MP Board Class 12th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 12th Special Hindi निबन्ध-लेखन

निबन्ध आधुनिक साहित्य की अत्यन्त लोकप्रिय गद्य – विधा है। अंग्रेजी में इसे ‘Essay’ कहते हैं,जो ‘एसाई’ शब्द से बना है। इस शब्द का अंग्रेजी में अर्थ होता है—अपने मन के भावों को व्यक्त करने का प्रयास करना। निबन्ध मन की एक शिथिल विचार तरंग है, जो असंगठित, अपूर्व और अव्यवस्थित होती है। इसे जब व्यवस्थित रूप में संगतिपूर्ण शब्दों के माध्यम से लिपिबद्ध किया जाता है, तब यह निबन्ध होता है। लेखक के मन की विशेष भाव – श्रृंखला की अभिव्यक्ति ही निबन्ध है। सभी व्यक्तित्व भिन्न – भिन्न प्रकृति के होते हैं और उनकी अपनी – अपनी शैली होती है। शैली में व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक होती है। इसीलिए एक ही विषय पर लोग भिन्न – भिन्न प्रकार से विचार व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि निबन्ध को हम सीमित नहीं कर सकते कि अमुक विषय पर बस इसी एक ही प्रकार से निबन्ध लिखा जाये। प्रत्येक छात्र की उस समय की मनोदशा, उसका अपना अनुभव, अपनी भाषा – शैली और व्यक्तित्व तथा शब्द – चयन निबन्ध में व्यक्त होता है। छात्र विशेष को शब्द – योजना और वाक्य – रचना का किस सीमा तक ज्ञान है, क्या वह मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करता है या सरल भाषा का, यह सब उसके कौशल पर निर्भर करता है।

MP Board Solutions

निबन्ध विद्यार्थियों के भाषा – ज्ञान को परखने की कसौटी है। निबन्ध ही परीक्षा का वह प्रश्न है जिससे बालक की लेखन – शैली के कौशल का विास परखा जाता है। परीक्षक यह देखना चाहता है कि अपने ज्ञान को संयोजित कर छात्र किस प्रकार उसे सरस, व्यवस्थित प्रभावशाली भाषा – शैली में व्यक्त कर सकता है।

छात्रों को यह जानना अति आवश्यक है कि वे सीमित समय में सीमित शब्दों में अच्छा निबन्ध किस प्रकार लिखें।

हम अच्छा निबन्ध कैसे लिखें?
निबन्ध लिखने में मुख्य रूप से हमें विचार – समूह अर्थात् आधार – सामग्री पर ध्यान देना आवश्यक है और फिर भाषा – शैली तथा वाक्य – गठन भी भावानुकूल होना चाहिए।

निबन्ध लिखने से पहले हमें भली – भाँति विषय का सही चुनाव करना चाहिए। ऐसा विषय चुनना चाहिए जिसके बारे में भली – भाँति जानकारी हो। निबन्ध की भाषा रोचक होनी चाहिए। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता होनी चाहिए।

सबसे पहले हमें निबन्ध की रूपरेखा सुव्यवस्थित रोचक ढंग से तैयार कर लेनी चाहिए। रूपरेखा पूरी बन जाने के बाद उसके आधार पर निबन्ध लिखना चाहिए।

भाषा – लेखन में सतर्कतापूर्वक वर्तनी की अशुद्धियों पर विशेष ध्यान देकर शुद्ध लिखना चाहिए। विराम – चिह्नों का समुचित प्रयोग आवश्यक है। निबन्ध में आवश्यकतानुसार अनुच्छेद का परिवर्तन एक भाव या विचार समाप्त होने पर करना चाहिए। एक बिन्दु को एक अनुच्छेद में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना चाहिए। निबन्ध के बीच – बीच में अपनी बात की पुष्टि के लिए या विचारों में दृढ़ता लाने के लिए प्रमाणस्वरूप यथास्थान विद्वानों के उद्धरण चाहे वे किसी भी भाषा में हों ज्यों के त्यों लिखना चाहिए। उद्धरण को अवतरण चिह्न “………..” के मध्य मूल भाषा में ही लिखना चाहिए। यदि मूल रूप से याद न हो तो विद्वानों के उन विचारों को अपनी भाषा में भी लिख सकते हैं,तब अवतरण चिह्न का प्रयोग न करें।

भाषा के प्रयोग में एक आवश्यक सावधानी रखें कि किसी भी शब्द या वाक्य की पुनरावृत्ति न हो, अन्यथा भाषा का लालित्य समाप्त होकर निबन्ध प्रभावशाली नहीं रह पायेगा।

निबन्ध के अंग –
ये मुख्य रूप से तीन होते हैं—
(1) प्रस्तावना,
(2) विषय – विस्तार और
(3) उपसंहार।

(1) प्रस्तावना – प्राय: छात्रों को यह दुविधा रहती है कि निबन्ध किस प्रकार प्रारम्भ करें। अतएव अच्छे आरम्भ के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें क्योंकि यदि प्रारम्भ ही गलत दिशा में हो गया तो पूरे निबन्ध का ढाँचा बिगड़ जाता है।

प्रारम्भ यदि किसी विद्वान के उद्धरण से करें तो उचित होता है। प्रारम्भ में किस विषय पर आप निबन्ध लिख रहे हैं वह क्या है? उसकी परिभाषा या विषय का स्पष्टीकरण और उसके स्वरूप का विवेचन कर दें। उस समय विशेष का हमारे जीवन में, हमारे समाज में या वर्तमान सन्दर्भो में उसकी क्या समसामयिक उपयोगिता है? यह लिखें। फिर प्राचीनकाल में इस सम्बन्ध में क्या विचार थे या क्या स्थिति थी और उसमें क्यों और कैसे परिवर्तन आया? यह लिखें।

(2) विषय – विस्तार–प्रस्तावना की सृष्टि होने पर हम निबन्ध के विषय के जितने क्षेत्र और पक्ष हो सकते हैं,उनके आधार पर निबन्ध आगे बढ़ाते हैं। इसमें भी पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। एक स्वतन्त्र बात या विचार को एक अनुच्छेद में रखें। विषय से सम्बन्धित जो भी बात हो, वह छूटने न पाये। विषय के बारे में जो भी जानकारी हो, वह व्यवस्थित रूप में लिखनी चाहिए। किसी भी विषय के बारे में उसके भूतकाल,वर्तमान स्वरूप और भविष्य की क्या रूपरेखा होगी, यह लिख देना चाहिए। उदाहरण के लिए विज्ञान के विषय में प्राचीनकाल में उसकी क्या स्थिति थी। वर्तमान समय में उसकी क्या गतिविधि है और जीवन को क्या लाभ है? यह लिखकर भविष्य की सम्भावनाएँ लिख देनी चाहिए। इस प्रकार आसानी से किसी भी विषय पर निबन्ध लिखा जा सकता है। भाषा – शैली रोचक होनी चाहिए। महापुरुषों के उद्धरण भी लिख देने चाहिए। उससे हमारी बात में दृढ़ता आ जाती है।

निबन्ध के मध्य में ही लेखक पाठक को अपने तर्क समझाने का प्रयत्न करता है। यही भाग निबन्ध का सबसे अधिक विस्तृत भाग होता है। प्रारम्भ से इस भाग का सम्बन्धित होना आवश्यक है और इसके सभी सिद्धान्त वाक्य अन्त की ओर उन्मुख होने चाहिए।

(3) उपसंहार – यह निबन्ध का अन्तिम भाग है। लेखक को यह भाग अति सावधानी से पूरा करना चाहिए। उपसंहार की सफलता पर ही निबन्ध की सफलता निर्भर करती है। भूमिका के समान ही उपसंहार का महत्व होता है। निबन्ध का उपसंहार आकर्षक और सारगर्भित होना चाहिए। हमें निबन्ध का अन्त वहाँ करना चाहिए,जहाँ विषय का विवेचन हमारी जिज्ञासा को पूरी तरह सन्तुष्ट कर दे। उपसंहार में जो कुछ हमने निबन्ध में लिखा है, उसका सारांश संक्षेप में एक अनुच्छेद में लिखना है।

निबन्ध के अन्तिम अंश में ऐसा न लगे कि निबन्ध अनायास समाप्त हो गया है। निबन्ध के समाप्त होने पर भी लेखक की विचारधारा का मूल भाव पाठक के मन में बार – बार आता रहे। वही सफल अन्त है, जिसमें पढ़ने वाले का ध्यान लेखक के तर्कपूर्ण संगत भावों की ओर आकर्षित हो जाये और वह विषय के गुण – दोष दोनों को जानकर अपना एक मत निश्चित कर सके। उक्त प्रकार से लिखा गया निबन्ध उत्कृष्ट होगा।

निबन्ध के प्रकार –

प्रमुख रूप से निबन्ध चार प्रकार के होते हैं –
(1) वर्णनात्मक,
(2) विवरणात्मक,
(3) विवेचनात्मक,
(4) आलोचनात्मक।

(1) वर्णनात्मक – वे निबन्ध जिनमें किसी देखी हुई वस्तु या दृश्य का वर्णन होता है उन्हें हम वर्णनात्मक निबन्ध कहते हैं; जैसे – यात्रा,पर्व, मेला, नदी,पर्वत, समुद्र, पशु – पक्षी,ग्राम,रेलवे स्टेशन आदि का वर्णन।
(2) विवरणात्मक – इसका अन्य नाम चरित्रात्मक भी है। इस प्रकार के निबन्धों में ऐतिहासिक घटनाओं, ऐतिहासिक यात्राओं तथा महान पुरुषों की जीवनियों एवं आत्मकथा आदि का वर्णन होता है।
(3) विवेचनात्मक – इसका अन्य नाम विचारात्मक भी है। इन निबन्धों में विचारों की प्रमुख रूप से प्रधानता होती है। इसीलिये इन्हें विचारात्मक या विवेचनात्मक निबन्ध कहते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में भावनात्मक विषयों पर भी लेखनी चलाई जाती है। जैसे—करुणा,क्रोध, श्रद्धा – भक्ति, अहिंसा, सत्संगति, परोपकार आदि विषयों पर लिखे गये निबन्ध इस श्रेणी में आते हैं।
(4) आलोचनात्मक – इस प्रकार के निबन्धों के अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक समस्त प्रकार के निबन्ध आते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में तर्क – वितर्क द्वारा पक्ष – विपक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।

समसामयिक समस्याओं से सम्बन्धित निबन्ध में यथा आतंकवाद, महँगाई की समस्या, साम्प्रदायिकता, जनसंख्या विस्फोट,बेरोजगारी एवं आरक्षण आदि की समसामयिक समस्याएँ सम्मिलित हैं।

MP Board Solutions

1. राष्ट्र निर्माण में छात्रों का योगदान [2009]

“चाहे जो हो धर्म तुम्हारा, चाहे जो वादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश हित, तो निश्चय ही अपराधी हो।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) छात्रों का उचित निर्देशन आवश्यक,
(3) एकनिष्ठ भाव से अध्ययन,
(4) छात्र देश का अविभाज्य अंग,
(5) छात्र देश के भावी कर्णधार,
(6) देश के प्रति छात्रों के कर्त्तव्य,
(7) प्रस्तावना। [2014]

प्रस्तावना – राष्ट्र का वास्तविक अर्थ उस देश की भूमि नहीं वरन् देश की भूमि में रहने वाली जनता है। जनता की सुख – समृद्धि ही राष्ट्र की सच्ची प्रगति है। आज के विद्यार्थी कल देश के नागरिक होंगे। अतएव छात्र – जीवन में ही उनके मन में राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना यदि भर दी जाय तो वे राष्ट्र की उन्नति में सहायक होते हैं। जिस मातृभूमि की गोद में हमने जन्म लिया, जिसकी धरती से हमारा पालन – पोषण हुआ उस देश की सेवा,प्रगति में कुछ विशिष्ट लोगों का हाथ हो यह ठीक नहीं, वरन आज के छात्रों को भी इस प्रगति में पूर्ण सहयोग देना चाहिए। छात्रों को न केवल अपने अधिकारों के बारे में सचेत रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने कर्तव्य के प्रति भी उतनी ही निष्ठा रखनी चाहिए।

छात्रों को उचित निर्देशन आवश्यक – किशोरावस्था तथा युवावस्था में आत्म – विवेक नहीं रहता और इसके अभाव में आत्म – नियन्त्रण,भी नहीं रहता। अतएव छात्रों को देश की प्रगति के बारे में बताना होगा। देश का प्रत्येक निवासी जो जिस स्थान पर है, जिस स्थिति में है वह वहीं रहकर देश की सेवा कर रहा है—किसान अपने खेतों और खलिहानों में, व्यापारी – व्यापार में, साहित्यकार सृजन में,डॉक्टर, वैद्य अस्पतालों में, सैनिक युद्ध के मोर्चे पर तथा विद्यार्थी अपने विद्यालयों में अध्ययन करके। जिस व्यक्ति का जो काम है वह उसे एकाग्रता से निष्ठापूर्वक करे तो देश की प्रगति होगी। इसके विपरीत यदि छात्र असफल राजनीतिज्ञों,छात्र नेताओं के गलत पथ – प्रदर्शन को अपना लेते हैं तो प्रगति के नाम पर पतन के रास्ते पर चल पड़ते हैं। अधिकारों के नाम पर हड़ताल, प्रदर्शन, सत्याग्रह, आन्दोलन, धरना, घिराव इन सब गतिविधियों में भाग लेकर वे अपना भी नुकसान करते हैं और यह सब राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।

एकनिष्ठ भाव से अध्ययन – देश की प्रगति में छात्रों के योगदान का आशय है एकनिष्ठ भाव से विद्याध्ययन करना क्योंकि विद्या प्राप्ति के लिए एक अवस्था और एक समय निश्चित है। यदि इस अवस्था में एकनिष्ठता का अभाव रहा तो भावी जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव नहीं है। भावी जीवन की नींव ही यदि कमजोर हुई तो उस पर जो भवन खड़ा होगा वह सुदृढ़ और स्थायी नहीं रह पायेगा। वह केवल लड़खड़ाते हुए अपनी जिन्दगी काटेगा। यदि छात्र सम्पूर्ण तन्मयता से एक शिष्ट सुसंस्कृत सभ्य नागरिक बनने की तैयारी कर रहे हैं तो यही देश सेवा है। छात्र चाहे तो कुशल व्यवसायी, विद्वान् प्रवक्ता, सफल वकील,प्रसिद्ध डॉक्टर, निपुण कलाकार, कर्मठ शिल्पी कुछ भी बन सकता है और यही आज का छात्र कल का सभ्य नागरिक बनकर देश की प्रगति में सहायक होगा।

छात्र देश का अविभाज्य अंग – छात्र देश के कर्णधार हैं। समाज व्यक्ति से ही बनता है, वह बहुत – सी इकाइयों का समूह है और छात्र देश के अविभाज्य अंग हैं। छात्रों का प्रत्येक निष्ठापूर्वक किया हुआ कार्य देश को, देश के चरित्र को, देश के मान – सम्मान और गौरव को बढ़ाता है और इनके ही कृत्यों द्वारा देश बदनाम होता है, उसकी अवनति होती है। छात्रों की प्रत्येक गतिविधि की परछाईं देश के चरित्र में स्पष्ट झलकती है। हमारी प्रगति ही देश की प्रगति है, इस बात को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।

छात्र देश के भावी कर्णधार छात्रों का स्वाध्याय, चिन्तन – मनन, उनके शिष्ट व्यवहार, मधर सम्भाषण यह सब देश की प्रगति का सचक है। छात्र और जनता अच्छी होगी तो देश अच्छा कहलायेगा, यदि छात्र अनुशासित होंगे तो देश अनुशासित कहलायेगा। ईमानदारी, सच्चाई और दूसरों के क्रिया – कलाप में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना ही एक प्रगतिशील राष्ट्र की निशानी है। छात्र शान्त – चित्त और अनन्य श्रद्धा से शिक्षा ग्रहण करें यही देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान है क्योंकि ये ही देश के भावी कर्णधार हैं और देश को महान् बनाने के कर्म में लगे हुए हैं।

शिक्षण और स्वाध्याय से जो समय बचे उसका छात्रों को सदुपयोग करना चाहिए।

देश के प्रति छात्रों के कर्त्तव्य छात्र प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता आन्दोलन में भाग लेकर अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का काम कर सकते हैं। सार्वजनिक रूप से गोष्ठियों, व्याख्यान मालाओं का आयोजन कर देश के चरित्र को ऊँचा उठाने में नैतिक मूल्यों की.मानवीयता की धर्मनिरपेक्षता की शिक्षा का प्रचार कर एकता का प्रयास कर सकते हैं। अकालग्रस्त या भूकम्प पीड़ित, ओलावृष्टि से प्रभावित क्षेत्रों के लिए टोलियाँ बनाकर धन – सामग्री एकत्रित कर उनकी सहायता कर सकते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में जाकर डूबने वाले व्यक्तियों को बचा सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं का निर्माण भी कर सकते हैं जो दैवी विपत्ति के समय हरदम मदद को तैयार रहें। अवकाश के समय गाँवों में जाकर श्रमदान द्वारा सड़क निर्माण, कुओं की सफाई,परिसर की स्वच्छता के लिए प्रयास कर सकते हैं। कृषि की उन्नति में नवीन वैज्ञानिक साधनों की, उन्नत बीजों की,खाद,दवा की जानकारी दे सकते हैं। गाँव वालों को सौर ऊर्जा,उन्नत चूल्हे,धूम्ररहित चूल्हे, परिवार नियोजन, अल्प – बचत योजना तथा पोलियो आदि के टीकाकरण के सम्बन्ध में जानकारी दे सकते हैं। अन्ध – विश्वासों व रूढ़िवादिता से छुटकारा दिला सकते हैं।

इंजीनियरिंग तथा मेडीकल के छात्र भी ग्रीष्मावकाश में गाँवों जाकर सेवा – कार्य कर सकते हैं। देश की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, प्रजातन्त्र का महत्त्व, मतदान की गरिमा, नागरिक के अधिकार, कर्त्तव्य, ऋण – योजना एवं बीमा आदि के बारे में अन्य विषय के छात्र जानकारी दे सकते हैं।

उपसंहार – छात्र – जीवन विद्यार्थी की वह अवस्था होती है, जिसमें मनुष्य अटूट शक्ति – सम्पन्न होता है। उनमें कार्य सम्पादन की अभूतपूर्व क्षमता होती है,मन – मस्तिष्क तेज होते हैं। यदि उन्हें सही दिशा मिले और उनकी शक्ति का उचित मार्गान्तरीकरण हो तो वे देश की प्रगति में अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होंगे। भारतीय छात्र पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से देश को आगे बढ़ायें।

2. समय का सदुपयोग [2017]

“समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चिंत रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) समय जीवन सफलता का मापदण्ड,
(3) समय के सदुपयोग से लाभ,
(4) परिश्रम एवं तपस्या ही जीवन का मूल्यांकन है,
(5) उपसंहार।।

प्रस्तावना – नष्ट हुई सम्पत्ति और खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त करने के लिए मनुष्य निरन्तर मेहनत करता है। एक दिन उसे सफलता मिल जाती है। खोया हुआ स्वास्थ्य और नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु खोया हुआ क्षण फिर वापस नहीं आता। समय न तो मनुष्य की प्रतीक्षा करता है और न परवाह। समय का रथ तो तेजी से चल रहा है उसे कोई भी रोक नहीं सकता। इसीलिए कहा है :

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कण नष्ट कुतो धनम्।

प्रत्येक क्षण में विद्या (ज्ञान) प्राप्त करो और कण – कण जोड़कर धन पाओ। क्षण भर का समय नष्ट हो जाय तो विद्या कहाँ और कण नष्ट हो जाय तो धन नहीं। तुलसीदास जी ने भी कहा है :

‘दिवस जात नहीं लागत बारा’

