MP Board Class 11th Special Hindi गद्य साहित्य : विविध विधाएँ

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1. निबन्ध

निबन्ध गद्य रचना का एक प्रधान भेद है। गद्य साहित्य का सबसे परिष्कृत और प्रौढ़ रूप निबन्ध में ही उभरता है।

परिभाषा-निबन्ध वह रचना है जिसमें किसी गहन विषय पर विस्तार और पाण्डित्यपूर्ण विचार किया जाता है। वास्तव में, निबन्ध शब्द का अर्थ है-बन्धन। यह बन्धन विविध विचारों का होता है, जो एक-दूसरे से गुंथे होते हैं और किसी विषय की व्याख्या करते हैं।

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।”

जयनाथ नलिन के शब्दों में, “निबन्ध स्वाधीन चिन्तन और निश्छल अनुभूतियों का सरस, सजीव और मर्यादित गद्यात्मक प्रकाशन है।”

भाषा की पूर्ण शक्ति भी निबन्धों में ही दिखाई पड़ती है। साहित्य के अन्य विविध क्षेत्रों के विषय में गहन जानकारी भी निबन्धों द्वारा ही प्राप्त होती है। निबन्ध ही मनुष्य के मस्तिष्क का सारा ज्ञानकोश उभारकर रख देते हैं। वह गद्य साहित्य का ऐसा अंग है जो अपने में अत्यधिक पूर्ण और उपयोगी है। निबन्ध साहित्य की एक ऐसी रचना है जो पाठक के मन में आनन्द और अनुभूति उत्पन्न करने में साहित्य की अन्य विधाओं से अधिक सक्षम है।

  • निबन्ध के तत्त्व

निबन्ध को समझने और उसका रसास्वादन करने के लिए निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

  1. निबन्ध की विषय-वस्तु,
  2. विषय-वस्तु को प्रस्तुत करने का उद्देश्य,
  3. निबन्ध की शैली।

निबन्ध के लिए स्वीकृत विषयों की कोई सीमा नहीं है। अभिव्यक्त विषय में किसी भाव, दृश्य आदि का चित्रण है अथवा किसी घटना मात्र का वर्णन है, किसी मनोविकार आदि का निरूपण विश्लेषण हुआ है या किसी प्रसंग का भावात्मक विवरण है।

इसके पश्चात् उद्देश्य की ओर. ध्यान देना चाहिए। लेखक कभी कुछ तथ्यों, दृश्यों या क्रिया-कलापों का विवरण देकर पाठक का ज्ञानवर्द्धन करना चाहता है तो कभी किसी दृश्य या अतीत की स्मृति को भावात्मक शैली से रमाना चाहता है; कभी वह पाठकों को कुछ प्रेरणा देना चाहता है तो कभी किसी सीख या निष्कर्ष तक ले चलना उसका उद्देश्य होता है। इस प्रकार विषय-वस्तु और उद्देश्य निबन्ध के दो ऐसे तत्त्व हैं जिनसे निबन्ध को समझने में सहायता मिलती है।

निबन्ध में लेखक का दृष्टिकोण सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। वस्तुतः इसी आधार भूमि पर अवस्थित होकर निबन्ध के विवरणों का सर्वेक्षण किया जाता है। अतः निबन्ध में जो मूल्य, तथ्य, आवेश-संवेग, स्मृतियाँ अथवा पूर्वाग्रह आते हैं वे इसी पर आश्रित होते हैं, इसी के द्वारा उन्हें जाना जा सकता है। रामचन्द्र शुक्ल ने जिन संस्मरणों का संकेत अपने विचार प्रधान निबन्धों में किया है वे उनके विषय सम्बन्धी दृष्टिकोण को ही सचित करते हैं। निबन्ध में आत्मपरकता का समावेश इसी के द्वारा होता है।

निबन्धकार का कौशल उसकी अभिव्यंजना शैली में निहित होता है। निबन्ध को समझने और सराहने के लिए मुख्य रूप से यह देखना होगा कि विषय-वस्तु को अभिप्रेत उद्देश्य के लिए किस ढंग से प्रस्तुत किया गया है। किसी भी विषय के सम्बन्ध में अनेक छोटे-बड़े विवरण हो सकते हैं। लेखक अपने उद्देश्य के लिए उनमें से आवश्यक का चयन कर लेता है। अत: निबन्ध के अर्थबोध के लिए चयन और नियोजन को ध्यान रखना आवश्यक है।

भाषा के विविध स्तर भी मूल आशय का प्रतिपादन करने में सहायक होते हैं। भाषा की प्रांजलता और समृद्धि केवल शब्द चयन पर ही निर्भर नहीं है। विचारों को सुस्पष्ट वाक्यों और स्वाभाविक शैली में उपस्थित करना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए मुहावरों,लोकोक्तियों आदि का समीचीन प्रयोग निबन्ध को अर्थवत्ता प्रदान करता है। निबन्ध में गृहीत बिम्बों, उदाहरणों एवं सन्दर्भो को भी प्रतिपाद्य विषय से सम्बद्ध करके देखना चाहिए।

  • निबन्धों के भेद [2008]

विद्वानों ने प्रमुख रूप से निबन्धों को चार कोटियों में विभाजित किया है, जो निम्न प्रकार हैं
(1) भावात्मक,
(2) विचारात्मक,
(3) वर्णनात्मक,
(4) विवरणात्मक।

(1) भावात्मक निबन्ध-उसे कहते हैं जो किसी विषय का भावना प्रधान चित्र प्रस्तुत करते हैं तथा उसमें विषय की गम्भीर विवेचना नहीं की जाती। इनमें कल्पना का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। निबन्धकार के हृदय से भाव स्वतः कल्पना का रंगीन आवरण ओढ़े अबाध गति से निःसृत होते हैं। विषय के चित्र की रेखाएँ उभरती चलती हैं और निबन्ध की समाप्ति पर एक आकर्षक एवं मार्मिक चित्र उपस्थित हो जाता है। इसमें गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है।

(2) विचारात्मक निबन्ध-इनमें भावों की अपेक्षा विचारों की प्रधानता रहती है। उनका सम्बन्ध हदय से न होकर मस्तिष्क से होता है। उनमें विषय की व्याख्या, विवेचन और विश्लेषण सभी कुछ बुद्धि-प्रसूत रहता है। स्वाभाविक है कि ऐसे निबन्धों में विचारों की गहनता होती है। विचारात्मक निबन्धों का क्षेत्र जीवन की प्रत्येक समस्या से सम्बन्धित होता है। विचारात्मक निबन्धों में भी भावों का अस्तित्व होता है किन्तु प्रधानता विचारों की रहती है। विचारात्मक निबन्ध मस्तिष्क-प्रधान होते हैं जबकि भावात्मक निबन्ध हदय-प्रधान होते हैं।

(3) वर्णनात्मक निबन्ध-ये भावात्मक निबन्धों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। इसमें विषय का वर्णन आकर्षक ढंग से किया जाता है। किसी भी ऐतिहासिक स्थान, किसी भी कलाकृति, किसी भी प्रकृति के उपादान या वस्तु विशेष को लेकर निबन्धकार सुन्दर भाषा में उसका वर्णन करता है। भारत की सांस्कृतिक एकता इसका उदाहरण है।

(4) विवरणात्मक निबन्ध-इन निबन्धों में किसी वस्तु, घटना या स्थान आदि का विवरण उपस्थित किया जाता है। उदाहरण के लिए, हम किसी यात्रा या नौका विहार को या किसी मेले, उत्सव को लें। उसका विवरण निबन्धकार इतने आकर्षक ढंग से देता चलेगा और अन्त तक वह अपने प्रभाव की छाप हमारे हृदय पर छोड़ देगा। इनमें सारा ध्यान निबन्धकार का प्रमुख विषय पर होता है।

  • निबन्ध रचना की शैली के प्रकार

निबन्धों की विषय-वस्तु को सजाने के तरीके का नाम शैली है। शैली से आशय है भाषागत शैली, जिसमें भाषा के बाह्य और आन्तरिक रूपों का समावेश होता है। प्रायः निबन्ध में निम्नांकित शैली रूपों का ही अधिक प्रयोग होता है

  1. व्यास शैली-इसमें भाव व विचार का विस्तार अत्यन्त सरल और रोचक ढंग से किया जाता है। सरलता, स्पष्टता और स्वाभाविकता इस शैली की विशेषताएँ हैं। कथात्मक (विवरणात्मक) और वर्णनात्मक निबन्ध इसी शैली में लिखे जाते हैं। इसे प्रसाद शैली भी कहते हैं।
  2. समास शैली-समास का अर्थ है-संक्षिप्त। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहना इस शैली की विशेषता है। इस शैली का उपयोग विचारात्मक निबन्धों में अधिक होता है।
  3. विवेचना शैली-इसमें लेखक तर्क-वितर्क, प्रमाण, पुष्टि, व्याख्या एवं निर्णय आदि का सहारा लेते हुए विषय का प्रतिपादन करता है। गहन अध्ययन, मनन और चिन्तन के आधार पर लेखक अपनी बात समझाता है। इसमें कभी-कभी क्लिष्टता आ जाती है। विचारात्मक निबन्ध इसी शैली में आते हैं। शुक्लजी के निबन्ध इस शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
  4. व्यंग्य शैली-इसमें व्यंग्य-विनोद के माध्यम से महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का उदघाटन किया जाता है। इसमें कभी-कभी मनोरंजन, कभी तीखी चुभन और कभी गुदगुदी-सी होती है।
  5. आवेश शैली-इसमें लेखक भावावेश में विचारों की अभिव्यक्ति करता है। भाव प्रवाह अनुकूल भाषा और शब्द नियोजन के माध्यम से निबन्ध अपने आप आगे बढ़ता है। इसी को धारा शैली या प्रवाह शैली भी कहते हैं।
  6. संलाप शैली-संलाप शैली का अर्थ है-वार्तालाप । इसमें भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति संवादों के माध्यम से होती है।
  7. प्रलापशैली-कभी-कभी लेखक आन्तरिक आवेश के कारण भावों पर नियन्त्रण न रख सकने के कारण आवेश की सी मानसिक स्थिति से गुजरता हुआ लिखता है। इसमें भावाभिव्यक्ति अस्त-व्यस्त हो जाती है।
    कभी-कभी विषय के प्रतिपादन की दृष्टि से व्याख्या की दो शैलियों का उपयोग होता है।
  8. निगमन शैली-इसमें पहले विचारों को सूत्र रूप में रखकर फिर उसकी विस्तृत व्याख्या करके समझाया जाता है जिसमें उदाहरणों का भी उपयोग होता है।
  9. आगमन शैली-इसमें विचारों को पहले विस्तारपूर्वक व्याख्या करके बाद में उसका सारांश सूत्र या सिद्धान्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
  • निबन्ध का विकास

