था—
(1) सूरसागर,
(2) सूरसारावली,
(3) साहित्य लहरी।

(1) सूरसागर ही इनकी अमर कृति है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सवा लाख गेय पद हैं,परन्तु अभी तक 6 या 7 हजार के लगभग पद प्राप्त हैं।
(2) सूर सारावली में ग्यारह सौ छन्द संगृहीत हैं। यह सूरसागर का सार रूप ग्रन्थ है।
(3) साहित्य लहरी में एक सौ अठारह पद संगृहीत हैं। इन सभी पदों में सूर के दृष्ट-कूट पद सम्मिलित हैं। इन पदों में रस का सर्वश्रेष्ठ सृजन हुआ है।

सूरदास सगुण भक्तिधारा कृष्णोपासक कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं।

  • भाव पक्ष
  1. भक्तिभाव-सूरदास कृष्ण भक्त थे। काव्य ही उनका भगवत् भजन था। उनके काव्य में एक भक्त हृदय की अभिव्यक्ति सहज ही दिखाई देती है। सूर की भक्ति सखा-भाव लिए हुए थी। कृष्ण को सखा मानकर ही उन्होंने अपने आराध्य की समस्त बाल-लीलाओं और प्रेम लीलाओं का वर्णन किया है।
  2. भावुकता एवं सहृदयता-सूरदास ने अपने पदों में मानव मन के अनेक भावों का वर्णन किया है। उनके वर्णन में गोप-बालकों के,माता यशोदा के और पिता नन्द के विविध भावों की यथार्थता और मार्मिकता मिलती है।
  3. श्रेष्ठ रस संयोजना—सूर की उत्कृष्ट रस संयोजना के आधार पर डॉ.श्यामसुन्दर दास ने उन्हें रससिद्ध कवि’ कह कर पुकारा है। सूर के काव्य मैं शान्त, शृंगार और वात्सल्य रस स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
  4. अद्वितीय वात्सल्य-सूरदास ने कृष्ण के बाल चरित्र, शरीर सौन्दर्य, माता-पिता के हृदय वात्सल्य का जैसा स्वाभाविक, अनूठा एवं मनोवैज्ञानिक सरस वर्णन किया है, वैसा वर्णन सम्पूर्ण विश्व के साहित्य में दुर्लभ है। सूर वात्सल्य रस के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं।
  5. श्रृंगार रस का वर्णन-सूरदास ने अपनी रचनाओं में श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का मार्मिक चित्रण करके उसे रसराज सिद्ध कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“श्रृंगार का रस-राजत्व यदि हिन्दी में कहीं मिलता है तो केवल सूर में।”
  • कला पक्ष
  1. लालित्यप्रधान ब्रजभाषा-सूरदास ने बोलचाल की ब्रजभाषा को लालित्य-प्रधान ब्रजभाषा बना दिया है। उनकी प्रयुक्त भाषा सरल, सरस एवं प्रभावशाली है जिससे भाव प्रकाशन की क्षमता का आभास होता है। सूरदास ने अवधी और फारसी के शब्दों और लोकोक्तियों के प्रयोग से अपनी भाषा में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। भाषा में माधुर्य सर्वत्र दिखाई देता है।
  2. गेय पद शैली-सूरदास ने अपनी काव्य रचना गेय पद शैली में की है। माधुर्य और प्रसाद गुण-सम्पन्न शैली वर्णनात्मक है। उनकी शैली में वचनवक्रता और वाग्विदग्धता उनकी एक विशेषता है।
  3. अलंकारों की सहज आवृत्ति-सूरदास की रचनाओं में अलंकार अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के साथ प्रविष्ट हो जाते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद के शब्दों के अनुसार, “अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे हाथ जोड़कर दौड़ पड़ता है, उपमानों की बाढ़ आ जाती है। रूपकों की वर्षा होने लगती है।”
  4. छंद योजना की संगीतात्मकता-सूरदास ने मुक्तक गेय पदों की रचना की है। उनके पदों में संगीतात्मकता सर्वत्र परिलक्षित होती है।
  • साहित्य में स्थान

सूरदास अष्टछाप के ब्रजभाषा कवियों में सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। इनका बाल प्रकृति-चित्रण, वात्सल्य तथा श्रृंगार का वर्णन अद्वितीय है। सूर का क्षेत्र सीमित है,पर उसके वे एकछत्र सम्राट हैं। वे अपनी काव्यकला और साहित्यिक प्रतिभा के बल पर हिन्दी साहित्य जगत के सूर्य माने जाते हैं। जब तक सूर की प्रेमासिक्त वाणी का सुधा प्रवाह है, तब तक हिन्दू जीवन से समरसता का स्रोत कभी सूखने नहीं पाएगा।

4. गोपाल सिंह नेपाली

  • जीवन परिचय

राष्ट्रीय भावों से ओतप्रोत गोपाल सिंह नेपाली का जन्म बेतिया (बिहार) में 11 अगस्त सन् 1903 को हुआ था। इनके पिता रायबहादुर गोरखा रायफल में सैनिक थे। देश-प्रेम और मानवता की भावना इन्हें विरासत में प्राप्त थीं। 14 वर्ष की आयु से ही ये कविता लिखने की ओर आकर्षित हुए। इन्होंने विभिन्न नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन और कवि सम्मेलनों में अपने गीतों से विशिष्ट पहचान बनाई। नेपाली जी रतलाम टाइम्स (मालवा), चित्रपट (दिल्ली), सुधा (लखनऊ) और योगी (साप्ताहिक,पटना) के सम्पादन विभाग में रहे। अनेक चलचित्रों में इन्होंने अपने गीत लिखे। 50 से अधिक फिल्मों में इन्होंने गीत लिखे हैं। 1962 के चीनी आक्रमण के समय इन्होंने देश में जगह-जगह घूम कर गीतों का गायन किया और देश-भक्ति की भावना जाग्रत की।