दिन जाते देर नहीं लगती,जो समय पर जाग नहीं सका,वही पीछे रह गया।
नदी बहती है, घड़ी चलती है, सूरज, चाँद तारे भी विश्राम नहीं करते तो हम क्यों आराम करें। समय को व्यर्थ न गँवायें उसका सदुपयोग करें।

काव्यशास्त्र विनोदेन काल: गच्छति धीमताम्
व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन वा

समय जीवन – सफलता का मापदण्ड – जीवन की सफलता का रहस्य समय के सही उपयोग में निहित है। संसार के सभी प्राणियों का समय पर समान रूप से अधिकार है। समय की उपयोगिता साधारण से साधारण व्यक्ति को भी महान् बनाती है। महापुरुषों के चरित्र से हमें प्रेरणा मिलती है,उन्होंने एक – एक क्षण का उपयोग किया तभी जीवन में उन्हें सफलता मिली। हमें प्रात: शीघ्र उठकर दिनभर के कार्यक्रम की रूपरेखा बना लेनी चाहिए और आज के कार्यों को आज ही सम्पन्न कर लेना चाहिए। जो व्यक्ति निश्चित उद्देश्य को सामने रखता है उसे अपना रास्ता स्पष्ट दिखायी देता है। वह उलझन में नहीं रहता और पूर्ण मनोयोग से उस कार्य की ओर बढ़ता है।

MP Board Solutions

समय के महत्त्व को समझने वाला दुःखी नहीं होता। समय के सदुपयोग का तात्पर्य है नियमित होना। जो अपनी दिनचर्या नियमित रखते हैं वे ही कुछ कर पाते हैं। समय से सोना, समय से उठना, भोजन, अध्ययन, भ्रमण, मनोरंजन, पूजन आदि का समय निश्चित करें। अपने बुजुर्गों के पास बैठे,उनकी सेवा करें। जो व्यक्ति काम टालने वाले होते हैं वे सदैव पछताते हैं।

कबीरदासजी ने कहा है :

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब।।

समय के सदपयोग से लाभ – समय के सदपयोग से व्यक्ति की उन्नति होती है अतएव बचपन से ही हमें समय के मूल्य का ध्यान रखना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नियमित होना आवश्यक है और अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए हमें अपने खाली समय में स्वाध्याय हेतु अच्छे – अच्छे ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए। अपने से अधिक बुद्धिमान लोगों से चर्चा करनी चाहिए। कभी किसी काम को देर से शुरू न करें,क्योंकि प्रारम्भ की देरी से बाद में भी विलम्ब हो जाता है और फिर उसके बाद के अन्य कामों की सब व्यवस्था अस्त – व्यस्त हो जाती है। पल के अंश में क्या हो जायेगा क्या पता। कहा गया है :

का जाने होइ है पल के चौथे भाग।
अतएव हर पल का उपयोग करें।

परिश्रम एवं तपस्या ही जीवन का मूल्यांकन है देश और समाज के प्रति भी हमारा कर्त्तव्य है। हमें सेवा, परोपकार हेतु भी समय निश्चित रखना चाहिए जिससे देश और समाज की भी उन्नति हो। वर्तमान में विज्ञान का युग होने से हमारी दैनिक जिन्दगी में समय की बचत होने लगी है। यात्रा,लेखन कार्य, भोजन सभी क्षेत्रों में समय बचने लगा है। घण्टों का काम मिनटों में सम्पन्न हो जाता है। समय का सदुपयोग करने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है। उसे चिन्ता नहीं रहती कि उसका कोई काम अधूरा है। थोड़े समय में वह अधिकाधिक काम कर लेता है। जो लोग बेकार बैठे रहते हैं,वे समाज में परेशानी पैदा करते हैं,जैसे उन्हें यदि पैसों की जरूरत है तो वे काम न करके जेब काटेंगे या चोरी करेंगे। पर जिसके पास समय की कीमत है वह व्यर्थ की बातों में समय न गँवाकर काम करके पैसा कमाता है और अपनी आवश्यकता पूरी करता है।

ऐसे व्यक्ति का सभी आदर करते हैं। समय का सदुपयोग करने वाला व्यक्ति जीवन में उन्नति करता है क्योंकि परिश्रम और तपस्या से ही किसी व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है कि वह अपना समय कैसे बिताता है। सत्पुरुष स्वयं सद्मार्ग पर चलकर दूसरों को भी समय बचाने की प्रेरणा देते हैं ताकि चूक जाने पर पछताना न पड़े।

भारत में जीवन के समय को चार भागों में बाँटा गया है और उस समय नियत कार्य ही समय का सदुपयोग है।

प्रथमे नार्जिते विद्या, द्वितीये नार्जिते धनं।
तृतीय नार्जिते पुण्यं, चतुर्थ किम करिष्यति?

अर्थात् जीवन के प्रथम भाग में यदि विद्याध्ययन न किया, द्वितीय भाग में धन नहीं कमाया और प्रौढ़ावस्था में परोपकार या पालन – पोषण कर पुण्य नहीं कमाया तो जीवन के अन्तिम चरण में क्या कर लोगे?

उपसंहार – हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए तथा उन लोगों से बचना चाहिए जो समय के शत्रु हैं। आलस्य,स्वार्थीपन, बुरी संगति तथा दीर्घसूत्री (काम टालना) ये सब शत्रु हैं। इन्हें पास नहीं फटकने देना चाहिए।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपु।
आलसी व्यक्ति कल’ कहता है अतएव आज’ कहना प्रारम्भ करो। व्यर्थ की गपशप,घण्टों तक दुर्व्यसन,लड़ाई – झगड़ा या सोये रहना – ये सब समय का दुरुपयोग हैं। जब प्रकृति,पशु – पक्षी सब में समय की नियमितता है तो हम तो मनुष्य हैं। अत: आज से ही समय का सदुपयोग करें,यही सफलता की कुंजी है। सफलता का वास्तविक रहस्य समय के सदुपयोग में निहित है।

3. वनों का महत्त्व अथवा वन महोत्सव
अथवा
वृक्षारोपण या वन संरक्षण

“धरती का श्रृंगार वृक्ष, वृक्षों से इसे सजाओ।
हरियाली से चमक उठे जग, दस – दस वृक्ष लगाओ।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में वृक्षों की महत्ता,
(3) वृक्षों की उपासना का प्रचलन,
(4) वृक्ष धरती की उर्वरा शक्ति के परिचायक,
(5) वृक्षों से लाभ,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारतवर्ष का मौसम और जलवायु विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी प्राकृतिक रमणीयता और हरित वैभव विश्व – विख्यात है। विदेशी पर्यटक यहाँ की मनोहारी प्राकृतिक सुषमा देखकर मोहित हो जाते हैं।

प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में वृक्षों की महत्ता हमारे देश की प्राचीन संस्कृति में वृक्षों की पूजा और आराधना की जाती है तथा उन्हें देवत्व की उपाधि दी जाती है। वृक्षों को प्रकृति ने मानव की मूल आवश्यकताओं से जोड़ा है। किसी ने कहा है – वृक्ष ही जल है,जल ही अन्न है और अन्न ही जीवन है। यदि वृक्ष न होते तो नदी और जलाशय न होते,वृक्षों की जड़ों के साथ वर्षा का अपार जल जमीन के भीतर पहुँचकर अक्षय भण्डार के रूप में एकत्र रहता है। वन हमारी सभ्यता और संस्कृति के रक्षक हैं। शान्ति और एकान्त की खोज में हमारे ऋषि – मुनि वनों में रहते थे। वहीं उन्होंने तत्त्व ज्ञान प्राप्त किया और वहीं विश्व कल्याण के उपाय सोचे। वहीं गुरुकुल होते थे, जिसमें भावी राजा, दार्शनिक, पण्डित आदि शिक्षा ग्रहण करते थे। आयुर्वेद के अनुसार पेड़ – पौधों की सहायता से मानव को स्वस्थ एवं दीर्घायु किया जा सकता है। तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ने तथा राष्ट्रों के औद्योगिक विकास कार्यक्रमों के कारण पर्यावरण की समस्या गम्भीर हो रही है। प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग से पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है। वृक्षों की भारी तादाद में कटाई से जलवायु बदल रही है। ताप की मात्रा बढ़ती जा रही है,नदियों का जल दूषित हो रहा है,वायुमण्डल में कार्बन डाइ – ऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ रही है। इससे भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य को खतरा है। जलवायु की नीरसता और शुष्कता को दूर करके पुनः प्राकृतिक सुरम्यता और रमणीयता लाने हेतु भारत सरकार ने 1950 में वन महोत्सव की योजना प्रारम्भ की। नये वृक्ष लगाये जाने लगे और वृक्षारोपण की एक क्रमबद्ध योजना प्रारम्भ हुई।

वृक्षों की उपासना का प्रचलन वृक्षों के महत्त्व एवं गौरव को समझते हुए हमारी प्राचीन परम्परा में इनकी आराधना पर बल दिया गया। पीपल के वृक्ष की पूजा करना,व्रत रखकर उसकी परिक्रमा करना,जल अर्पण करना और पीपल को काटना पाप करने के समान है,यह धारणा वृक्षों की सम्पत्ति की रक्षा का भाव प्रकट करती है। प्रत्येक हिन्दू घर के आँगन में तुलसी का पौधा अवश्य पाया जाता है। तुलसी पत्र का सेवन प्रसाद में आवश्यक माना गया है। बेल के वृक्ष,फल और बेलपत्र की महिमा इतनी है कि वे शिवजी पर चढ़ाये जाते हैं। ‘सर्वरोगहरो निम्बः’ यह नीम वृक्ष का महत्त्व है। कदम्ब वृक्ष को श्रीकृष्ण का प्रिय पेड़ बताया है तथा अशोक के वृक्ष शुभ और मंगलदायक हैं। इन वृक्षों की रक्षा हेतु कहते हैं कि हरे वृक्षों को काटना पाप है। सायंकाल किसी वृक्ष के पत्ते तोड़ना मना है—कहते हैं कि वृक्ष सो जाते हैं। जो व्यक्ति हरे वृक्ष को काटता है उसकी सन्तान मर जाती है। ये सब हैं हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक जिसमें वृक्षों को ईश्वर स्वरूप,वन को सम्पदा और वृक्षों के काटने वालों को अपराधी कहा जाता है।

वृक्ष धरती की उर्वरा शक्ति के परिचायक – वृक्षों की अधिकता पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाती है। मरुस्थल को रोकने के लिए वृक्षारोपण की महती आवश्यकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ का जन – जीवन खेती पर निर्भर रहता है, खेती के लिए जल की आवश्यकता होती है। सिंचाई का उत्तम साधन बारिश का जल है। यदि वर्षा न हो तो नदी, जलाशय, झरने, ट्यूबवेल इत्यादि भी सूख जायें। इनके जल की पूर्ति भी वर्षा करती है। अनुकूल वर्षा होती है तो हम उसे ईश्वर की कृपा समझकर प्रसन्न होते हैं और तृप्ति का अनुभव करते हैं।

वृक्ष वर्षा के पानी को सोखकर धरती के भीतर पहुँचा देते हैं। इसी से धरती उपजाऊ होती है।

वृक्षों से लाभ – वृक्षों से स्वास्थ्य लाभ होता है क्योंकि मनुष्य की श्वास प्रक्रिया से जो दूषित हवा बाहर निकलती है, वृक्ष उन्हें ग्रहण कर हमें बदले में स्वच्छ हवा देते हैं। आँखों की थकान दूर करने और तनाव से छुटकारा पाने के लिए विस्तृत वनों की हरियाली हमें शान्ति प्रदान कर आँखों की ज्योति को बढ़ाती है। वृक्ष बालक से लेकर बुजुर्गों तक सभी के मन को भाते हैं। इसीलिए हम अपने घरों में छोटे – छोटे पेड़ – पौधे लगाते हैं। वृक्षों पर अनेक प्रकार के पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते हैं और उनकी कल – कल मधुर ध्वनि पर्यावरण में मधुरता घोलती है। वृक्षों से अनेक प्रकार के स्वाद के फल हमारे भोजन को रसमय और स्वादिष्ट बनाते हैं। इनकी छाल और जड़ों से दवाइयाँ बनती हैं। अनेक पशु वृक्षों से अपना आहार ग्रहण करते हैं।

वृक्षों से मानव को अनेक लाभ हैं – ये वर्षा कराने में सहायक होते हैं। वृक्षों के अभाव में वर्षा नहीं होती और वर्षा के अभाव में अन्न का उत्पादन नहीं हो पाता। ग्रीष्मकाल में वृक्ष हमें सुखद छाया और मन्द पवन देते हैं। सूखे वृक्ष ईंधन के काम आते हैं। गृह निर्माण,गृह सज्जा, फर्नीचर,काष्ठ शिल्प के लिए हमें वृक्षों से ही लकड़ी मिलती है। कागज, गोंद आदि भी वृक्ष से कच्चा माल ग्रहण करके बनते हैं। कई सुगन्ध, तेल,खाद्य सामग्री में सुगन्ध ये सब भी वृक्षों से प्राप्त होते हैं। आँवला – चमेली का तेल, गुलाब,केवड़े का इत्र,जल,खस की खुशबू ये सभी वृक्षों और उनकी जड़ों से बनते हैं।

MP Board Solutions

उपसंहार – वृक्षों से हमें नैतिकता, परोपकार और विनम्रता की शिक्षा मिलती है। फल को स्वयं वृक्ष नहीं खाता। वह जितना अधिक फल – फूलों से लदा होगा उतना ही झुका हुआ रहता है। हम जब देखते हैं कि सूखा कटा हुआ पेड़ भी कुछ दिनों में हरा – भरा हो जाता है जो जीवन में आशा का संचार कर धैर्य और साहस का भाव जगाता है। हमें अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना चाहिए। वृक्षारोपण करके ही हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जीवनदायी वातावरण सृजित कर सकते हैं।

4. पुस्तकालय

“ज्ञान का भंडार संचित, ज्ञान का प्रसाद पाओ।
पुस्तकालय ज्ञान राशि है, आकर ज्ञान बढ़ाओ॥

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) पुस्तकालय का आशय,
(3) मानसिक स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि,
(4) पुस्तकालय के प्रकार,
(5) सार्वजनिक पुस्तकालय,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – पुस्तकें हमारी उत्कृष्ट पथ – प्रदर्शक हैं। हम अकेले में इनसे बातें कर सकते हैं, समय का सदुपयोग कर सकते हैं। महान् आत्माओं के दर्शन कर सकते हैं।

जिज्ञासा,कौतूहल,नित नवीन ज्ञान की प्राप्ति ये मानव स्वभाव के अंग हैं एवं उसकी मूल प्रवृत्ति हैं और पुस्तकें सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। छात्र अपनी पाठ्य – पुस्तकों के माध्यम से अपनी सभी जिज्ञासाओं को पूरी नहीं कर पाते, अतएव वे अन्य पुस्तकों को भी पढ़ना चाहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति इतना सम्पन्न नहीं होता कि सभी किताबें खरीद सके, अतएव पुस्तकालय का प्रचलन हुआ।

पुस्तकालय का आशय – पुस्तकालय दो शब्दों से मिलकर बना है – पुस्तक+ आलय। इसका तात्पर्य है – वह स्थान या भवन है जहाँ पुस्तकों का संग्रह होता है। पुस्तकों का घर पुस्तकालय है। पुस्तकालयों में अनेक विद्याओं एवं विषयों की किताबें रहती हैं। साहित्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र,कानून शिक्षा, दर्शन, विज्ञान की पुस्तकें और साहित्यकोष, ज्ञानकोष,शब्दकोष रहते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि – शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार मनुष्य को पौष्टिक भोजन की जरूरत होती है उसी प्रकार नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए नयी पुस्तकें अपेक्षित हैं। ये सब हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। अपने मस्तिष्क को सक्रिय रखने के लिए उसे शुद्ध ज्ञान की खुराक देते रहना चाहिए। इस ज्ञान की उपासना के दो स्थान हैं – एक विद्यालय दूसरा पुस्तकालय। पुस्तकालय में हम ज्ञान के व्यापक क्षेत्र का रसास्वादन कर सकते हैं। यहाँ सभी की रुचि के एवं सभी प्रकार के ग्रन्थ सरलता से मिल जाते हैं। यहाँ के शान्त वातावरण में हम अपने जीवन की अशान्ति और संघर्ष से छुटकारा पा सकते हैं। प्रायः पुस्तकालयों के साथ वाचनालय भी होते हैं। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी – अपनी पसन्द की पुस्तक निकालकर पढ़ सकते हैं और उसमें से आवश्यक महत्त्वपूर्ण नोट भी बना सकते हैं।

पुस्तकालय के प्रकार – पुस्तकालय अनेक प्रकार के हो सकते हैं। हमारी शाला. महाविद्यालय या विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में छात्रों की रुचि की, उनको प्रेरणा देने वाली तथा उनके अध्ययन विषयों में सहायता कर उनके ज्ञान को परिपक्व बनाने में सहायक पुस्तकें होती हैं। इनका कार्य – क्षेत्र सीमित होता है। केवल छात्र और अध्यापक ही इसका लाभ ले पाते हैं। इन पुस्तकालयों का महत्त्व सर्वोपरि है क्योंकि ये छात्रों की ज्ञान वृद्धि में सहायक होते हैं। वे छात्र जो पुस्तकें खरीदने की क्षमता नहीं रखते या वे जो ज्ञान के भण्डार को और बढ़ाना चाहते हैं, एवं एक विषय के लिए अनेक पुस्तकों में अध्ययन करते हैं, उनके लिए ये संस्थागत पुस्तकालय अमूल्य सेवा देकर छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर देते हैं।

दूसरे प्रकार के पुस्तकालय वे होते हैं जो व्यक्तिगत कहलाते हैं। अनेक विद्यानुरागी विद्वान् जो धन की दृष्टि से सक्षम हैं वे भी चुन – चुनकर अनेक विषयों की एवं अनेक प्रकार की पुस्तकें स्वयं खरीद कर उनका संग्रह करके एक यादगार पुस्तकालय बनाते हैं। इनमें प्राचीन और नवीन सभी प्रकार की पुस्तकें होती हैं। उनके निकटतम मित्र व सम्बन्धी इसका लाभ उठा सकते हैं। प्रत्येक वह व्यक्ति जिसे नये ज्ञान के प्रति कौतूहल हो वह अपनी रुचि एवं अपनी क्षमता के अनुसार छोटा या बड़ा पुस्तकालय अपने घर पर अपनी अलमारी में बना सकते हैं। विद्या प्रेमी व्यक्तियों की यही सम्पदा है।

कई शासकीय पुस्तकालय भी होते हैं जो भव्य एवं विशाल भवनों में स्थित होते हैं। यहाँ धन की कमी न होने से बड़े से बड़े दुर्लभ ग्रन्थों का रख – रखाव प्रशिक्षित एवं विद्वान पुस्तकालयाध्यक्षों की देख – रेख में होता है। इन पुस्तकालयों की व्यवस्था सरकार करती है और यहाँ की व्यवस्था बनाये रखने के लिए अनेक कर्मचारी तैनात रहते हैं, पर ये पुस्तकालय जन – साधारण की पहुँच से बाहर होते हैं। इनमें प्रवेश के और पुस्तक प्राप्त करने के कठिन नियमों के कारण ये केवल विशेष वर्ग के उपयोग हेतु सीमित रहते हैं।

