MP Board Class 11th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 11th Special Hindi निबन्ध-लेखन

रचना का अर्थ होता है किसी चीज का स्वयं निर्माण। कक्षा 11वीं के उच्चतर माध्यमिक स्तर पर हिन्दी (विशिष्ट) के शिक्षण का उद्देश्य छात्रों में विविध व्यवहारों सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने का विकास करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखने की क्षमता का समुचित विकास करने के लिए रचना का प्रावधान है।

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इस स्तर तक आते-आते छात्र का शब्द-भण्डार, भाषा सम्बन्धी ज्ञान तथा अन्य साहित्यिक विधाओं की जानकारी पर्याप्त हो जाती है और वह स्वतन्त्र लेखन में सक्षम हो जाता है। अतएव स्तरानुकूल रचना-कौशल के विकास के लिए तथा उदात्त भावों और सद्वृत्तियों के विकास के लिए रचना का पाठ्यक्रम में समावेश किया जाता है।

निबन्ध क्या है?

निबन्ध आधुनिक साहित्य की अत्यन्त लोकप्रिय गद्य-विधा है। अंग्रेजी में इसे ‘Essay’ कहते हैं, जो ‘एसाई’ शब्द से बना है। इस शब्द का अंग्रेजी में अर्थ होता है. अपने मन के भावों को व्यक्त करने का प्रयास करना। निबन्ध मन की एक शिथिल विचार तरंग है, जो असंगठित, अपूर्व और अव्यवस्थित होती है। इसे जब व्यवस्थित रूप में संगतिपूर्ण शब्दों के माध्यम से लिपिबद्ध किया जाता है, तब यह निबन्ध होता है। लेखक के मन की विशेष भाव-श्रृंखला की अभिव्यक्ति ही निबन्ध है। सभी व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं और उनकी अपनी-अपनी शैली होती है। शैली में व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक होती है। इसीलिए एक ही विषय पर लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से विचार व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि निबन्ध को हम सीमित नहीं कर सकते कि अमुक विषय पर बस इसी एक ही प्रकार से निबन्ध लिखा जाये। प्रत्येक छात्र की उस समय की मनोदशा, उसका अपना अनुभव, अपनी भाषा-शैली और व्यक्तित्व तथा शब्द-चयन निबन्ध में व्यक्त होता है। छात्र विशेष को शब्द-योजना और वाक्य-रचना का किस सीमा तक ज्ञान है, क्या वह मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करता है या सरल भाषा का, यह सब व्यक्ति-विशेष पर निर्भर करता है।

निबन्ध विद्यार्थियों के भाषा-ज्ञान को परखने की कसौटी है। निबन्ध ही परीक्षा का वह प्रश्न है जिससे बालक की लेखन-शैली के कौशल का विकास परखा जाता है। परीक्षक यह देखना चाहता है कि अपने ज्ञान को संयोजित कर छात्र किस प्रकार उसे सरस, व्यवस्थित प्रभावशाली भाषा-शैली में व्यक्त कर सकता है।

छात्रों को यह जानना अति आवश्यक है कि वे सीमित समय में सीमित शब्दों में अच्छा निबन्ध किस प्रकार लिखें।

निबन्ध-लेखन 483 हम अच्छा निबन्ध कैसे लिखें? निबन्ध लिखने में मुख्य रूप से हमें विचार-समूह अर्थात् आधार-सामग्री पर ध्यान देना आवश्यक है और फिर भाषा-शैली तथा वाक्य-गठन भी भावानुकूल होना चाहिए।

निबन्ध लिखने के पहले हमें भली-भाँति विषय का सही चुनाव करना चाहिए। ऐसा विषय चुनना चाहिए जिसके बारे में भली-भाँति जानकारी हो। निबन्ध की भाषा रोचक होनी चाहिए। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता होनी चाहिए।

सबसे पहले हमें निबन्ध की रूपरेखा सुव्यवस्थित रोचक ढंग से तैयार कर लेनी चाहिए। रूपरेखा पूरी बन जाने के बाद उसके आधार पर निबन्ध लिखना चाहिए।