  • साहित्य सेवा

नेपाली जी अपनी रचनाओं में प्रकृति के रम्य रूप और मनोहर छवियों को प्रस्तुत करते हैं जिसमें एक ओर प्रणय और सौन्दर्य प्रकट है तो दूसरी ओर राष्ट्र-प्रेम उत्कट है। शोषित के प्रति सहानुभूति और स्थितियों से जूझने का सन्देश उनमें मुखर हो उठा है। भाई-बहन के प्रेम को देश-प्रेम में परिवर्तित कर दिया गया है तथा जिसके माध्यम से हमारे हृदय में देश-भक्ति जाग्रत होने का संदेश दिया गया है।

  • रचनाएँ

‘उमंगें’, ‘पंछी’, ‘रागिनी’, नीलिमा’, ‘पंचमी’, ‘सावन’, ‘कल्पना’, ‘आँचल’, ‘रिमझिम’, ‘नवीन’,’हिन्दुस्तान’, ‘हिमालय पुकार रहा है’,आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष
  1. देश-प्रेम-गोपाल सिंह नेपाली ने अपनी कविताओं में देश-प्रेम पर ही मुख्य रूप से जोर दिया है। इन्होंने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ मानवीय जीवन की अनुभूतियों का प्रभावशाली वर्णन किया है।
  2. सहृदयता और भावुकता-भाई-बहन कविता में भाई-बहन के बीच के प्रेम को राष्ट्रीय प्रेम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। हृदय के भाव राष्ट्र प्रेम को समर्पित हैं।
  3. उत्कृष्ट रस योजना-गोपाल सिंह नेपाली की कविताएँ देश-भक्ति पर आधारित होने के कारण वीर रस को ही इंगित करती हैं। नए-नए प्रतीकों एवं बिम्बों के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त किया है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा-गोपाल सिंह नेपाली की भाषा साहित्यिक होने के साथ-साथ व्यावहारिक है। इनके भाव जनमानस के निकट,सरल और सहज हैं। इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।
  2. अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश का सुन्दर प्रयोग किया है।
  3. बिम्बों के माध्यम से भाव प्रकाश में अनूठापन आ गया है।
  • साहित्य में स्थान

नेपाली जी की रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम उत्कट है। शोषित के प्रति सहानुभूति और स्थितियों से जूझने का सन्देश इनकी कविताओं में दिखाई देता है। नेपाली जी की गणना विशिष्ट राष्ट्रीय कवियों में की जाती है। उन्होंने मानवीय रिश्तों को आधार बनाकर काव्य रचना की है। गीतधारा को आगे बढ़ाने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

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5. घनानन्द

  • जीवन परिचय

घनानन्द हिन्दी की रीति मुक्तकाव्य धारा के कवि हैं। इनका जन्म 1658 ई. और मृत्यु 1739 ई.में मानी जाती है। हिन्दी में घनानन्द और आनन्दघन नाम के दोनों रचनाकारों को पहले एक ही माना जाता था, लेकिन आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने दोनों कवियों का भिन्न-भिन्न होना मान्य कर दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने घनानन्द को रीतिमुक्त काव्यधारा का श्रेष्ठ रचनाकार कहा है। रीतिमुक्त काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि घनानन्द साक्षात् रसमूर्ति हैं। किवदन्तियों के अनुसार घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के मीर मुंशी थे। सन् 1739 ई.में नादिरशाह द्वारा किए गए कत्लेआम में ये मारे गए।

  • साहित्य सेवा

घनानन्द लौकिक प्रेम के अनुपमेय कवि थे। विरहजन्य प्रेम की पीर के ये अमर गायक रहे। इनकी वेदना का मूल कारण उनकी प्रेयसी ‘सुजान’ रही है। भक्तिपरक कविताओं में ‘सुजान’ श्रीकृष्ण के सम्बोधन के लिए प्रयोग किया गया है। स्वानुभूत विरह वेदना की विविध स्थितियों के हृदयस्पर्शी चित्र इनके काव्य में अंकित हैं।

  • रचनाएँ

घनानन्द की रचनाएँ अधिकतर मुक्तक रूप में मिलती हैं। इनकी कुछ रचनाएँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘सुन्दरी तिलक’ पत्रिका में छापी। 1870 में उन्होंने ‘सुजान शतक’ नाम के इनके 119 कवित्त प्रकाशित किए। इसके पश्चात् जगन्नाथ दास रत्नाकर ने सन् 1897 में इनकी ‘वियोग बेलि’ और ‘विरह लीला’ नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित की। ‘घनानन्द कवित्त’, ‘कवित्त संग्रह’, ‘सुजान-विनोद’, ‘सुजान हित’, ‘वियोग बेलि’, ‘आनन्द घन जू’, ‘इश्क लता’, ‘जमुना जल’ और ‘वृन्दावन सत’ आदि इनकी रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष

(1) इनकी कविता में रसद शृंगार है जिसमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सटीक वर्णन है। उन्हें संयोग में भी वियोग दिखाई देता है।

“यह कैसो संयोग न जानि परै जु वियोग न क्यों विछोहत है।” घनानन्द के काव्य में संयोग का चित्रण अति अल्प है। उनके काव्य में वियोग की सभी अवस्थाओं,दशाओं, स्थितियों आदि का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।

इन्होंने शब्दों के भावों का हृदय से साक्षात्कार किया है। कला पक्ष

  1. भाषा-उनकी भाषा ब्रज है जो सजीव,लाक्षणिक,व्यंजना प्रचुर तथा व्याकरणसम्मत है। उनकी भाषा फारसी काव्य से प्रभावित होते हुए भी मौलिक है।
  2. ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है।
  3. अलंकार-इनकी रचनाओं में अनुप्रास एवं रूपक का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है।

इस प्रकार भाषा, छन्द, शैली अलंकार और उसके अनुप्रयोग की दृष्टि से घनानन्द की रचनाएँ अत्यन्त सरस एवं प्रौढ़ हैं।

  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार घनानन्द रीतिमुक्त काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि हैं। घनानन्द ने अपने पदों में ‘सुजान’ का इतनी तन्मयता से उल्लेख किया है कि उसका आध्यात्मीकरण हो गया है। सुजान का उनकी प्रेयसी होना ही अधिक उपयुक्त लगता है। सुजान को श्रृंगार पक्ष में नायिका और भक्ति पक्ष में कृष्ण मान लेना उचित होगा।

6. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’

जीवन परिचय
जगन्नाथदास रत्नाकर’ आधुनिक काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने अपने काव्य में मध्ययुगीन काव्य परम्परा के साथ-साथ भक्ति युग के भाव और रीतिकाल की कला का समन्वय किया है। कविवर रत्नाकर का जन्म सन् 1886 ई.में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। बचपन में उर्दू, फारसी, अंग्रेजी की शिक्षा मिली। बी.ए., एल एल.बी.के बाद एम.ए. की पढ़ाई इनकी माता के निधन के कारण पूरी नहीं हो पाई। इनके पिता पुरुषोत्तमदास फारसी भाषा के विद्वान एवं काव्य मर्मज्ञ थे। आपका घर साहित्यकारों का संगम स्थल था। आपको भारतेन्दुजी का सान्निध्य मिला इसके फलस्वरूप इन्होंने उर्दू-फारसी में कविता करना प्रारम्भ कर दिया। 21 जून सन् 1932 को हरिद्वार में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

रत्नाकर द्वारा लिखे गए ऐतिहासिक लेखों, मौलिक कृतियों की रचना और महत्वपूर्ण ग्रन्थों के सम्पादन से उनके गंभीर अध्ययन और मौलिक प्रतिभा का पता चलता है। उन्होंने साहित्य सुधा निधि तथा सरस्वती पत्रिकाओं का सम्पादन किया। रसिक मंडल, प्रयाग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व विकास में योगदान दिया।

  • रचनाएँ

इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-‘उद्धव शतक’, ‘गंगावतरण, ‘वीराष्टक’, ‘शृंगार लहरी’, ‘गंगा लहरी’, ‘विष्णु लहरी’ ‘हिंडोला’, ‘कलकाशी’, ‘रत्नाष्टक’ आदि। इनके सम्पादित ग्रन्थ हैं ‘बिहारी रत्नाकर’,’हित तरंगिणी’, ‘सूरसागर’ आदि।

  • भाव पक्ष

जगन्नाथदास रत्नाकर ब्रजभाषा के उत्कृष्ट कवि हैं। इनके काव्य में भाों की मार्मिकता तथा कला की अभिव्यंजना परिलक्षित होती है।

  1. रस योजना ब्रजभाषा के भावुक कवि ‘रत्नाकर’ में श्रृंगार रस की प्रधानता मिलती है। उनके प्रमुख काव्य ‘उद्धव शतक’ का मूल रस श्रृंगार ही है। वियोग पक्ष में गोपियों ने उद्धव से कहा है”टूक-टूक है है मन मुकुर हमारौ हाय, चूँकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावौ ना।” ‘वीराष्टक’ तथा ‘गंगावतरण’ में रौद्र रस की योजना दर्शनीय है। शान्त, करुणा,वात्सल्य, वीभत्स रसों की संयोजना भी दिखाई देती है।
  2. अनुभाव विधानरत्नाकर ने भावों को सबलता प्रदान करने के लिए पात्रों की चेष्टाओं आदि का सुन्दर वर्णन किया है। श्रीकृष्ण का संदेश सुनने के लिए कृष्ण प्रेम में व्याकुल गोपियों की आकुलता देखिए”उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै, पेखि-पेखि पाती छाटी छोहनि छबै लगी।”
  3. भक्ति-भावना रत्नाकर के काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति हुई है। गोपियाँ अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। उद्धव का ज्ञान गोपियों की सगुण भक्ति के सामने पराजित हो जाता है।
  4. प्रकृति चित्रण-रत्नाकर’ ने अपने काव्य में प्रकृति के अनेक रूप चित्रित किए हैं। प्रकृति के आलम्बन का एक दृश्य देखिए-