सार्वजनिक पुस्तकालय सार्वजनिक पुस्तकालय अत्यधिक लोकप्रिय एवं लाभप्रद हैं। ये सार्वजनिक धन से बनाये जाते हैं। सार्वजनिक पुस्तकालयों की पुस्तकें सभी लोगों की रुचि को ध्यान में रखकर संग्रहीत की जाती हैं। ये सम्पूर्ण समाज को लाभ पहुँचाती हैं। छोटा बड़ा कोई भी व्यक्ति यहाँ से मनपसन्द पुस्तक निकलवाकर पढ़ सकता है। कुछ शुल्क नियत होता है जिससे हम इन पुस्तकालयों की सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं और फिर कोई भी पाठक इन पुस्तकों को निश्चित सीमावधि के लिए घर ले जाकर सपरिवार पढ़ सकते हैं। ऐसे पुस्तकालयों में जो सार्वजनिक वाचनालय होता है वहाँ अनेक प्रकार की पत्र – पत्रिकाएँ और दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक समाचार – पत्र भी मँगवाये जाते हैं जिन्हें कोई भी पढ़ सकता है और अपना ज्ञान बढ़ाने के साथ समाज,राज्य,राजनीति की दिन – प्रतिदिन घटित होने वाली समस्याओं से अवगत हो सकता है। कई बुजुर्ग लोग सुबह – शाम व्यर्थ का समय न गवाकर इन वाचनालयों एवं पुस्तकालयों में अपना समय बिताते हैं, वहाँ से बाहर निकलकर ज्ञान चर्चा करते हैं और उन्हें सत्संगति का समागम सुख भी प्राप्त होता है।

उपसंहार—यथार्थ में पुस्तकें मनुष्य की सच्ची सुख मित्र,पथ – प्रदर्शक और साथी हैं। अतः गाँव – गाँब में ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना जरूरी है। इससे ग्रामवासियों में पढ़ने के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होगी, उनका ज्ञान बढ़ेगा और इस प्रकार देश में योग्य और सक्षम लोगों की अधिकता स्वयमेव होगी जो देश के सुखद भविष्य का द्योतक होगी।

5. भारत की साम्प्रदायिक एकता
अथवा
राष्ट्रीय एकता (2009, 11)

“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।
हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा ॥”

MP Board Solutions

विस्तृत रूपरेखा ([2017] –
(1) प्रस्तावना,
(2) भारतवर्ष विस्तृत भूखंड है,
(3) अनेकता में एकता भारत की विशेषता,
(4) राष्ट्रीय हित सर्वोपरि,
(5) साम्प्रदायिक सद्भावना अपेक्षित,
(6) प्रान्तीयता की भावना राष्ट्रीय एकता में बाधक,
(7) सर्वधर्म समभाव अपेक्षित,
(8) साम्प्रदायिक एकता के निमित्त प्रयास,
(9) जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी,
(10) उपसंहार।]

प्रस्तावना – ‘भारत की साम्प्रदायिक एकता’ यहाँ के निवासियों की भावनात्मक प्रवृत्ति को स्पष्ट कर देती है जिसमें सबके एक होने (एकत्वभाव) का अर्थ समाहित है। अतः सम्पूर्ण देश के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक,आर्थिक,सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा साहित्यिक दृष्टि से एक होने का अभिप्राय व्यक्त होता है। साम्प्रदायिक एकता और राष्ट्रीयता में भारत राष्ट्र की अनेकता में एकता छिपी हुई है। उपर्युक्त दृष्टि से अनेकता से संयुक्त भारत एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। बाहरी रूप से अनेकता (विविधता) लिए हुए भारतवर्ष वैचारिक दृष्टिकोण में एकता धारण किये हुए है। यही एकता में अनेकता और अनेकता में एकता भारत की प्रमुख विशेषता है।

भारतवर्ष विस्तृत भूखंड है – भारतवर्ष एक विशद भूखण्ड (उपमहाद्वीपीय) परिक्षेत्र में फैला हुआ राष्ट्र है जिससे अलगाववादी प्रवृत्तियाँ दूर हैं। यहाँ के निवासी हिन्दू, मुसलमान,ईसाई, पारसी तथा सिख सब बराबर हैं। वे अपने हित को राष्ट्र के हित से अलग नहीं मानते हैं।

अनेकता में एकता भारत की विशेषता भारतवर्ष के सामाजिक परिवेश में अनेक जातियाँ – उपजातियाँ, गोत्र – वर्ण आदि अनेकता लिए हुए होकर भी समाज को एकरूपता देते हैं। अनेक धर्म और सम्प्रदाय अपने अवान्तर भेदों से संयुक्त हैं। सांस्कृतिक रूप में उन सबका रहना – सहना, वेशभूषा, पूजा – पाठ आदि की विविधता ‘एकता’ लिए हुए है। राजनैतिक क्षेत्र में भी समाजवाद, साम्यवाद, गाँधीवाद आदि विविध विचारधाराएँ राष्ट्रवाद से अलग नहीं हैं। साहित्यिक क्षेत्र में भी प्राचीन और नवीन भाषा सम्बन्धी विविध शैलियाँ पल्लवित हैं लेकिन उन सबका ध्येय साहित्यिक समन्वय ही है। आर्थिक दृष्टिकोण भी अनेकता प्रधान है परन्तु उसमें भारत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सन्तुलित रखने का प्रयासमात्र है जो राष्ट्रीय एकता को स्थापित करता है। भौगोलिक दृष्टि से भी भारतवर्ष एक लघु विश्व है जिसमें प्राकृतिक विविधता के दर्शन होते हैं। ऋतु परिवर्तन की छटा, पहाड़ों और पठारों के ऊँचे – नीचे शिखर, कहीं बर्फ की चादर ओढ़े हुए और कहीं अपने नंगे प्रकृत स्वरूप में हमारी चेतना पर विपरीत प्रभाव डालती प्रकृति अपने मनोरम स्वरूप में सबको आकर्षित करती है। भारत वसुन्धरा विविध वस्तुओं (रत्नों) को अपने अन्तर में छिपाये हुए है जो भारतीय समृद्धि के एकत्व प्रधान स्वरूप को प्रकट करती है।

राष्ट्रीय हित सर्वोपरि राष्ट्रीय एकता को पल्लवित करने के लिए अलगाववादी प्रवृत्ति को दूर रखना चाहिए। सभी को यहाँ अपने – अपने सम्प्रदाय और धर्मों के प्रति अटूट आस्था रखने की अनुमति दी गई है। परन्तु राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है जो साम्प्रदायिक और धार्मिक अवान्तरों के पालन से ऊपर है। सभी धर्मों का मूल एक है – उस असीम सत्ता की प्राप्ति। अतः राष्ट्रीय स्तर पर साम्प्रदायिक सामंजस्य कायम रखने के लिए धर्म – सहिष्णुता की भावना विकसित करना परमावश्यक है। भारत के अनेक राज्य मिलकर भारत को सबल स्वतन्त्र राजनैतिक इकाई के रूप में स्थिर करते हैं जिनका राजनीतिक और साम्प्रदायिक स्वरूप भारत राष्ट्र का अभिन्न अंग बनकर राष्ट्रीयता की मूल भावना को सुदृढ़ करता है।

साम्प्रदायिक सद्भावना अपेक्षित – साम्प्रदायिकता की भावना अपने सम्प्रदाय के विश्वासों और आस्था को पल्लवित करने की अनुमति देती है परन्तु उस भावना में अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक अधिकार की इच्छा करना अनुचित है। अपने विश्वासों और धार्मिक आस्थाओं का अविरोध पालन करना साम्प्रदायिकता नहीं है। परन्तु जब अपने विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को बलपूर्वक किसी पर थोपना और अन्य धर्मावलम्बियों की सुविधा को अपनी सुविधा के लिए बाधित करना ही साम्प्रदायिकता है। इस तरह की भावना दूषित है और वह पृथकतावादी सिद्धान्त पर विकसित सम्प्रदाय कहा जायेगा जो घृणा के भाव को जन्म देकर राष्ट्र की एकता के विपरीत धारा बहाने में सहायक बनता है। आजादी से पूर्व हिन्दू और मुस्लिम के हीन साम्प्रदायिक सिद्धान्त पर द्विराष्ट्रीय भावना के कारण वृहत्तर भारत का विभाजन हुआ था। इस कारण लोगों को अनेक कष्ट भोगने पड़े।

धर्म एक ऐसा साधन है जिससे एकता की भावना विकसित होती है। साम्प्रदायिकता की दूषित भावना अलगाव को जन्म देती है। परन्तु प्रत्येक धर्म का मौलिक स्वरूप एक है। इस आधार पर लोगों में भेद होना अथवा विरोध होना उचित नहीं है। क्योंकि इस राष्ट्र के निवासी वहाँ की राष्ट्रीयता के अभिन्न अंग हैं। इस अभिन्नता से ही राष्ट्रहित प्राप्त किया जा सकता है।

प्रान्तीयता की भावना राष्ट्रीय एकता में बाधक – क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्र की एकता में बाधक है। इससे पृथक राज्य स्थापित करने की अलगाववादी भावना बल पकड़ जाती है। यह अलगाववादी क्षेत्रीयता उग्ररूप धारण करके आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देती है जिससे जनजीवन अस्तव्यस्त होने लग जाता है तथा भारत की राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए एक बाधा उत्पन्न हो जाती है। भाषावाद से भी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को भारी धक्का लगा है। भारत राष्ट्र की राष्ट्रभाषा हिन्दी है जिसे कुछ प्रान्तों के अलगाववादी तत्व स्वीकार नहीं करते। जातीय कट्टरवाद देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर रहा है।

सर्वधर्म समभाव अपेक्षित – वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ रखने के लिए सभी लोगों में सर्वधर्म समभाव की भावना विकसित होनी चाहिए। व्यष्टिवादी दृष्टिकोण से हटकर समष्टि भाव अपनाना आवश्यक है जिससे सभी लोग धर्म, क्षेत्र, भाषा तथा जाति के संकुचित दायरे से ऊपर उठकर ‘राष्ट्र’ हित साधन में अपना सहयोग देंगे। भारतीय परिवेश में व्याप्त बाह्य विविधता सभी नागरिकों के अन्तर्मन की एकता को विकास देगी जिसके लिए शिक्षा के प्रसार की अत्यधिक आवश्यकता है। भारत की जनसंख्या का आधा भाग अशिक्षा के घोर अन्धकार में डूबा हुआ है। उस अन्धकार को दूर करने के प्रयास ही भारत की एकता को सुदृढ़ता प्रदान कर सकेंगे।

स्वार्थी राजनेताओं को अपने छलछदम त्यागने होंगे। उन्हें साम्प्रदायिक विद्वेष, घृणा फैलाने से बाज आना चाहिये। तभी भारतराष्ट्र की एकता सुदृढ़ रूप से पल्लवित हो सकेगी।

साम्प्रदायिक एकता के निमित्त प्रयास साम्प्रदायिक एकता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय – समय पर राष्ट्रीय स्तर की समितियाँ गठित की गई हैं जो अपने सुझाव देती हैं कि राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के लिए किन – किन उपायों को अपनाना चाहिए। ईश्वर की कृपा से इन विविधताओं के होते हुए भी सभी भारतीय राष्ट्रकों (नागरिकों) में एकता का अदृश सूत्र समाया हुआ है जो उन सबको एकता में बाँधे हुए है। विविधता में एकता ही हमारी शक्ति है। गाँधीजी के आन्दोलनों के समय भी हमने विदेशियों से अपनी एकता के आधार पर ही आजादी प्राप्त की थी। भारत माता के प्रति भक्ति की भावना हमें एक बनाये हुए है। क्योंकि – ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ हमारे लिए तो – सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ इत्यादि स्वर लहरियाँ उद्दाम देश – प्रेम को सभी के हृदयों में उड़ेल रहा है।

उपसंहार – अपने बालक – बालिकाओं में राष्ट्रीय चेतना की अनुभूति के लिए इतिहास और भूगोल का अध्ययन कराना होगा। धनवान और निर्धन के बीच की खाई पाटनी होगी। एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना होगा। तब ही सभी नागरिक सामान्य संस्कृति की अनुभूति कर सकेंगे। अपने सीमान्त प्रदेशों के प्रति सचेत रहना होगा तथा राष्ट्रीय भावना की पहचान बनाये रखने के प्रति हमें सावधान रहना होगा। हमें एक राष्ट्र के रूप में क्रियाशील होना चाहिए। यही एक भाव है राष्ट्रीय अखण्डता का, एकता का। “राष्ट्रीयता की यह वो हस्ती विकसित हो जो मिटाये मिटे नहीं।”

MP Board Solutions

6. आतंकवाद
अथवा
आतंकवाद : अन्तर्राष्ट्रीय समस्या [2009]
अथवा
‘आतंकवाद – एक विभीषिका
अथवा
आतंकवाद और राष्ट्रीय अखण्डता [2009]

“कराह उठी है मानवता, आतंकवाद हटाओ।
जहर है यह मानवता का, इसको दूर भगाओ।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) आतंकवाद का जाल विश्व स्तर पर,
(3) भारत एवं आतंकवाद,
(4) कश्मीर घाटी में भी आतंकवाद,
(5) पंजाब में आतंकवाद का कुचक्र,
(6) आतंकवाद का समाधान,
(7) उपसंहार।

प्रस्तावना – आतंकवाद से तात्पर्य अपनी स्वार्थपूर्ण कुत्सित इच्छाओं की पूर्ति हेतु हिंसा का सहारा लेना है। इन सभी कामों में असामाजिक तत्व सक्रिय रहते हैं और अपनी घृणित क्रियाओं से अमनप्रिय लोगों को भयभीत करके अपने स्वार्थों की पूर्ति करना ही उनका ध्येय होता है। इन सभी कामों को हिंसक क्रियाओं के माध्यम से अंजाम दिया जाता है।

आतंक के पथ पर कदम बढ़ाने वालों की हिंसा तथा बल प्रयोग पर आस्था होती है। इस प्रकार के बल प्रयोग को अन्य वर्ग – सम्प्रदाय व समुदाय को भयभीत करने तथा उन पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए किया करते हैं। इन आतंकवादियों के द्वारा अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। हिंसक गतिविधियों से सरकार को गिराया जाता है तथा समग्र शासनतन्त्र को पंगु बना दिया जाता है। उन पर अपना आधिपत्य जमा लेने का प्रयास किया जाता है।

आतंकवाद का जाल विश्व – स्तर पर – आतंकवादी लोग आज लगभग विश्व के सभी देशों में अपनी आतंकवादी प्रक्रियाओं को अंजाम दे रहे हैं। ये लोग राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति कर लेते हैं; इसके लिए वे सार्वजनिक तौर पर हिंसा और हत्याओं का सहारा लेते हैं। यह आतंकवाद आज भौतिक रूप से समृद्ध और विकसित देशों में अपने विकराल स्वरूप को दिखा रहा है। ये आतंकवादी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो रहे हैं और यह आतंक अन्तर्राष्ट्रीय रूप को धारण करता जा रहा है; जो अब और अधिक प्रबल तथा सक्रिय हो गया है। विश्व के कुछ ऐसे भी देश हैं जो इन आतंकवादी गुटों को अकेला समर्थन ही नहीं, अपितु सहायता भी दे रहे हैं। इन आतंकियों की प्रक्रियाओं का स्वरूप निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है (1) राजनयिकों की हत्याएँ करना, (2) विमान अपहरण की क्रियाओं का सम्पादन, (3) रासायनिक हथियारों के प्रयोग से अत्यधिक जान – माल की हानि करना। देश में आतंकवादियों के पीछे विदेशियों का हाथ है। वे धन का प्रलोभन देकर हिंसा करवा रहे हैं।

भारत एवं आतंकवाद–भारत ने सन् 1947 ई. में 15 अगस्त को आजादी प्राप्त की। इसके पश्चात् भारत के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गतिविधियों को इन आतंकी संगठनों ने अंजाम देना शुरू कर दिया। बड़े – बड़े सरकारी पदों पर तैनात अधिकारियों को इस आतंकवादी क्रियाओं का शिकार होना पड़ा। उन्हें मार डाला गया। इस भय से आतंकित लोगों ने अपने पदों से त्याग – पत्र दे दिया। आतंकवादी क्रियाओं (हिंसा आदि) की काली छाया भारत के पूर्वी राज्यों (नागा प्रदेश, मिजोरम,मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल और असम) में दिखाई देने लगी। असम में बोडो आतंकवाद अभी भी फैला हुआ है। उपर्युक्त शेष सभी राज्यों का आतंकवाद शान्त है। बंगाल के नक्सलवाड़ी से फैला आतंक बंगाल से बाहर भी खूब फैला। नक्सलवादी आतंक ने अपना अति भयावह रूप दिखाया। आज भी नक्सलवादी आतंक बिहार तथा आंध्र प्रदेश में अपने रौद्र स्वरूप को दिखा रहा है। उस समय के रेलमन्त्री ललित नारायण मिश्र को भाषण देते समय मार दिया गया तथा अन्य बहुत से राजनयिकों की निर्मम हत्या कर दी गई।

कश्मीर घाटी में भी आतंकवाद – यह राष्ट्रीय पर्वो – 15 अगस्त, 2 अक्टूबर तथा 26 जनवरी के अवसर पर भयंकर हत्याकाण्ड करके अपने परचम को लहरा रहा है। सन् 1990 में एच.एम.टी.के मुख्य प्रबन्धक एम. एल.खेड़ा की तथा कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री मुशीर – उल – हक की आतंकवादियों ने नृशंस हत्या कर दी। अब निरन्तर ही इन आतंकियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या की जा रही है। उनके भय के कारण वहाँ के निवासी अपने घर – दुकान – कारखाने आदि सब को छोड़कर वहाँ से भाग निकले हैं।

पंजाब में आतंकवाद का कुचक्र – पंजाब के आतंकवाद ने तो भारत के प्रत्येक नागरिक को हतप्रभ कर दिया है। पंजाब के आतंकवाद में तो धर्म और राजनीति का गड्ड – मड स्वरूप दिखाई देने लगा। भाषायी आधार पर इन आतंकी संगठनों ने पंजाबी सूबे की माँग कर दी और अन्तत: 8 जून, 1966 को तत्कालीन पंजाब का विभाजन कर दिया गया तथा उसका हिन्दी भाषी हिस्सा ‘हरियाणा प्रदेश’ नाम से अलग कर दिया गया। साथ ही पंजाबीभाषी लोगों ने ‘सिख होमलैण्ड’ की माँग उठा दी। इस तरह इन पंजाबीभाषी लोगों ने अपनी माँगें और बढ़ा दीं। अप्रैल 1978 से लगातार – माइक की आवाज कम करने, धूम्रपान न करने, तम्बाकू का व्यापार मत करो – आदि के नारे लगाने के बहाने ये आतंकवादी निर्दोष लोगों की छटपुट हत्यायें करने लगे। इन आतंकियों ने भिखारी से लेकर धनवान लोगों तक अपने हाथ पसार दिये। सन् 1981 ई.में हिन्द – समाचार – पत्र समूह के स्वामी लाला जगतनारायण की हत्या कर डाली। विदेश में रहने वाले डॉ. जगजीतसिंह चौहान ने स्वयं को आतंकियों द्वारा प्रस्तावित ‘खालिस्तान’ राष्ट्र का राष्ट्रपति घोषित कर दिया और भारत सरकार पर स्वतन्त्र खालिस्तान की स्थापना करने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया और उग्रवादियों ने हिंसा का सहारा लेना भी शुरू कर दिया। इस कुत्सित कार्य में सहायता देने वाले देश – इंग्लैण्ड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, चीन, नार्वे तथा पाकिस्तान थे। इन देशों से उन्हें धन व शस्त्रास्त्र प्राप्त होने लगे तथा स्वर्ण मन्दिर इन आतंकियों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