हिन्दी निबन्ध साहित्य का विकास आधुनिक काल की देन है। इसके विकास क्रमाको निम्नवत् चार युगों में विभाजित किया जा सकता है

  1. भारतेन्दु युग,
  2. द्विवेदी युग,
  3. शुक्ल युग एवं
  4. शुक्लोत्तर युग (वर्तमान युग)।

प्रारम्भ में पत्र सम्पादक स्वयं निबन्ध लिखने की कला में प्रवीण थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने निबन्ध लिखने का कार्य भी बड़े ही कौशल से किया है। भारतेन्दु युग में अनेक गद्य रूपों का विकास हुआ है।

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(1) भारतेन्दु युग-भारतेन्दु युग हिन्दी गद्य का शैशवकाल है। भारतेन्दु आधुनिक काल के जन्मदाता हैं उनके युग को भारतेन्दु युग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। भारतेन्दु युग को ऐसी मजबूत नींव के समान माना जाता है, जिस पर आगे चलकर क्रमशः एक-एक मंजिल बनती चली गई थी।

  • विशेषताएँ
  1. निबन्धों के कलेवर में पत्रकारिता का युग समाविष्ट है।
  2. सड़ी-गली मान्यताओं एवं रूढ़ियों का प्रबल विरोध है।
  3. निबन्धकारों के मस्त एवं मनमौजी व्यक्तित्व की निबन्धों में छाप है।
  4. निबन्धों में राजनैतिक चेतना, समाज सुधार की आकांक्षा के फलस्वरूप यत्र-तत्र भाषा में शिथिलता अवलोकनीय है।
  5. शैली सरस, हदयस्पर्शी एवं मनभावन है।
  6. हास्य व्यंग्य के छोटे निबन्ध की दुरूहता को कुछ कम कर देते हैं। चुभते हुए व्यंग्य एवं विनोदप्रियता के दर्शन होते हैं।
  7. भाषा, भाव एवं शैली में नवीनता का समावेश है। संस्कृत तद्भव एवं तत्सम शब्दों की भरमार है।
  8. निबन्धकार अंधानुकरण के घोर विरोधी थे।
  9. साहित्यिक रूपों की विवेचना इसी युग में प्रारम्भ हुई।
  10. पाश्चात्य शैली के अध्ययन के माध्यम से नए आदर्श अवलोकनीय हैं।
  • प्रमुख निबन्धकार

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त एवं बद्रीनारायण चौधरी आदि प्रमुख निबन्धकार हुए।
निष्कर्ष-भारतेन्दु युग हिन्दी साहित्य का प्रवेश द्वार है। इस युग को हम ‘सन्धि युग’ भी कह सकते हैं।

(2) द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1920 तक)-
भारतेन्दु युग के पश्चात् आधुनिक काल का द्वितीय चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। सरस्वती पत्रिका का सम्पादन करके द्विवेदी जी ने हिन्दी गद्य को उन्नत एवं व्यवस्थित किया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा का गद्य साहित्य के विकास में विशेष योगदान है। द्विवेदी जी के कुशल निर्देशन में न जाने कितने कलाकार साहित्य जगत में उजागर हुए जिनकी सफल कीर्ति आज भी फैली है। द्विवेदी युग तैयारी का युग था जिसमें आधुनिक साहित्य-शैली का निर्माण हो रहा था।

  • प्रमुख निबन्धकार [2008]

महावीर प्रसाद द्विवेदी, पद्मसिंह शर्मा, सरदार पूर्णसिंह, बालमुकुन्द गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी इस युग के प्रमुख निबन्धकार हैं।

  • विशेषताएँ [2008]
  1. भाषा को व्यवस्थित एवं सुगठित किया गया। भाषा में अभिव्यंजना शक्ति का भी पर्याप्त विकास हुआ।
  2. जीवनोपयोगी विषयों पर निबन्ध लिखे गये हैं।
  3. निबन्धों में गम्भीरता का समावेश है।
  4. साहित्य समालोचना, संस्कृति इतिहास एवं विभिन्न विषयों पर सफल निबन्ध लिखे गये हैं।
  5. निबन्धों में यत्र-तत्र दुरूहता का समावेश है।
  6. निबन्धों की भाषा प्रांजल एवं परिमार्जित है। विभक्तियों का उचित प्रयोग है।
  7. हिन्दी में समालोचना शैली का सूत्रपात भी इस युग में हुआ।
  8. सरल तथा प्रचलित शब्दावली में कहीं-कहीं करारा व्यंग्य है।

निष्कर्ष-द्विवेदी जैसा साहित्य का प्रहरी निरन्तर हिन्दी भाषा एवं साहित्य को परिष्कार कर, उसे आदर्श की ओर उन्मुख करने में दत्त-चित्त रहा। गद्य साहित्य सर्वांगीण तथा बहुमुखी बन गया।

(3) शुक्ल युग (सन् 1920 से 1945 तक)-
द्विवेदी युग के बाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का नाम हिन्दी निबन्धकारों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने हिन्दी को महत्त्वपूर्ण मौलिक कृतियाँ दी, इसी हेतु इस युग को शुक्ल युग के नाम से जाना जाता है।

  • प्रमुख निबन्धकार

श्यामसुन्दर दास, गुलाबराय, वियोगी हरि, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, जयशंकर प्रसाद, रायकृष्ण दास, सियाराम शरण गुप्त, डॉ. रघुवीर सिंह।
विशेषताएँ

  1. भाषा शक्ति सम्पन्न एवं कलात्मक बनी।
  2. विविध प्रकार के साहित्य की रचना हुई।
  3. भाषा भावों की अनुगामिनी है।
  4. भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा का तर्कसंगत समन्वय है।
  5. समसामयिक समस्याओं का निरूपण है।
  6. नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का अपूर्व योगदान है।
  7. प्रेमचन्द्र ने कहानी एवं उपन्यास के क्षेत्र में व्यावहारिक एवं सरल शैली का प्रयोग किया है।
  8. मार्क्सवाद के प्रभाव के फलस्वरूप जनवादी चेतना पर आधारित निबन्ध लिखे गए हैं।
  9. स्वतंत्रता संग्राम एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े मनोभावों को निबन्धों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।
  10. छायावाद के संदर्भ में तर्कपूर्ण विवेचना है।
  11. निबन्धों की शैली परिमार्जित एवं विषयों के अनुरूप है।
  12. यत्र-तत्र गाँधीवाद का प्रभाव भी अवलोकनीय है।
  13. द्विवेदी युगीन व्यास प्रधान शैली के स्थान पर समास प्रधान शैली का प्रचलन हुआ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शुक्ल जी ने सरल एवं मिश्रित गद्य का ऐसा स्वरूप उपस्थित किया जो जन साधारण की भाषा का रूप था।

(4) शुक्लोत्तर युग (सन् 1945 से आज तक)-
शुक्ल युग के पश्चात् का युग शुक्लोत्तर युग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसे वर्तमान युग’ भी कहा जाता है।

  • प्रमुख निबन्धकार

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाबराय, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नगेन्द्र, नन्ददुलारे वाजपेयी, रामवृक्ष बेनीपुरी, हरिशंकर परसाई,शान्तिप्रिय द्विवेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल,रामधारीसिंह ‘दिनकर’, शिवदान सिंह चौहान, महादेवी वर्मा, भगवतशरण उपाध्याय, विजयमोहन शर्मा,धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

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विशेषताएँ

  1. इस युग के समस्त निबन्धों में चिन्तन के साथ-साथ गहराई का पुट है।
  2. भाषा शैली प्रौढ़ एवं प्रांजल है।
  3. भाषा व्यावहारिक है।
  4. निबन्धों में यत्र-तत्र व्यंग्य का पुट भी अवलोकनीय है।
  5. ‘खरगोश के सींग’ नामक निबन्ध जिसके लेखक प्रभाकर माचवे हैं,व्यंग्य का सजीव उदाहरण है।
  6. हरिशंकर परसाई एवं के. वी. सक्सेना ने भी व्यंग्यात्मक लेख लिखे हैं।
  7. निबन्धों में प्रगतिवादी विचारधारा भी परिलक्षित है।
  8. महादेवी वर्मा के संस्मरणात्मक निबन्ध भी बहुत ही सरस एवं सराहनीय हैं।
  9. जनेन्द्र कुमार ने गाँधीवादी विचारधारा को अपने निबन्धों में अभिव्यक्त किया है।
  10. सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरातल पर आधारित निबन्धों की रचना भी की गयी है।

प्रमुख निबन्धकार एवं उनकी रचनाएँ

भारतेन्दु युग
द्विवेदी युग

2. कहानी

संसार के सभी लिखित-अलिखित साहित्य में कहानी सबसे प्राचीनतम रूप है। कहानी पढ़ने या सुनने की प्रवृत्ति केवल बच्चों में ही नहीं, वयस्कों में भी होती है। आज के व्यस्त जीवन में कहानी की लोकप्रियता का कारण है उसका छोटा होना।

परिभाषा-“कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है जो छोटी होते हए भी स्वतः पूर्ण और सुसंगठित होती है।”
“कहानी में मानव जीवन की किसी एक घटना अथवा व्यक्तित्व के किसी एक पक्ष का मनोरम चित्रण रहता है। उसका उद्देश्य केवल एक भी प्रभाव को उत्पन्न करना होता है।”
डॉ. श्यामसुन्दर दास के शब्दों में, “आख्यायिका एक निश्चित लक्ष्य के प्रभाव को लेकर नाटकीय आख्यान है।”

“कहानी ऐसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उनका कथा-विन्यास सभी उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं।

“कहानी ऐसा रमणीक उद्यान नहीं है जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेलबूटे सजे हों, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य और सौन्दर्य अपने समुचित रूप में दृष्टिगोचर होता है।”

कहानी के तत्त्च [2008]

  1. कथावस्तु,
  2. चरित्र-चित्रण अथवा पात्र,
  3. कथोपकथन या संवाद,
  4. देशकाल व परिस्थिति,
  5. उद्देश्य,
  6. शैली और शिल्प।

(1) कथावस्तु-कहानी में कथावस्तु या कथानक कहानी का मुख्य ढाँचा होता है। विषय की दृष्टि से कहानी में सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि में से किसी भी प्रकार का कथानक अपनाया जा सकता है। किन्तु यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कहानी में जीवन की बाह्य घटनाओं की ही अभिव्यक्ति नहीं होती, मानव हृदय का भी उद्घाटन होता है। उदाहरण के लिए ‘संवदिया’ कहानी में घटनाओं का वर्णन कम, पर बड़ी बहू और संवदिया के मन का रहस्योद्घाटन करने की सफल चेष्टा की गयी है।

