MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 9 जीवन दर्शन

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 9 जीवन दर्शन

जीवन दर्शन अभ्यास

बोध प्रश्न

जीवन दर्शन अति लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
कवि नाश पथ पर कौन-से चिह्न छोड़ जाना चाहता है?
उत्तर:
कवि नाश पथ पर अपने पग चिह्न छोड़ जाना चाहता

प्रश्न 2.
मधुप की मधुर गुनगुन विश्व पर क्या प्रभाव डालेगी?
उत्तर:
मधुप की मधुर गुनगुन सम्पूर्ण संसार के क्रन्दन को भुला देगी।

प्रश्न 3.
तितलियों के रंग से कवि का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
तितलियों के रंग से कवि का तात्पर्य सांसारिक सुख-भोग एवं सुविधाओं से है।

प्रश्न 4.
कवि के अनुसार काँटे की मर्यादा क्या है?
उत्तर:
कवि के अनुसार काँटे की मर्यादा है उसका कठोर होना तथा तीखा होना।

प्रश्न 5.
कवि ने ‘मर्दे होंगे’ किसे कहा है?
उत्तर:
कवि ने ‘मुर्दे होंगे’ उन प्रेमियों के लिए कहा है जिन्होंने प्रेम के नाम पर सम्मोहन करने वाली मदिरा पी रखी है।

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जीवन दर्शन लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि की आँखें उनींदी क्यों हैं?
उत्तर:
कवि की आँखें उनींदी इसलिए हैं कि आज हमको समाज में अनुकूल वातावरण नहीं मिल रहा है।

प्रश्न 2.
‘मोम के बन्धन सजीले’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
‘मोम के बन्धन सजीले’ से कवि का आशय सांसारिक आकर्षणों से है।

प्रश्न 3.
‘चिर सजग’ का क्या आशय है?
उत्तर:
‘चिर सजग’ का आशय है कि हमें हमेशा सचेत रहना चाहिए और सांसारिक बाधाओं से संघर्ष करते रहना चाहिए।

प्रश्न 4.
कवि ने अन्तिम रहस्य के रूप में क्या पहचान लिया?
उत्तर:
कवि ने अन्तिम रहस्य के रूप में यह जान लिया कि यह संसार एक यज्ञशाला है और इसमें व्यक्ति को स्वाहा होना है।

प्रश्न 5.
कुचला जाकर भी कवि किस रूप में उभरता
उत्तर:
कुचला जाकर भी कवि आँधी की धूल बनकर उमड़ना चाहता है।

प्रश्न 6.
‘निर्मम रण में पग-पग पर रुकना’ किस प्रकार प्रतिफलित होता है?
उत्तर:
निर्मम रण में पग-पग पर रुकना वार बनकर प्रतिफलित होता है।

जीवन दर्शन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘जाग तुझको दूर जाना’ में क्या आशय छिपा है? लिखिए।
उत्तर:
‘जाग तुझको दूर जाना’ में यह आशय छिपा है कि मनुष्य का जीवन एक निश्चित अवधि का होता है, जबकि जीवन क्षेत्र में उसे अनगिनत कार्य करने पड़ते हैं। अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसे अनेकानेक विघ्न-बाधाओं से टकराना होता है।

प्रश्न 2.
‘पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले’ में निहित भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य जब अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलता है तो सांसारिक भौतिक आकर्षण तथा सुख-सुविधाएँ उसे विचलित करने की चेष्टा करती हैं। मनुष्य जब तक इनसे सचेत नहीं रहेगा, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा।

प्रश्न 3.
‘तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना’ द्वारा कवि क्या सन्देश देना चाहता है?
उत्तर:
छाँह चाहने के लिए अर्थात् जीवन में सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिए व्यक्ति उचित एवं अनुचित सभी प्रकार के कार्य करता रहता है। कभी-कभी मनुष्य के स्वयं किये गये कारनामे ही उसे कारागार की हवा खिला देते हैं। अतः कवि जीवन के अनुचित कार्यों से बचने की सलाह देता है।