“स्वाति घटा घहराति मुक्ति-पानिप सों पूरी।
कैचों धावति झुकति सुभ्र आमा रुचि रुरी।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा रत्नाकर ने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है। भाव के अनुरूप अभिव्यक्ति देने में यह भाषा सक्षम है। इनके काव्य में अर्थ की गम्भीरता, पद विन्यास, वाक् चातुर्य,चमत्कार सौष्ठव,समाहार शक्ति विद्यमान है।
  2. चित्रोपम वर्णन शैली-रत्नाकर’ जी में चित्रात्मक वर्णन शैली के द्वारा विषय को साकार करने की अद्भुत शक्ति है। उदाहरण देखिए
    “कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग पानी रह कोऊ घूमि-घूमि परी भूमि मुरझानी हैं।”
  3. अलंकार विधान-रूपक, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि सभी अलंकारों की शोभा चमत्कारपूर्ण है। ‘रत्नाकर’ का काव्य गत्यात्मक संगीतमय छन्दों में रचित है। कवित्त, रोला, सवैया, दोहा,छप्पय उनके प्रिय छन्द हैं।
  • साहित्य में स्थान

रत्नाकर द्वारा लिखे गए साहित्यिक ऐतिहासिक लेखों मौलिक कतियों और महत्वपर्ण ग्रन्थों के सम्पादन से उनके गम्भीर अध्ययन, अद्वितीय प्रतिभा और सूक्ष्म दृष्टि का अवलोकन होता है। उन्होंने ‘साहित्य सुधानिधि’ तथा ‘सरस्वती’ पत्रिकाओं का सम्पादन किया। रसिक मंडल,प्रयाग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व उनके विकास में योगदान दिया। ‘रत्नाकर ब्रजभाषा काव्य की महान् विभूति हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास ने कहा है “एक विशेष पथ पर परिश्रमपूर्वक चलते-चलते रत्नाकरजी साहित्य में अपनी एक अलग लीक बना गए हैं। इस दृष्टि से वे हिन्दी के एक ऐतिहासिक पुरुष ठहरते हैं।”

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8. कबीरदास [2009, 16]

  • जीवन परिचय

जनभाषा में भक्ति, नीति और दर्शन प्रस्तुत करने वाले कवियों में कबीर अग्रगण्य हैं। कबीरदास जी निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी शाखा के कवि थे। इनका जन्म काशी में सन् 1398 ई.में हुआ। इनकी रचनाओं से प्रतीत होता है कि इनके माता-पिता जुलाहे थे। जनश्रुति है कि कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की परित्यक्त संतान थे। इनका पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। इस नि:सन्तान जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा ने इस बालक का नाम कबीर रखा। कबीर की शिक्षा विधिवत् नहीं हुई। उन्हें तो सत्संगति की अनंत पाठशाला में आत्मज्ञान और ईश्वर प्रेम का पाठ पढ़ाया गया। स्वयं कबीर कहते हैं-“मसि कागद छुऔ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।”

कबीर गृहस्थ थे। इनको स्वामी रामानन्द से ‘राम’ नाम का गुरुमंत्र मिला। उनकी पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कबीर पाखण्ड और अन्धविश्वासों के घोर विरोधी थे। कबीर का बचपन मगहर में बीता, परन्तु बाद में काशी में जाकर रहने लगे। जीवन के अन्तिम दिनों में ये पुनः मगहर चले गए। इस प्रकार 120 वर्ष की आयु में सन् 1518 ई. में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

अशिक्षित होते हुए भी कबीरदास अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनकी रचनाओं को धर्मदास नामक प्रमुख शिष्य ने ‘बीजक’ नाम से संग्रह किया है। डॉ.श्यामसुन्दर दास ने कबीर की रचनाओं को कबीर ग्रन्थावली’ में संगृहीत करके सम्पादित किया है। खुले आकाश के नीचे आस-पास खड़े व बैठे लोगों के बीच अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करना ही उनकी उत्कृष्ट साहित्य सेवा थी।

  • रचनाएँ

कबीर की अभिव्यक्तियों को शिष्यों द्वारा तीन रूप में संकलित किया गया है-

  1. साखी,
  2. सबद,
  3. रमैनी।

(1) साखी कबीर की शिक्षाओं और सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण ‘साखी’ में हुआ है। इसमें दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है।
(2) सबद-इसमें कबीर के गेय पद संगृहीत हैं। गेय पद होने के कारण इसमें संगीतात्मकता है। इनमें कबीर ने भक्ति-भावना, समाज सुधार और रहस्यवादी भावनाओं का वर्णन किया है।
(3) रमैनी-रमैनी चौपाई छन्द में है। इनमें कबीर का रहस्यवाद और दार्शनिक विचार व्यक्त हुए हैं।