मानव जीवन के सुख-दुःख दोनों पक्षों की चर्चा के लिए कहानीकार के केवल घटनाओं का आयोजन ही नहीं करता, वह व्यक्ति के हृदय और मन की भावना और अन्तर्द्वन्द्व को पर्याप्त प्रमुखता देता है। कहानी की घटनाएँ अनायास ही घटित नहीं होती, कथा का विकास धीरे-धीरे होता है। इस कथा विकास की निम्नलिखित चार स्थितियाँ होती हैं

(अ) आरम्भ-कहानी के शीर्षक और प्रारम्भ में कथासूत्रों से अवगत करा दिया जाता है। कहानी आरम्भ करने के लिए अनेक विधियाँ हो सकती हैं-किसी पात्र के परिचय से, पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप से अथवा वातावरण विशेष के चित्रण से। यदि कथा के आरम्भ में ही पाठक के मन में कौतूहल अथवा जिज्ञासा उत्पन्न हो जाय तो ‘आरम्भ’ सफल कहा जायेगा।

(आ) आरोह-सामान्य जानकारी के बाद आरोह की अथवा विकास की ओर ध्यान दिया जाता है। कथावस्तु के प्रवाह की दृष्टि से यह स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह कहानी का मध्य भाग होता है।

(इ) चरम स्थिति-कथानक के जिस स्थल द्वारा पाठक के मन में कौतूहल अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाय, उसे चरम स्थिति कहते हैं। इसमें पाठक उत्सुकता, आशा और आशंका के बीच उलझता हुआ कथानक के अन्तिम मोड़ के लिए लालायित हो उठता है।

(ई) अवरोह-अवरोह अथवा अन्त सबसे महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि कहानी का मूल उद्देश्य या भाव यहीं प्रतिफलित होता है। इस ओर उचित ध्यान न देने पर कहानी शिथिल हो जाती है और अपूर्ण प्रतीत होती है। कहानी के अवरोह में संक्षिप्तता और मार्मिकता पर विशेष बल रहता है।

(2) चरित्र-चित्रण एवं पात्र-योजना-कथा का विकास पात्रों द्वारा ही होता है। चरित्र-चित्रण के लिए अनेक प्रणालियाँ अपनायी जाती हैं, लेखक के द्वारा पात्र का प्रत्यक्ष वर्णन करके या पात्र के क्रिया-कलापों द्वारा। कभी-कभी कथोपकथन के माध्यम से भी पात्रों के व्यक्तित्व का उद्घाटन किया जाता है। पात्रों की परस्पर तुलना, प्रासंगिक घटनाओं के माध्यम से चरित्र की व्यंजना, अन्तर्द्वन्द्व की अवतरणा आदि चरित्र-चित्रण की प्रचलित शैलियाँ हैं। पात्रों के व्यक्तित्व की संक्षिप्त, स्पष्ट और संकेतात्मक अभिव्यक्ति कहानी का गुण है।

(3) कथोपकथन अथवा संवाद-कथा-सौन्दर्य की संवृद्धि में और पात्रों के निरूपण के लिए कथोपकथन का निश्चित योग है। संवाद रहित कहानियाँ अथवा. कम संवाद वाली कहानियों में उपयुक्त प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पाता। संवादों में रोचकता, सजीवता और स्वाभाविकता का होना आवश्यक है। संवादों की गरिमा के लिए उन्हें पात्र, वातावरण, स्थान और समय के अनुकूल रखा जाता है। संवादों में पात्र के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व अथवा अन्य मनोभावों को प्रकट करने की शक्ति होनी चाहिए और यह भी आवश्यक है कि वे संक्षिप्त हों क्योंकि बड़े-बड़े संवाद प्रापः बोझिल और कृत्रिम प्रतीत होने लगते हैं।

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(4) देशकाल और परिस्थिति, वातावरण-कहानी का कथानक और उसके पात्र किसी न किसी देश और काल से जुड़े रहते हैं। प्रभाव वृद्धि के लिए आवश्यक है कि कहानी का अपना एक वातावरण भी हो। वातावरण के उपयुक्त चित्रण से कथात्मक रचनाओं में रस निष्पत्ति और मनोवैज्ञानिक प्रभाव की सृष्टि में विशेष सुविधा रहती है। कहानीकार घटनाओं, प्रकृति सौन्दर्य एवं पात्रों से सम्बद्ध स्थानों आदि का युगानुरूप चित्रण करते हैं। कुछ लेखक कहानी का आरम्भ ही वातावरण के चित्रण से करते हैं। जैसे “उसने कहा था” कहानी के प्रारम्भ में ही अमृतसर के बाजार का, वहाँ के वातावरण का बड़ा ही सजीव चित्रण है।

(5) उद्देश्य-आधुनिक कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं। वह हमें कोई सन्देश भी देती है। उसमें कुछ उद्देश्य भी निहित रहता है। कहानी के उद्देश्य से हमारा तात्पर्य कहानीकार के दृष्टिकोण से है। कहानी में जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की सहज व्याख्या बड़े ही उद्देश्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की जाती है। प्रगतिवादी, सुधारवादी आदि विभिन्न कहानियाँ विभिन्न उद्देश्यों के परिणामस्वरूप लिखी जाती हैं। कहानी में उद्देश्य को उपदेश रूप से प्रस्तुत नहीं किया जाता। प्रत्यक्ष स्थापना न करके उसका संकेत भर दिया जाता है।

(6) शैली और शिल्प-शैली से तात्पर्य लेखक द्वारा कथा वर्णन के लिए अपनायी गयी विशिष्ट पद्धति है। कहानी लेखन की अनेक शैलियाँ हो सकती हैं–लेखक अपनी सुविधा अनुसार वर्णनात्मक, आत्मकथात्मक, संवादात्मक, पत्रात्मक और डायरी शैली अपना सकता है। कला की दृष्टि से कहानी के सौन्दर्य का विधान शैली के माध्यम से ही होता है। शैली सौष्ठव के लिए लेखक अलंकार, लोकोक्ति, प्रतीक आदि उपकरणों की सहायता लेता है। कभी-कभी ग्रामीण पात्रों के लिए या तुतलाते बच्चों के लिए, आंचलिकता में सजीवता लाने के लिए वह उन्हीं की बोली का उपयोग भी करता है। यदि भाषा भाव के अनुसार न हो तो उपयुक्त प्रभाव का संचार नहीं हो पाता। इसी प्रकार हास्य, व्यंग्य, चित्रोपमता, प्रकृति के मानवीकरण से कहानी के सौन्दर्य में वृद्धि होती है।

कहानी के विविध रूप [2008]
विभिन्न तत्त्वों की प्रधानता की दृष्टि से कहानी के चार प्रमुख भेद किये जा सकते हैं-

  1. घटना प्रधान कहानी,
  2. चरित्र प्रधान कहानी,
  3. वातावरण प्रधान कहानी,
  4. भाव प्रधान कहानी।

(1) घटना प्रधान कहानी-इसमें क्रमशः अनेक घटनाओं को एक सूत्र में पिरोते हुए कथानक का विकास किया जाता है।
(2) चरित्र प्रधान कहानी-इसमें लेखक का ध्यान पात्रों के चरित्र-निरूपण की ओर ही अधिक रहता है। इसमें मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि में चरित्र की विभिन्न सूक्ष्मताओं का उद्घाटन लेखक या पात्र स्वयं करता है। कभी-कभी दूसरे पात्रों के माध्यम से भी मुख्य पात्र की चरित्रगत विशेषताएँ उभरकर सामने आती हैं।
(3) वातावरण प्रधान कहानी-इन कहानियों में वातावरण पर अधिक ध्यान दिया जाता है। विशेषतः ऐतिहासिक कहानियों में वातावरण को विशेष रूप से चित्रित किया जाता है क्योंकि यहाँ किसी युग विशेष का, उसकी संस्कृति, सभ्यता आदि का आभास वर्णन और संवाद द्वारा करना होता है।
(4) भाव प्रधान कहानी-इन कहानियों में एक भाव या विचार के आधार पर कथानक का विकास किया जाता है। इस कोटि में गद्य काव्य से मिलती-जुलती लघु कथाएँ, प्रेम कहानियाँ और प्रतीक कथाएँ आती हैं। ये प्रायः दृष्टांत के रूप में होती हैं और इनका अध्ययन जीवन के लिए प्रेरणादायक होता है। इस तरह कहानियाँ विचारों को प्रबुद्ध करती हैं और चिरकाल तक हृदय पर अमिट छाप छोड़ती हैं। इन कथाओं को लिखने में चित्र शैली को अपनाया जाता है।

  • हिन्दी कहानी का विकासक्रम

कहानी का अभ्युदय भारतेन्दु युग में हुआ। इसके विकास को निम्न प्रकार चार युगों में विभक्त कर सकते हैं

  1. प्रारम्भिक प्रयोगकाल – (सन् 1900 से 1910)
  2. विकास काल (पूर्वार्द्ध) – (सन् 1910 से 1936)
  3. विकास काल (उत्तरार्द्ध) – (सन् 1936 से 1947)
  4. स्वातन्त्रोतर काल – (सन् 1947 से अब तक)

1. प्रारम्भिक काल इस युग की कहानियों में कथावस्तु, देशकाल, उद्देश्य आदि तत्त्वों का समावेश है। कहानी के शिल्प विधान को भी महत्व दिया गया है।
प्रमुख कहानीकार – कहानियाँ [2008]

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – ग्यारह वर्ष का समय
  2. गिरिजा दत्त बाजपेयी – पंडित और पंडिताइन
  3. श्री किशोरीलाल गोस्वामी – इन्दुमती
  4. माधव राव सप्रे – टोकरी भर मिट्टी
  5. बंग महिला – दुलाई वाली

2. विकास काल (पूर्वाद्ध) इस युग में हिन्दी कहानी के क्षेत्र में एक नवीन युग का शुभारम्भ हुआ। चरित्र-चित्रण एवं कथा संगठन पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है। कहानी के कलेवर में आदर्श एवं यथार्थ के समन्वय के साथ ही इतिहास एवं कल्पना के समन्वय का प्रशंसनीय प्रयास है।

कहानियाँ
प्रमुख कहानीकार

  1. पं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – उसने कहा था, बुद्ध का कांटा, सुखमय जीवन।
  2. जयशंकर प्रसाद – गुण्डा, पुरस्कार, आकाशदीप।
  3. भगवती प्रसाद बाजपेयी – सूखी लगड़ी, मिठाई वाला।
  4. प्रेमचन्द – बड़े घर की बेटी, पंच परमेश्वर, पूस की रात, कफन, शतरंज के खिलाड़ी।
  5. विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक’ – चित्रशाला, रक्षाबन्धन, ताई।