प्रश्न 4.
‘मैंने आहुति बनकर देखा’ कविता का मूल भाव लिखिए।
उत्तर:
‘मैंने आहुति बनकर देखा’ कविता का मूलभाव यह है कि यद्यपि जीवन मरणशील है; इसमें जय और पराजय दोनों हैं। इसमें गति को रोकने वाली अनेक विघ्न-बाधाएँ भी हैं किन्तु इन्हीं सबके चलते हुए हमें जीवन को निरन्तर आगे चलाते रहना चाहिए। संसार एक यज्ञ वेदिका जैसा है इसमें सब कुछ होम करके ही जीवन को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। तप करके ही जीवन में ललकार देने की शक्ति आती है। कवि ने इसमें त्याग और तपस्या का महत्व बताया है।

प्रश्न 5.
प्रस्तुत कविताओं से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर:
प्रस्तुत कविताओं से हमें यह सीख मिलती है कि मानव का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। यह संसार नाशवान् है पर महान् मनुष्य वे होते हैं जो आने वाली पीढ़ी के लिए अपने चरण चिह्न छोड़ जाया करते हैं। अपनी पहचान बनाने के लिए हमें भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागना होगा। संसार एक यज्ञ की वेदी के समान है। इसमें जो सब कुछ स्वाहा कर देता है, उसी का जीवन सार्थक बन जाता है। त्याग और तपस्या से मानव का संसार में महत्व आँका जाता है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या लिखिए
(क) मैं कब कहता हूँ …………. ओछा फूल बने?
उत्तर:
कविवर अज्ञेय जी संसार के मनुष्यों से कहते हैं कि मैं संसार के लोगों से कब कहता हूँ कि वे मेरे समान संघर्षों का सामना करने वाली शक्ति को धारण करें। मैं यह भी नहीं कहता हूँ कि संसार के मनुष्य अपने रेगिस्तान जैसे शुष्क जीविन को देवताओं के सुन्दर उपवन के समान हरा-भरा या सुख-सुविधाओं में सम्पन्न बना लें। काँटा देखने में कठोर और तीखा अवश्य लगता है, पर उसकी भी इस सृष्टि में अपनी मर्यादा है। मैं उससे भी यह नहीं कहता कि वह अपने इस कठोर रूप को कम करके किसी भाग का एक ओछा फूल बन जाये। कहने का भाव यह है कि सबका अपना-अपना भाग्य होता है। अतः सभी को अपनी सामर्थ्य के अनुसार जीवन में काम करना चाहिए।

(ख) विश्व का क्रन्दन …………… तुझको दूर जाना।
उत्तर:
कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे मानव! क्या ये मोम के गीले बन्धन तझे अपने जाल में बाँध लेंगे? क्या रंग-बिरंगी तितलियों के पंख तुम्हारे मार्ग की रुकावट बनेंगे? क्या भौरों की मधुर गुनगुनाहट संसार के दुःखों को भुला देंगी या ओस से गीले फूल की पंखुड़ियाँ तुझे डूबो देंगी? तू व्यर्थ में ही अपनी ही परछाईं को अपना जेलखाना बना रहा है। इन निराशा की भावनाओं को छोड़! तेरा जो लक्ष्य है, उसे पाने के लिए तू सतत् प्रयत्न कर तुझे अभी बहुत दूर तक जाना है।

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जीवन दर्शन काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
हास्यरसकी परिभाषा किसी अन्य उदाहरण द्वारा समझाइए।
उत्तर:
हास्य रस-विचित्र वेश-भूषा, विकृत आकार, चेष्टा आदि के कारण जाग्रत हास स्थायी भाव विभावादि से पुष्ट होकर हास्य रस में परिणत होता है। जैसे-