  • भाव पक्ष
  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना—कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनका उपास्य, अरूप, अनाम, अनुपम सूक्ष्म तत्व है। इसे वे ‘राम’ नाम से पुकारते थे। कबीर के ‘राम’ निर्गुण निराकार परमब्रह्म हैं।
  2. प्रेम भावना और भक्ति कबीर ने ज्ञान को महत्व दिया। उनकी कविता में स्थान-स्थान पर प्रेम और भक्ति की उत्कृष्ट भावना परिलक्षित होती है। उनका कहना है-“यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं” और “ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।” इत्यादि।
  3. रहस्य भावना-परमात्मा से विविध सम्बन्ध जोड़कर अन्त में ब्रह्म में लीन हो जाने के भाव अपनी कविता में कबीर ने व्यक्त किए हैं। जैसे – “राम मोरे पिऊ मैं राम की बहुरिया।”
  4. समाज सुधार और नीति उपदेश सामाजिक जीवन में फैली बुराइयों को मिटाने के लिए कबीर की वाणी कर्कश हो उठी। कबीर ने समाजगत बुराइयों का खण्डन तो किया ही, साथ-साथ आदर्श जीवन के लिए नीतिपूर्ण उपदेश भी दिया। कबीर के काव्य में इस्लाम के एकेश्वरवाद, भारतीय द्वैतवाद,योग साधना, अहिंसा, सूफियों की प्रेम साधना आदि का समन्वित रूप दिखाई देता है।

इनके काव्य में शान्त रस की प्रधानता है। आत्मा-परमात्मा के मिलन का श्रृंगार भी शान्त रस ही बन गया है।

  • कला पक्ष
  1. अकृत्रिम भाषा कबीर की भाषा अपरिष्कृत है। उसमें कृत्रिमता का अंश भी नहीं है। स्थानीय बोलचाल के शब्दों की प्रधानता दिखाई देती है। उसमें पंजाबी, राजस्थानी, उर्द, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का विकृत रूप प्रयोग किया गया है। इससे भाषा में विचित्रता आ गई है। कबीर की भाषा में भाव प्रकट करने की सामर्थ्य विद्यमान है। इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी अथवा सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।
  2. सहज निर्द्वन्द्व शैली-कबीर ने सहज, सरल व सरस शैली में अपने उपदेश दिए हैं। भाव प्रकट करने की दृष्टि से कबीर की भाषा पूर्णतः सक्षम है। काव्य में विरोधाभास,दुर्बोधता एवं व्यंग्यात्मकता विद्यमान है।
  3. अलंकार-कबीर के काव्य में स्वभावतः अलंकारिता आ गई है। उपमा, रूपक, सांगरूपक, अन्योक्ति,उत्प्रेक्षा,विरोधाभास आदि अलंकारों की प्रचुरता है।
  4. छन्द कबीर की साखियों में दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है। ‘सबद’ पद है तथा ‘रनी’ चौपाई छन्दों में मिलते हैं। ‘कहरवाँ’ छन्द भी उनकी रचनाओं में मिलता है। इन छन्दों का प्रयोग सदोष ही है।
  • साहित्य में स्थान

कबीर समाज सुधारक एवं युग निर्माता के रूप में सदैव स्मरण किए जायेंगे। उनके काव्य में निहित सन्देश और उपदेश के आधार पर नवीन समन्वित समाज की संरचना सम्भव है। डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सैना ने लिखा है-“कबीर एक उच्चकोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञान के अन्वेषक थे। उनका समस्त साहित्य एक जीवन मुक्त सन्त के गूढ़ एवं गम्भीर अनुभवों का भण्डार है।”

8. बिहारीलाल [2010]

  • जीवन परिचय

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में बिहारी की गणना बड़े सम्मान के साथ की जाती है। श्रृंगार रस के वर्णन में ये निस्संदेह अद्वितीय कवि हैं। कविवर बिहारी का जन्म संवत् 1652 वि. (सन् 1595 ई) में हुआ। बिहारी के जीवनवृत्त के बारे में उनका निम्न दोहा देखिए-

“जन्म ग्वालियर जानिये, खण्ड बुन्देले बाल।
तरुनाई आई सुखद, मथुरा बसि ससुराल॥”

इनका जन्म गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम केशवराय था। इनका बचपन बुन्देलखण्ड में बीता। इनका विवाह मथुरा में हुआ और युवावस्था में ससुराल में ही रहे।

बिहारी के गुरु बाबा नरहरदास थे। उन्होंने बिहारी का परिचय सम्राट जहाँगीर से कराया। कुछ समय बाद बिहारी जयपुर चले गए। उन दिनों जयपुर के प्रौढ़ महाराजा जयसिंह ने एक अल्पवयस्का से नया-नया विवाह किया था और राजकाज से विमुख हो गए थे। ऐसी स्थिति में बिहारी ने अग्र दोहा उनके पास पहुँचाया-

“नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं बिंध्यो, आगे कौन हवाल॥”

इस दोहे का राजा जयसिंह पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और पुनः राजकाज पर ध्यान देने लगे। बिहारी को दरबार में सम्मानपूर्वक स्थान दिया गया। यहाँ रहते हुए बिहारी ने सात सौ तेरह दोहों की रचना की। प्रत्येक दोहे पर उनको एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त होती थी। सं.1720 वि. (सन् 1663 ई) में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

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इनकी एक ही रचना ‘सतसैया’ मिलती है। हिन्दी में समास पद्धति की शक्ति का परिचय सबसे पहले बिहारी ने दिया। श्रृंगार रस के ग्रन्थों से ‘बिहारी सतसई’ सर्वोत्कृष्ट रचना है। श्रृंगारिकता के अतिरिक्त इसमें भक्ति और नीति के दोहों का भी अदभुत समन्वय मिलता है।