अन्य कहानीकार-सियाराम शरण गुप्त, विनोद शंकर व्यास, निराला, वृन्दावनलाल शर्मा, चण्डीप्रसाद हृदयेश, सुदर्शन।

3. विकास काल (उत्तराद्ध)

इस काल की कहानियों के कलेवर में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड की मनोविज्ञान विषयक मान्यताओं एवं धारणाओं का विशेष प्रभाव परिलक्षित है। हास्य एवं व्यंग्य के छींटे कहानी को एक नया रूप प्रदान करते हैं। इस युग की कहानियों का विवरण निम्नवत् है

  1. अज्ञेय – कोठरी की बात, रोज, अमर वल्लरी।
  2. भगवती चरण वर्मा – दो बाँके, प्रायश्चित।
  3. जैनेन्द्र कुमार – पाजेब, अपना-अपना भाग्य।
  4. इलाचन्द्र जोशी – दीवाली, छाया, आहुति।
  5. यशपाल – दुःख, पराया सुख, परदा।

अन्य कहानीकार- महादेवी वर्मा, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव, उपेन्द्रनाथ अश्क’, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार।

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4. स्वातंत्रोत्तर काल कहानी के क्षेत्र में अल्पजीवी आन्दोलन के फलस्वरूप सचेतन कहानी,समानान्तर कहानी, अकहानी एवं नयी कहानी आदि नामों से अस्तित्व में आयीं।

  1. राजेन्द्र यादव – छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक।
  2. मोहन राकेश – एक और जिन्दगी, सौदा।
  3. फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ – लाल पान की बेगम, संवदिया, ठेस।
  4. कमलेश्वर – खोई हुई दिशाएँ, साँप।
  5. मन्नू भण्डारी – यही है जिन्दगी, सजा।

अन्य कहानीकार-निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, श्रीकान्त वर्मा, शिवानी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा आदि।

आज की कहानियों में कलात्मकता अवलोकनीय है। भाषा-भाव का सुन्दर समन्वय है। प्रेम तथा साहस का मनभावन सामंजस्य है।

3. एकांकी

यह गद्य की प्रमुख विधा है। विद्वानों के मत में इसकी परिभाषा अवलोकनीय है।

परिभाषा-डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “एकांकी में हमें जीवन का क्रमबद्ध विवेचन मिलकर उसके एक पहल, एक महत्त्वपूर्ण घटना, एक विशेष परिस्थिति अथवा एक उद्दीप्त क्षण का चित्रण मिलेगा। अत: उसके लिए एकता अनिवार्य है।”

एकांकी नाटक का एक प्रकार है। एकांकी और नाटक में वही अन्तर है जो कहानी और उपन्यास में होता है। एकांकी में जीवन का खण्ड-दृश्य अंकित किया जाता है जो अपने में पूर्ण होता है।

एकांकीकार अपनी रचना द्वारा एक ही उद्देश्य को व्यक्त करता है। विचार की अभिव्यक्ति, कथावस्तु, पात्र, संवाद आदि के माध्यम से होती है और एक विशेष उद्देश्य की अभिव्यक्ति करते हुए केवल एक ही प्रभाव की सृष्टि की जाती है।

  • एकांकी के तत्त्व

एकांकी के छः तत्त्व होते हैं

  1. कथावस्तु,
  2. पात्र,
  3. संवाद,
  4. वातावरण,
  5. भाषा-शैली,
  6. अभिनेयता।

(1) कथावस्तु-कथा और कथावस्तु में अन्तर होता है। केवल क्रमबद्ध कथा लिखने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। लेखक के मन में सर्वप्रथम कोई भाव आता है जिससे कथा बनती है। कभी-कभी किसी कथा से ही भाव स्फर्त होता है। एकांकीकार कथा के क्रम में आवश्यक परिवर्तन करता है, एक घटना को दूसरी घटना या क्रिया से जोड़ता है, अन्तर्द्वन्द्व की सृष्टि करता है, किसी पात्र का चमत्कारपूर्ण ढंग से प्रवेश कराता है। नयी-नयी नाटकीय परिस्थितियों की योजना करता है। यही रचनात्मक तन्त्र कथावस्तु है।

एकांकी की कथावस्तु को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

  1. प्रारम्भ,
  2. विकास,
  3. चर्मोत्कर्ष।

सामान्यतः पात्रों का परिचय, उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश प्रारम्भ में होते हैं। विकास या कार्य-व्यापार से संघर्ष आरम्भ होता है। संघर्ष दो विरोधी स्थितियों, सिद्धान्तों, आदर्शों आदि में होता है। एकांकी देखते या पढ़ते समय कथानक के विकास के उपरान्त दर्शक के मन में एक स्थिति ऐसी आती है, जब उसका कौतूहल चरम बिन्दु तक पहुँच जाता है। इस स्थिति को चर्मोत्कर्ष की स्थिति कहते हैं। एकांकी में जब कौतूहल चरम सीमा पर पहुँच जाये तब उसे समाप्त हो जाना चाहिए।

(2) पात्र-एकांकी में पात्रों की संख्या जितनी सीमित होती है, परिस्थिति का रंग उतना ही उभरकर सामने आता है। एकांकी का प्रमुख पात्र नाटक के प्रारम्भ से अन्त तक प्राणवन्त बनाता है। एकांकी की मूल भावना को उद्दीप्त करने के लिए एक दो गौण पात्रों की भी योजना की जाती है। गौण पात्रों के चयन में यह ध्यान रखा जाता है कि उनके चरित्र में विशेषता हो। नाटक में नायक और उसके सहायक पात्रों का चरित्र-चित्रण मूलत: घटनाओं के माध्यम से किया जाता है। किन्तु एकांकी में पात्रों का चरित्र नाटकीय परिस्थितियों और भीतर-बाहर के संघर्षों के सहारे चलता है। एकांकी में चरित्र के किसी एक पहलू का ही चित्र प्रस्तुत किया जाता है।

(3) संवाद-संवाद के माध्यम से ही एकांकी प्रस्तुत होता है। संवाद से कथावस्तु में गतिशीलता आती है और पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं का उद्घाटन होता है। एक पात्र जो कुछ कहता है, वह अर्थपूर्ण होता है। इस तरह कथा आगे बढ़ती और दर्शकों या पाठकों के मन में जिज्ञासा पैदा करती है। एकांकी का विस्तार बहुत कम होता है, इसलिए थोड़े शब्दों में अधिक
भाव की अभिव्यक्ति की चेष्टा रहती है।।

(4) वातावरण-कहा जाता है कि जिस एकांकी में देश-काल और वातावरण की अन्विति पूर्ण रूप से पायी जाती है, वही एकांकी सर्वाधिक सफल माना जाता है। देश की अन्विति का अर्थ है सम्पूर्ण घटना एक ही स्थान पर घटित हो और उसमें दृश्य परिवर्तन कम से कम हों।

(5) भाषा-शैली-सभी विधाओं की भाषा-शैली अलग-अलग होती है। एकांकी की भाषा-शैली में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भाषा का प्रयोग पात्र की शिक्षा, संस्कृति, वातावरण, परिस्थिति के अनुरूप होना चाहिए। यदि पात्र का सांस्कृतिक स्तर ऊँचा है तो उसकी

भाषा शिष्ट और शैली परिष्कृत होगी। यदि उसका वातावरण दूषित है, सांस्कृतिक परिवेश भी उच्च स्तर का नहीं है तो भाषा में निखार और शैली में परिष्कार दिखायी नहीं देगा। इसलिए एकांकीकार अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित पात्रों के मुँह से प्रायः भाषा का अनगढ़ रूपाचा स्थानीय बोली का रूप ही प्रस्तुत करता है।

(6) अभिनेयता-एकांकी वस्तुतः अभिनीत करने के लिए लिखा जाता है। रंगमंच पर अभिनय करने के लिए एकांकीकार को रंगमंच की विशेषताओं की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। एकांकी के सफल अभिनय के लिए उपयुक्त मंचसज्जा और कुशल अभिनेताओं का होना अनिवार्य है। इन सबके अतिरिक्त ध्वनि और प्रकाश का संयोजन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यथा अवसर वाद्य-यन्त्र और संगीत का समायोजन होना चाहिए।

प्रकार-एकांकी कई प्रकार के होते हैं। विषय की दृष्टि से ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं पौराणिक-ये भेद किये जा सकते हैं।
शैली की दृष्टि से एकांकी को कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

  1. स्वप्नरूप,
  2. प्रहसन,
  3. काव्य-एकांकी,
  4. रेडियो रूपक,
  5. ध्वनि-रूपक,
  6. वृत्त रूपक।
  • एकांकी का विकासक्रम

एकांकी का विकास आधुनिक युग में माना गया है। पश्चिमी देशों से प्रभावित होकर हमारे राष्ट्र में भी एकांकी का पल्लवन एवं विकास हुआ।

  • हिन्दी का प्रथम एकांकी

कुछ मनीषियों ने जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘एक घुट’ को हिन्दी का प्रथम एकांकी ठहराया है। इसकी रचना लगभग सन् 1930 में हुई थी।

प्रसाद के बाद एकांकी के क्षेत्र में डॉ. रामकुमार वर्मा का पदार्पण हुआ। ‘बादल की मृत्यु नामक एकांकी, ‘एक बूंट’ ‘नामक एकांकी के समकक्ष माना जाता है।
कतिपय विद्वान भुवनेश्वर प्रसाद का सन् 1935 में कारवाँ’ नामक एकांकी संग्रह प्रकाशित हुआ। इस पर पाश्चात्य तकनीक का प्रभाव परिलक्षित है। शिल्प की दृष्टि से कुछ आलोचक इसे भी हिन्दी के प्रथम एकांकी की श्रेणी में रखते हैं।

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विगत अनेक सालों से हिन्दी का एकांकी कलेवर अपने युग के अनुरूप परिवर्तित होता रहा है। साठ-पैंसठ वर्षों में एकांकीकारों ने पारिवारिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक तथा व्यक्तिगत समस्याओं को यथार्थ के धरातल पर अंकित किया है। रेडियो रूपक के रूप में भी एकांकी को अनेक नवीन दिशा प्राप्त हुई है।