भारत सरकार ने 4 जून, 1984 को स्वर्ण मन्दिर में सेना को प्रवेश करने के आदेश दे दिये। उग्रवादी तत्वों को नष्ट करने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लू – स्टार’ चलाया गया। सैनिक कार्यवाहियों में अनेक आतंकवादी मारे गये और शेष को बन्दी बनाया गया। सरकार की इस कार्यवाही का स्वागत हुआ, लेकिन कुछ लोगों ने इस कार्यवाही को धार्मिक कार्य में हस्तक्षेप माना और अपनी तीखी प्रतिक्रिया की। उदार सिखों ने तथा धर्मनिरपेक्ष समाजसेवियों ने ‘कार – सेवा’ करके स्वर्ण मन्दिर की पवित्रता को बहाल किया। इन उग्रवादियों के विदेशी षड्यन्त्र के तहत 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की उनके निवास पर ही उनके ही पहरेदार ने हत्या कर दी। 10 अगस्त, 1986 को भूतपूर्व सेनाध्यक्ष श्री अरुण श्रीधर वैद्य की हत्या कर दी। इसी तरह पंजाब के अनेक हिन्दू पंजाबी पत्रकारों को इन आतंकियों ने मार दिया। अभी भी वह आतंकवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। राजधानी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में जन्मदिन के समारोह में भाग लेते निर्दोष 14 लोगों को गोली से उड़ा दिया। रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों पर आतंकी प्रभाव दिखाई पड़ा। 21 मई,1991 को भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की निर्मम हत्या कर दी गई जिससे सारा संसार दहल गया। आतंकवाद को निम्न रूपों में देखा जा सकता है

MP Board Solutions

(1) एक विशेष वर्ग को अन्य लोगों के वर्ग से अलग कर देना और हिंसा द्वारा उनके मध्य व्याप्त मैत्री सम्बन्धों को खत्म कर देना।
(2) अत्यधिक हानि पहुँचाने के लिए ज्वलनशील बम आदि आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करके लोगों में भय पैदा करना।
(3) हिंसक कार्यवाही करके प्रमुख व्यक्तियों का अपहरण, हत्या आदि करके अनिवार्य सेवाओं को प्रभावित करना।
(4) फिरौती आदि के रूप में उचित या अनुचित माँगें मनवाने की शर्ते रखना, वायुयानों का अपहरण कर लेना तथा बैंकों में डकैती आदि डालकर लोगों में विभीषिका पैदा करना।

आज कश्मीर घाटी इन आतंकियों की बन्दूकों की गोलियों और बम के गोलों के धमाकों से थरथर काँप उठी है। सेना और आतंकियों के मध्य अनेक झड़पें होती हैं और सैनिक वीरों की आहुतियों ने इस समग्र क्षेत्र को अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है। 13 दिसम्बर, 2001 को भारतीय संसद पर किया गया हमला आतंकियों की बर्बरता का सुबूत है। अक्षरधाम मन्दिर सहित अनेक धार्मिक पवित्र स्थलों की पवित्रता को नष्ट किया है। परन्तु भारतीय राष्ट्रीय वीर सैनिकों ने इन आतंकियों को प्रत्येक बार मार – मारकर धूल चटा दी है।

आतंकवाद का समाधान – आतंकवाद की समस्या के समाधान के लिए कुछ सुझाव इस तरह प्रस्तुत हैं
(1) राजनैतिक दलों को अपनी पार्टी के लाभ की आशा में साम्प्रदायिक सौहार्द्र को नष्ट नहीं होने देना चाहिए।
(2) सीमा पार से प्रवेश करने वाले प्रशिक्षित आतंकवादियों को रोकना चाहिए।
(3) अलगाववादी दृष्टिकोण वाले युवकों को संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत सुविधाएँ देकर राष्ट्रीय मुख्यधारा में मिलाये जाने के प्रयास करने चाहिए।

उपसंहार – आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के साथ देश का प्रत्येक नागरिक आतंकवाद को कुचलने का बीड़ा उठायेगा तभी रामराज्य की कल्पना साकार होगी।

7. दूरदर्शन

“दूरदर्शन विज्ञान का अनुपम उपहार है,
विश्व चित्र सम्मुख आ जाते चित्रों का यह हार है।”

विस्तृत रूपरेखा [2016] –
(1) प्रस्तावना,
(2) विज्ञान की अपूर्व देन,
(3) दूरदर्शन का आविष्कार,
(4) भारतवर्ष में दूरदर्शन का प्रथम शुभारम्भ,
(5) दूरदर्शन से लाभ,
(6) विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद,
(7) मनोरंजन का सुलभ साधन,
(8) भावात्मक एकता का पोषक,
(9) उपसंहार।।

प्रस्तावना दिवस के अवसान और सन्ध्या के समय सुबह से शाम तक थका हुआ मानव शारीरिक विश्राम के साथ मानसिक आराम भी चाहता है जिससे उसकी थकान मिट जाये और मन पुलकित हो उठे। इसके लिए वह जो भी उपाय अपनाता है उसे कहते हैं मनोरंजन। मानव सभ्यता के विकास के साथ – साथ मनोरंजन के साधनों में भी परिवर्तन हुए हैं। पहले कुछ दृश्य साधन थे, कुछ श्रव्य। या तो वह तस्वीरें देखता था या रेडियो, टेप सुनता। घर बैठे या लेटे – लेटे यदि मनोरंजन हो तो क्या बात है? प्राचीनकाल में धृतराष्ट्र अपने महल में बैठे – बैठे जैसे संजय द्वारा कुरुक्षेत्र के मैदान का आँखों देखा हाल सुनते थे वैसे ही दूरदर्शन के आविष्कार से हमें भी यह दृश्य – श्रव्य उपकरण लाभ पहुंचाता है।

विज्ञान की अपूर्व देन – दूरदर्शन विज्ञान का एक अनुपम उपहार है। इसने मानव जीवन में एक हलचल पैदा कर दी है और समाज को थोड़े ही समय में तीव्र गति से विकास की ओर अग्रसर किया है।

दूरदर्शन का आविष्कार – दूरदर्शन का आविष्कार सर्वप्रथम जॉन लागी बेअर्ड महोदय ने 1926 में किया था। ये स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे। इन्होंने टेली कैमरे का आविष्कार किया तथा इसका सफल प्रदर्शन कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। यह फोटो इलेक्ट्रिक सेल की सहायता से कार्य करता है। रेडियो तरंगों की भाँति ही प्रकाश को विद्युत तरंगों में रूपान्तरित कर दूर तक प्रसारित किया जाता है और रिसीविंग सेट उसे ग्रहण करके प्रकाश में चित्रों को परिवर्तित कर स्क्रीन या परदे पर उतार देता है। पहले ये दृश्य काले, सफेद हुआ करते थे। अब ये रंगीन दृश्य संसार में कहीं भी देखे जा सकते हैं। जीवन्त प्रसारण में तत्कालीन दृश्य ज्यों के त्यों प्रसारित किये जाते हैं।

भारतवर्ष में दूरदर्शन का प्रथम शुभारम्भ हमारे देश में दूरदर्शन का प्रथम प्रसारण 1958 में दिल्ली में हुआ। उस समय दिल्ली में औद्योगिक एवं विज्ञान प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। उस समय भारतीयों के लिए यह एक कौतुक भरी घटना थी। धीरे – धीरे इसका प्रचार – प्रसार होता गया। बाद में 1972 में मुम्बई में,1973 में कश्मीर में दूरदर्शन केन्द्रों की स्थापना हुई। मध्य प्रदेश में 1978 में छत्तीसगढ़ जिले में दूरदर्शन आया तथा उपग्रह द्वारा कार्यक्रमों का प्रसारण हुआ। उन दिनों अधिकांश कार्यक्रम शैक्षिक और ग्रामीण जीवन पर आधारित होते थे।

दूरदर्शन से लाभ – दूरदर्शन के अनेक लाभ हैं, मुख्यतः इसके कुछ उद्देश्य स्पष्ट हैं। सर्वप्रथम यह मनोरंजन का प्रमुख साधन है। इससे हमें ध्वनि, प्रकाश और फोटोग्राफी का चमत्कार देखने को मिलता है। दूरदर्शन की निरन्तर बढ़ती हुईलोकप्रियता का कारण यह है कि इसमें समाज के प्रत्येक वर्ग, आयु और व्यवसाय के अनुरूप अनेक कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रुचि और आवश्यकता होती है और दूरदर्शन ही एक ऐसा साधन है जो प्रातः से अर्द्धरात्रि तक अपने कार्यक्रमों के माध्यम से सभी की जरूरतें पूरी करता है। बच्चों, किशोर, प्रौढ़, बुजुर्ग और महिलाओं के लिए अलग – अलग कार्यक्रम हैं। इसी प्रकार भिन्न व्यवसाय एवं रुचि वाले लोगों की भी मनोरंजन – तृप्ति दूरदर्शन से ही होती है।

विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद बच्चों के लिए कार्टून फिल्में, किशोरों के लिए प्रश्न – मंच आदि कार्यक्रम। छात्रों के लिए यू.जी.सी. तथा इन्दिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय के शैक्षिक कार्यक्रम, विज्ञान, इतिहास, राजनीति से सम्बन्धित कार्यक्रम। देश – विदेश में खेले जा रहे अनेक प्रकार की खेल प्रतियोगिताओं का जीवन्त प्रसारण। गीत, नृत्य या फिल्मी संगीत में रुचि रखने वालों के लिए कार्यक्रम। साहित्यिक रुचि वालों के लिए मुशायरा, कवि सम्मेलन, साहित्यकारों का परिचय – परिचर्चा का प्रसारण। महिलाओं की प्रगति एवं जागृति के अनेक कार्यक्रम। ग्रामीण से लेकर शहरी महिलाओं के लिए अनेकानेक प्रकार के हस्तशिल्प उद्योग – धन्धों की जानकारी। भोजन या विविध व्यंजनों को बनाने की विधियों पर आधारित कई कार्यक्रम, घरेलू दवाओं, नुस्खों का ज्ञान। बुजुर्गों के लिए धार्मिक सन्त महात्माओं के प्रवचन। आप घर बैठे सत्संग का लाभ उठा सकते हैं।

राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए तो दूरदर्शन जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया है। देश – विदेश की खबरें, चुनाव – चर्चा, सभी पार्टियों का आँकलन, क्रिया – कलाप और समस्त राजनैतिक व्यक्तियों की समग्र जानकारी हमें दूरदर्शन से प्राप्त होती है।

कहा जाता है कि केवल सुनकर बात हृदयंगम नहीं होती। यदि वह दिखायी दे तो सहजता से ग्रहण होती है। अतः छात्रों को यदि दूरदर्शन के माध्यम से शिक्षा दी जाय तो अधिक लाभ होगा। शासन यदि अधिक से अधिक शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करे।

विभिन्न प्रकार की मौसम सम्बन्धी जानकारी हमें प्राप्त होती है। आँधी, तूफान, वर्षा, भूकम्प आदि से सम्बन्धित पूर्व सूचनाएँ हमें दूरदर्शन से मिलती हैं।

मनोरंजन का सुलभ साधन – यह मनोरंजन का सबसे सस्ता एवं सुविधाजनक उपकरण है। अफगान – अमेरिका का युद्ध हो या जापान की जीवन झाँकी, आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच हो या ओलम्पिक.देश में गणतन्त्र दिवस की परेड हो या चुनाव की हलचल सभी कुछ दूरदर्शन पर देखना सुलभ हैं। दूरदर्शन में विज्ञापनों के माध्यम से हमें अनेकानेक नवीन उपकरणों और वस्तुओं के आविष्कार की जानकारी मिलती है। यह विज्ञान का सशक्त जरिया है। इससे व्यापार बढ़ाने के अवसर मिलते हैं।

MP Board Solutions

भावात्मक एकता का पोषक – दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों से सामाजिक सुधार को दिशा मिलती है। सभी धर्मों के त्यौहारों का सजीव दृश्य हम दूरदर्शन के माध्यम से देखकर जानकारी प्राप्त करते हैं.इससे भावनात्मक एकता सुदृढ़ होती है। कई कार्यक्रम तो इतने लोकप्रिय हुए कि सभी धर्म,जाति तथा उम्र के लोग उसे बड़े चाव से देखते थे; जैसे – रामायण, श्रीकृष्ण, महाभारत, टीपू सुल्तान आदि। इनके प्रसारण के समय शहर सुनसान हो जाता था। आज का किशोर दूरदर्शन के कार्यक्रमों को देखने में व्यस्त हो जाता है तो समाज में अपराध और लड़ाई – झगड़े कम होते हैं। किसी वस्तु को हम पूरी तरह से अच्छा या बुरा नहीं कह सकते। हम उसका उपयोग किस प्रकार करते हैं उस पर उसकी महत्ता निर्भर करती है। दूरदर्शन से जहाँ अनेक लाभ हैं वहाँ कुछ हानि भी हैं। किन्तु यदि छात्र यह बात ध्यान में रखें कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। यानि हर समय दूरदर्शन के सामने न बैठे रहें,उससे आँखों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता है,साथ ही समय भी नष्ट होता है और अनेक जरूरी काम रह जाते हैं। इसलिए वे अपनी रुचि और उपयोगिता के अनुसार कुछ कार्यक्रम पसन्द कर लें और केवल उन्हीं को देखें। विज्ञान तथा सामान्य ज्ञान के प्रश्न मंच तथा परिचर्चा देखें। शैक्षिक प्रसारण से लाभ लें।

उपसंहार – यदि दूरदर्शन पर स्वस्थ,शालीन कार्यक्रमों का प्रसारण हो तो ऐसे उपयोगी ज्ञानवर्द्धक सूचनाओं से गुणात्मक विकास होगा। विवेक और संयम से तथा अभिभावकों की अनुमति तथा सलाह से यदि छात्र दूरदर्शन का उपयोग करेंगे तो वह उनकी जीवन की प्रगति में सहायक होगा।

8. भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन शासन – व्यवस्था,
(3) प्रजातन्त्र का स्वरूप,
(4) भारत में प्रजातान्त्रिक शासन,
(5) प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन की अपेक्षाएँ,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत की सभ्यता अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्ध है। इसके इतिहास को पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि यहाँ के शासनतन्त्र में अनेक उतार – चढ़ाव रहे हैं। लेकिन अधिकांशतः यहाँ राजतन्त्र शासन प्रणाली ही प्रचलित रही है। परन्तु प्राचीन भारत के राजा सार्वभौम शक्ति – सम्पन्न होते हुए भी निरंकुश और तानाशाह नहीं होते थे।

प्राचीन शासन – व्यवस्था – मध्यकाल के कुछ भारतीय राज्यों में गणतन्त्र शासन – व्यवस्था भी थी,जिन्हें हम नगर राज्य भी कह सकते हैं। लेकिन राजतन्त्र की विशाल शक्ति के समक्ष यह शासन – व्यवस्था अधिक टिक न सकी। राजाओं का कार्य विलासमय जीवन के अतिरिक्त कुछ न था। विदेशियों का शासन अत्यन्त क्रूर और अत्याचारी था। प्रजा इन अत्याचारों को सहन न कर सकी। उसने ऐसे शासकों का विरोध किया। परिणामस्वरूप राजा और प्रजा में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इसी का परिणाम प्रजातन्त्र के रूप में अवलोकनीय है।

प्रजातन्त्र का स्वरूप – प्रजातन्त्र की अनेक परिभाषाएँ विद्वानों ने दी हैं, पर प्रजातन्त्र का सीधा – सादा अर्थ किसी व्यक्ति विशेष का शासन न होकर प्रजा के शासन से है। इस शासन – तन्त्र में जनता के ही निर्वाचित प्रतिनिधियों का हाथ रहता है। प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में जॉन स्टुअर्ट मिल का कथन है – “प्रजातन्त्र जनसाधारण को नागरिकता की शिक्षा प्रदान करता है। यह नागरिकता का शिक्षणार्थ सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है।” प्रजातन्त्र की सबसे अधिक व्यवस्थित, स्पष्ट और लघु परिभाषा अमरीका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस प्रकार की है – “प्रजातन्त्र एक ऐसा शासन है जो जनता के लिए,जनता द्वारा,जनता पर किया जाता है।”

भारत में प्रजातान्त्रिक शासन – भारत अपनी दीर्घकालीन पराधीनता के पश्चात 15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतन्त्र हुआ। अनेक वर्षों तक उसे विदेशी शासकों की कठोर – यातनाएँ सहन करनी पड़ी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारत को कठोर संघर्ष करना पड़ा।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमने अपना संविधान बनाया,जो 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। इस संविधान द्वारा भारत में जनता का शासन स्थापित किया गया।

प्रजातन्त्र की सफलता उस राष्ट्र में निवास करने वाले नागरिकों में निहित होती है। भारत विश्व का सबसे अधिक विलक्षण देश है। यहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, संस्कृतियाँ, सम्प्रदाय और राजनीतिक दल हैं। इन सभी को सन्तुष्ट करना सम्भव नहीं हो सकता। इन सभी के बीच भारत के प्रजातन्त्र का स्वरूप अस्थिर हो गया। विघटनकारी तत्त्वों के नारों और भाषणों से यहाँ की जन – भावनाओं को विपरीत दिशा में मोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है। लूट – खसोट,तोड़ – फोड़, घिराव,आन्दोलन,हड़ताल आदि का बोलबाला हो गया है। समस्त जनजीवन त्रस्त और भयभीत है। असुरक्षा और अव्यवस्था ने देश के प्रजातन्त्र की नींव को हिला दिया है। महँगाई, कालाबाजारी,जमाखोरी,तस्करी आदि कुप्रवृत्तियों से अर्थव्यवस्था का ढाँचा नष्ट हो रहा है। ऐसी विषम स्थिति में देश तथा लोकतन्त्र को बचाने का गुरुतर दायित्व हमारी नयी पीढ़ी पर है।

प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन की अपेक्षाएँ – एक सफल प्रजातन्त्र के लिए कुछ आवश्यक शर्ते हैं जो प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक हैं। उसके लिए सर्वप्रथम जनता का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित जनता ही प्रजातन्त्र के उद्देश्य को समझ सकती है। इसके लिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार होना चाहिए ताकि निर्वाचित व्यक्ति शासकीय गतिविधियों को भली – भाँति समझ सके और उनके अनुकूल आचरण कर सके तथा जनता भी योग्य व्यक्तियों का चुनाव कर सके।

निष्पक्ष मतदान प्रजातन्त्र के भविष्य के लिए अनिवार्य शर्त है। मतदान ही निर्वाचन का आधार होता है। आज भारत ही नहीं अपितु संसार में सबसे अधिक संख्या साधारण व्यक्तियों की है। ये व्यक्ति या तो कम पढ़े – लिखे हैं या बिल्कुल पढ़े – लिखे नहीं हैं। इनमें विचारशीलता का अभाव है। इनको किसी भी बहाने से फुसलाया जा सकता है। प्रायः धनवान व्यक्ति ऐसे व्यक्तियों से धनादि का लोभ देकर मत प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं कहीं – कहीं तो निर्वाचन में गड़बड़ी,जाली और जबर्दस्ती मत डलवा कर भी लोग चुनाव जीत जाते हैं।

गरीबी, पिछड़ापन, अन्धविश्वास और जातिगत भावना भी प्रजातन्त्र में बाधक होती है। बहुत – से व्यक्ति जातीय आधार पर निर्वाचित कर लिये जाते हैं जबकि उनमें कोई योग्यता नहीं होती। राजनीति में गुण्डागर्दी का बोलबाला है, अतः अधिकांश व्यक्ति निर्वाचन में रुचि नहीं लेते हैं। वे केवल अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए किसी न किसी बक्से में अपना मत डाल आते हैं। गरीब व्यक्ति को जब कोई प्रत्याशी मोटर में बिठाकर मत डालने ले जाता है तो वह उसी को मत डाल देता है। इससे योग्य व्यक्ति का चयन नहीं हो पाता। इसके लिए मताधिकार के नियमों में परिवर्तन की आवश्यकता है।