भाषा-लेखन में सतर्कतापूर्वक वर्तनी की अशुद्धियों पर विशेष ध्यान देकर शुद्ध लिखना चाहिए। विराम चिह्नों का समुचित प्रयोग आवश्यक है। निबन्ध में आवश्यकतानुसार अनुच्छेद का परिवर्तन एक भाव या विचार समाप्त होने पर करना चाहिए। एक बिन्दु को एक अनुच्छेद में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना चाहिए। निबन्ध के बीच-बीच में अपनी बात की पुष्टि के लिए या विचारों में दृढ़ता लाने के लिए प्रमाणस्वरूप यथास्थान विद्वानों के उद्धरण चाहे वे किसी भी भाषा में हों ज्यों के त्यों लिखना चाहिए। उद्धरण को अवतरण चिह्न “…………..।” के मध्य मूल भाषा में ही लिखना चाहिए। यदि मूल रूप से याद न हो तो विद्वानों के उन विचारों को अपनी भाषा में भी लिख सकते हैं, तब अवतरण चिह्न का प्रयोग न करें।

भाषा के प्रयोग में एक आवश्यक सावधानी रखें कि किसी भी शब्द. या वाक्य की पुनरावृत्ति न हो, अन्यथा भाषा का लालित्य समाप्त होकर निबन्ध प्रभावशाली नहीं रह पायेगा।
निबन्ध के अंग ये मुख्य रूप से तीन होते हैं—
(1) प्रस्तावना,
(2) विषय-विस्तार और
(3) उपसंहार।

(1) प्रस्तावना-प्रायः छात्रों को यह दुविधा रहती है कि निबन्ध किस प्रकार प्रारम्भ करें। अतएव अच्छे आरम्भ के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें क्योंकि यदि प्रारम्भ ही गलत दिशा में हो गया तो पूरे निबन्ध का ढाँचा बिगड़ जाता है।

प्रारम्भ यदि किसी विद्वान के उद्धरण से करें तः उचित होता है। प्रारम्भ में किस विषय पर आप निबन्ध लिख रहे हैं वह क्या है? उसकी परिभाषा या विषय का स्पष्टीकरण और उसके स्वरूप का विवेचन कर दें। उस समय विशेष का हमारे जीवन में, हमारे समाज में या वर्तमान सन्दर्भो में उसकी क्या समसामयिक उपयोगिता है? यह लिखें। फिर प्राचीनकाल में इस सम्बन्ध में क्या विचार थे या क्या स्थिति थी और उसमें क्यों और कैसे परिवर्तन आया? यह लिखें।

(2) विषय-विस्तार—प्रस्तावना की सृष्टि होने पर हम निबन्ध के विषय के जितने क्षेत्र और पक्ष हो सकते हैं, उनके आधार पर निबन्ध आगे बढ़ाते हैं। इसमें भी पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। एक स्वतन्त्र बात या विचार को एक अनुच्छेद में रखें। विषय से सम्बन्धित जो भी बात हो, वह छूटने न पाये। विषय के बारे में जो भी जानकारी हो, वह व्यवस्थित रूप में लिखनी चाहिए। किसी भी विषय के बारे में उसके भूतकाल, वर्तमान स्वरूप और भविष्य की क्या रूपरेखा होगी, यह लिख देना चाहिए। उदाहरण के लिए विज्ञान के विषय में प्राचीनकाल में उसकी क्या स्थिति थी। वर्तमान समय में उसकी क्या गतिविधि है और जीवन को क्या लाभ है? यह लिखकर भविष्य की सम्भावनाएँ लिख देनी चाहिए। इस प्रकार आसानी से किसी भी विषय पर निबन्ध लिखा जा सकता है। भाषा-शैली रोचक होनी चाहिए। महापुरुषों के उद्धरण भी लिख देने चाहिए। उससे हमारी बात में दृढ़ता आ जाती है।

निबन्ध के मध्य में ही लेखक पाठक को अपने तर्क समझाने का प्रयत्न करता है। यही भाग निबन्ध का सबसे अधिक विस्तृत भाग होता है। प्रारम्भ से इस भाग का सम्बन्धित होना
आवश्यक है और इसके सभी सिद्धान्त वाक्य अन्त की ओर उन्मुख होने चाहिए।