  • प्रमुख एकांकीकार

एकांकीकार – प्रसिद्ध एकांकी

  1. उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ – अधिकार का रक्षक, सूखी डाली, पापी।
  2. डॉ. रामकुमार वर्मा – रेशमी टाई, पृथ्वीराज की आँखें, दीपदान, चारुमित्रा।
  3. उदयशंकर भट्ट – नये मेहमान, नकली और असली।
  4. सेठ गोविन्द दास – केरल का सुदामा।
  5. भगवती चरण वर्मा – सबसे बड़ा आदमी, दो कलाकार।
  6. विष्णु प्रभाकर – वापसी, हब्बा के बाद।
  7. जगदीश चन्द्र माथुर – रीढ़ की हड्डी, भोर का तारा।
  8. भुवनेश्वर प्रसाद – ऊसर, कारवाँ।।

अन्य एकांकीकार-लक्ष्मीनारायण मिश्र, वृन्दावनलाल वर्मा, विनोद रस्तोगी, गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल, हरिकृष्ण प्रेमी।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के एक अंक वाले नाटक ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’ इनको आधुनिक प्रकार का एकांकी नहीं माना जा सकता। एकांकी आधुनिक युग की ही उपज है।

4. आलोचना

आलोचना भी गद्य की एक सशक्त विधा है। इसे समालोचना, समीक्षा, विवेचना, मीमांसा और अनुशीलन भी कहा जाता है। समालोचना में किसी विषय के गम्भीर अध्ययनपूर्ण विवेचना का भाव होता है। आलोचना सामान्य विवेचन का ही संकेत करती है। अत: हम कह सकते हैं कि किसी विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त कर उस पर विचार-विमर्श करना, उसको स्पष्ट करना, उसके गुण-दोषों की विवेचना कर उन पर अपना मंतव्य प्रकट करना आलोचना कहलाती है।

आलोचना साहित्य की किसी भी विधा की, की जा सकती है।

आलोचना के प्रकार-आलोचना के दो भेद किये जाते हैं-
(1) सैद्धान्तिक,
(2) प्रयोगात्मक। सैद्धान्तिक समीक्षा में अनेक सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला जाता है। प्रयोगात्मक समीक्षा पश्चिम की देन है। रचनाओं की पूर्ण विवेचना के साथ ही साहित्य सम्बन्धी धारणाओं के निर्माण का प्रयास पाश्चात्य साहित्य में ही अधिक दिखाई देता है। हिन्दी में भी यह प्रभाव अब स्पष्टतः दिखाई देने लगा है।

5. पत्र

पत्र-साहित्य भी गद्य की एक सशक्त विधा है। उर्दू में ‘गुबारे खातिर’ (आजाद का पत्र संग्रह) और रूसी भाषा में ‘टालस्टॉय की डायरी’ स्थायी साहित्य की निधि हैं। पत्र के द्वारा आत्म-प्रदर्शन, विचारों की अभिव्यक्ति को अच्छी दिशा प्राप्त होती है। हिन्दी में द्विवेदी पत्रावली, द्विवेदी युग के साहित्यकारों के पत्र, पिता के पत्र पुत्री के नाम आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इस विधा के प्रवर्तन में बैजनाथ सिंह, विनोद, बनारसीदास चतुर्वेदी , जवाहरलाल नेहरू आदि का योगदान महत्त्वपूर्ण है।

6. रिपोर्ताज

यह गद्य की एक नई विधा है। द्वितीय महायुद्ध के समय इस विधा का प्रचलन हुआ।
रिपोर्ताज शब्द का विकास रिपोर्ट शब्द से स्वीकारा गया है। रिपोर्ट का आशय है घटना का यथार्थ अंकन। युद्ध की विभीषिका का अनुभव कराने के लिए युद्ध का जो आँखों देखा हाल लिखा जाता था उसे रिपोर्ताज नाम दिया गया। इसमें घटना, दृश्य या वस्तु का चित्रण होता है। उसकी भाषा अत्यन्त ही सजीव और रोचक होती है। आँखों देखी कानों सुनी घटनाओं पर ही रिपोर्ताज लिखी जाती है। इस विधा का शुभारम्भ शिवदान सिंह चौहान की लक्ष्मीपुरा’ से हुआ। साहित्य के इस क्षेत्र में रांगेय राघव, वेद राही, प्रभाकर माचवे, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, अमृतराय, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

7. रेखाचित्र

इसे अंग्रेजी में स्कैच कहा जाता है। चित्रकार जिस प्रकार अपनी तूलिका से चित्र बनाता है उसी प्रकार लेखक अपने शब्दों के रंगों के द्वारा ऐसे चित्र उपस्थित करता है जिससे वर्णन योग्य वस्तु की आकृति का चित्र हमारी आँखों के सामने घूमने लगे। चित्रकार की सफलता उसके रेखांकन तथा रंगों के तालमेल पर निर्भर करती है, जबकि रेखाचित्र के लेखक की उसके शब्दों को गूंथने की कला पर। रेखाचित्र का लेखक अपने शब्दों से ऐसा चित्र बनाता है जो हमारे मानस पटल पर उभरकर मूर्त रूप धारण कर लेता है। इस विधा के प्रमुख लेखक हैं श्रीराम शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, निराला तथा महादेवी वर्मा।

8. संस्मरण

संस्मरण आत्मकथा के ही क्षेत्र से निकली हुई विधा है, किन्तु आत्मकथा और संस्मरण में गहरा अन्तर होता है। आत्मकथा का प्रमुख पात्र लेखक स्वयं होता है, किन्तु संस्मरण के अन्तर्गत लेखक जो कुछ देखता है, अनुभव करता है, उसे भावात्मक प्रणाली के द्वारा प्रकट करता है। ऐसे लेखन में सम्पूर्ण जीवन का चित्र न होकर किसी एक या एकाधिकार घटनाओं का रोचक वर्णन रहता है। स्मृति पटल पर आने वाले का अंकन करते हुए वह खुद ही अंकित हो जाता है। संस्मरण का क्षेत्र अन्तर्जगत न होकर बहिर्जगत का होता है। संस्मरण लेखकों में पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’, महादेवी वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा शान्तिप्रिय द्विवेदी, देवेन्द्र सत्यार्थी आदि प्रमुख हैं। हिन्दी में आदर्श संस्मरण की रचना छायावादोत्तर युग में हुई।

9. जीवनी या आत्मकथा

जीवन चरित्र और आत्मकथा के रूप परस्पर भिन्न होते हैं। आत्मकथा स्वयं लिखी जाती है, जीवनी कोई दूसरा लिखता है। हिन्दी में जीवन चरित्र के लेखक अनेक हैं। आत्मकथाओं में गाँधीजी के ‘सत्य के प्रयोग’, नेहरूजी की ‘मेरी कहानी’ तथा राजेन्द्र प्रसाद बाबू की आत्मकथा’ प्रसिद्ध हैं।

10. डायरी

अपने जीवन के दैनिक प्रसंगों को या किसी प्रसंग विशेष को डायरी के रूप में लिखा जाता है। इनमें जीवन की यथार्थ घटनाओं का वर्णन संक्षेप में रहता है। व्यंजना, व्यंग्य और वर्णन डायरी
की विशेषताएँ हैं।

नित्यप्रति के जीवन की कुछ विशिष्ट घटनाओं के सुख-दुःखात्मक रूपों की मार्मिक स्थितियों को लेखक अपनी प्रतिक्रिया के साथ कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है तो डायरी साहित्य की रचना होती है। इसमें तिथि, स्थान आदि का सत्य उल्लेख होता है। इसका आकार लघु अथवा विशद दोनों प्रकार का हो सकता है। धीरेन्द्र वर्मा, प्रभाकर माचवे, घनश्याम दास बिड़ला, सुन्दरलाल त्रिपाठी हिन्दी के श्रेष्ठ डायरी लेखक हैं।

11. इण्टरव्यू (साक्षात्कार)

इण्टरव्यू वह रचना है जिसमें लेखक किसी व्यक्ति विशेष से साक्षात्कार करके उसके सम्बन्ध में कतिपय जानकारियों को तथा उसके सम्बन्ध में अपनी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को अपनी पूर्व धारणाओं, आस्थाओं और रुचियों से रंजित कर सरस एवं भावपूर्ण शैली में व्यक्त करता है। यह एक प्रकार से संस्मरण का ही रूप है।

12. उपन्यास

उपन्यास में कल्पना का पूरा संयम और व्यायाम रहता है। उपन्यासकार विश्वामित्र की सी सृष्टि बनाता है, किन्तु ब्रह्मा की सृष्टि के नियमों में भी बँधा रहता है। उपन्यास में सुख-दुःख, प्रेम, ईर्ष्या-द्वेष, आशा, अभिलाषा, महत्त्वाकांक्षा, चरित्रों के उत्थान-पतन आदि जीवन के सभी दृश्यों का समावेश रहता है। उपन्यास में नाटक की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्रता है, किन्तु नाटक के मूर्त साधनों के अभाव में उपन्यासकार इस कमी को शब्दचित्रों द्वारा पूरा करता है। उपन्यासकार को जीवन का सजीव चित्र अंकित करना पड़ता है। उपन्यास एक प्रकार का जेबी थियेटर बन जाता है। उसके लिए घर से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। घर, वन, उपवन सब कहीं उसका आनन्द लिया जा सकता है किन्तु इस आनन्द दान के लिए उपन्यासकार को शुद्ध चित्रों का सहारा लेना पड़ता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उपन्यास को मानव के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा कहा है।

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उपन्यास जीवन का चित्र है, प्रतिबिम्ब नहीं। प्रतिबिम्ब कभी-कभी पूरा नहीं होता। उपन्यासकार जीवन के निकट-से-निकट आता है, किन्तु उसे जीवन में से बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है और अपनी तरफ से जोड़ना भी पड़ता है। उपन्यास में व्यक्ति की अधिक प्रधानता होती है। वह सत्य का आदर करता हुआ भी अपने आदर्शों की पूर्ति करने तथा कथा को अधिक रोचक तथा प्रभावशाली बनाने के लिए कल्पना से काम लेता है। उसमें सत्य को सुन्दर और रोचक रूप में देखने की प्रवृत्ति रहती है। उपन्यास एक ओर इतिहास या जीवनी की तरह वास्तविकता का अनुकरण करता है। दूसरी ओर उसमें काव्य का कल्पना का-सा पुट, भावों का परिपोषण और शैली का सौन्दर्य रहता है। एक ओर उसमें दार्शनिक-सी जीवन मीमांसा और तथ्य उद्घाटन की प्रवृत्ति रहती है तो दूसरी ओर समाचार-पत्रों की-सी कौतूहल वृत्ति और वाचालता भी रहती है।

  • उपन्यास के तत्त्व

कथावस्तु, पात्र और चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, विचार और उद्देश्य, रस और भाव तथा शैली।