“हँसि हँसि भजे देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में।
कहै पद्माकर सु काहु सों कहै को कहा,
जोई जहाँ देखे सो हँसोई तहाँ राह में।
मगन भएई हँसे नगन महेश ठाढ़े,
और हँसे वेऊ हँसि-हँसि के उमाह में।
सीस पर गंगा हँसे भुजनि भुजंगा हँसे,
हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में ॥”

यहाँ दर्शक आश्रय हैं तथा शिवजी आलम्बन हैं। उनकी विचित्र आकृति, नग्न स्वरूप आदि उद्दीपन हैं। लोगों का हँसना, भागना आदि अनुभाव तथा हर्ष, उत्सुकता, चपलता आदि संचारी भाव हैं।

जीवन दर्शन महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

जीवन दर्शन बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि की आँखें उन्नींदी क्यों हैं?
(क) शीघ्र जगने के कारण
(ख) नींद पूरी न होने से
(ग) आलस्य के कारण
(घ) बिना किसी कारण।
उत्तर:
(ग) आलस्य के कारण

प्रश्न 2.
‘जाग तुझको दूर जाना अचल के हृदय में चाहे कम्प हो ले’ ‘अचल’ शब्द का प्रयोग किसके लिये है?
(क) हिमालय
(ख) गंगा
(ग) आकाश
(घ) आँखों।
उत्तर:
(क) हिमालय

प्रश्न 3.
कवयित्री ने ‘मोम के बन्धन’ किसको कहा है?
(क) माया-मोह
(ख) विषय-वासनादि
(ग) साधना मार्ग की बाधाएँ
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
‘मैने आहुति बनकर देखा है’ कविता के रचयिता हैं
(क) सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
(ख) रामनरेश त्रिपाठी
(ग) रामधारी सिंह ‘दिनकर’
(घ) नरेश मेहता।
उत्तर:
(क) सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. महादेवी वर्मा के काव्य में वेदना की प्रचुरता थी। इसी कारण उन्हें आधुनिक ………. कहा जाता है।
  2. महादेवी वर्मा साधना मार्ग में ………… नहीं आने देना चाहती थीं।
  3. बाँध लेंगे क्या तुझे मोम के ……….. सजीले।
  4. “धूल पैरों से कुचली जाती है किन्तु वह कुचलने वाले के सिर पर सवार हो जाती है।” उसी प्रकार मैंने ……….. से हार नहीं मानी है।

उत्तर:

  1. मीरा
  2. आलस्य
  3. बन्धन
  4. बाधाओं।

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सत्य/असत्य

  1. महादेवी वर्मा छायावादी युग की प्रमुख कवयित्री हैं। इन्होंने छायावाद के अन्तर्गत जीवन के दोनों पक्षों का वर्णन किया है।
  2. महादेवी वर्मा का वैवाहिक जीवन सुखमय था। इसी कारण उन्होंने विरह गीत लिखे हैं।
  3. “हरी घास पर क्षण भर” कविता महादेवी वर्मा की है?
  4. हिन्दी साहित्य में अज्ञेय की ख्याति केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी है।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. सत्य

सही जोड़ी मिलाइए

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 9 जीवन दर्शन img-1
उत्तर:
1. → (ग)
2. → (घ)
3. → (क)
4. → (ख)

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

  1. महादेवी वर्मा ने कबीर की भाँति अपने काव्य में वर्णन किया है।
  2. ‘तु न अपनी छाँह को अपने लिए काटा बनाना’ यह पंक्ति किस रचनाकार की है। (2011)
  3. अज्ञेय की रचनाएँ नई पीढ़ी के लेखकों के लिए हैं।
  4. अज्ञेय ने अपनी कविता द्वारा स्पष्ट किया है कि जीवन मरणशील है। इसमें पराजय भी है और आगे बढ़ने में हैं।
  5. काँटे की मर्यादा क्या है? (2016)

उत्तर:

  1. रहस्यवाद का
  2. महादेवी वर्मा
  3. मानक स्वरूप
  4. अनेक व्यवधान
  5. काँटे की मर्यादा उसके कठोर एवं तीखे होने में है।