विरोधी दलों की संख्या अधिक होने से भी प्रजातन्त्र का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता। विरोधी दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति न होने पर सत्ताधारी दल की आलोचना करता है और अपने दल के सिद्धान्तों को सरकार पर थोपने के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करता है। इससे प्रजातन्त्र खतरे में पड़ जाता है। दूसरी ओर सत्ताधारी दल अपनी शक्ति के बल पर विपक्ष की उपेक्षा करता है और अपने स्वार्थ को वरीयता देकर प्रस्तावों को भी पारित करता है। इससे देश की सृजन शक्ति का क्षय होता है। अतः प्रजातन्त्र के लिए यह आवश्यक है कि सत्ताधारी दल प्रत्येक निर्णय पर विरोधी दलों के देशहित के सुझावों पर विचार करे और उचित होने पर उन्हें क्रियान्वित करे।

नागरिकता की भावना का विकास करना भी प्रजातन्त्र के भविष्य के लिए आवश्यक है। प्रत्येक भारतीय को सच्चा नागरिक बनाने के लिए उसे नागरिकता की शिक्षा देना आवश्यक है।

आज स्थिति यह है कि देश का नागरिक अपने व्यक्तिगत हित के लिए देश.समाज और जाति के हितों की उपेक्षा कर सकता है। इस अनर्थ से बचने के लिए प्रत्येक देशवासी को नागरिकता की शिक्षा देना आवश्यक है। अगर स्वतन्त्र होकर भी हमारे देशवासी सच्चे नागरिक नहीं बन पाये,तो प्रजातन्त्र की कल्पना स्वप्नवत् होगी।

राष्ट्रीय चरित्र का विकास भी प्रजातन्त्र का आधार है। किसी भी राष्ट्र की नींव उसके राष्ट्रवासियों के चरित्र पर आधारित है। जिस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र जितना उन्नत होगा उस देश का भविष्य उतना ही महान् होगा। प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन में राष्ट्र के चरित्र की रक्षा आवश्यक है। चरित्र से नैतिकता का विकास होता है और नैतिकता प्रजातन्त्र की रक्षा कर उसे सफल बनाती है। राष्ट्रीय चरित्र ही राष्ट्र के गौरव में वृद्धि करता है। भारत आज अपने राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर विश्व के समक्ष अपना मस्तक उठाये हुए है।

MP Board Solutions

हमारे देश में प्रजातन्त्र का भविष्य पूर्णरूपेण सुरक्षित है। वस्तुतः प्रजातान्त्रिक प्रणाली भारत के लिए सर्वथा उपयुक्त है। आज भारतीय प्रजातन्त्र जिस आदर्श को लेकर चल रहा है वह भारत के लिए नहीं अपितु विश्व की चिरस्थायी शान्ति और व्यवस्था का आदर्श है। भारत की पंचशील आदि विश्व शान्ति की नीतियों ने तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं को धूमिल बना दिया है।

उपसंहार – इस प्रकार भारत ने आज जिन विरोधी शक्तियों और परिस्थितियों के बीच प्रजातान्त्रिक प्रणाली की रक्षा करते हुए जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं उनसे स्पष्ट है कि भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल है। भारत ने सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, कृषि, चिकित्सा एवं विज्ञान आदि के क्षेत्र में जो प्रगति की है,वह इसके प्रजातन्त्र को सफलता का ज्वलन्त प्रमाण है। भारत ने संसार में प्रजातन्त्र का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है, जो उसके स्वर्णिम भविष्य का प्रतीक है। अत: देश में जब प्रजातन्त्र का आदर्श स्वरूप स्थापित हो जाएगा तो भारत को हम नीति और आदर्श में पुनः जगद्गुरु की संज्ञा से विभूषित कर सकेंगे।

9. प्रदूषण : कारण और निदान [2009, 11]
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण : समस्या और निदान [2013]

“साँस लेना भी अब मुश्किल हो गया है।
वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) प्रदूषण के विभिन्न प्रकार,
(3) प्रदूषण की समस्या का समाधान,
(4) उपसंहार [2014]

प्रस्तावना – प्रदूषण का अर्थ – प्रदूषण पर्यावरण में फैलकर उसे प्रदूषित बनाता है और इसका प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर उल्टा पड़ता है। इसलिए हमारे आस – पास की बाहरी परिस्थितियाँ जिनमें वायु, जल, भोजन और सामाजिक परिस्थितियाँ आती हैं; वे हमारे ऊपर अपना प्रभाव डालती हैं। प्रदूषण एक अवांछनीय परिवर्तन है; जो वायु, जल, भोजन, स्थल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर विरोधी प्रभाव डालकर उनको मनुष्य व अन्य प्राणियों के लिए हानिकारक एवं अनुपयोगी बना डालता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवधारियों के समग्र विकास के लिए और जीवनक्रम को व्यवस्थित करने के लिए वातावरण को शुद्ध बनाये रखना परम आवश्यक है। इस शुद्ध और सन्तुलित वातावरण में उपर्युक्त घटकों की मात्रा निश्चित होनी चाहिए। अगर यह जल, वायु, भोजनादि तथा सामाजिक परिस्थितियाँ अपने असन्तुलित रूप में होती हैं; अथवा उनकी मात्रा कम या अधिक हो जाती है,तो वातावरण प्रदूषित हो जाता है तथा जीवधारियों के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक होता है। इसे ही प्रदूषण कहते हैं।

प्रदूषण के विभिन्न प्रकार – प्रदूषण निम्नलिखित रूप में अपना प्रभाव दिखाते हैं –

(1) वायु प्रदूषण – वायुमण्डल में गैस एक निश्चित अनुपात में मिश्रित होती है और जीवधारी अपनी क्रियाओं तथा साँस के द्वारा ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बनाये रखते हैं। परन्तु आज मनुष्य अज्ञानवश आवश्यकता के नाम पर इन सभी गैसों के सन्तुलन को नष्ट कर रहा है। आवश्यकता दिखाकर वह वनों को काटता है जिससे वातावरण में ऑक्सीजन कम होती है, मिलों की चिमनियों के धुएँ से निकलने वाली कार्बन डाइ ऑक्साइड,क्लोराइड,सल्फर डाइ – ऑक्साइड आदि भिन्न – भिन्न गैसें वातावरण में बढ़ जाती हैं। वे विभिन्न प्रकार के प्रभाव मानव शरीर पर ही नहीं वस्त्र, धातुओं तथा इमारतों तक पर डालती हैं।

यह प्रदूषण फेफड़ों में कैंसर, अस्थमा तथा नाड़ीमण्डल के रोग, हृदय सम्बन्धी रोग, आँखों के रोग, एक्जिमा तथा मुहासे इत्यादि रोग फैलाता है।

(2) जल – प्रदूषण – जल के बिना कोई भी जीवधारी,पेड़ – पौधे जीवित नहीं रह सकते। इस जल में भिन्न – भिन्न खनिज तत्व, कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं, जो एक विशेष अनुपात में होती हैं, तो वे सभी के लिए लाभकारी होती हैं। लेकिन जब इनकी मात्रा अनुपात से अधिक हो जाती है; तो जल प्रदूषित हो जाता है और हानिकारक बन जाता है। जल के प्रदूषण के कारण अनेक रोग पैदा करने वाले जीवाणु, वायरस, औद्योगिक संस्थानों से निकले पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, रासायनिक पदार्थ, खाद आदि हैं। सीवेज को जलाशय में डालकर उपस्थित जीवाणु कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण करके ऑक्सीजन का उपयोग कर लेते हैं जिससे ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और उन जलाशयों में मौजूद मछली आदि जीव मरने लगते हैं। ऐसे प्रदूषित जल से टॉयफाइड,पेचिस,पीलिया,मलेरिया इत्यादि अनेक रोग फैल जाते हैं। हमारे देश के अनेक शहरों को पेयजल निकटवर्ती नदियों से पहुँचाया जाता है और उसी नदी में आकर शहर के गन्दे नाले, कारखानों का बेकार पदार्थ, कचरा आदि डाला जाता है, जो पूर्णतः उन नदियों के जल को प्रदूषित बना देता है।

(3) रेडियोधर्मी प्रदूषण – परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणु परीक्षणों से जल, वायु तथा पृथ्वी का सम्पूर्ण पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है और वह वर्तमान पीढ़ी को ही नहीं, बल्कि भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए भी हानिकारक सिद्ध हुआ है। इससे धातुएँ पिघल जाती हैं और वह वायु में फैलकर उसके झोंकों के साथ सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो जाते हैं तथा भिन्न – भिन्न रोगों से लोगों को ग्रसित बना देती हैं।

(4) ध्वनि प्रदूषण आज ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य की सुनने की शक्ति कम हो रही है। उसकी नींद बाधित हो रही है, जिससे नाड़ी संस्थान सम्बन्धी और नींद न आने के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। मोटरकार, बस,जैट – विमान, ट्रैक्टर, लाउडस्पीकर, बाजे, सायरन और मशीनें अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण पर्यावरण को प्रदूषित बना रहे हैं। इससे छोटे – छोटे कीटाणु नष्ट हो रहे हैं और बहुत – से पदार्थों का प्राकृतिक स्वरूप भी नष्ट हो रहा है।

(5) रासायनिक प्रदूषण – आज कृषक अपनी कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के रासायनिक खादों का,कीटनाशक और रोगनाशक दवाइयों का प्रयोग कर रहा है, जिससे वर्षा के समय इन खेतों से बहकर आने वाला जल, नदियों और समुद्रों में पहुँचकर भिन्न – भिन्न जीवों के ऊपर घातक प्रभाव डालता है और उनके शारीरिक विकास पर भी इसका दुष्परिणाम पहुँच रहा है।

प्रदूषण की समस्या का समाधान – आज औद्योगीकरण ने इस प्रदूषण की समस्या को अति गम्भीर बना दिया है। इस औद्योगीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न प्रदूषण को व्यक्तिगत और शासकीय दोनों ही स्तर पर रोकने के प्रयास आवश्यक हैं। भारत सरकार ने सन् 1974 ई. में जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम लागू कर दिया है जिसके अन्तर्गत प्रदूषण को रोकने के लिए अनेक योजनाएँ बनायी गई हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय प्रदूषण को रोकने का ढूँढा गया है, वनों का संरक्षण। साथ ही,नये वनों का लगाया जाना तथा उनका विकास करना। जन – सामान्य में वृक्षारोपण की प्रेरणा दिया जाना, इत्यादि प्रदूषण की रोकथाम के सरकारी कदम हैं। इस बढ़ते हुए प्रदूषण के निवारण के लिए सभी लोगों में जागृति पैदा करना भी महत्त्वपूर्ण कदम है; जिससे जानकारी प्राप्त कर उस प्रदूषण को दूर करने के समन्वित प्रयास किये जा सकते हैं।

नगरों, कस्बों और गाँवों में स्वच्छता बनाये रखने के लिए सही प्रयास किये जायें। बढ़ती हुई आबादी के निवास के लिए समुचित और सुनियोजित भवन – निर्माण की योजना प्रस्तावित की जाय। प्राकृतिक संसाधनों का लाभकारी उपयोग करने तथा पर्यावरणीय विशुद्धता बनाये रखने के उपायों की जानकारी विद्यालयों में पाठ्यक्रम के माध्यम से शिक्षार्थियों को दिये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

MP Board Solutions

उपसंहार – इस प्रकार सरकारी और गैर – सरकारी संस्थाओं के द्वारा पर्यावरण की विशुद्धि के लिए समन्वित प्रयास किये जायेंगे, तो मानव – समाज (सर्वे सन्तु निरामया) वेद वाक्य की अवधारणा को विकसित करके सभी जीवमात्र के सुख – समृद्धि की कामना कर सकता है।

10. भारत में कृषि का महत्त्व

“कृषि प्रधान इस देश की, कृषि से ही पहचान है।
कृषि कर्म कर कृषक, देश की धरती का वरदान है।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) कृषि आत्म – निर्भरता का आशय,
(3) देश में कृषि के पिछड़ेपन के कारण,
(4) कृषि विकास के प्रयास,
(5) हरित क्रान्ति के दुष्परिणाम,
(6) उपसंहार

प्रस्तावना – भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि केवल जीविकोपार्जन का साधन ही नहीं अपितु देश की सभी गतिविधियों का केन्द्र – बिन्दु है। यह भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसका महत्त्व इसलिए अधिक है क्योंकि राष्ट्रीय आय का मुख्य स्रोत है। राष्ट्रीय आय में 50% कृषि का भाग है। 80% रोजगार प्राप्त करने का साधन है। अनेक उद्योग – धन्धों का मूलाधार है। देश की सौ करोड़ आबादी के लिए खाद्यान्नों की पूर्ति का साधन है। प्रति वर्ष 400 करोड़ रुपये की आमदनी भू – राजस्व एवं कृषि आय – कर के रूप में प्राप्त होती है। विदेशी व्यापार – आयात में महत्त्वपूर्ण घटक है। पशुपालन व्यवसाय में कृषि का अपूर्व योगदान है। सरकार के बजट पर महत्त्वपूर्ण प्रभावशाली,राजनैतिक स्थिरता और आर्थिक विकास में सहयोग अन्तर्राष्ट्रीय जगत में देश को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने में सहायक है।

कृषि आत्म – निर्भरता का आशय – कृषि आत्म – निर्भरता का आशय एक ऐसी स्थिति से है जिसमें कोई देश अपने निवासियों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन करने में पूर्णतः सक्षम हो। स्वदेशी कृषि उद्योगों को कच्चा माल अन्य किसी देश से न मँगवाया जाये। कृषि अधिकांश लोगों की जीविका का साधन है। भारत में यह परम्परागत और पिछड़ी स्थिति में है जिसे अब मशीनीकृत के माध्यम से उन्नत बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

देश में कृषि के पिछड़ेपन के कारण भारत में कृषि के पिछड़ेपन के अनेक कारण हैं। कृषि की वर्षा पर निर्भरता। सिंचाई के पर्याप्त साधन का नहीं होना। आधुनिक खाद – बीज, उपकरणों आदि के उपयोग का अभाव। कृषकों की ऋणग्रस्तता और पर्याप्त कृषि साख का उपलब्ध न होना। अविकसित कृषि – भूमि। कृषि के लिए भू – स्वामित्व एवं भू – धारण नियम विधान की कमियाँ। कृषि एवं ग्रामीण विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं का लाभ पूरी तरह कृषकों तक न पहुँच पाना। लाभकारी एवं व्यावसायिक वस्तुओं का कम उत्पादन। विद्युत आपूर्ति की कमी। कृषि उपज से सम्बन्धित उद्योगों का अल्प – विकसित होना। कृषि उपज विपणन में बाधाएँ। जहाँ किसान मण्डी में अपनी उपज बेचने जाते हैं वहाँ उचित ढंग से मूल्य – निर्धारण न होने से भी किसानों को नुकसान होता है। किसानों का निरक्षर और अनपढ़ होना भी सबसे बड़ी कमी है। इन सभी दोषों को दूर करने के तथा कृषि के विकास एवं आधुनिकीकरण के प्रयास देश में काफी तेजी से किये जा रहे हैं।

कृषि विकास के प्रयास – कृषि विकास के लिए भारत में कुछ ठोस कदम उठाये गये हैं। सबसे पहले तो भू – स्वामित्व में सुधार के लिए भारत में जमींदारी – प्रथा समाप्त की गयी। चकबन्दी कार्यक्रम द्वारा भूमि – व्यवस्था में सुधार किया गया। सिंचाई के साधनों का विकास कर सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि की गयी। खाद का उपभोग करके भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ायी गयी। उन्नत बीजों और उन्नत किस्म के आधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग किया जाने लगा। भण्डारण की स्थिति में सुधार किया गया। विपणन सुविधाओं में वृद्धि तथा कृषि उपज को उचित मूल्य में बेचने की सुविधा के लिए मूल्य – निर्धारण पद्धति का आरम्भ किया गया। स्वाधीनता के बाद कृषि में आत्मनिर्भर होने के लिए भूमिहीन किसानों को भूमि का मालिक बनाया गया। पिछड़े और उपेक्षित वर्ग को इसका पर्याप्त लाभ मिला। अब किसान के पास अपनी भूमि होने से वह खाद – बीज तथा उर्वरकों का प्रयोग करने लगा। इस सबके कारण खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ी। 1980 के बाद भारत खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर तो हुआ ही वरन् दाल और तिलहन को छोड़कर खाद्यान्न निर्यात करने की स्थिति में भी सक्षम हो गया है।

हरित – क्रान्ति के दुष्परिणाम – इस हरित – क्रान्ति से लाभ तो हुआ पर उसके कुछ दुष्परिणाम भी हुए; जैसे—धनी किसान और अधिक धनवान हो गया, पर गरीब किसान निर्धन रह गया। कृषि में मशीनों के उपयोग से गाँव में बेरोजगारी बढ़ी। ग्रामीण नगर में आने लगे,वहाँ घनी आबादी के कारण आवास – आपूर्ति, प्रदूषण एवं पर्यावरण पर प्रभाव पड़ा। उत्पादन लागत तो बढ़ी पर किसान को उचित मूल्य नहीं मिला। इससे असन्तोष छा गया।

उपसंहार—समग्र रूपेण कृषि भारत देश के लिए वरदान है। देश का स्वर्णिम भविष्य खेतों तथा खलिहानों में मुस्करा रहा है। देश का किसान उन्नत तथा समृद्ध होगा तो निम्न तराना गजेगा

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।”

11. परोपकार [2017]
अथवा
परहित सरिस,धरम नहिं भाई [2009, 14]

“काँटा चुभा किसी के, तड़फे हम मीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।”

विस्तत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना.
(2) धर्म का व्यापक रूप
(3) परोपकार हेत आवश्यक तथ्य,
(4) प्रकृति का उदात्त स्वरूप,
(5) मानव एवं पशु में भेद,
(6) भारतीय संस्कृति का आदर्श,
(7) मानव जीवन का उद्देश्य,
(8) कष्ट सहन करने की क्षमता,
(9) परोपकार के अनेक रूप,
(10) उपसंहार।

MP Board Solutions

प्रस्तावना – दुनिया में हर इंसान सुख एवं शान्तिपूर्वक जीवन जीना चाहता है। लेकिन मानव शरीर प्राप्त करके उसका जीना ही सार्थक है जो परोपकार की भावना अपने मन – मानस में गहराई से छिपाए हुए हो। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने पावन ग्रन्थ ‘रामचरित मानस’ में इसी सत्य का उल्लेख निम्नवत् किया है देखिए

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥”

इसका आशय यह है – सर्वोत्तम धर्म परोपकार है एवं सबसे बड़ा पाप दूसरों को पीड़ा पहुँचाना है। परहित के लिए खुद का बलिदान ही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य एवं आदर्श है। धर्म का व्यापक रूप – धर्म को यदि हम व्यापक रूप में परिभाषित करें तो यह कर्म की परिधि में ही समाहित है। इस प्रकार जो वर्जित कार्य हैं वे अधर्म ठहराए गए हैं। इसके विपरीत जो करने योग्य कर्म हैं उन्हें धर्म स्वीकारा गया है। अतः हमारा यह दृढ़ नियम होना चाहिए कि जहाँ तक हो सकेगा हम परहित भावना से निरन्तर जुड़े रहें।

परोपकार हेतु आवश्यक तथ्य – परोपकार के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि मनुष्य को उदार मन होना चाहिए। स्वार्थ का नामोनिशान भी मन में नहीं होना चाहिए। स्वार्थ एवं परोपकार दोनों एक – दूसरे के विपरीत हैं। स्वार्थी इंसान कभी भी परोपकारी प्रमाणित नहीं हो सकता। आज मानव कर्म क्षेत्र में कूदने से पूर्व ही लाभ को अपनी दृष्टि में संजो लेता है। यदि लाभ मिलता है तो वह आगे बढ़ता है, इसके विपरीत हानि की आशंका मात्र से उसके कदम रुक जाते हैं। . परोपकार में जुटा रहना कोई खेल नहीं है। इसके लिए दधीचि के सदृश दृढ़ एवं स्वयं के बलिदान होने की क्षमता होनी चाहिए। बाज के हमले से डरा हुआ कबूतर,शरण पाने की कामना से राजा शिवि की गोद में आ बैठा। इसी बीच बाज भी वहाँ आ गया तथा राजा से कपोत की माँग दुहराने लगा। शिवि ने कबूतर के बराबर माँस अपने शरीर से काटकर बाज को दे दिया। यही बात मैथिलीशरण की निम्न पंक्तियों में अवलोकनीय है

“निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।”

प्रकृति का उदात्त स्वरूप प्रकृति निरन्तर परोपकार में निरत है। सरिताएँ सुबह से शाम तक अथाह जल – समूह को धारण करके निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं। उनका एकमात्र ध्येय धरती की प्यास को बुझाकर दूसरों का हित करना है। वृक्ष रात – दिन,आँधी,तूफान तथा झंझावातों की मार सहकर भी अपने स्थान पर अडिग खड़े रहते हैं।

उनकी यह इच्छा रहती है कि हारे – थके राहगीर आकर उनकी छाया में घड़ी भर विश्राम तथा शान्ति का अनुभव कर सकें। भूख से व्याकुल होने पर मधुर फलों का रसास्वादन भी करें।

मानव एवं पशु में भेद – पशु भी हमारी तरह अपने दैनिक क्रिया – कलापों में जुटे रहते हैं। दोनों के मध्य भेद इस आधार पर किया जा सकता है कि मानव के मन – मानस में परोपकार की भावना विद्यमान रहती है, वहीं पशु इस भावना से कोसों दूर होते हैं। पशुओं के सारे काम स्वयं के हित के लिए होते हैं। गाय अथवा कुत्ते की सन्तान जरा से भोजन के लिए आपस में लड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। उनके अन्तस में मात्र अपना स्वार्थ ही समाया रहता है। यह प्रश्न विचारणीय है कि यदि मानव भी पशु की तरह जंगली तथा असभ्य व्यवहार करने लगे तो समाज का कितना अहित होगा, यह सोचकर ही मन प्रकम्पित हो जाता है।

भारतीय संस्कृति का आदर्श – भारतीय संस्कृति के मूल में मानव कल्याण की भावना कूट – कूट कर भरी हुई है। इस धरती पर समस्त कार्य स्वयं की संकुचित भावना से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव समाज की भलाई के लिए सम्पादित किए जाते हैं। हमारा लक्ष्य निम्नवत् अवलोकनीय है

“सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥”

अर्थात् सभी सुखी हों,सब निरोग हों, कोई भी दुःख का भागी न हो।
इस प्रकार के उच्चादर्श हमारे देश में सदैव से ही पल्लवित एवं साकार होते रहे हैं। मानव जीवन का उद्देश्य मानव जीवन का उद्देश्य मात्र भोग एवं खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ तक ही सीमित नहीं है। जीवन को सफल बनाने के लिए परमात्मा का सुमिरन तथा भजन करना परमावश्यक है।

कष्ट सहन करने की क्षमता – परोपकारी मनुष्य में कष्ट सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। जो मनुष्य जरा – सी तकलीफ में कराहने लगता है तथा जीवन को बोझ समझ बैठता है भला वह परोपकार की डगर पर किस प्रकार कदम बढ़ा सकता है? उसे वृक्षों की भाँति सर्वस्व बलिदान करने के लिए सर्वथा उद्यत रहना चाहिए। देखिए, वृक्षों की त्याग एवं बलिदान की भावना

“तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पानि।
कह रहीम परकाज हित, सम्पत्ति संचय सुजान।”

परोपकार के अनेक रूप – परोपकार का क्षेत्र अति व्यापक है। किसी भी क्षेत्र में इस भावना का प्रदर्शन किया जा सकता है। पड़ोस में रुग्ण बीमार व्यक्ति को चिकित्सालय पहुँचाना, भटके हुए राहगीर को राह बतलाना, अंधे तथा लाचार मानव की सहायता करना, निर्धन को आर्थिक सहायता देना, विकलांग को सहारा देना तथा गिरते हुए को उठाना आदि अनेक ऐसे कार्य हैं जिनको सम्पादित करके मानव आत्मिक सुख तथा शान्ति का अनुभव कर सकता है।

उपसंहार विश्व के सभी धर्मों के अन्तर्गत परोपकार की महिमा को उजागर किया गया है। धर्म के समस्त गुण परोपकार की परिधि में समाहित हैं। परोपकार करने के लिए असीम धैर्य, त्याग, तपस्या तथा बलिदान की परमावश्यकता है। भारत तो दया तथा परहिताय भावना का प्राचीन काल से ही प्रबल पक्षधर रहा है। अतः आइए हम सब भी इस पुनीत भाव को हृदय में धारण करके मानव की सेवा तथा भलाई का व्रत लें तभी सच्चे सुख एवं शान्ति की अनुभूति सम्भव है।

12 विज्ञान : वरदान या अभिशाप [2009]
अथवा
विज्ञान : विकास या विनाश
अथवा
भारत में विज्ञान के बढ़ते चरण [2009]

“शूल को इतना सहो जो फूल बनकर खिल उठे,
और दिल को स्नेह दो इतना कि दीपक जल उठे
प्यार हर इंसान को इतना लुटा दो आज तुम।
आदमी भगवान, मन्दिर आज बन हर दिल उठे।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) विज्ञान की देन,
(3) चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन,
(4) कृषि के क्षेत्र में,
(5) मनोरंजन के साधन,
(6) अभिशाप,
(7) उपसंहार। [2014]

प्रस्तावना किसी वस्तु विशेष के एक पक्ष को जब हम देखते हैं तो उसके अन्तर्गत बसन्त कलित क्रीड़ा करता हुआ दृष्टिगोचर होता है लेकिन जब उसके दूसरे पक्ष को देखते हैं तो उसमें अभिशापों की काली छाया मँडराती रहती है। जब हम किसी वस्तु को प्रयोग की कसौटी पर कसते हैं तभी उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वैसे विष प्राणघातक होता है, लेकिन जब कोई चिकित्सक उसका शोधन करके औषधि के रूप में प्रयोग करता है तब वही विष प्राणदायक संजीवनी का काम करता है। इस प्रकार हम विष पर दोषारोपण नहीं कर सकते हैं। ज्ञान का प्रयोग ही उसके परिणाम का उद्घोषक होता है। विज्ञान को भी हम एक विशिष्ट विज्ञान के अन्तर्गत स्वीकारते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि चाहे हम विज्ञान को विनाशकारी रूप दें अथवा मंगलकारी भव्य रूप प्रदत्त करें।

विज्ञान की देन – विज्ञान ने मानव को जो सुख,मनोरंजन तथा अन्य साधन प्रदत्त किए हैं वे अनगिनत हैं। गर्मी एवं शीत दोनों पर विज्ञान का आधिपत्य है। आज ग्रीष्म ऋतु शीत तथा शीत ऋतु में गर्मी का भरपूर आनन्द ग्रहण किया जा सकता है। रेल,वायुयान,स्कूटर,मोटर कार तथा अन्य शीघ्रगामी साधनों के फलस्वरूप यात्रा बहुत ही सुगम तथा आरामदायक हो गयी है।

MP Board Solutions

चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन – आज चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान की अभूतपूर्वक देन है। शल्य चिकित्सा, एक्स – रे तथा हृदय प्रत्यारोपण इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं। प्लास्टिक सर्जरी एवं कृत्रिम अंगों का प्रत्यारोपण भी आज सफलतापूर्वक किया जा रहा है। असाध्य रोगों पर विज्ञान द्वारा आविष्कृत औषधियाँ मानव को नया जीवन प्रदान कर रही हैं।

कृषि के क्षेत्र में कृषि के क्षेत्र में भी विज्ञान ने नवीनतम आविष्कारों के माध्यम से कृषकों में एक नवीन आशा तथा उत्साह का संचार किया है। विभिन्न प्रकार की रासायनिक खादों से खेतों में आशातीत अन्न उत्पन्न हो रहा है। थेसर, ट्रैक्टर आदि यन्त्रों के माध्यम से खेतों में बोआई,कटाई सुविधापूर्वक एवं कम समय में सम्पन्न हो रही है।

मनोरंजन के साधन – विज्ञान ने आज के मानव को मनोरंजन के साधन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराये हैं। सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन एवं टेप रिकार्डर मनोरंजन के सुलभ तथा मनभावन साधन हैं। आप यदि उदासीन एवं चिन्ताग्रस्त हैं तो सिनेमा हाल में तीन घण्टे बैठकर चिन्ताओं से मुक्त हो सकते हैं। दूरदर्शन के माध्यम से यह आनन्द सपरिवार घर पर कमरे में बैठकर ही ग्रहण किया जा सकता है, साथ ही विश्व में घटित होने वाली घटनाओं को भी अपने नेत्रों में साक्षात् निहार सकते हैं।

अभिशाप – हर वस्तु के दो पहलू होते हैं। एक ओर जहाँ उसमें वरदानों का जाल बिछा रहता है, वहीं दूसरी ओर अभिशापों की काली छाया भी मँडराती है। विज्ञान द्वारा आविष्कृत, अभिशाप के साधन अनगिनत हैं। उनका दुरुपयोग किया जाए तो मानव सभ्यता एवं संस्कृति धराशायी हो जायेगी। जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगर इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं।

हाइड्रोजन बम, एटम बम, न्यूट्रान बम अलमारी में सजाने के लिए नहीं बनाये गये हैं, निश्चित रूप से इनका विस्फोट होगा। विषैली गैसें वातावरण को दूषित तथा विषाक्त बना रही हैं। प्रदूषण तथा शोरगुल भी बढ़ा है। विज्ञान ने मानव के सुख – साधनों में वृद्धि की है, फलतः आज का मानव विलास – प्रिय हो गया है।

उपसंहार – विज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है, वह मानव के हाथ में पड़कर ही शक्ति प्राप्त करता है। इस प्रकार विज्ञान वरदान अथवा अभिशाप कुछ न होकर मानव के उपयोग पर ही आधारित है। विज्ञान पर दोषारोपण करना उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार चलनी में दूध दुहना तथा कर्मों को दोष देना। भगवान मानव को सदबुद्धि प्रदान करे जिससे वह विज्ञान को मानव के कल्याण के लिए प्रयुक्त करे। विज्ञान का कल्याणमय स्वरूप विश्व के कल्याण के लिए है और विनाशमय स्वरूप विनाश के लिए। अतः विश्व कल्याण के लिए ही विज्ञान का प्रयोग किया जाना चाहिए।

13. दहेज प्रथा : एक सामाजिक अभिशाप [2013]

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) दहेज का आशय एवं स्वरूप,
(3) दहेज प्रथा का आविर्भाव,
(4) दहेज के दुष्परिणाम,
(5) नौजवानों का कर्त्तव्य,
(6) उपसंहार।]

प्रस्तावना – समाज के अन्तर्गत समस्याओं का विकराल जाल फैला हुआ है। ये तुच्छ तथा साधारण समस्याएँ कभी – कभी जी का जंजाल बन जाती हैं। लाड़ – प्यार तथा स्नेह से पालित – पोषित शिशु कभी – कभी बड़ा होकर जिस प्रकार माता – पिता के लिए बोझ बन जाता है तदनुसार ये समस्याएँ भी असाध्य रोग का रूप धारण कर लेती हैं तथा समाज के रूप को विकृत तथा घिनौना बना देती हैं। उन समस्याओं में से एक विकराल समस्या है दहेज प्रथा जो समाज की जड़ों को ही खोखला किए दे रही है। इससे समाज तथा व्यक्तिगत प्रगति पर विराम – सा लग रहा है। अनुराग एवं वात्सल्य का प्रतीक दहेज युग परिवर्तन के साथ खुद भी परिवर्तित होकर विकराल रूप में उपस्थित है।

दहेज का आशय एवं स्वरूप – साधारण रूप में दहेज वह सम्पत्ति है जिसे पिता अपनी बेटी के पाणिग्रहण संस्कार के समय अपनी पुत्री को इच्छानुकूल प्रदान करता है। पुराने समय से ही दहेज प्रथा का प्रचलन चला आ रहा है। इसके अन्तर्गत विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को आभूषण, वस्त्र एवं रुपये सहर्ष दान रूप में प्रदत्त किए जाते थे परन्तु समय के साथ – साथ यह परम्परा एवं प्रवृत्ति अपरिहार्य तथा आवश्यक बन गई। आज वर पक्ष दहेज के रूप में टी.वी., फ्रिज, स्कूटर एवं कार आदि की नि:संकोच माँग करता है। इनके अभाव में सुशिक्षित एवं योग्य कन्या को मनचाहा जीवन साथी नहीं मिल पाता। इस स्थिति में निर्धन पिता की पुत्री या तो अविवाहित रहकर पिता तथा परिवार के लिए बोझ बन जाती है अथवा बेमेल एवं अयोग्य वर के साथ जीवन जीने के लिए विवश होती है। दहेज की कुप्रथा ने अनेक युवतियों को काल के गाल में ढकेल दिया है। समाचार – पत्र आए दिन इस प्रकार की अवांछनीय घटनाओं से भरे रहते हैं। रावण ने तो मात्र एक सीता का अपहरण करके उसकी जिन्दगी को अभिशप्त, दुःखप्रद तथा आँसुओं की गाथा बनाया था परन्तु दहेज रूपी रावण ने असंख्य कन्याओं के सौभाग्य सिन्दूर को पोंछकर उनकी जिन्दगी को पीड़ाओं की अमर गाथा बना दिया है।

दहेज प्रथा का आविर्भाव यदि इतिहास की धुंधली दूरबीन उठाकर भूतकाल की क्षीण पगडंडी पर दृष्टिपात करते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि दहेज प्रथा का प्रचलन सामन्ती युग में भी था। सामन्त अपनी बेटियों की शादी में अश्व, आभूषण एवं दास – दासियाँ उपहार अथवा भेंट के रूप में प्रदत्त किया करते थे। शनै – शनैः इस बुरी प्रथा ने सम्पूर्ण समाज को ही अपनी परिधि में समेट लिया। इस कुप्रथा के लिए झूठी शान,रूढ़िवादिता तथा धर्म का अंधानुकरण उत्तरदायी है।

दहेज के दुष्परिणाम दहेज के फलस्वरूप आज सामाजिक वातावरण विषैला, दूषित एवं घृणित हो गया है। अनमेल विवाहों की भरमार है जिसके कारण परिवार एवं घर में प्रतिपल संघर्ष एवं कोहराम मचा रहता है। जिस बहू के घर से दहेज में यथेष्ट धन नहीं दिया जाता, ससुराल में आकर उसे जो पीड़ा एवं ताने मिलते हैं, उसकी कल्पना मात्र से शरीर सिहरने लगता है। कभी कभी उसे ससुराल वालों द्वारा जहर दे दिया जाता है अथवा जलाकर मार दिया जाता है। मनुष्य क्षण भर के लिए यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि आदर्श भारत का जिन्दगी का रथ किस ओर अग्रसर हो रहा है। प्रणय सूत्र में बंधने के पश्चात् जहाँ सम्बन्ध स्नेह, अनुराग एवं भाईचारे के होने चाहिए वहाँ आज कटुता एवं शत्रुता पैर – पसारे हुए है।

नौजवानों का कर्त्तव्य – दहेज प्रथा समस्या का निराकरण समाज एवं सरकार के बूते का कार्य नहीं है। इसके लिए तो युवक एवं युवतियों को स्वयं आगे बढ़कर दहेज न लेने एवं देने की दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए। मात्र कानून बनाने से इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता। जितने कानून निर्मित किए जा रहे हैं, दहेज लेने एवं देने वाले भी शोध ग्रन्थों की तरह नए – नए उपाय खोजने में सफल हो रहे हैं। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए महिलाओं को इस सन्दर्भ में प्रयास करना चाहिए। इसके लिए एक प्रभावी आन्दोलन भी चलाना चाहिए। सरकार को भी कठोर कानून बनाकर इस बुरी प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। शासन ने सन् 1961 में दहेज विरोधी कानून पारित किया। सन् 1976 में इसमें कुछ संशोधन भी किए गए थे किन्तु फिर भी दहेज पर अंकुश नहीं लग सका। समाज सुधारक भी इस दिशा में पर्याप्त सहयोग दे सकते हैं। दहेज लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार आवश्यक है। सहशिक्षा भी दहेज प्रथा को रोकने में सक्षम है। सामाजिक चेतना को जाग्रत करना भी आवश्यक है।

MP Board Solutions

उपसंहार – विगत अनेक वर्षों से इस बुरी प्रथा को समाप्त करने के लिए भागीरथ प्रयास किया जा रहा है लेकिन दहेज का कैंसर ठीक होने के स्थान पर निरन्तर विकराल रूप धारण करता जा रहा है। इस कुप्रथा का तभी समापन होगा जब वर पक्ष एवं कन्या पक्ष सम्मिलित रूप से इस प्रथा को समाप्त करने में सक्षम होंगे। यदि इस दिशा में जरा भी उपेक्षा अपनायी गयी तो यह ऐसा कोढ़ है जो समाज रूपी शरीर को विकृत एवं दुर्गन्ध से आपूरित कर देगा। समाज एवं शासन दोनों को जोरदार तरीके से दहेज विरोधी अभियान प्रारम्भ करना परमावश्यक है। अब तो एक ही नारा होना चाहिए। “दुल्हन ही दहेज है” यह नारा मात्र कल्पना की भूमि पर विहार करने वाला न होकर समाज की यथार्थ धरती पर स्थित होना चाहिए तभी भारत के कण – कण से सावित्री,सीता एवं गार्गी तुल्य कन्याओं की यह ध्वनि गुंजित होगी।

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।”

14. साहित्य और समाज [2009, 15]
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण है

“प्राचीन से अधुनातन समाज में,
जो कुछ होता आया है।
साहित्य समाज का दर्पण है,
प्रतिबिम्बित सबकी छाया है।”

विस्तृत रूपरेखा [2017]
(1) प्रस्तावना,
(2) साहित्य और समाज का सम्बन्ध,
(3) समृद्ध साहित्य उन्नति की आधारशिला,
(4) साहित्य का समाज पर प्रभाव,
(5) उपसंहार।]

प्रस्तावना – साहित्य एवं समाज दोनों अटूट रूप में एक – दूसरे से बँधे हुए हैं। साहित्य समाज में ही पल्लवित, पुष्पित तथा विकसित होता है एवं समाज भी साहित्य के प्रकाश में स्वयं को जीवन्त,ऊर्जा सम्पन्न,गतिमान या सजग बनाता है। समाज मानव सम्बन्धों का ताना – बाना है तथा साहित्यकार उसमें एक अपरिहार्य सूत्र होता है। इस प्रकार साहित्य एवं समाज दोनों की प्रगति एक – दूसरे पर आश्रित है। इन दोनों में से एक का भी पतन दूसरे के विनाश का सूचक होता है। साहित्य का समाज के नव निर्माण में अपूर्व योगदान है। तद्नुरूप समाज के माध्यम से ही साहित्य का पादप विकसित एवं हरा – भरा रहता है।

जीवन को सरस, आनन्दमय तथा सुखमय बनाने के लिए मानव ने साहित्य का निर्माण किया है। मानव की तरह साहित्य भी हित – चिन्तन करता है लेकिन इन दोनों में आकाश – पाताल का अन्तर है। सामान्यतः मानव का हित – चिन्तन संकुचित तथा अपने तक सीमित होता है। परन्तु साहित्य का हित – चिन्तन समस्त मानव जगत की कल्याण भावना से ओत – प्रोत होता है। इसी सत्य को दृष्टि – पथ में रखकर मनीषियों ने ज्ञान – राशि के संचित कोष को साहित्य के नाम से सम्बोधित किया है। कविवर रवीन्द्र के शब्दों में – “साहित्य शब्द से साहित्य शब्द में मिलने (अर्थात् एक साथ होने) का भाव निहारा जा सकता है। वह केवल भाव – भाव का,भाषा – भाषा का, ग्रन्थ – ग्रन्थ का मिलन नहीं है – दूर के साथ निकट का यह अत्यन्त अन्तरंग मिलन भी है, जो साहित्य के अलावा अन्य से सम्भव नहीं है।”