(1) कथानक-यह उपन्यास का मूल तत्व है। कथानक कार्यकारण श्रृंखला में बँधा हुआ होना चाहिए। उसका उचित विन्यास हो ताकि वह पाठकों की रुचि के अनुकूल हो सके। अच्छे कथानक में मौलिकता, कौशल, सम्भवता, सुसंगठितता और रोचकता की आवश्यकता है।

(2) पात्र और चरित्र-चित्रण-उपन्यास का विषय मनुष्य है। अत: चरित्र-चित्रण उपन्यास का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। चरित्र के द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रकाश में लाया जाता है। यह व्यक्तित्व दो प्रकार का होता है-बाहरी और आन्तरिक। बाहरी व्यक्तित्व में मनुष्य का आकार-प्रकार, वेश-भूषा, आचार-विचार, रहन-सहन, चाल-ढाल, बातचीत के विशेष ढंग और कार्यकलाप आ जाते हैं। आन्तरिक व्यक्तित्व में बाहरी परिस्थितियों के प्रति संवेदनशीलता, उसके राग-विराग, महत्त्वाकांक्षाएँ, अन्धविश्वास, पक्षपात, मानसिक संघर्ष, दया, करुणा, उदारता आदि मानवीय गुण तथा नृशंसता, क्रूरता, अनुदारता आदि सभी दुर्गुणों का चित्रण रहता है।

(3) विचार और उद्देश्य-उपन्यास कहानी मात्र नहीं है, उसमें पात्रों के भाव और विचार भी रहते हैं। पात्रों के विचार लेखक के विचारों की प्रतिध्वनि होते हैं। लेखक का जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण होता है। उसी दृष्टिकोण से वह जीवन की व्याख्या करता है। उसमें जीवन तथ्य सूक्ति रूप में बिखरे रह सकते हैं, किन्तु उपन्यासकार को उपदेशक नहीं बन जाना चाहिए। उपन्यासकार के विचार, परोक्ष रूप से व्यंजित होने चाहिए जिससे उपन्यास की स्वाभाविकता में किसी प्रकार की बाधा न पड़े।

(4) भाव या रस-हमारे विचार जीवन के प्रति रागात्मक या विरागात्मक दृष्टिकोण के ही फल-फूल होते हैं। उपन्यासों में भी महाकाव्य का-सा शृंगार, वीर, हास्य, करुण रस का समावेश होना चाहिए।

(5) शैली-उपन्यास की शैली का प्रमुख गुण है प्रसाद, ओज और माधुर्य का भी विषयानुकूल समावेश उसमें होना चाहिए। भाषा मुहावरेदार हो। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का चमत्कार शैली को उचित मात्रा में आकर्षक बनाता है।

13. नाटक

नाटक के मुख्य तत्त्व हैं-कथावस्तु, नायक और रस। वैसे तो नाटक के भी वे ही तत्व होते हैं जो कहानी, उपन्यास आदि के होते हैं, किन्तु नाटकों में रस की प्रधानता होती है। नाटक काव्य की वह विधा है जिसमें लोक-परलोक की घटित-अपघटित घटनाओं का दृश्य दिखाने का आयोजन किया जाता है। इस कार्य के लिए अभिनय की सहायता ली जाती है। शास्त्रीय परिभाषा में नाटक को रूपक कहा जाता है। सफल नाटक का रूप और आकार, दृश्यों और अंकों का उपयुक्त विभाजन, रस का साधारणीकरण, क्रिया व्यापार, प्रवेग तथा प्रवाह, अनुभावों और सात्विक भावों का निदर्शन, संवादों की कसावट, नृत्य और गीत, भाव, भाषा और साहित्यिक अलंकरण, वर्जित दृश्यों का अप्रदर्शन, सुरुचिपूर्ण प्रदर्शन, आलेखन, अलंकरण तथा परिधान
और प्रकाश की व्यवस्था आवश्यक होती है।

14. लोक साहित्य

लोक साहित्य अंचल विशेष में रचा गया साहित्य है। यह अंचल विशेष वह भूखंड होता है, जो एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में विकसित होकर, अपनी बोली और जीवन-पद्धति को अपनी लोकपरक चेतना में ढालता है। इस साहित्य में प्रकृति सम्बन्धी उक्तियों की अधिकता है। इसके अन्तर्गत लोकगीत, लोककथाओं, लोकोक्तियों और कहावतों को शामिल किया जा सकता है। लोक साहित्य हमारी परम्पराओं और मूल्यवान धरोहरों को अपनी विषय वस्तु में समेटे है।

प्रश्नोत्तर

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निबन्ध किसे कहते हैं? बाबू गुलाबराय के अनुसार निबन्ध की परिभाषा
अथवा [2009]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निबन्ध की क्या परिभाषा दी है?
उल्लेख कीजिए तथा निबन्ध के प्रमुख भेद बताइए।
अथवा [2011]
निबन्ध की परिभाषा एवं निबन्ध के प्रकारों का वर्णन कीजिए। [2017]
अथवा
निबन्ध के कितने भेद होते हैं? नाम लिखिए। [2008, 15]
अथवा
निबन्ध के प्रमुख भेद कौन-से हैं? नाम सहित लिखें। भावात्मक निबन्ध किसे कहते हैं?
उदाहरणस्वरूप एक भावात्मक निबंध का नाम लेखक के नाम सहित लिखिए। [2012]
उत्तर-
निबन्ध हिन्दी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। अंग्रेजी में निबन्ध को ऐसे’ (Essay) कहते हैं। निबन्ध का अर्थ है-“विधिवत् कसा हुआ अथवा बँधा हुआ।”

परिभाषा-बाबू गुलाबराय के अनुसार, “निबन्ध गद्य रचना को कहते हैं जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव और सजीवता व आवश्यक संगति और सम्बद्धता के साथ किया गया हो।” . परिभाषा-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।”

निबन्ध के भेद-निबन्ध-लेखक के व्यक्तित्व के अनुसार निबन्ध रचना के अनेक प्रकार हो सकते हैं। सुविधा की दृष्टि से मोटे तौर पर इसे चार भागों में विभाजित किया जा सकता

(1) वर्णनात्मक-यह निबन्ध का प्रमुख प्रकार है। निबन्ध किसी दर्शनीय स्थल, मेले, तीर्थस्थान तथा प्राकृतिक दृश्य से सम्बन्धित होते हैं। इनमें भाषा में सरसता, सजीवता तथा चित्रात्मकता होती है।
(2) विवरणात्मक निबन्ध-इन निबन्धों में यात्रा, युद्ध घटनाओं, आत्मकथा अथवा काल्पनिक घटनाक्रम का विवरण दिया जाता है। मन की माँग में भी ये निबन्ध लिखे जाते हैं।
(3) विचारात्मक निबन्ध-इस निबन्ध में किसी विषय पर सुव्यवस्थित प्रस्तुति होती है। इनमें तर्क, चिन्तन की प्रधानता होती है। बुद्धि तत्व भी प्रदान होता है। शुक्ल जी का ‘कविता क्या है’ इसी प्रकार का निबन्ध है।
(4) भावात्मक निबन्ध-ये निबन्ध भाव, काव्यतत्व, कल्पनाप्रधान होते हैं। कभी-कभी लेखक इतना भावुक हो जाता है कि वह मूल विषय से भी भटक जाता है। सरदार पूर्णसिंह का ‘सच्ची वीरता’ श्रेष्ठ भावात्मक निबन्ध है।

प्रश्न 2.
निबन्ध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए हिन्दी निबन्ध के विकास पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए। [2013]
उत्तर-
स्वरूप-किसी विषय को व्यवस्थित ढंग से क्रमबद्ध रूप में सुगठित भाषा में प्रस्तुत करने वाली गद्य रचना निबन्ध कहलाती है। निबन्ध किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है। इसमें लेखक का व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि “यदि गद्य काव्य की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।”

विकाश-हिन्दी निबन्ध का विकास आधुनिक काल में इस प्रकार हुआ है-

  1. भारतेन्दु युग-भारतेन्दु युग से ही हिन्दी निबन्ध लेखन प्रारम्भ हुआ। इस युग में धर्म, समाज, राजनीति, शिक्षा, प्रकृति आदि सभी विषयों पर निबन्ध लिखे गये। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त आदि श्रेष्ठ निबन्धकार हुए।
  2. द्विवेदी युग-द्विवेदी युग में विषय तथा भाषा के परिमार्जन का उल्लेखनीय कार्य हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के द्वारा लेखकों का मार्गदर्शन किया। श्यामसुन्दर दास, सरदार पूर्णसिंह, माधव प्रसाद मिश्र आदि इस युग के प्रमुख निबन्धकार हैं।
  3. शुक्ल युग-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी निबन्ध को चरम उत्कर्ष पर पहुँचाने का सराहनीय कार्य किया । विषय तथा भाषा-शैली की प्रौढ़ता उस युग के निबन्धों में देखी जा सकती है। बाबू गुलाब राय, वियोगी हरि, वासुदेव शरण अग्रवाल आदि इस युग के निबन्धकार
  4. शुक्लोत्तर युग-इस युग में इस विधा को व्यापक रूप प्राप्त हुआ है। मनोविज्ञान, विज्ञान, राजनीति, समीक्षा आदि विषयों पर निबन्ध लिखे गये हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, विद्यानिवास मिश्र आदि इस युग के प्रमुख मिबन्धकार हैं।

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प्रश्न 3.
भारतेन्दु युग के निबन्ध की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. निबन्धों के कलेवर में पत्रकारिता का पुट समाविष्ट है।
  2. सड़ी-गली मान्यताओं एवं रूढ़ियों का प्रबल विरोध है।
  3. शैली सरस, हदयस्पर्शी एवं मनभावन है।
  4. निबन्धकार अंधानुकरण के घोर विरोधी थे।

प्रश्न 4.
भारतेन्दु युग के प्रमुख चार निबन्धकारों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,
  2. प्रताप नारायण मिश्र,
  3. बाल मुकुन्द गुप्त,
  4. बद्रीनारायण चौधरी।

प्रश्न 5.
द्विवेदी युग का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर-
भारतेन्दु युग के पश्चात् आधुनिक काल का द्वितीय चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। द्विवेदी जी के कुशल निर्देशन में न जाने कितने कलाकार साहित्य जगत् में उजागर हुए जिनकी सफल कीर्ति आज भी फैली है।

प्रश्न 6.
द्विवेदी युग के निबन्धों की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. निबन्धों में गम्भीरता का समावेश है।
  2. निबन्धों की भाषा प्रांजल एवं परिमार्जित है।
  3. हिन्दी में समालोचना शैली का सूत्रपात भी इसी युग में हुआ।
  4. सरल एवं प्रचलित शब्दावली में कहीं-कहीं करारा व्यंग्य है।