  • रचनाएँ

बिहारी ने अपने जीवनकाल में 713 दोहों की रचना की है, जिन्हें ‘बिहारी सतसई’ के नाम से संकलित किया गया। यह अकेला ग्रन्थ ही कवि के रूप में बिहारी की कीर्ति का स्रोत है।

  • भाव पक्ष

विषय-वस्तु के आधार पर बिहारी के दोहों को चार भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) शृंगारपरक,
(2) भक्तिपरक,
(3) नीतिपरक,
(4) प्रकृति चित्रण सम्बन्धी।

(1) श्रृंगारपरक दोहे-अधिकतर दोहे शृंगाररस प्रधान हैं। इन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों को अपने काव्य में स्थान दिया है। बिहारी की नायिका का मुख पूर्णचन्द्र के समान प्रकाशित है और उसके प्रकाश के कारण उसके घर के आस-पास पूर्णिमा ही रहती है। उदाहरण देखिए-

“पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यों ही रहत, आनन ओप उजास॥”

(2) भक्ति भावना वृद्धावस्था में बिहारी का मन संसार से विरक्त होकर प्रभु-चरणों में लग जाता है। इस प्रकार के दोहों में शान्त रस प्रधान है। सगुण ब्रह्म के कृष्ण रूप ने उन्हें अधिक आकर्षित किया है

“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय॥”

(3) नीतिपरक दोहेइनके अनेक दोहे नीति और उपदेश को लिए हुए हैं। इन्होंने अपने नीतिपरक दोहों में जीवन की गहरी नीतियों को सरल ढंग से व्यक्त किया है

“दीरघ साँस न लेह, दुःख सुख साँइहि न भूलि।
दई दई क्यों करत है, दई दई सु कबूलि॥”

(4) प्रकृति चित्रण-अपने श्रृंगार चित्रण में बिहारी ने प्रकृति को अधिकतर उद्दीपन के रूप में लिया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रकृति को आलम्बन रूप में भी प्रस्तुत किया है, वे प्रकृति के कुशल पर्यवेक्षक हैं। जेठ की दोपहरी का एक दृश्य देखिए-

“बैठ रही अति सघन वन, पैठ सदन तन माह।
देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौ चाहति छाँह।।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। यह सामान्य जन के लिए भी दुर्बोध नहीं है। इसमें कहीं-कहीं बुन्देलखण्डी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त बिहारी ने पूर्वी, अवधी और अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों को भी अपने काव्य में स्थान दिया है। बिहारी की भाषा सामासिक भाषा है, जिसमें थोड़े में बहुत कुछ कह देनी की सामर्थ्य है।
  2. अलंकार योजना–अन्य रीतिकाल के कवियों की भाँति बिहारी ने भी प्रायः सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। लेकिन बिहारी की भाषा में अलंकार भार बनकर नहीं आए हैं। रूपक, उपमा, श्लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति आदि अलंकारों को बड़े स्वाभाविक रूप में अपने काव्य में प्रयुक्त किया है।
  3. छन्द विधान–बिहारी ने अपने काव्य में दोहा छन्द को ही अपनाया है। दो पंक्तियों के छोटे से छन्द में इन्होंने गागर में सागर भर दिया है।
  • साहित्य में स्थान

बिहारी की काव्य प्रतिभा बहुमुखी थी। नख-शिख वर्णन,नायिका भेद,प्रकृति चित्रण,रस, अलंकार सभी कुछ बिहारी के काव्य में उत्कृष्ट है। रचनाओं में कवित्त शक्ति और काव्य रीतियों का जैसा सुन्दर सम्मिश्रण बिहारी में है वैसा किसी अन्य रीतिकालीन कवि में दुर्लभ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी के विषय में सत्य ही कहा है-“जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतनी ही उसकी मुक्तक रचना सफल होगी। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से विद्यमान थी।” बिहारी के काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष का अद्भुत सामंजस्य है। उनका हर दोहा ‘गागर में सागर’ है।

9. जयशंकर प्रसाद [2009, 11, 14]

जीवन परिचय
छायावादी काव्य के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में वाराणसी,उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता सुंघनी शाहू वैभवशाली व्यक्ति थे। विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रसादजी एक साथ कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे। इनके बाल्यकाल में ही इनके पिता तथा बड़े भाई स्वर्गवासी हो गए। परिणामस्वरूप अल्पावस्था में ही प्रसादजी को घर का सारा भार वहन करना पड़ा। इन्होंने स्कूली शिक्षा छोड़कर घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला तथा संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। सुस्थिर होकर कुशलतापूर्वक अपने व्यापार और परिवार को सँभाला और आजीवन अपने उत्तरदायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह करते रहे। साथ-साथ साहित्य सृजन भी करते रहे और अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। इनका देहावसान 15 नवम्बर,सन् 1937 को हुआ।

  • साहित्य सेवा

जयशंकर ‘प्रसाद’ आधुनिक हिन्दी काव्य के सर्वप्रथम कवि थे। सूक्ष्म अनुभूति और रहस्यवादी चित्रण इनके काव्य की विशेषता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में नया युग ‘छायावादी युग’ के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार जयशंकर प्रसाद छायावादी युग के प्रवर्तक थे। प्रेम और सौन्दर्य इनके काव्य के प्रमुख विषय रहे।