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(3) उपसंहार-यह निबन्ध का अन्तिम भाग है। लेखक को यह भाग अति सावधानी से पूरा करना चाहिए। उपसंहार की सफलता पर,ही निबन्ध की सफलता निर्भर करती है। भूमिका के समान ही उपसंहार का महत्त्व होता है। निबन्ध का उपसंहार आकर्षक और सारगर्भित होना चाहिए। हमें निबन्ध का अन्त वहाँ करना चाहिए, जहाँ विषय का विवेचन हमारी जिज्ञासा को पूरी तरह सन्तुष्ट कर दे। उपसंहार में जो कुछ हमने निबन्ध में लिखा है, उसका सारांश संक्षेप में एक अनुच्छेद में लिखना है।

निबन्ध के अन्तिम अंश में ऐसा न लगे कि निबन्ध अनायास समाप्त हो गया है। निबन्ध के समाप्त होने पर भी लेखक की विचारधारा का मूल भाव पाठक के मन में बार-बार आता रहे। वही सफल अन्त है, जिसमें पढ़ने वाले का ध्यान लेखक के तर्कपूर्ण संगत भावों की ओर आकर्षित हो जाये और वह विषय के गुण-दोष दोनों को जानकर अपना एक मत निश्चित कर सके। पूरे विषय के हानि-लाभ हमें इस अनुच्छेद में लिखकर किसी अच्छे उद्धरण या कविता की पंक्ति या श्लोक की पंक्ति से अपना निबन्ध प्रभावपूर्ण ढंग से समाप्त कर देना चाहिए।

उक्त प्रकार लिखा गया निबन्ध उत्कृष्ट होगा।

निबन्ध के प्रकार प्रमुख रूप से निबन्ध चार प्रकार के होते हैं-
(1) वर्णनात्मक,
(2) विवरणात्मक,
(3) विवेचनात्मक,
(4) आलोचनात्मक।

(1) वर्णनात्मक-वे निबन्ध जिनमें किसी देखी हुई वस्तु या दृश्य का वर्णन होता है उन्हें हम वर्णनात्मक निबन्ध कहते हैं; जैसे—यात्रा, पर्व, मेला, नदी, पर्वत, समुद्र, पशु-पक्षी, ग्राम, रेलवे स्टेशन आदि का वर्णन।
(2) विवरणात्मक-इसका अन्य नाम चरित्रात्मक भी है। इस प्रकार के निबन्धों में ऐतिहासिक घटनाओं, ऐतिहासिक यात्राओं तथा महान् पुरुषों की जीवनियों एवं आत्मकथा आदि का वर्णन होता है।
(3) विवेचनात्मक-इस का अन्य नाम विचारात्मक भी है। इन निबन्धों में विचारों की प्रमुख रूप से प्रधानता होती है। इसीलिये इन्हें विचारात्मक या विवेचनात्मक निबन्ध कहते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में भावनात्मक विषयों पर भी लेखनी चलाई जाती है; जैसे—करुणा, क्रोध, श्रद्धा-भक्ति, अहिंसा, सत्संगति, परोपकार आदि विषयों पर लिखे गये निबन्ध इस श्रेणी में
आते हैं।
(4) आलोचनात्मक-इस प्रकार के निबन्धों के अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक समस्त प्रकार के निबन्ध आते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में तर्क-वितर्क द्वारा पक्ष-विपक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।

समसमायिक समस्याओं से सम्बन्धित निबन्ध में यथा आतंकवाद, महँगाई की समस्या, साम्प्रदायिकता, जनसंख्या विस्फोट, बेरोजगारी एवं आरक्षण आदि की समसमायिक समस्याएँ सम्मिलित हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर आदर्श निबन्ध प्रस्तुत हैं।

1. साहित्य और समाज [2008, 09, 13, 16]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध,
  3. समाज का साहित्य पर प्रभाव,
  4. साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  5. समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-