प्रश्न 7.
शुक्ल युग के निबन्धों की किन्हीं पाँच विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. भाषा शक्ति सम्पन्न एवं कलात्मक बनी।
  2. भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा का तर्कसंगत समन्वय है।
  3. छायावाद के संदर्भ में तर्कपूर्ण विवेचना है।
  4. निबन्धों की शैली परिमार्जित एवं विषयों के अनुरूप है।
  5. यत्र-तत्र गाँधीवाद का प्रभाव भी अवलोकनीय है।

प्रश्न 8.
शुक्लोत्तर युग का सामान्य परिचय एवं प्रमुख निबन्धकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
सामान्य परिचय-शुक्ल युग के पश्चात् का युग शुक्लोत्तर युग के नाम से जाना जाता है। इसे ‘वर्तमान युग’ भी कहा जाता है।
प्रमुख निबन्धकार-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाबराय, डॉ. मगेन्द्र, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवदानसिंह चौहान, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, भगवतशरण उपाध्याय, प्रभाकर माचवे आदि।

प्रश्न 9.
कहानी की परिभाषा देते हुए उसके तत्त्व बताइए। (2008, 10)
अथवा
कहानी के तत्त्व लिखते हुए। किन्हीं दो कहानीकारों के नाम एवं उनकी एक-एक रचना लिखिए। [2013]
उत्तर-
परिभाषा-कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुसंगठित होती है। कहानी के छः तत्त्व स्वीकार किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं
(1) कथानक-कथानक कहानी का मूल आधार होता है। कहानी की कथावस्तु ऐतिहासिक, पौराणिक, राजनीतिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक, काल्पनिक हो सकती है। कथानक में भी तीन चरण होते हैं-आरम्भ, मध्य और अन्त । कथानक का आरम्भ आकर्षक होना चाहिए जिसमें जिज्ञासा का भाव होना चाहिए और उसका अन्त प्रभावी होना चाहिए।

(2) पात्र और चरित्र-चित्रण-कहानी पात्रों के चरित्र-चित्रण के आधार पर ही आगे बढ़ती है। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं कि पाठक स्वयं को उनके स्थान पर समझ लेता है तो पाठक को कहानी में आनन्द आता है। जब कहानीकार इस तरह की सहानुभूति उपस्थित कर देता है, तो उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त होती है। कहानी में पात्रों की संख्या सीमित होनी चाहिए।

(3) कथोपकथन या संवाद-पात्र अपने संवादों के माध्यम से कहानी को गति प्रदान करते हैं। संवादों के माध्यम से पात्र जीवन्त होते हैं। कहानी में कथोपकथन पात्रों के अनुकूल, संक्षिप्त, सरल और कौतूहलपूर्ण होने चाहिए।

(4) देशकाल या वातावरण-कहानी में देशकाल या वातावरण जीवंतता लाता है। वेश-भूषा, रीति-रिवाज, बिचार एवं भाषा-शैली युग के अनुरूप होनी चाहिए। ऐतिहासिक कहानियों, ग्रामीण परिवेश की कहानियों या विदेशी कहानियों में वातावरण का विशेष ध्यान रखा जाता है।

(5) भाषा-शैली-कहानी में भाषा-शैली का विशेष महत्त्व है। सहज एवं सुगठित भाषा वातावरण को चित्रित करने में सहयोगी होती है। कहानी में उस भाषा का प्रयोग होना चाहिए जो जनजीवन के निकट हो। भाषा देशकाल एवं वातावरण के अनुकूल होनी चाहिए। कहानी में चार प्रकार की शैलियाँ प्रचलित हैं-

  • ऐतिहासिक शैली,
  • आत्म चरित्र शैली,
  • डायरी शैली,
  • पत्रात्मक शैली।

(6) उद्देश्य-वैसे तो कथा साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन माना जाता है, किन्तु मनोरंजन ही साहित्य की सार्थकता को नष्ट कर देता है। कहानी में ऐसी मूल संवेदना होती है जिसका अनुभव करके पाठक उसके बारे में सोचता है। उद्देश्य कहानी का प्राणतत्त्व है।

दो कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द (कफन) एवं जयशंकर प्रसाद (आकाशदीप) हैं।

प्रश्न 10.
कहानी में कथावस्तु का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
कहानी में कथावस्तु या कथानक मुख्य ढाँचा होता है। विषय की दृष्टि से कहानी में सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि में से किसी भी प्रकार का कथानक अपनाया जा सकता है, किन्तु यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कहानी में जीवन की बाहरी घटना का प्रकाशन न होकर मानव हृदय का भी उद्घाटन होता है।

प्रश्न 11.
एकांकी की परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
परिभाषा-डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “एकांकी में हमें जीवन का क्रमबद्ध विवेचन मिलकर उसके एक पहलू, एक महत्त्वपूर्ण घटना, एक विशेष परिस्थिति अथवा एक उद्दीप्त क्षण का चित्रण मिलेगा। अतः उसके लिए एकता अनिवार्य है।”

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प्रश्न 12.
रेखाचित्र से क्या आशय है?
उत्तर-
इसे अंग्रेजी में स्कैच कहा जाता है। चित्रकार जिस प्रकार अपनी तूलिका से चित्र बनाता है उसी प्रकार लेखक अपने शब्दों के रंगों के द्वारा ऐसे चित्र उपस्थित करता है जिससे वर्णन योग्य वस्तु की आकृति का चित्र हमारी आँखों के सामने घूमने लगे।

प्रश्न 13.
संस्मरण की परिभाषा दीजिए। दो प्रमुख रचनाकारों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
संस्मरण आत्मकथा के क्षेत्र से निकली हुई विधा है, किन्तु आत्मकथा एवं संस्मरण में गहरा अन्तर होता है। आत्मकथा का प्रमुख पात्र लेखक स्वयं होता है, किन्तु संस्मरण के अंतर्गत लेखक जो कुछ भी देखता है उसे भावात्मक प्रणाली के द्वारा व्यक्त करता है। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण जीवन का चित्र न होकर किसी एक या एकाधिक घटनाओं का रोचक वर्णन रहता है। महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी प्रमुख रचनाकार हैं।

प्रश्न 14.
रेखाचित्र एवं संस्मरण में अन्तर बताइए। [2010, 16]
उत्तर-
रेखाचित्र एवं संस्मरण निकट होते हुए भी दो अलग-अलग गद्य रूप हैं। रेखाचित्र में किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना का कलात्मक प्रस्तुतीकरण किया जाता है जबकि संस्मरण में किसी महान व्यक्ति के प्रत्यक्ष संसर्ग को यथार्थ के सहारे अंकित किया जाता है।

श्रीराम शर्मा, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ आदि प्रमुख रेखाचित्रकार हैं तथा पद्म सिंह शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, महादेवी वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख संस्मरण लेखक हैं।

प्रश्न 15.
उपन्यास की परिभाषा देते हुए उपन्यास के तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
उपन्यास जीवन का चित्र है, प्रतिबिम्ब नहीं । कथा मात्र को उपन्यास नहीं माना जा सकता है। उपन्यास लेखन की एक विशिष्ट शैली होती है। उपन्यास के प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं-

  • कथानक,
  • पात्र एवं चरित्र-चित्रण,
  • उद्देश्य,
  • शैली,
  • भाव या रस।

प्रश्न 16.
जीवनी और आत्मकथा में क्या अन्तर है? तीन जीवनी लेखकों के नाम लिखिए।
अथवा [2008]
आत्मकथा और जीवनी में अन्तर समझाते हुए किन्हीं दो आत्मकथाकारों के नाम लिखिए।
अथवा [2009, 14]
नीवनी और आत्मकथा में अंतर लिखते हुए एक-एक रचना एवं रचनाकारों के नाम लिखिए। [2017]
उत्तर-
‘जीवनी’ तथा ‘आत्मकथा’ गद्य की प्रमुख विधाएँ हैं। किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवनवृत्त को रोचक साहित्यिक ढंग से प्रस्तुत किया जाए तो वह जीवनी कहलायेगी एवं जब लेखक अपने जीवनवृत को स्वयं ही प्रस्तुत करे तब वह आत्मकथा मानी जाएगी।

जीवनी में विवरण एवं तथ्यों पर ध्यान रहता है, जबकि आत्मकथा में अनुभूति की गहराई अधिक होती है।

हिन्दी के जीवनी लेखकों में डॉ. रामविलास शर्मा, (निराला की साहित्य साधना),अमृतराय (कलम का सिपाही) तथा विष्णु प्रभाकर (आवारा मसीहा) के नाम प्रमुख हैं। आत्मकथा लेखकों में वियोगी हरि ( मेरा जीवन प्रवाह), गुलाबराय ( मेरी असफलताएँ) तथा हरिवंश राय ‘बच्चन’ (क्या भूलूँ क्या याद करूँ) प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 17.
नाटक एवं एकांकी में अन्तर बताते हुए प्रमुख लेखकों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
नाटक एवं एकांकी दोनों का सम्बन्ध रंगमंच से है किन्तु दोनों में पर्याप्त अन्तर है

  1. नाटक का आकार विस्तृत होता है। उसमें कई अंक तथा अंकों के दृश्य होते हैं जबकि एकांकी का आकार छोटा होता है तथा इसमें मात्र एक अंक होता है।
  2. नाटक की तीन या इससे भी अधिक घण्टे की समय सीमा होती है जबकि एकांकी आधा घण्टे की समयावधि में समाप्त हो जाता है।
  3. नाटक में अधिक पात्र तथा विस्तृत मंच सज्जा होती है जबकि एकांकी में सीमित पात्र तथा सीमित मंच सज्जा होती है। वस्तुतः नाटक का लघु रूप एकांकी है। प्रमुख लेखकों में जयशंकर प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, राजकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती आदि हैं।

प्रश्न 18.
कहानी और नाटक में कोई चार अन्तर लिखिए। (2015)
उत्तर-
कहानी और नाटक में चार अन्तर इस प्रकार हैं-
(1) कहानी श्रव्य साहित्य है जबकि नाटक दृश्य साहित्य के अन्तर्गत आता है।
(2) कहानी को पाठक पढ़कर आनन्द लेता है जबकि नाटक अभिनय के द्वारा प्रस्तुत होता है। (3) कहानी का आकार छोटा होता है जबकि नाटक बड़े होते हैं। (4) कहानी किसी शैली में लिखी जा सकती है जबकि नाटक में संवाद शैली का प्रयोग होता है।