  • रचनाएँ

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। गद्य और पद्य,प्रबन्ध और मुक्तक, खण्डकाव्य और प्रबन्ध काव्य और कहानी, नाटक, उपन्यास, निबन्ध तथा आलोचना, कहने का आशय यह है कि साहित्य का कोई भी पक्ष उनसे अछूता नहीं बचा और इन सभी रूपों में उन्होंने अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि के साहित्य का प्रणयन किया है। प्रसाद जी की काव्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं

  1. चित्राधार,
  2. कानन कुसुम,
  3. करुणालय,
  4. महाराणा का महत्व,
  5. प्रेम पथिक,
  6. झरना,
  7. आँसू,
  8. लहर,
  9. कामायनी।

‘कामायनी’ छायावाद का महाकाव्य है और ‘आँसू’ प्रसादजी का लोकप्रिय विरह काव्य है।

  • भाव पक्ष
  1. दार्शनिक विचारधारा प्रसाद एक दार्शनिक कवि हैं। उनके महाकाव्य ‘कामायनी’ में आनन्दवाद की प्रतिष्ठा की गई है। यह ग्रन्थ अपनी अद्भुत छटा बिखेरता हुआ भ्रमित मनुष्यों का पथ प्रदर्शन कर रहा है।
  2. प्रेम और सौन्दर्य की विवेचना-प्रसादजी प्रमुखतया प्रेम और सौन्दर्य के उपासक हैं। छायावादी कवि प्रकृति की हर वस्तु में सुन्दरता के दर्शन करता है। प्रसाद द्वारा निरूपित प्रेम में प्रधानता सर्वत्र मानसिक पक्ष की ही है। प्रसाद के द्वारा व्यक्त सौन्दर्य में बाह्य सौन्दर्य और शारीरिक सौन्दर्य का अदभुत सामंजस्य है।

कामायनी का उदाहरण देखिए-

“नील परिधान बीच सुकुमार,
खुला था मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
मेघ वन बीच गुलाबी रंग।”

(3) अनुभूतिपूर्ण काव्य-अनुभूति की गहनता काव्य की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करती है। प्रसादजी के काव्य में हमें यही गहराई दिखाई देती है। आँसू में प्रेमानुभूति देखिए-

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“रो रो कर सिसक सिसक कर
कहता मैं करुण कहानी,
तुम सुमन नोचते सुनते,
करते जाते अनजानी।”

(4) वेदना की अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य में सर्वत्र एक गहन वेदना की अभिव्यक्ति मिलती है। ‘आँसू’ में तो उनकी गहन वेदनाभूति अपनी सम्पूर्ण गहराई से व्यक्त हुई है, जिसकी पीड़ा पाठक के हृदय को छू जाती है।
(5) कल्पना का अतिरेक व रहस्यवाद-भावानुभूति के साथ-साथ प्रसाद की कविताओं में कल्पना की अधिकता भी है। कंटकाकीर्ण कठोर यथार्थ के सामने अपनी कल्पना का जगत उसे अत्यन्त मधुर प्रतीत होता है। रहस्य की ओर आकर्षण छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। प्रसाद जी प्रकृति के कण-कण में रहस्यमयी सत्ता का आभास पाते और अनुभव करते हैं। पर इस रहस्यमयी सत्ता का रहस्य आखिर में रहस्य ही रहता है।

कामायनी का उदाहरण देखिए-

“हे अनन्त रमणीय ! कौन तुम,
यह मैं कैसे कह सकता, कैसे हो?
क्या हो इसका तो,
भार विचार न सह सकता।”

(6) प्रकृति चित्रण-प्रसादजी के काव्य में प्रकृति के सभी मनोहारी रूपों का बड़ा ही रमणीय चित्रण हुआ है। प्रसाद जी ने प्रकृति को जड़वस्तु के रूप में ग्रहण न कर जीवित और चैतन्य सत्ता के रूप में ग्रहण किया है।
(7) नारी के प्रति श्रद्धा भाव छायावादी कवियों ने नारी को पूर्ण सम्मान दिया है। प्रसादजी ने भी अपने काव्य में नारी के सभी रूपों को दर्शाते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि उसके सम्मान में कहीं कमी न आने पाए।

  • कला पक्ष
  1. भाषा-प्रसादजी के काव्य की भाषा व्याकरणसम्मत, परिष्कृत एवं परिमार्जित खड़ी बोली है। संस्कृत शब्दों की बहुलता होने पर भी भाषा क्लिष्ट अथवा दुरूह नहीं हुई है। भावों की गहराई और कवि कौशल के कारण प्रसादजी की लाक्षणिक और व्यंजनामयी भाषा में चित्रोपमता आ गई है।
  2. अलंकारों का प्रयोग-प्रसादजी की भाषा में अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। उनका प्रयोग इतना सहज है कि वे सर्वत्र काव्य के सौन्दर्य को स्पष्ट करते हैं। शब्दालंकारों और अर्थालंकारों के साथ-साथ उन्होंने मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि पाश्चात्य अलंकारों को भी मुक्त हृदय से अपनाया है।
  3. छन्द योजना प्रसादजी ने अपने काव्य में परम्परागत छन्दों के साथ ही साथ नये-नये छन्दों को लिखकर मौलिकता का परिचय दिया है। ‘आँसू’ में प्रयुक्त छन्द आँसू छन्द ही कहा जाने लगा।
  • साहित्य में स्थान