“अन्धकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।”

जिस प्रकार सूर्य की किरणों से जगत में प्रकाश फैलता है, उसी प्रकार साहित्य के आलोक से समाज में चेतना का संचार होता है। साहित्य ही अज्ञान के अन्धकार को मिटाकर समाज का मार्गदर्शन करता है। बाबू श्यामसुन्दर दास जी का यह कथन सत्य है कि ‘सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव-सामग्री निकाल कर समाज को सौंपता है, उसी के संचित भण्डार का नाम साहित्य है।” साहित्य के अभाव में राष्ट्र एवं समाज शक्तिहीन हो जाते हैं। अत: साहित्य समाज की गतिविधियों को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त साधन है।

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साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध साहित्य और समाज का एक-दूसरे से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य में मानव समाज के भाव निहित होते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने साहित्य को ‘समाज का दीपक’, ‘समाज का मस्तिष्क’ और ‘समाज का दर्पण’ माना है। वास्तव में, समाज की प्रबल एवं वेगवती मनोवृत्तियों की झलक साहित्य में दिखायी पड़ती है। विश्व के महान् साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में अपने-अपने समाज का सच्चा स्वरूप अंकित किया है।

समाज का साहित्य पर प्रभाव-समाज का प्रभाव ग्रहण किये बिना आदर्श साहित्य की रचना असम्भव है। साहित्यकार त्रिकालदर्शी होता है, इसलिए वह अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का अंकन भविष्य के दिशा निर्देश के लिए करता है। साहित्य में समाज की समस्याएँ और उनके समाधान निहित रहते हैं। अत: साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। सामाजिक परम्पराएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। साहित्यकार भी समाज का प्राणी है, अत: वह इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता है। वह अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होने के कारण समाज की परिस्थितियों से अधिक प्रभावित होता है। वह जो कुछ समाज में देखता है, उसी को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार साहित्य समाज से प्रभावित होता है।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-किसी भी काल का समाज साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साहित्य पर आश्रित रहना पड़ता है। श्रेष्ठ साहित्य समाज के स्वरूप में परिवर्तन कर देता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि-“साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोले में नहीं पायी जाती है।” समाज का प्रभाव पहले साहित्य पर पड़ता है फिर समाज स्वयं साहित्य से प्रभावित होता है।

हिन्दी-साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह बात स्वयं स्पष्ट हो जाती है। वीरगाथा-काल का वातावरण युद्ध एवं अशान्ति का था। वीरता प्रदर्शन ही जीवन का महत्त्व था। युद्ध अधिकतर विवादों के पीछे होते थे। उस युग के वातावरण के अनुकूल ही चारण कवियों ने काव्य रचना की है। इस काल की प्रधान प्रकृति वीर और श्रृंगार की है। इसीलिए इस साहित्य की रचना हुई। भक्तिकाल के आते-आते विदेशियों का शासन स्थापित हो गया था। धीरे-धीरे भारत की संस्कृति एवं कला ध्वस्त होने लगी थी। निराशा के वातावरण में जनता को भक्ति आन्दोलन की सशक्त लहरी ने जीवनदायिनी शीतलता प्रदान की थी। इस समय की साहित्यधारा ज्ञान और प्रेम के रूप में प्रवाहित हुई। इसी समय में कुछ सन्तों ने राम और कृष्ण के लोकमंगलकारी रूपों के सहारे समाज को धैर्य प्रदान किया। इन कवियों के प्रयत्न से समाज में चेतना का संचार हुआ और निराशा से छुटकारा मिला। रीतिकाल में काव्य का सृजन राज्याश्रय में हो रहा था। दरबारी विलासिता से प्रभावित होकर बिहारी और देव जैसे प्रतिभावान कवि नारी के अंगों के मादक चित्रण करने में लगे थे। समय के अनुरूप विभिन्न प्रकार से कविता-कामिनी अपना श्रृंगार करने लगी थी। आधुनिक काल के आगमन के साथ ही भारतीय समाज पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ा। विज्ञान ने समाज और साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिये। नव-जागृति से प्रेरित होकर साहित्य की धारा राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की ओर चल पड़ी। ‘वह हृदय नहीं पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं’ आदि उद्बोधनों ने भारतीयों में राष्ट्रीयता का संचार किया। कवियों की वाणी रोजी, रोटी, शोषण आदि की युगीन समस्याओं को स्वर देने लगी। समाज अपने अनुकूल साहित्य को परिवर्तित करता है तो साहित्य समाज को बदलने की कोशिश करता है।

समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान—समाज और जीवन की चिन्ता करने से ही साहित्य में निखार आता है। साहित्य की सार्थकता जीवन के लिए होने में ही निहित है। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है-

“कीरति भणिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।”

समाज की मनोवृत्तियों, परिवर्तनों एवं मान्यताओं का साहित्य पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। किन्तु साहित्यकार को केवल समाज को यथार्थ अभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे यह भी बताना चाहिए कि समाज के आदर्श का स्वरूप क्या है, उसे भविष्य में किस ओर उन्मुख होना है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने साहित्य का आदर्श निश्चित करते हुए लिखा है

“हो रहा है जो जहाँ, वह हो रहा,
यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?

किन्तु होना चाहिए कब, क्या कहाँ, व्यक्त करती हैं कला ही वह, वहाँ।” उपसंहार-जीवन में साहित्य की महत्ता अपरिहार्य है। साहित्य मानव-जीवन को वाणी देने के साथ-साथ समाज का पथ-प्रदर्शन भी करता है। साहित्य मानव-जीवन के अतीत का ज्ञान करता है, वर्तमान का चित्रण करता है और भविष्य निर्माण की प्रेरणा देता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है।

साहित्य में जो अन्त:पीड़ा एवं हृदय की ठोस प्रतिध्वनित होती है वह जातीय भावों का साकार रूप है।

साहित्य मस्तिष्क का भोजन है। साहित्य मानव की रुचि का पूर्णतः परिष्कार करके उसमें निरन्तर उदात्त मनोवृत्तियों को जाग्रत करता है। जब साहित्य का पतन होने लगता है, तब समाज भी रसातल को चला जाता है। इस प्रकार साहित्य समाज के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करता है। वह जन-जीवन की विभूति है। उसका ध्येय प्रशंसनीय है। साहित्य सामाजिक परिवर्तन का प्रबल उत्तम साधन है। स्वस्थ साहित्य समाज के मार्गदर्शक का कार्य करता है।

2. वनों का महत्त्व [2010]
अथवा
वृक्षारोपण का महत्त्व रूपरेखा [2017]

  1. प्रस्तावना,
  2. वनों की महिमा,
  3. वनों की उपयोगिता,
  4. वनों का विनाश : एक अशुभ कर्म,
  5. वनों का विकास : समय की पुकार,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-
प्राकृतिक शोभा के अक्षय भण्डार वनों का मानव-जीवन से अटूट सम्बन्ध है। आदिकाल से ही वन मानव-सुख साधनों के स्रोत रहे हैं। आदिम सभ्यता में रहने वाले मानव को संरक्षण और भरण-पोषण में सहयोग देने वाले वन आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी मानव जीवन के साथ सह-अस्तित्व बनाए हुए हैं।

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वनों की महिमा-वनों में धरती तथा वृक्ष हरियाली की चादर ओढ़े रहते हैं। भाँति-भाँति के पक्षियों का कलरव मन-मानस को प्रमुदित करता है। जंगली जीव तथा जानवर वन की गोद में वास करके निर्भयता तथा आनन्द का जीवन बिताते हैं। भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म भी वन की गोद में ही हुआ है। यहाँ वृक्षों की सघन छाया में बैठकर ऋषियों तथा सिद्ध पुरुषों ने ज्ञान के अनमोल रत्न दिये हैं।

वनों को पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों का भण्डार मात्र न मानकर सभ्यता के विकास का अमूल्य साधन कहा जा सकता है। इनकी उपयोगिता अनेक रूपों में हमें दिखायी देती है। वैदिक काल में वन-देवता तथा वन-देवियों का वर्णन हुआ है, वनोत्सव तथा वन महोत्सवों का उल्लेख भी किया गया है।