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चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना! भाव सारांश

‘चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना’ नामक कविता में महादेवी वर्मा ने अपने मन को साधना मार्ग का राहगीर समझकर उसे जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया है।

कवयित्री कहती हैं हे मन! तू आलस्य को त्याग, क्योंकि ये जीवन पथ बहुत लम्बा है और तुझे यह दूरी तय करनी है। चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से हिल जाये अथवा आसमान में प्रलय के बादल छा जाये। चाहे तेज आँधी और तूफान आयें या घनघोर वर्षा हो। बिजली भी चाहे कड़के, तुम्हें आगे बढ़ते ही जाना है।

कवयित्री का कथन है कि मेरे मन तुम वज्र के सदृश कठोर थे लेकिन आँसुओं ने उन्हें गीला करके गला दिया। सांसारिक माया-मोह में डूबकर तुमने अपने जीवन के मूल्यवान क्षणों को खो दिया है।

कवयित्री कहती है कि हे प्राण! तुम आलस्य और प्रमाद को त्यागकर अपने मन में उत्साह उत्पन्न करो जिससे कि तुम्हें विषय-वासनाओं से मुक्ति मिलेगी और तुम्हारी साधना का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा। अत: हे मानव! आलस्य को त्याग दे। यही तेरे लिये उचित और उत्तम है।

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना! संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को डोले तिमित की घोर छाया,
जाग या विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले
पर तुझे है नाश-पथ पर चिन्ह अपने छोड़ जाना!
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ :
चिर = पुराना। सजग = जाग्रत। उनींदी = अलसाई हुई। व्यस्त = काम में लगा हुआ। बाना = व्यवहार। अचल = पर्वत। हिमगिरि = बर्फ से ढंकी हुई पहाड़ियाँ। कम्प = कम्पन, थरथराहट। अलसित = आलस्य से भरा हुआ। व्योम = आकाश। आलोक = प्रकाश। तिमिर = अन्धकार। विद्युत = बिजली। निठुर = निष्ठुर, कड़े स्वभाव वाला।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द “चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!” शीर्षक कविता से लिया गया है। इसकी रचयिता श्रीमती महादेवी वर्मा हैं।

प्रसंग :
कवयित्री मानव को सचेत करते हुए कह रही हैं कि हे संसार के पथिक! तेरी सदैव सजग रहने वाली आँखें आज अलसाई हुई सी क्यों हो रही हैं, तुझे तो अभी बहुत दूर तक जाना है।

व्याख्या :
कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे संसार के पथिक! तू तो सदैव सजग रहकर इस मार्ग पर चलता रहता था पर आज तेरी ये सजग आँखें उनींदी सी क्यों हो रही हैं, तूने ये कैसा बाना (ढर्रा) बना लिया है। तुझे तो अभी बहुत दूर तक जाना है।

चाहे हिमालय पर्वत की ऊँची चोटियों में आज कम्पन पैदा हो जाये या फिर प्रलय के आँसुओं को लेकर ऊलसाया हुआ आकाश। रुदन करने लग जाये, या फिर अन्धकार की घोर छाया प्रकाश को। पीकर डोल जाये, या फिर बिजली की जाग्रत शिखाओं में निष्ठुर तूफान हुँकार भरने लग जाये लेकिन तेरा लक्ष्य तो यह है कि इस नाश के पथ पर तू अपने चरणों के चिह्नों को छोड़ दे। कहने का भाव यह है कि चाहे कैसी भी विषम परिस्थितियाँ क्यों न हों, तुझे तो अपने निर्धारित लक्ष्य पर निरन्तर बढ़ते चले जाना है ताकि नाश। की अवस्था आने पर भी तेरे चरणों के चिह्न आने वाले समय में लोगों का मार्गदर्शन कर सकें। जाग जा, तुझे तो अभी बहुत दूर जाना है, इन विषम परिस्थितियों से अपने लक्ष्य को मत भूल जाना।