भाव पक्ष और कला पक्ष की दृष्टि से प्रसादजी का काव्य उच्चकोटि का है। निःसन्देह प्रसाद हिन्दी के युग प्रवर्तक साहित्यकार एवं छायावादी कवि हैं। नूतनता की काव्यधारा को प्रवाहित करने का श्रेय जयशंकर प्रसाद को ही है। प्रसादजी की शैली काव्यात्मक चमत्कारों से परिपूर्ण है।

10. भवानी प्रसाद मिश्र [2016]

जीवन परिचय
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म सन 1913 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया ग्राम में हुआ था। कविता और साहित्य के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में जिन कवियों की भागीदारी थी उनमें श्री मिश्रजी प्रमुख थे। इनके पिता का नाम श्री सीताराम मिश्र तथा माँ का नाम श्रीमती गोमती देवी था। इन्होंने खण्डवा, बैतूल आदि से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर जबलपुर के ऐवर्टसन कालेज से बी.ए.परीक्षा पास की। स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सन् 1942 ई.में इन्होंने जेल यात्रा की। प्रारम्भ में इन्होंने वर्धा में महिला आश्रम में अध्यापन कार्य किया तथा ‘कल्पना’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। तत्पश्चात् आकाशवाणी में सेवारत रहे। 1985 ई.में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हिन्दी की सहज लय की कविता है। भाषा में भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। इनकी रचनाएँ मुक्त छंद में लिखी गई हैं। मिश्रजी को सच्चा कवि हृदय प्राप्त है। हिन्दी के नए कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। गाँधीवाद से प्रभावित मिश्रजी के काव्य में मानव कल्याण के स्वर मुखरित हुए हैं। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के कवियों में इनका सम्माननीय स्थान है।

  • रचनाएँ

भवानी प्रसाद मिश्र की प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं—’गीत फरोश’, ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘सन्नाटा’, ‘चकित है दुःख’, बनी हुई रस्सी’,’खुशबू के शिलालेख’, अनाम तुम आते हो’, इन्द्र कुसुम’, ‘गाँधी पचशती’, ‘त्रिकाल संध्या’, ‘कालजयी’, ‘संप्रति’, ‘जल रही हैं सड़कों पर बत्तियाँ’ आदि।

  • भाव पक्ष
  1. भाषा-मिश्रजी की भाषा सहज एवं सरल है। उनकी भाषा भावाभिव्यक्ति में सशक्त है। इन्होंने अपने काव्य में मुक्त छन्द को अपनाया है। अपने भावों को सहज, सरल भाषा शैली में व्यक्त करने में मिश्रजी कुशल रहे हैं।
  2. अपूर्व प्रकृति चित्रण-इनकी कविताओं में अनुपम प्रकृति चित्रण को भी स्थान दिया गया है। सतपुड़ा के जंगल इनको प्रभावित करते हैं।
  3. अनुभूतिपूर्ण काव्य-इनकी कविताओं में अपनी अनुभूति को कल्पना का जामा पहनाकर अभूतपूर्व बना दिया गया है। इनके काव्य में भावाभिव्यक्ति की सशक्त योजना है।
  4. वेदना की अभिव्यक्ति-इनके काव्य में कहीं-कहीं वेदना की अभिव्यक्ति बड़ी अनूठी बन पड़ी है जो पाठकों के हृदय तक पहुँचने में समर्थ है। प्रतीकों का प्रयोग भी मार्मिक बन पड़ा है।
  • कला पक्ष
  1. अभिव्यक्ति की कशलता मिश्रजी की भाषा में सहजता और सरलता मिलती है। भाषा में भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। इनके भावों में गहराई होते हुए भी वे सरलता लिए हुए है। चिन्तनशीलता इनकी रचनाओं का विशिष्ट गुण है। अपने नए-नए भावों को कविता की पंक्तियों में पिरोकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
  2. अलंकारों और महावरों का प्रयोग मिश्रजी ने अपनी कविता में अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। अनेक प्रतीकों के माध्यम से नए-नए विचारों को समझाने का कार्य किया है।
  3. गाँधीवादी विचारधारा-मिश्रजी ने गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण अपनी कविताओं में गाँधी दर्शन का प्रभाव छोड़ा है। इनकी कविताओं में वैयक्तिकता और आत्मानुभूति दृष्टिगोचर होती है। इनकी गीतफरोश नामक कविता अत्यन्त चर्चित रही।

उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए-

“जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ।
मैं तरह-तरह के किसिम किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अकल जगी मुझको
जी लोगों ने तो बेच दिए ईमान
जी आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान
मैं सोच समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ।”

  • साहित्य में स्थान

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पं. भवानी प्रसाद मिश्र प्रयोगशील एवं नई कविता के लोकप्रिय कवि हैं। इनकी कविताओं में एक ऐसी सरलता और ताजगी है.जो आज के किसी अन्य कवि में दिखाई नहीं देती। गाँधीवाद से प्रभावित मिश्रजी की कविताओं में मानव कल्याण के स्वर मुखरित हुए हैं। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के कवियों में इनका प्रशंसनीय स्थान है। इन्होंने सहज और सरल भाषा शैली में अपने विचारों को व्यक्त करके अपनी कविता को आत्मीय वार्तालाप तथा आत्मानुभव के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

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