वनों की उपयोगिता वन महोत्सव का आधुनिक अभिप्राय वृक्षारोपण या वृक्ष लगाना है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ की कृषि बहुत कुछ वर्षा की अनुकूलता पर निर्भर करती है। वर्षा वनों के कारण ही अधिक होती है। अत: वनों की उपयोगिता इस दृष्टि से स्वतः सिद्ध है।

केवल हमारे देश में ही नहीं, विश्व भर में वृक्षों को आश्रयदाता के रूप में माना जाता है। भारतीय संस्कृति में तो वनों का और भी अधिक महत्त्व है और वृक्षों की पूजा की जाती है, कहा भी गया है-

“तरुवर तास विलंबिये, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करत॥”

इसके अतिरिक्त पीपल, बरगद, आँवला, केला, तुलसी आदि की पूजा का भाव सर्वविदित है। विद्वानों ने वृक्षों को मित्र, सहायक और शिक्षक का स्थान दिया है। 1950 ई. में तत्कालीन खाद्य मंत्री श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने जुलाई मास में वन महोत्सव का शुभारम्भ किया था। इस दृष्टि से यह कार्य एक आन्दोलन के रूप में प्रचलित हुआ और प्रतिवर्ष जुलाई मास में वृक्षारोपण का कार्य किया जाने लगा है। इस सम्बन्ध में कुछ नारे भी प्रचलित हुए

“वृक्ष धरा के भूषण हैं, करते दूर प्रदूषण हैं।”
“बंजर धरती करे पुकार, कम बच्चे हों वृक्ष हजार॥”

वनों का विनाश : एक अशुभ कर्म-आधुनिक सुख-सुविधा और विलासिता के मद में मानव वृक्षों की कटाई करके वनों के विनाश में संलग्न हुआ है। यह एक अशुभ कार्य है और मानवता तथा प्राणि-जगत के लिए अमंगलकारी है, क्योंकि वृक्षों का जीवन तो होता ही परोपकार के लिए…”परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः।” प्रथम पंचवर्षीय योजना में तीस करोड़ नए वृक्षों के लगाने तथा पुराने वृक्षों और वनों की रक्षा का लक्ष्य था। अत: वनों का संरक्षण आज की एक ज्वलन्त समस्या है और इसके समाधान के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को नए पौधों के आरोपण और वन-सम्पदा के रक्षण का व्रत लेना चाहिए।

वनों का विकास : समय की पुकार–वनों के संरक्षण के साथ-साथ वनों का विकास आज के भौतिकवादी समय की एक पुकार है। इसके लिए वन महोत्सव की उपादेयता एक वरदान है। इससे हमें दो प्रकार के लाभ हैं धार्मिक लाभ एवं भौतिक लाभ। पौराणिक मान्यता के अनुसार, अपने जीवन में पाँच वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति को स्वर्ग-लाभ होता है। भौतिक दृष्टि से वृक्ष हमें प्राण वायु प्रदान करते हैं तथा फल, फूल, गोंद, रबर और जीवनोपयोगी औषधियाँ भी इनसे प्राप्त होती हैं।

जागरूकता शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ जनता में वन महोत्सव के प्रति जागरूकता आती जा रही है। सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं और जन जीवन में भी यह प्रवृत्ति पनपने लगी है। प्रत्येक व्यक्ति का यह एक पुनीत कर्त्तव्य है और मानवता के हित में वन-महोत्सव एक सौभाग्यपूर्ण कदम है।

उपसंहार-वृक्षों का काटना अभिशाप माना जाय। प्रत्येक खाली स्थल पर वृक्षों की हरियाली दृष्टिगोचर हो। हर बगिया में रंग-बिरंगे पुष्प मन का हरण करते हों। कोयल मधुर ध्वनि में वृक्षों पर राग अलापती हो तथा पक्षी कलरव करते हों तभी देश उन्नति के मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होगा।

3. इक्कीसवीं सदी का भारत
[2010]

“हाँ ! वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है।
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?”