विशेष :

  1. कवयित्री विषम परिस्थितियों में भी संसार के पथिक को अपने मार्ग पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा दे रही हैं।
  2. लाक्षणिक भाषा।

(2) बाँधे लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ :
सजीले = गीले। पंथ = रास्ते की। रँगीले = रंग-बिरंगे। क्रन्दन= रोना-धोना। मधुप = भौंरों की। मधुर = मीठी। कारा = जेलखाना।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे मानव! क्या ये मोम के गीले बन्धन तझे अपने जाल में बाँध लेंगे? क्या रंग-बिरंगी तितलियों के पंख तुम्हारे मार्ग की रुकावट बनेंगे? क्या भौरों की मधुर गुनगुनाहट संसार के दुःखों को भुला देंगी या ओस से गीले फूल की पंखुड़ियाँ तुझे डूबो देंगी? तू व्यर्थ में ही अपनी ही परछाईं को अपना जेलखाना बना रहा है। इन निराशा की भावनाओं को छोड़! तेरा जो लक्ष्य है, उसे पाने के लिए तू सतत् प्रयत्न कर तुझे अभी बहुत दूर तक जाना है।

विशेष :

  1. कवयित्री सांसारिक प्राणियों से कल्पना लोक में न विचर कर जीवन की यथार्थता का ज्ञान कराना चाहती हैं। साथ ही उसे जीवन पथ पर निन्तर बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं।
  2. लाक्षणिक भाषा।

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मैंने आहुति बनकर देखा भाव सारांश 

‘मैंने आहुति बनकर देखा’ कविता के द्वारा ‘अज्ञेय’ कवि ने कर्म करते हुए स्वयं को बलिदान करने की इच्छा को सर्वोत्तम बताया है। त्याग द्वारा ही व्यक्ति को आत्मिक सुख प्राप्त होता है। कवि का कथन है कि वह संसार की प्रत्येक वस्तु को उसके वास्तविक रूप में देखने का इच्छुक है। वह यह कदापि नहीं चाहता कि वृद्धावस्था की तुलना युवावस्था से की जाये। अतः उसकी तुलना शक्तिशाली व्यक्ति से नहीं करनी चाहिए।

जीवन में यदि दःखों का सागर उमडे तो मानव में उसे भी सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। कवि कहता है कि मैं नन्दन वन के फूलों की चाहत की भाँति धनवानों के धन की चाहत में अपनी इच्छा और सुखों को गँवा देने का इच्छुक हूँ। काँटों की शोभा काँटा बना रहने में है, फूल बनने में नहीं।

योद्धा की शोभा युद्धभूमि में प्राप्त हुए घावों से ही होती है। यह आवश्यक नहीं कि यदि मैं किसी से प्रेम करूँ तो वह व्यक्ति भी मुझसे प्रेम करे। मैं तो स्वार्थ रहित प्रेम की इच्छा रखता हूँ और चाहता हूँ कि आस्था और विश्वास महल बनाकर कर्तव्य पथ पर बढ़ता रहूँ।

प्रेम में त्याग आवश्यक है। जो लोग प्रेम में कटुता का अनुभव करते हैं, उन्हें स्वयं को रोगी मान लेना चाहिए। जो व्यक्ति प्रेम को सम्मोहन वाली मदिरा मानते हैं उन्हें यह मान लेना चाहिए कि उनमें जीवन ही नहीं है, जिन्होंने प्रेम के रहस्य को जान लिया है।

कवि का कथन है कि मैंने प्रेम को आहुति बनकर देख लिया है। प्रेम यज्ञ की अग्नि है। जिस प्रकार अग्नि में आहुति डाली जाती है और वह सामग्री जल जाती है उसी प्रकार मैंने भी अपने आप को आहुति बनाकर जल जाने की बात सोच ली है। व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए विषम आँधी और तूफानों का सामना करना पड़ता है परन्तु मानव को सफलता पाने के लिए निरन्तर बढ़ते रहना चाहिए। जीवन एक रणक्षेत्र है जहाँ पर अनेक बाधाएँ आती हैं। ईश्वर ने जो जीवन दिया है उसे हम ईश्वर के लिए समर्पित कर दें। तब ही जीवन सफल और सार्थक होगा।

मैंने आहुति बनकर देखा संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँजीवन-मरुनन्दन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ, वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?