साहित्य और समाज का सम्बन्ध समाज निर्माण के पश्चात् साहित्य की रचना की जाती है। समाज तथा साहित्य एक – दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। समाज के विभिन्न प्रकार के क्रिया – कलापों का साहित्य में चित्रण किया जाता है। साहित्यकार अपने वर्णन – विषयों को समाज के धरातल से ही चयन करता है। साहित्य समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों,रुचियों तथा परम्पराओं का विश्लेषण करता है तथा उनको भली प्रकार सुरक्षित रखने तथा सँवारने का भी प्रयास करता है। इसी के अनुरूप समाज भी यथाशक्ति साहित्य को सुरक्षित रखने में तत्पर रहता है। इस प्रकार साहित्य तथा समाज का गहरा तथा अटूट सम्बन्ध है।

समाज की सभ्यता, संस्कृति, आचार – विचार, परम्परा, नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का निर्देशक साहित्य को ठहराया गया है। यदि, हम पुरातन समाज का ज्ञान प्राप्त करना चाहें तो तत्कालीन साहित्य का ही आश्रय लेना पड़ेगा। तत्कालीन समाज का हर्ष – विषाद, उत्थान – पतन, रीति – रिवाज एवं आचार – विचार साहित्य के कलेवर में ही प्रतिबिम्बित होंगे।

समृद्ध साहित्य उन्नति की आधारशिला हजारों साल पहले भारत शिक्षा तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति की चरम सीमा पर विराजमान था। हमारे पूर्वजों के प्रशंसनीय तथा अनुकरणनीय कार्य आज भी हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं। कवि वाल्मीकि तथा तुलसी की पावन वाणी जन – जन के मानस में उल्लास – भक्ति तथा ज्ञान की मन्दाकिनी प्रवाहित कर रही है। गोस्वामी तुलसीदास जी का ‘रामचरितमानस’ नामक ग्रन्थ अज्ञान – तिमिर में भटकने वाले कोटि – कोटि प्राणियों के लिए आज भी आकाशदीप की भाँति मार्गदर्शन कर रहा है।

जिस देश तथा जाति के पास जितना समृद्ध तथा उन्नत साहित्य होगा वह जाति उतनी ही समृद्धशाली ठहरायी जायेगी। यदि हमारे पास समृद्ध साहित्य नहीं होता तो हमारे अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाता। साहित्य समाज रूपी शरीर में आत्मा की तरह प्रतिष्ठित है। यह समाज की जीवनदायिनी शक्ति के रूप में विराजमान है। इस सन्दर्भ में निम्न कथन दृष्टव्य है

“अन्धकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है।
ह देश जहाँ साहित्य नहीं है।”

समाज का साहित्य पर प्रभाव – साहित्य की तरह समाज का भी साहित्य पर प्रभाव पड़ता है। प्राचीन साहित्य के अध्ययन से यह बात ज्ञात होती है कि तत्कालीन समाज में प्रकृति पूजा का विधान था।

सविता,वरुण तथा उषा आदि देवों की पूजा तथा अर्चना का भी प्रचलन था। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। कृषि में गोवंश की उपयोगिता को दृष्टि – पथ में रखकर गायों की माता के समान पूजा की जाती थी। वीरगाथा काल की रचनाओं में श्रृंगार,प्रेम,युद्ध तथा मारकाट के वर्णन हैं। भारत अनेक राज्यों में विभाजित था। शासकों में आपस में हेल – मेल नहीं था। वे आनन्द, विलास तथा मनोरंजन में ही जीवन का सौन्दर्य निहारते थे। रीतिकालीन साहित्य तात्कालिक समाज की प्रवृत्तियों का जीता – जागता दर्पण है। कवि राज्याश्रय में रहकर विलासमय जीवन – यापन कर रहे थे। समाज की ओर से उन्होंने आँख बन्द कर ली थीं। नायिका के नख – शिख वर्णन तक ही उनकी लेखनी सीमित थी। नायिका के सौन्दर्य पर टीका रचकर उसके रूप का बखान करना ही उन्होंने कला का लक्ष्य स्वीकारा था। यद्यपि बिहारी तथा देव आदि कवियों ने भक्तिपरक रचनाओं का निर्माण भी किया, लेकिन अत्यल्प।

साहित्य का समाज पर प्रभाव – समाज को साहित्य प्रेरणा देता है। जो कार्य अस्त्र – शस्त्र नहीं कर पाते वह कार्य साहित्य सुगमतापूर्वक सम्पन्न कर लेता है। बिहारी के मात्र एक दोहे ने विलासिता के सागर में गोते लगाते हुए महाराज जयसिंह को कर्त्तव्य के पथ पर अग्रसर कर दिया। तुलसीदास ने राम को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है आनन्द प्रदत्त करना तथा समाज का प्रमुख आदर्श है आनन्द की अनवरत खोज। इस तरह दोनों अभिन्न रूप से जुड़े हैं। साहित्य में जब तक विकास होता रहता है तब तक वह जीवित रहता है। विकास गति अवरुद्ध हो जाती है तब उसे मृत साहित्य की संज्ञा दी जाती है। समाज के वातावरण की नींव पर साहित्य का भवन खड़ा किया जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “साहित्य समाज का दर्पण है।” संसार में जितनी भी क्रान्तियाँ हुईं,वे वहाँ के साहित्यकारों की लेखनी के माध्यम से ही सम्पन्न हुई।

उपसंहार – निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि समाज साहित्य को तथा साहित्य समाज को प्रतिपल प्रभावित करते रहते हैं। उससे अछूता रहना दोनों के लिए असम्भव है। साहित्य समाज की प्रतिध्वनि है। साहित्य की प्रेरणा से समाज का रूप परिवर्तित होता है तथा वह नया कलेवर धारण करता है। साहित्य युग – युगों से समाज – सुधार का प्रबल साधन प्रमाणित हुआ है। साहित्य राष्ट्रीय चेतना के क्षेत्र में ही नहीं वरन् सामाजिक विषमता को समाप्त करने में भी अग्रणी रहा है। साहित्य विगत समय का लेखा – जोखा है। सनातन मूल्यों का पोषक है। वर्सफील्ड के शब्दों में – “साहित्य मानव समाज का मस्तिष्क है।”

साहित्यकार का सबसे पावन कर्त्तव्य है समाज को प्रेरणा देना, नई ऊर्जा शक्ति प्रदान करना तथा जीवन – पथ को आलोकित करना। तभी निम्न स्वर सुनाई पड़ेंगे। देखिए

“जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना।
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।”

15. जीवन में खेलों का महत्त्व | [2013, 17]

“शक्ति बढ़े फुर्ती लहे, चोट न अधिक पिराय।।
अन्न पचे, चंगा रहे, खेल हैं सदा सहाय ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) विकास का साधन,
(3) खेलों से सामाजिकता की भावना का विकास,
(4) विद्यार्थी जीवन में खेल की आवश्यकता,
(5) मनोरंजन का साधन,
(6) उपसंहार।

MP Board Solutions

प्रस्तावना जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए खाना – पीना आवश्यक है, उसी प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए जीवन में खेलों का भी अत्यन्त महत्त्व है। मनुष्य यदि केवल खाता – पीता ही रहे तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता, अपितु उस खाये – पिये को पचाने के लिए, अच्छी भूख लगाने के लिए और शरीर के रक्त संचार आदि को उचित रखने के लिए व्यायाम करना अथवा खेलना अत्यन्त आवश्यक है।

विकास का साधन – मनुष्य के सर्वांगीण विकास में खेलों का अत्यन्त महत्त्व है। खेलने से मनुष्य के मन में स्फूर्ति और उत्साह उत्पन्न होता है जिससे जीवन की अनेक चिन्ताओं और तनावों से मुक्ति पाकर उसका मन अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसका प्रभाव मनुष्य के तन और मन पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। इससे मनुष्य का मनोबल ऊँचा होता है व उसमें आगे बढ़ने की ललक उत्पन्न होती है। उसके विचारों में निश्चितता और दृढ़ता आती है। इसी के साथ संसार में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए मन में महत्त्वाकांक्षा भी उत्पन्न होती है। आज हमारे देश ने क्रिकेट, कबड्डी,टेनिस आदि खेलों में विश्व में अपना उच्चस्तरीय स्थान बनाया है। देश का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों को देखकर अन्य खिलाड़ियों में भी जोश उत्पन्न होता है तथा खेलों में प्रतिस्पर्धा की भावना से उनका उत्तरोत्तर विकास होता है।

खेलों से सामाजिकता की भावना का विकास – खेल मनुष्य में सामाजिकता की भावना का अभ्युदय करते हैं। उदाहरणतः जब भारत की टीम और पाकिस्तान की टीम साथ – साथ खेल खेलती हैं,तो मन के अन्दर की अलगाव और कटुता की भावना स्वतः ही समाप्त हो जाती है और उनमें परस्पर सौहार्द्र और बन्धुत्व की भावना का विकास होता है।

विद्यार्थी जीवन में खेल की आवश्यकता विद्यार्थी जीवन में खेल की अत्यन्त आवश्यकता है। खेल से विद्यार्थी के मन में स्फूर्ति और ताजगी उत्पन्न होती है। इससे वह अपना अध्ययन कार्य अच्छी तरह करता है। परस्पर खेलों में स्पर्धा होने से उनके तन और मन की’ क्षमता और कुशलता में भी अभिवृद्धि होती है।

मनोरंजन का साधन – दिनभर कोल्हू के बैल की तरह काम करने वाला मानव या शिक्षा के बोझ से दबा हुआ विद्यार्थी शारीरिक और मानसिक श्रम से इतना अधिक श्रान्त हो जाता है कि उसे कुछ मनोरंजन की आवश्यकता होती है। ऐसे में खेल उसका भरपूर मनोरंजन करते हैं। जब खिलाड़ी खेल के मैदान में अपने करतब दिखाते हैं तब दर्शकगण भी उत्साह से आह्लादित हो उठते हैं। वे अपनी थकान, तनाव आदि भूलकर खेलों के आनन्द में डूब जाते हैं।

उपसंहार – इस प्रकार खेल मनुष्य के मन और तन को प्रसन्न तथा स्वस्थ रखते हैं। जीवन में सामाजिकता, मित्रता, भाईचारे आदि की भावना का विकास खेलों से ही होता है। अतः जिस प्रकार जीवन में खाना – पीना, पढ़ना – लिखना आवश्यक है उसी प्रकार तन – मन को स्वस्थ, प्रसन्न
और आह्लादित रखने के लिए खेलों का अत्यन्त महत्त्व है।
अतः यदि हम सब खेलों के महत्त्व को स्वीकार करेंगे तभी खिलाड़ियों के निम्न स्वर ध्वनित होंगे –

“क्या कहूँ कुछ और अब मैं सिर्फ इतना जानता हूँ।
राह पर चलती हमारे साथ ही मंजिल हमारी ॥”

16. आरक्षण नीति

“एक समय जो हितकर होता दूजे समय विनाशक।
आरक्षण का हाल यही है एक समय था रक्षक ॥
लेकिन आज विनाशक बनकर महाकाल बन आया।
योग्य युवा की आशाओं को ग्रास बनाकर खाया।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) वर्तमान समय में आरक्षण का बिगडता स्वरूप,
(3) वर्तमान समय में आरक्षण की आवश्यकता,
(4) उपसंहार।]

प्रस्तावना – जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तब देश में अपना संविधान लागू हुआ। उस समय देश में दलित वर्ग की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें न तो राजनीति में कोई स्थान प्राप्त था और न समाज में। समाज में तो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी स्थितियों को देखकर उनका उत्थान करने की भावना को दृष्टिपथ में रखते हुए देश के संविधान निर्माताओं ने उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की।

वर्तमान समय में आरक्षण का बिगड़ता स्वरूप – देश के संविधान निर्माताओं ने दलित वर्ग के उत्थान के लिए जिस आरक्षण नीति का सूत्रपात किया,कालान्तर में वही नीति स्वार्थी और भ्रष्टाचारी नेताओं की लिप्सा पूर्ति का साधन बन गई। जातीय आधार पर किए गए आरक्षण के कारण आरक्षण के अन्तर्गत आने वाले समृद्धशाली लोगों ने इसका खूब फायदा उठाया। निर्धन सवर्ण अपने सामने अपने सपनों पर समृद्ध आरक्षित वर्ग का अधिकार देखता रहा। अयोग्य लोग चुन – चुनकर राजकीय सेवाओं में पहुँच गए। योग्य सवर्ण असहाय दृष्टि से केवल देखता ही रह गया। आरक्षण के दानव ने उसका भविष्य निगल लिया। स्वार्थी अयोग्य किन्तु आरक्षित वर्ग में आने वाला धनाढ्य सरकारी खजाने का,जो उस पर लुटाए जा रहे थे,उपभोग करता रहा। निर्धन और योग्य सवर्ण इससे वंचित हुआ, ठगा – सा अपनी जाति को कोसता रहा। काश ! वह भी दलित और पिछड़े वर्ग में पैदा हुआ होता तो सरकार की कृपा उस पर भी होती। इस प्रकार आरक्षण जनहित की भावना को लेकर बनाई गई योजना थी किन्तु इसका स्वरूप बिगड़कर यह जनविनाश की भावना से कार्य करने लगी।

वर्ष 1953 में प्रथम आयोग का गठन किया गया था। इसके अध्यक्ष काका कालेलकर थे। इस आयोग ने अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति के साथ ऐसी जातियों को सूची में रखने का अनुमोदन किया जो सामाजिक,शैक्षिक और सरकारी सेवाओं के क्षेत्र में अत्यन्त पिछड़ी थीं।

तदनन्तर मंडल आयोग का गठन किया गया। इसमें पिछड़ी जातियों को 27% आरक्षण देने की सिफारिश की गई। इसे तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी. पी. सिंह ने लागू करने का प्रयास किया। तब इसके विरोध में युवावर्ग ने भयानक रूप धारण कर लिया। कई युवाओं ने आत्मदाह तक करने का प्रयास किया।

वर्तमान समय में आरक्षण की आवश्यकता – देश में जब आरक्षण नीति लागू की गई थी तब से लेकर आज वर्तमान समय में देश की परिस्थितियाँ परिवर्तित हो चुकी हैं। उस समय ज़ातिगत आरक्षण की आवश्यकता थी किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकता है। यद्यपि जब संविधान में आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्ष तक के लिए की गई थी किन्तु राजनयिकों ने अपनी कुर्सी मजबूत करने के उद्देश्य से इस व्यवस्था को आज आजादी के साठ वर्षों बाद भी कायम रखा है। इससे लाभ कम और हानि अधिक हुई। आज समाज में ऊँच – नीच और भेदभाव की भावना डालने में जातिगत आरक्षण का बहुत बड़ा हाथ है। व्यावहारिक रूप में समाज में अब जातिगत भेदभाव नहीं रह गया है किन्तु आरक्षण का काँटा सवर्णों के हृदय को निरन्तर वेधता रहता है। इसी कारण आरक्षित वर्ग आज उनकी ईर्ष्या और द्वेष का शिकार हो जाता है।

उपसंहार यदि कोई समस्या होती है तो उसका समाधान भी अवश्य है। आरक्षण की समस्या का समाधान है कि संविधान में संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जाए। जातिगत आरक्षण समाप्त कर दिया जाए। इससे एक तो समाज से परस्पर वैमनस्य की भावना दूर होगी। दूसरे योग्य और निर्धन सवर्ण बेरोजगारों को भी सरकारी सेवा में आने का उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होगा। देश की कुंठित और अवसादग्रस्त प्रतिभाएँ फिर से प्रस्फुटित होंगी और देश अयोग्यों के हाथ की कठपुतली बनने से बच जाएगा। तभी देश का वास्तविक रूप से विकास भी होगा। देश का विकास युवाओं की उन्नति और विकास पर ही निर्भर है अतः तब खुला आसमान सबके लिए बिना किसी पक्षपात की भावना के उपलब्ध हो सकेगा।

17. शिक्षित बेरोजगारी की समस्या

“पढ़ा लिखा है युवा, नौकरी नहीं देश में।
जीवन गुजर रहा मर्मान्तक पीड़ा में।
अब आशा की किरण दिखाए कौन कहाँ से।
बड़े – बड़े नेता रहते अपनी ही दुनिया में ॥”

विस्तृत रूपरेखा [2015] –
(1) प्रस्तावना,
(2) शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण – धन सम्बन्धी समस्या, धर्म की समस्या, राजनीतिक समस्या, दोषपूर्ण – शिक्षा पद्धति,
(3) उपसंहार।

प्रस्तावना – आज हमारे देश में बेरोजगारी एक ज्वलंत समस्या के रूप में उभर कर देश के युवा भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। पढ़े – लिखे युवा दर – दर भटक रहे हैं। भिक्षा की भाँति नौकरी माँग रहे हैं किन्तु शासन आँख और कान बन्द करके अन्धे और बहरे की भाँति सब अनदेखा और अनसुना कर रहा है। बड़े – बड़े पूंजीपतियों को भी युवारक्त को चूसने की आदत पड़ गई है। वह नौकरी देते हैं तो इतने कम पैसों पर कि महीने का वेतन चार दिन भी कठिनाई से चल पाता है। युवा प्रातः से सायं तक जी तोड़ परिश्रम करता है,ऊपर से कब नौकरी चली जाए, इसकी सूली भी सदैव उसके सिर पर लटकती रहती है।

शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण धन सम्बन्धी समस्या यह सत्य है कि धन के बिना मनुष्य प्रगति नहीं कर सकता। शिक्षित बेरोजगारी का यह एक मुख्य कारण है – देश में धन का अभाव, चाहे वह कृत्रिम हो अथवा वास्तविक,रोजगार के अवसर कम कर देता है। देश के धन पर वर्ग विशेष का आधिपत्य होने से जो धन रोजगार दे सकता है,वह केवल उनकी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में व्यय हो रहा है।

धर्म की समस्या देश में बेरोजगारी के प्रमुख कारणों में धार्मिक कारण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ के धर्मभीरू मनुष्य भाग्यवाद पर विश्वास करके हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते हैं। उनके अनुसार “अजगर करे न चाकरी,पंक्षी करे न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥” वाली कहावत सत्य है। वे कार्य करने का प्रयास नहीं करते और यह कहकर सन्तोष कर लेते हैं कि वह उनके भाग्य में ही नहीं था।

राजनीतिक समस्या बेकारी का प्रमुख कारण राजनीति भी है। यहाँ लोग राजनीति में आकर स्वयं और स्वयं के परिवार के लिए धन कमाना चाहते हैं। दूसरों को प्रलोभन देकर उनसे धन लूटकर अपने बैंक के खाते भरते हैं और इतना धन एकत्र कर लेते हैं कि उनकी कई पीढ़ियाँ बिना कोई काम करके आराम और वैभव से अपना जीवन गुजार सकती हैं। इनके पास देश का इतना धन एकत्र होता है कि यदि इनके बैंक के खाते जनता के लिए खोल दिये जाएँ तो देश से निर्धनता और बेरोजगारी स्वतः समाप्त हो जाए।

MP Board Solutions

दोषपूर्ण – शिक्षा पद्धति–भारत की शिक्षा पद्धति व्यवसायमूलक न होकर पुस्तकीय है। इस कारण छात्र जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में असमर्थ रहता है। वह अध्ययन करने में अपना बहुत समय व्यतीत कर देता है किन्तु इससे उसे जब रोजगार नहीं मिल पाता तब वह अत्यन्त निराशा की स्थिति को प्राप्त हो जाता है।