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. बीसवीं सदी एवं भारत,
  3. विज्ञान की प्रगति,
  4. भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद का समन्वय,
  5. रोजगारपरक शिक्षा,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना—इक्कीसवीं सदी हमारे देश के लिए सुनहरा अवसर उज्ज्वल भविष्य तथा अनेक आशाओं तथा आकांक्षाओं के दीप सँजोकर लाने के लिए लालायित है। इक्कीसवीं सदी के भारत में शान्ति, प्रेम तथा बन्धुत्व की मंदाकिनी देश के प्रत्येक कोने में प्रवाहित होगी। प्रत्येक भारतवासी के मुख मण्डल पर मुस्कान बिखरी हुई दृष्टिगोचर होगी।

बीसवीं सदी एवं भारत-बीसवीं सदी में भारतवासियों ने गुलामी के घोर कष्टों को भोगा है। अनवरत साधना तथा संघर्ष के पश्चात् स्वतन्त्रता देवी की आरती उतारकर स्वाभिमान तथा आनन्द का अनुभव भी किया है। भारत माता को दो भागों में विभक्त होते हुए भी निहारा है।

विज्ञान की प्रगति-इस दौर में हमारे देश में विज्ञान के क्षेत्र में भी आशातीत सफलता प्राप्त की है। परमाणु शक्ति के क्षेत्र में भी भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया है।

भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद का समन्वय…इक्कीसवीं सदी के भारत में यहाँ के निवासी भौतिकवाद में उन्नति करने के साथ ही आध्यात्मिकता को भी अपने जीवन में प्रमुख स्थान प्रदान करेंगे।

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इस सदी में यहाँ के नागरिक अपने विचारों को व्यक्त करने में पूर्णरूपेण स्वतन्त्र होंगे। शासक तथा जनता के बीच भेद की खाई नहीं रहेगी। गाँधीजी जिस रामराज्य का सपना सँजोया करते थे, उसे पूर्ण करने का भरसक प्रयास किया जायेगा। जन जीवन से खिलवाड़ करने वाले तथा स्वार्थी राजनीतिज्ञों को दूध से मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिया जायेगा।

रोजगारपरक शिक्षा इक्कीसवीं सदी में रोजगारपरक शिक्षा की व्यवस्था होगी। प्रौढ़ शिक्षा तथा बुनियादी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जायेगा। शिक्षा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को बढ़ावा देने वाली होगी।

छात्रों के आचार, व्यवहार तथा चरित्र को उन्नत बनाने में भी शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेगी।

प्रकृति का पल्लवन-देश को बाढ़, प्रदूषण तथा भूकम्प से बचाने के लिए प्रकृति का पल्लवन करके हरियाली तथा वृक्षों को विशाल पैमाने पर लगाया जायेगा।।

उपसंहार-21वीं सदी का भारत सही अर्थों में भारतीय आदर्शों के अनुरूप होगा, इसमें अपने देश, भाषा, संस्कृति आदि के पुजारी होंगे। ऊँच-नीच, छुआछूत आदि का वहाँ नाम भी न होगा। हर हाथ को काम होगा तथा हर चेहरे पर मुस्कान होगी। यहाँ के निवासी मन, वचन, कर्म की एकरूपता से प्रेरित सद्गुणी तथा सद्कामी होंगे। मेरे सपनों का भारत अनूठा देश होगा।

इसकी गोद में अनेकता में एकता के दर्शन होंगे। “सादा जीवन उच्च विचार” के आदर्श प्रतिष्ठित होंगे। 21वीं सदी के भारत में कोयल अमराई की बगियों में मधुर स्वर में कूहकेगी कि

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा॥”

4. प्रदूषण की समस्या
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण [2008, 09]
अथवा
पर्यावरण संरक्षण हमारा दायित्व [2012]
अथवा
पर्यावरण का जीवन में महत्व [2014]

“गंगा का निर्मल जल दूषित हो गया, आसमान जहरीली हवाओं से ओत-प्रोत है, वातावरण विषाक्त है। हवाओं में घुटन तथा जहर घुला है।”