शब्दार्थ :
जग = संसार। दुर्धर = कठिनाइयों को पार करने में समर्थ। अनुकूल = उसी के अनुरूप। जीवन-मरु = जीवन रूपी रेगिस्तान। नन्दन-कानन = देवताओं का उपवन। प्रांतर = छोटे से प्रदेश का। ओछा = छोटा, पद में नीचा।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि अज्ञेय हैं।

प्रसंग :
कवि का सन्देश है कि मैं किसी भी व्यक्ति को अपने पथ पर चलने को बाध्य नहीं करता हूँ, लेकिन सबको अपनी मर्यादा का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।

व्याख्या :
कविवर अज्ञेय जी संसार के मनुष्यों से कहते हैं कि मैं संसार के लोगों से कब कहता हूँ कि वे मेरे समान संघर्षों का सामना करने वाली शक्ति को धारण करें। मैं यह भी नहीं कहता हूँ कि संसार के मनुष्य अपने रेगिस्तान जैसे शुष्क जीविन को देवताओं के सुन्दर उपवन के समान हरा-भरा या सुख-सुविधाओं में सम्पन्न बना लें। काँटा देखने में कठोर और तीखा अवश्य लगता है, पर उसकी भी इस सृष्टि में अपनी मर्यादा है। मैं उससे भी यह नहीं कहता कि वह अपने इस कठोर रूप को कम करके किसी भाग का एक ओछा फूल बन जाये। कहने का भाव यह है कि सबका अपना-अपना भाग्य होता है। अतः सभी को अपनी सामर्थ्य के अनुसार जीवन में काम करना चाहिए।

विशेष :

  1. कवि संसार के मनुष्यों को निरन्तर कर्म करने की प्रेरणा दे रहा है।
  2. लाक्षणिक भाषा।

(2) मैं कब कहता हूँ, मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैंकबकहताहूँ, प्यार करुतो मुझे प्राप्तिकीओटमिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ-मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली सी याद बने?

शब्दार्थ :
प्रासाद = महल। धुंधली सी = अस्पष्ट सी।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर अज्ञेय जी कहते हैं कि मैं यह कब कहता हूँ कि युद्ध क्षेत्र में जाने पर मुझे कोई चोट न लगे; मैं कब कहता हूँ कि यदि मैं किसी से प्यार करूँ तो मुझे उसका प्रतिफल भी मिले; मैं कब कहता हूँ कि युद्ध क्षेत्र में मुझे विजय प्राप्त हो और मेरा एक भव्य महल निर्मित हो। या फिर संसार रूपी रंगमंच पर अभिनय करने वाले पात्र के रूप में मेरी धुंधली-सी याद मनुष्यों के मानस-पटल पर अंकित हो जाये।

विशेष :

  1. कवि संसार में निरन्तर कार्य में लगे रहने की प्रेरणा दे रहा है।
  2. भाषा लाक्षणिक है।

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(3) पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे, क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने।

शब्दार्थ :
प्रशस्त = चौड़ा। विकल = बेचैन। नेतृत्व = नेतागीरी। प्रस्तुत = तैयार। गति-रोधक = चाल को रोकने वाला। शूल = काँटा।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर अज्ञेय कहते हैं कि मेरे मन में इस प्रकार चाह या इच्छा क्यों उत्पन्न हो कि मार्ग सदैव चौड़ा एवं निर्विघ्न हो। मुझे इस बात की भी परवाह नहीं करनी चाहिए कि कहीं मेरी नेतागीरी तो खत्म नहीं हो रही है। मैं इसके लिए तैयार हूँ कि मेरे मरने के पश्चात् मेरे शरीर की मिट्टी इसी भूमि की धूल में मिल जाये; फिर चाहे उसी धूल का एक-एक कण मेरे रास्ते को रोकने वाले काँटे ही क्यों न बन जायें।