प्रश्न 19.
रिपोर्ताज किसे कहते हैं? कोई दो विशेषताएँ लिखिए। (2015)
उत्तर-
रिपोर्ताज में किसी आँखों देखी घटना, स्थिति, प्रकृति आदि का सरस, स्वाभाविक, वास्तविक एवं रोचक वर्णन किया जाता है। रिपोर्ताज की दो विशेषताएँ इस प्रकार हैं (1) रिपोर्ताज में किसी आँखों देखी घटना, स्थिति आदि का वर्णन होता है। (2) यह वर्णन सत्य होता है, इसमें कल्पना का प्रयोग नहीं किया जाता है।

प्रश्न 20.
गद्य की विधाओं में से आपको कौन-सी विधा अच्छी लगती है और क्यों? [2008]
उत्तर-
हिन्दी साहित्य की विविध विधाएँ समृद्धशाली हैं-नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, आलोचना, निबन्ध, जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, गद्य काव्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी तथा रेडियो रूपक आदि।

मुझे इन विधाओं में से कहानी अच्छी लगती है। यह गद्य विधा जीवन के किसी एक संक्षिप्त प्रसंग को उद्देश्य सहित प्रस्तुत करती है। लेखक कल्पना के सहारे उसे पाठकों के समक्ष रखता है। कहानी में आदर्श और यथार्थ का सुन्दर समन्वय होता है। इसमें कम-से-कम घटनाओं और प्रसंगों के माध्यम से अधिक-से-अधिक प्रभाव की सृष्टि करता है। कहानी में मानवीय संवेदनाओं को बड़ी ही बारीकी से उजागर किया जाता है। मानवीय मूल्यों को स्थापित करना कहानीकार का मूल उद्देश्य होता है। यद्यपि साहित्य की सभी विधाएँ सौद्देश्य होती हैं तथापि कहानी अल्प समय में पाठकों को उसके उद्देश्य से अवगत करा देती है। जीवन की किसी घटना या चरित्र का रोचक एवं प्रभावशाली चित्रण होता है। कहानी में चरित्र अत्यन्त ही सजीव और आकर्षक होते हैं। पाठक चरित्रों के माध्यम से उद्देश्य को समझने में तत्पर रहता है। पात्रों की सहानुभूति पाठकों को प्राप्त होती है।

कहानी का शुभारम्भ आकर्षक तथा जिज्ञासापूर्ण होता है। जिसमें विषय की विषयवस्तु समायी रहती है। ऐतिहासिक कहानी में वातावरण या घटनाओं का महत्त्व होता है। ऐतिहासिक कहानी हमें अतीत के गौरव का स्मरण कराती है जिससे देशभक्ति की भावना जाग्रत होती है। बालक के कोमल मन पर कहानी अपना अमिट प्रभाव छोड़ती है। पाठक कहानी के उद्देश्य के विषय में सोचने को विवश होता है।

प्रश्न 21.
उपन्यास और कहानी में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2011, 16]
उत्तर-
(1) उपन्यास का आकार बड़ा होता है जबकि कहानी छोटे आकार की होती है।
(2) उपन्यास में समस्त जीवन का अंकन होता है जबकि कहानी में जीवन का खण्ड चित्रण होता है।
(3) उपन्यास की अपेक्षा कहानी में पात्र कम होते हैं।
(4) उपन्यास में कई कथाएँ जुड़ जाती हैं जबकि कहानी में एक ही कथा होती है।

प्रश्न 22.
लोक साहित्य किसे कहते हैं? लोकगीत अथवा लोककथा का परिचय दीजिए। [2012, 14]
उत्तर-
लोक भाषा के माध्यम से जनसामान्य की अनुभूति को प्रस्तुत करने वाला साहित्य लोक साहित्य कहलाता है।

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लोकगीत-सामान्य समाज की अनुभूति को उन्हीं की भाषा में गेय रूप में व्यक्त करने वाला साहित्य लोकगीत कहलाता है। इसमें जीवन के यथार्थ का अनुभव भरा होता है।

लोकगाथा-जनसाधारण के अनुभवों पर आधारित वे कथाएँ जो जनभाषा में होती हैं वे लोकगाथा कही जाती हैं। ये समाज के मनोरंजन का श्रेष्ठ माध्यम होती हैं।

  • अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एकांकी में संवाद का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
संवाद से कथावस्तु में गतिशीलता आती है और पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं का उद्घाटन होता है।

प्रश्न 2. एकांकी कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-
एकांकी निम्न प्रकार की होती है-

  1. स्वप्नरूप,
  2. प्रहसन,
  3. काव्य एकांकी,
  4. रेडियो रूपक,
  5. ध्वनि रूपक,
  6. वृत्त रूपक।

प्रश्न 3.
आलोचना के कितने भेद किये जा सकते हैं?
उत्तर-
आलोचना के प्रमुख दो भेद हैं
(1) सैद्धान्तिक आलोचना,
(2) प्रयोगात्मक आलोचना।

प्रश्न 4.
पत्र विधा के प्रमुख लेखकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
बैजनाथ सिंह, विनोद, बनारसीदास चतुर्वेदी, जवाहरलाल नेहरू आदि।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. आधुनिक काल की सबसे लोकप्रिय विधा है
(i) कहानी, (ii) निबन्ध, (iii) उपन्यास,

2. भारतेन्दुयुगीन निबन्धों की विशेषता नहीं है [2012]
(i) हास्य व्यंग्य, (ii) समाज सुधार, (iii) मनमौजीपन, (iv) ज्ञान-विज्ञान युक्त विषय।

3. लेखक के स्वयं के जीवन-वृत्त को प्रस्तुत करने वाली रचना कहलाती है
(i) संस्मरण, (ii) उपन्यास, (iii) रेखाचित्र, (iv) आत्मकथा।

4. ‘भोलासम का जीव’ किस विधा की रचना है?
(i) संस्मरण, (ii) व्यंग्य, (iii) जीवनी, (iv) आत्मकथा।

5. खड़ी बोली गद्य का प्रारम्भ किस युग से माना जाता है?
(i) भारतेन्दु युग, (ii) द्विवेदी युग, (iii) शुक्ल युग, (iv) प्रगतिवादी युग।

6. ‘रेखाचित्रों की सिद्ध लेखिका हैं [2008]
(i) मालती जोशी, (ii) शिवानी, (ii) महादेवी वर्मा, (iv) महाश्वेता देवी।

7. पाठक को झकझोरने तथा सोचने के लिए बाध्य करने वाली विधा है- [2008]
(i) हास्य, (ii) व्यंग्य, (iii) नाटक, (iv) एकांकी।

8. ‘पूस की रात’ कहानी के लेखक हैं
(i) यशपाल, (ii) भगवतीचरण वर्मा, (ii) प्रेमचन्द, (iv) अमृतलाल नागर।
उत्तर-
1. (i), 2. (iv), 3. (iv), 4. (ii), 5. (i), 6. (ii), 7.(ii), 8. (iii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. ‘भोर का तारा’ प्रसिद्ध ………….. है। [2009]
2. ……. नाटक सम्राट कहलाते हैं।
3. ‘इन्दुमती’ कहानी के लेखक ………… हैं।
4. कहानी के तत्वों की संख्या ………..” मानी जाती है। [2009]
5. ‘असफलता दिखाती है नयी राह, ……….. विधा की रचना है।
6. ‘सवा सेर गेहूँ’ के लेखक ………..” हैं।
7. उपन्यास शब्द का शाब्दिक अर्थ ………….[2012]
8. परीक्षा नामक निबन्ध …………. ने लिखा है।
9. ‘कवि वचन सुधा’ पत्रिका के सम्पादक का नाम …………. है।
उत्तर-
1. एकांकी,
2. जयशंकर प्रसाद,
3. किशोरीलाल गोस्वामी, 4. छ:,
5. आत्मकथा,
6. प्रेमचन्द,
7. समीप रखना,
8. प्रतापनारायण मिश्र,
9. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र।

  • सत्य/असत्य

1. हजारीप्रसाद द्विवेदी ‘द्विवेदी युग’ के लेखक हैं। [2009, 10]
2. विद्यानिवास मिश्र ललित निबन्धकार हैं।
3. प्रेमचन्द ने मात्र नगरीय जीवन पर कहानियाँ लिखी हैं।
4. ‘मैला आँचल’ आंचलिक उपन्यास है।
5. आत्मकथा लेखक स्वयं लिखता है। [2009]
6. ‘उसने कहा था’ कहानी के लेखक प्रेमचन्द हैं।
7. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एक कवि थे। [2009]
उत्तर-
1. असत्य,
2. सत्य,
3. असत्य,
4. सत्य,
5. सत्य,
6. असत्य,
7. असत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

I.
1. गद्य का प्रथम उत्थान काल [2008] – (क) महादेवी वर्मा
2. रेखाचित्र [2010] – (ख) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
3. ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा के लेखक हैं [2009] – (ग) मुंशी प्रेमचन्द
4. उपन्यास सम्राट [2008] – (घ) महात्मा गाँधी
5. आत्मकथा [2012] – (ङ) मेरे बचपन के दिन
6. संस्मरण [2013] – (च) हरिवंश राय बच्चन’
उत्तर-
1. → (ख),
2.→ (क),
3.→ (घ),
4.→ (ग),
5.→ (च),
6.→
(ङ)।

II.
1. ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रथम सम्पादक [2009] – (क) सरदार पूर्णसिंह
2. द्विवेदी युग के प्रसिद्ध निबन्धकार हैं [2008] – (ख) महावीर प्रसाद द्विवेदी
3. व्यंग्य – (ग) मोहन राकेश
4. ‘एक और जिन्दगी’ [2009] – (घ) हरिशंकर परसाई
उत्तर-
1. → (ख),
2. → (क),
3.→ (घ),
4. → (ग)।

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  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. खड़ी बोली हिन्दी गद्य का प्रारम्भ किस काल में हुआ?
2. उत्साह किस प्रकार का निबन्ध है?
3. ‘गोदान’ के लेखक कौन हैं?
4. ‘कोणार्क’ के लेखक का नाम बताइए।
5. गद्य में रचित किसी विशिष्ट व्यक्ति का साक्षात्कार किस विधा में आता है?
6. हिन्दी की प्रथम कहानी कौन-सी मानी गई है? [2009]
7. एक अंक वाली नाट्य कृति क्या कहलाती है?
8. ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ नामक निबन्ध के लेखक कौन हैं?
9. ‘आकाशदीप’ कहानी किसने लिखी है?
10. कहानी (गद्य विधा) के कितने तत्व होते हैं? [2015]
उत्तर-
1. ‘आधुनिक काल’,
2. मनोविकार सम्बन्धी,
3. प्रेमचन्द,
4. गिरिजाकुमार माथुर,
5. भेंटवार्ता,
6. इन्दुमती,
7. एकांकी,
8. श्यामसुन्दर दास,
9. जयशंकर प्रसाद,
10. छः।

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