उपसंहार – समाज से शिक्षित बेरोजगारी को दूर करने का उपाय है कि शिक्षा मनुष्य को वास्तविक जीवन का सामना करने की क्षमता प्रदान करे,रोजगार – परक हो। युवा भी परिश्रम करने की आदत विकसित करें। कर्म में विश्वास करके छोटा, बड़ा जैसा भी कार्य मिले उसका पूरी निष्ठा,परिश्रम और ईमानदारी से निर्वाह करें। दूसरों के द्वारा दिए गए प्रलोभन में न फंसकर स्वयं रोजगार के अवसरों की तलाश करें। अतः स्वविवेक और क्षमता के अनुसार कार्य करने वाला मनुष्य कभी बेरोजगार नहीं रह सकता है। कहा भी गया है – “चरन् वै मधुविन्दन्ति चरन् स्वादुमुदुम्बरं पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्।” अर्थात् निरन्तर कार्य करने वाला मनुष्य ही जीवन के मधुर फल का आस्वादन करता है। सूर्य को देखिए वह चमकने में कभी प्रमाद नहीं करता।

18. भ्रष्टाचार : समस्या और निदान [2014]

“आचार संहिता के भारत में कैसा कलयुग आया
देव सदृश मानव था उसमें घोर पतन है आया।
राजनीति में और समाज में चहुँओर वही है छाया
भ्रष्टाचार – लिप्त जनमानस कैसा दुर्दिन आया।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) भ्रष्टाचार का कारण,
(3) भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय,
(4) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत आचार संहिता का जनक कहा जाता है। जब विश्व में अज्ञान का अन्धकार छाया था तब भारत ने ही उनमें ज्ञान,नीति और आचार का प्रबोध कर प्रकाश जगाया। विश्व को आचार का पाठ पढ़ाने वाले भारत के ऐसे भी दुर्दिन आएँगे सम्भवतः तत्कालीन नीति – विशारदों ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी। आज जब हम अपने देश के किसी भी क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो,शैक्षिक हो अथवा आर्थिक, दृष्टि डालें तो हर स्थान पर भ्रष्टाचार का बोलबाला दिखाई देता है। आज कोई भी कार्य कराना सरल बात नहीं है। नौकरी पानी है तो मोटी रकम रिश्वत में दो। स्थानान्तरण कराना है तो पहले सम्बन्धित अधिकारियों का मुँह पैसे से भरो। किसी कार्य हेतु अनापत्ति प्रमाण – पत्र लेना हो तो श्रृंखलाबद्ध तरीके से अधिकारियों की मुट्ठी गरम करो, महीनों प्रतीक्षा करो, तब जाकर कहीं कोई कार्य सम्पन्न हो सकता है।

भ्रष्टाचार का कारण – आज भ्रष्टाचार समाज में एक जटिल समस्या के रूप में फल – फूल रहा है। रक्तबीज की भाँति जन – जन के भीतर उत्पन्न होता जा रहा है। यह सब देखकर प्रश्न उठता है कि भ्रष्टाचार का कारण क्या है? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमें समाज की स्थिति के विषय में जानकारी लेना अति आवश्यक है। इसको पनपाने में देश के नेता,उद्योगपति और पूँजीपति जिम्मेदार हैं। श्रमिकों के घोर परिश्रम की कमाई पर अधिकार उद्योगपति जमाता है और उसको केवल उतना देता है जिससे वह केवल प्राणधारण किए रह सके। अपने अधभूखे और अधनंगे परिवार को देखकर उसके मन में विद्रोह की ज्वाला सुलगनी स्वाभाविक है। नेता जनता का धन चूसकर स्वयं ऐशो – आराम की जिन्दगी जीते हैं और अपनी आगे वाली पीढ़ियों के लिए भी धन सुरक्षित करके रख लेते हैं। ऐसे में कुछ लोग उन शोषित लोगों की भावनाओं का लाभ उठाकर उनसे धन लेकर उन्हें अच्छी – अच्छी नौकरियों का प्रलोभन देते हैं। एक व्यक्ति जब किसी से धोखा खाता है तब बदले की भावना से वह दूसरे के साथ भी वही करता है जो उसके साथ हुआ। परिणामतः लोगों की आत्मा मरती गई और स्वेच्छाचार बढ़ता गया। देखते – देखते पूरा समाज भ्रष्टाचार के दलदल में लिप्त हो गया और अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। बिना पैसे दिये हमारे देश में कम से कम कोई कार्य हो नहीं सकता।

भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय – भ्रष्टाचार का निवारण हो सके इसके लिए सबसे पहले शिक्षा में सुधार होना अति आवश्यक है। मानव अपने – अपने आचरण को सुधारे जिसे वह पुस्तकों में पढ़ता है उसे जीवन में उतारना सीखे। अतः आवश्यकता है कि मनुष्य अपनी योग्यताओं, क्षमताओं को पहचाने और झूठे प्रलोभन में न फंसकर ईमानदारी पर डटा रहै। अपने चरित्रबल को प्रमुखता दे। कहा भी गया है कि यदि धन गया तो कुछ नहीं गया। यदि स्वास्थ्य गया तो कुछ हानि हुई किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो इन्सान जीते जी ही मर गया। अतः मनुष्य को अपने चरित्र को ऊँचा उठाने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए।

उपसंहार – जिस प्रकार समाज में भ्रष्टाचार की जड़ें फैलाने वाले हम लोग ही हैं। उसी प्रकार उसका मूलोच्छेदन करने वाले भी हम ही होंगे। कहते हैं यदि सुबह का भूला शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। इसी प्रकार पहले हम चाहें कैसे भी रहे हों किन्तु आज से ही यदि हम अपने – अपने सुधार का संकल्प ले लें तो भ्रष्टाचार स्वयमेव ही समाप्त हो जाएगा। कहा भी गया है कि

“अपना अपना करो सुधार। तभी मिटेगा भ्रष्टाचार॥”

19. महँगाई की समस्या [2016]

“जब आदमी के हाल पे आती है मुफलिसी।
किस – किस तरह से उसको सताती है मुफलिसी॥”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) कृषि – उत्पादन,
(3) प्रशासन की उदासीनता,
(4) आयात नीति,
(5) जनसंख्या में वृद्धि,
(6) मुद्रा का प्रसार,
(7) घाटे का बजट,
(8) अव्यवस्थित वितरण प्रणाली,
(9) धन का असमान वितरण,
(10) समस्या का निदान,
(11) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत में इस समय जो आर्थिक समस्याएँ विद्यमान हैं, उनमें महँगाई एक प्रमुख समस्या है। भारत में पिछले दो दशकों में सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में अत्यन्त तीव्रता से वृद्धि हुई है। वृद्धि का यह चक्र आज भी गतिवान है।

भारत में अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में अधिकांश आर्थिक कारण हैं,किन्तु कुछ कारण गैर – आर्थिक भी हैं। इन कारणों में से प्रमुख रूप से उल्लेखनीय कारण निम्नलिखित हैं

कषि – उत्पादन – कृषि पदार्थों की कीमतों में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण उन समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि है जो कृषि के लिए आवश्यक है। कृषि उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि, सिंचाई की दरों में वृद्धि, बीज के दामों में वृद्धि, कृषि मजदूरों की मजदूरी की दर में वृद्धि आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से ही उसका प्रभाव कृषि – पदार्थों पर पड़ता है।

भारत में अधिकांश वस्तुओं का मूल्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पदार्थों के मूल्यों से सम्बन्धित है। यही कारण है कि जब किसी भी कारण से या कई कारणों से कृषि होती है तो उसके परिणामस्वरूप देश में अधिकांश वस्तुओं के मूल्य प्रभावित हो जाते हैं।

प्रशासन की उदासीनता – साधारणतः प्रशासन के स्वरूप पर यह निर्भर करता है कि देश में अर्थव्यवस्था एवं मूल्य – स्तर सन्तुलित होगा या नहीं। प्रभावशाली प्रशासक होने से कृत्रिम रूप से वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में कमी करना व्यापारियों के लिए कठिन हो जाता है। अतः उस परिस्थिति में कीमतों में निरन्तर एवं अनियन्त्रित रूप में वृद्धि करना अत्यन्त कठिन हो जाता है।

आयात नीति – कभी – कभी आयात सम्बन्धी गलत नीति के फलस्वरूप भी देश में वस्तुओं की कमी एवं कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। यह सही है कि देश में जहाँ तक सम्भव हो, आयात कम होना चाहिए विशेष रूप में उपयोग की वस्तुओं का आयात अधिक नहीं होना चाहिए। किन्तु यदि देश में वस्तुओं की पूर्ति माँग की तुलना में कम हो तो आयात की आवश्यकता होती है। यदि इन वस्तुओं का आयात न किया जाये तो माँग और पूर्ति में असन्तुलन होगा। पूर्ति जितनी कम होगी,वस्तुओं के दाम उतने ही बढ़ेंगे।

जनसंख्या में वृद्धि – भारत में जनसंख्या तीव्रता से एवं अनियन्त्रित रूप में बढ़ रही है। जनसंख्या के इस विशाल आकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी वस्तुओं और सेवाओं का बड़े आकार में होना अनिवार्य है। दुर्भाग्य से,भारत में कृषि और उद्योग के क्षेत्र में उतनी तीव्रता से उन्नति एवं उत्पादन की वृद्धि नहीं हो रही, जितनी की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। इसका स्वाभाविक परिणाम अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं की कमी है, इसी के परिणामस्वरूप अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि जारी है।

MP Board Solutions

मुद्रा का प्रसार भारत में मुद्रा – प्रसार की प्रवृत्ति तृतीय योजना के प्रारम्भिक काल से ही बनी हुई है। मुद्रा – प्रसार के बहुत से कारण रहे हैं, किन्तु उसका परिणाम एक ही रहा है – मूल्यों में वृद्धि। यद्यपि सरकार की ओर से बार – बार यह आश्वासन दिया जाता रहा है कि मुद्रा – प्रसार को अब कम कर दिया जायेगा एवं इस प्रवृत्ति को रोका जायेगा। किन्तु अभी तक इस दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सक – प्रसार को यदि नियन्त्रण में कर लिया जाये तो उससे मूल्य – स्तर को नियन्त्रण में रखना सरल हो जाता है।

घाटे का बजट – भारत में बजट और पूँजी – निर्माण की जो स्थिति है वह योजनाओं को पूरा करने के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं है। अतः इस कमी को दूर करने के लिए, अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को अपनाया जाने लगा है। पिछले कई बजटों में इस पद्धति को अपनाया गया है, जिससे अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में तेजी से वृद्धि हुई है।

अव्यवस्थित वितरण प्रणाली – भारत में अधिकतर विक्रेता संगठित हैं। इसके परिणामस्वरूप वह आपस में मिलकर वस्तुओं की खरीद,संचय एवं बिक्री के विषय की नीति का निश्चय करते हैं। धीरे – धीरे वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने लगती है। यदि सरकार इन प्रवृत्तियों को रोकने में असमर्थ होती है तो यह संस्थाएँ मूल्यों को निरन्तर बढ़ाती जाती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

धन का असमान वितरण – भारत में आर्थिक असमानता बहुत बड़े आकार में विद्यमान है। धन के असमान वितरण का विशेष रूप से उन वस्तुओं के मूल्यों पर प्रभाव पड़ता है जिनकी माँग तो बहुत अधिक है, किन्तु पूर्ति अत्यन्त सीमित। इनमें विलासिता की वस्तुएँ एवं कीमती वस्तुएँ भी शामिल हैं। रोजगार की कमी एवं मूल्यों में वृद्धि से निर्धनों को जीवन – यापन की अधिकतर वस्तुओं और साधनों को जुटाना कठिन हो जाता है।

समस्या का निदान –
(1) कृषि पर अधिक ध्यान देना,
(2) सिंचाई की सुविधा,
(3) वितरण प्रणाली में बदलाव,
(4) भ्रष्टाचार पर अंकुश।

उपसंहार कृत्रिम अभाव के सृजन एवं मूल्यों में निरन्तर वृद्धि से कालाबाजारी एवं अत्यधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती है। भारत में भी यह प्रवृत्ति अभी तक विद्यमान है। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ देश की अर्थव्यवस्था को अवांछित रूप से प्रभावित करती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों के द्वारा इन प्रवृत्तियों को रोकने का बराबर प्रयास किया जा रहा है, किन्तु इस दिशा में अभी पूरी सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। लोकमंगल की भावना एवं पवित्र मन से यथार्थ प्रयास करने से ही इसका निदान सम्भव है। यदि हम सभी परिश्रम से कार्य करें, उत्पादन अधिक बढ़ाएँ और मितव्ययिता से जीवन को चलाने की आदत डालें,तो महँगाई की समस्या का हल हमें अपने आप ही मिल सकता है।

20. भारतीय समाज में नारी का स्थान
अथवा [2009, 12, 14, 15, 17]
भारतीय नारी

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत पग – पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन भारतीय नारी,
(3) मध्यकाल में नारी,
(4) आधुनिक नारी,
(5) उपसंहार।]

प्रस्तावना – सृष्टि के आदिकाल से ही नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। नारी सृजन की पूर्णता है। उसके अभाव में मानवता के विकास की कल्पना असम्भव है। समाज के रचना – विधान में नारी के माँ,प्रेयसी, पुत्री एवं पली अनेक रूप हैं। वह सम परिस्थितियों में देवी है, तो विषम परिस्थितियों में दुर्गा भवानी। वह समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है जिसके बिना समग्र जीवन ही पंगु है। सृष्टि चक्र में स्त्री – पुरुष एक – दूसरे के पूरक हैं।

मानव जाति के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि जीवन में कौटुम्बिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में प्रारम्भ से ही नारी की अपेक्षा पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुष ने अपनी इस श्रेष्ठता और शक्ति – सम्पन्नता का लाभ उठाकर स्त्री जाति पर मनमाने अत्याचार किये हैं। उसने नारी की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उसे पराधीन बना दिया। सहयोगिनी या सहचरी के स्थान पर उसे अनुचरी बना दिया और स्वयं उसका पति, स्वामी, नाथ, पथ – प्रदर्शक और साक्षात् ईश्वर बन गया।

प्राचीन भारतीय नारी – प्राचीन भारतीय समाज में नारी – जीवन के स्वरूप की व्याख्या करें तो हमें ज्ञात होगा कि वैदिक काल में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वह सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पुरुष के साथ मिलकर कार्य करती थी। रोमशा और लोपामुद्रा आदि अनेक नारियों ने ऋग्वेद के सूत्रों की रचना की थी। रामायण काल (त्रेता) में भी नारी की महत्ता अक्षुण्ण रही। रानी कैकेयी ने राजा दशरथ के साथ युद्ध – भूमि में जाकर उनकी सहायता की। इस युग में सीता, अनुसुइया एवं सुलोचना आदि आदर्श नारी हुईं। महाभारत काल (द्वापर) में नारी पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगीं। इस युग में नारी समस्त गतिविधियों के संचालन की केन्द्र – बिन्दु थी। द्रोपदी,गान्धारी और कुन्ती इस युग की शक्ति थीं।

मध्यकाल में नारी – मध्य युग तक आते – आते नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय बन गयी। भगवान बुद्ध द्वारा नारी को सम्मान दिये जाने पर भी भारतीय समाज में नारी के गौरव का ह्रास होने लगा था। फिर भी वह पुरुष के समान ही सामाजिक कार्यों में भाग लेती थी। सहभागिनी और समानाधिकारिणी का उसका रूप पूरी तरह लुप्त नहीं हो पाया था। मध्यकाल में शासकों की काम – लोलुप दृष्टि से नारी को बचाने के लिए प्रयत्न किये जाने लगे। परिणामस्वरूप उसका अस्तित्व घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गया। वह कन्या रूप में पिता पर, पत्नी के रूप में पति और माँ के रूप में पुत्र पर आश्रित होती चली गयी। यद्यपि इस युग में कुछ नारियाँ अपवाद रूप में शक्ति – सम्पन्न एवं स्वावलम्बी थीं; फिर भी समाज सामान्य नारी को दृढ़ से दृढ़तर बन्धनों में जकड़ता ही चला गया। मध्यकाल में आकर शक्ति स्वरूपा नारी ‘अबला’ बनकर रह गयी। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में –

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

भक्ति काल में नारी जन – जीवन के लिए इतनी तिरस्कृत, क्षुद्र और उपेक्षित बन गयी थी कि कबीर, सूर, तुलसी जैसे महान् कवियों ने उसकी संवेदना और सहानुभूति में दो शब्द तक नहीं कहे। कबीर ने नारी को ‘महाविकार’, ‘नागिन’ आदि कहकर उसकी घोर निन्दा की। तुलसी ने नारी को गँवार, शूद्र, पशु के समान ताड़ना का अधिकारी कहा –

‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।

आधुनिक नारी – आधुनिक काल के आते – आते नारी चेतना का भाव उत्कृष्ट रूप से जाग्रत हुआ। युग – युग की दासता से पीड़ित नारी के प्रति एक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा। बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तर भारत में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने नारी को पुरुषों के अनाचार की छाया से मुक्त करने को क्रान्ति का बिगुल बजाया। अनेक कवियों की वाणी भी इन दुःखी नारियों की सहानुभूति के लिए अवलोकनीय है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने तीव्र स्वर में नारी स्वतन्त्रता की माँग की –

“मुक्त करो नारी को मानव, चिर बन्दिनी नारी को।
युग – युग की निर्मम कारा से, जननी, सखि, प्यारी को।”

आधुनिक युग में नारी को विलासिनी और अनुचरी के स्थान पर देवी, माँ, सहचरी और प्रेयसी के गौरवपूर्ण पद प्राप्त हुए। नारियों ने सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक सभी क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य किया। विजयलक्ष्मी पण्डित कमला नेहरू,सुचेता कृपलानी,सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी,सुभद्राकुमारी चौहान,महादेवी वर्मा आदि के नाम विशेष सम्मानपूर्ण हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने नारियों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक प्रयल किये हैं। हिन्दू विवाह और कानून में सुधार करके उसने नारी और पुरुष को समान भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया। दहेज विरोधी कानून बनाकर उसने नारी की स्थिति में और भी सुधार कर दिया। लेकिन सामाजिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता ने उसे भोगवाद की ओर प्रेरित किया है। आधुनिकता के मोह में पड़कर वह आज पतन की ओर जा रही है।

MP Board Solutions

उपसंहार – इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से हमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी के विविध रूपों और स्थितियों का आभास मिल जाता है। वैदिक काल की नारी ने शौर्य, त्याग, समर्पण, विश्वास एवं शक्ति आदि का आदर्श प्रस्तुत किया। पूर्व मध्यकाल की नारी ने इन्हीं गुणों का अनुसरण कर अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखा। उत्तर – मध्यकाल में अवश्य नारी की स्थिति दयनीय रही, परन्तु आधुनिक काल में उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया है। उपनिषद,पुराण,स्मृति तथा सम्पूर्ण साहित्य में नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। वैदिक युग में शिव की कल्पना ही ‘अर्द्ध नारीश्वर’ रूप में की गयी। मनु ने प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श एवं महान् रूप की व्यंजना की है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता…” अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों का पूजन होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ स्त्रियों का अनादर होता है, वहाँ नियोजित होने वाली क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। स्त्री अनेक कल्याण का भाजन है। वह पूजा के योग्य है। स्त्री घर की ज्योति है। स्त्री गृह की साक्षात् लक्ष्मी है। यद्यपि भोगवाद के आकर्षण में आधुनिक नारी पतन की ओर जा रही है, लेकिन भारत के जन – जीवन में यह परम्परा प्रतिष्ठित नहीं हो पायी है। आशा है भारतीय नारी का उत्थान भारतीय संस्कृति की परिधि में हो। वह पश्चिम की नारी का अनुकरण न करके अपनी मौलिकता का परिचय दे।

MP Board Class 12th Hindi Solutions