विशेष :

  1. कवि को अपनी सामर्थ्य पर विश्वास है। अतः वह हर विषम स्थिति को स्वीकार करने को तैयार है।
  2. भाषा लाक्षणिक।

(4) अपने जीवन को रस देकर जिसको यत्नों से पाला है
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसूकी माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-कारी हाला है।

शब्दार्थ :
यत्नों = प्रयत्नों से। अवसाद मलिन = दुःख से सना हुआ। कटु = कड़वा। सम्मोहनकारी = वश में करने वाली। हाला = मदिरा।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर अज्ञेय कहते हैं कि मैंने अपने जीवन को रस देकर तथा यत्नपूर्वक पाला-पोसा है; क्या ऐसा मेरा जीवन केवल दुःख से सने हुए आँसुओं की माला भर है? जिन प्रेमियों ने अनुभव रस के कड़वे प्याले को पिया है, वे रोगी होंगे अर्थात् स्वस्थ नहीं होंगे और जिन प्रेमियों ने मोह पाश में डालने वाली मदिरा का पान कर लिया है वे मुर्दे होंगे, जीवन्त मनुष्य नहीं होंगे।

विशेष :

  1. कवि मनुष्यों को सतत् जागरूक बने रहने का सन्देश दे रहा है।
  2. भाषा लाक्षणिक।

(5) मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, नभ की चोटी चढ़ता हूँ,
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी और उमड़ता हूँ।

शब्दार्थ :
विदग्ध = जानकार होते हुए भी। आहुति = यज्ञ में दी जाने वाली समिधा। नभ = आकाश। धूली-सा = धूल जैसा।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर अज्ञेय कहते हैं कि मैंने जानकार बनकर यह भली-भाँति जान लिया है और जीवन के अन्तिम रहस्य को पहचान लिया है। मैंने आहुति बनकर देख लिया है कि यह प्रेम एक यज्ञ की ज्वाला.के समान है। मैं इस बात को डंके की चोट पर कहता हूँ कि मैं निरन्तर आगे बढ़ता जाता हूँ और नभ की चोटी पर चढ़ता जाता हूँ। यद्यपि विषम परिस्थितियों में धूल जैसा कुचला जाता हूँ, लेकिन उस अवस्था में भी मैं आँधी बनकर उमड़ता रहता हूँ।

विशेष :

  1. कवि हर स्थिति में अपनी पहचान बनाये रखता है।
  2. भाषा लाक्षणिक।

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(6) मेरा जीवन ललकार बने, असफलता की असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने।
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तपकर अंगार बने।
तेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने।

शब्दार्थ :
ललकार = चुनौती। असि-धार = तलवार की धार। निर्मम = निर्दयी, क्रूर। वार = प्रहार। भव = संसार। दुर्निवार = जिसका निवारण करना कठिन हो। नीरव = शान्त।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर अज्ञेय कहते हैं कि मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन दूसरों के लिए एक चुनौती बने तथा मेरी असफलताएँ तलवार की धार के समान तेज बन जाएँ। मेरे जीवन के इस निर्दयी रण-क्षेत्र में कदम-कदम पर रुकना ही मेरा प्रहार बन जाये। मैं तेरे लिए सारे संसार को स्वाहा कर सकता हूँ और इस यज्ञ में सभी कुछ तपकर अंगार बन जायें। तुम्हारी पुकार जैसा तथा कठिनता से निवारण किया जाने वाला मेरा यह प्यार नीरव बन जाये।

विशेष :

  1. कवि अपने को बलिदान कर देना चाहता है।
  2. भाषा लाक्षणिक।

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