रूपरेखा [2015, 16]

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रदूषण का अर्थ एवं अभिप्राय,
  3. प्रदूषण के प्रकार,
  4. प्रदूषण की समस्या का वर्तमान रूप,
  5. प्रदूषण की समस्या की रोकथाम के उपाय,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-विज्ञान की प्रगति ने मानव-जाति को जहाँ अनेक वरदान दिये हैं, वहीं उसके कुछ अभिशाप भी हैं। इन अभिशापों में एक है—प्रदूषण। प्रदूषण की समस्या ने पिछले कुछ वर्षों में इतना उग्र रूप धारण कर लिया है कि इसकी वजह से दुनिया के वैज्ञानिक और विचारक गहरी चिन्ता में पड़ गये हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि इस समस्या का यदि शीघ्र ही कोई हल न खोजा गया तो सम्पूर्ण मानव जाति का विनाश सुनिश्चित है। प्रगति एवं भौतिकवाद की अंधी दौड़ में पर्यावरण प्रतिपल दूषित हो रहा है जो विनाश का सूचक है।

प्रदूषण का अर्थ एवं अभिप्राय प्रदूषण का अर्थ है दोष उत्पन्न होना। इसी आधार पर प्रदूषण शब्द से यहाँ हमारा अभिप्राय है वायु, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं में अवांछनीय परिवर्तन द्वारा दोष उत्पन्न हो जाना। इसे यों भी समझा जा सकता है कि जब हवा, पानी, मिट्टी, रोशनी, समुद्र, पहाड़, रेगिस्तान, जंगल और नदी आदि की स्वाभाविक स्थिति में दोष उत्पन्न हो जाता है, तब प्रदूषण की स्थिति बन जाती है। कोयला, पेट्रोलियम आदि ऊर्जा के प्राकृतिक भण्डारों के अत्यधिक प्रयोग से उत्पन्न धुआँ और मलवा वातावरण को दूषित कर प्रदूषण की समस्या को जन्म देता है। प्रदूषण मनुष्यों और सभी प्रकार के जीवधारियों तथा वनस्पतियों के लिए अत्यन्त हानिकारक है।

प्रदूषण के प्रकार-प्रदूषण प्रमुखतः पाँच प्रकार का होता है-

  1. पर्यावरण प्रदूषण,
  2. जल-प्रदूषण,
  3. थल-प्रदूषण,
  4. ध्वनि-प्रदूषण और
  5. रेडियोधर्मी प्रदूषण।

(1) पर्यावरण प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण को वातावरण प्रदूषण भी कहते हैं। वातावरण का अर्थ है-वायु का आवरण। हमारी धरती हर ओर से वायु की एक बहुत मोटी पर्त से ढकी हुई है, जो कुछ ऊँचाई के बाद क्रमशः पतली होती गयी है। यह वायु अनेक प्रकार की गैसों से मिलकर बनी है। ये गैसें वायु में एक निश्चित अनुपात में होती हैं। उनके अनुपात में कोई भी गड़बड़ी प्रकृति और जीवन के सन्तुलन को बिगाड़ सकती है। हम अपनी साँस द्वारा हवा से

ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड गैस छोड़ते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड बहुत जहरीली गैस होती है। धरती पर यह पेड़-पौधों द्वारा ग्रहण कर ली जाती है। पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को साँस के रूप में ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन बाहर निकालते हैं। इस प्रकार वायुमण्डल में इन दोनों गैसों का सन्तुलन बना रहता है। वायुमण्डल में किसी कारण से जब कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का अनुपात आवश्यकता से अधिक हो जाता है तो वातावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। ईंधनों के जलाये जाने से उत्पन्न धुआँ वातावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है।

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पर्यावरण या वातावरण प्रदूषण सभी प्रकार के प्रदूषणों का मुख्य आधार और सर्वाधिक हानिकारक प्रदूषण है। विषैली गैसों की अधिकता के कारण धरती का वायुमण्डल गर्म हो जाता है और धरती के तापमान में वृद्धि हो जाती है। इससे ध्रुवीय बर्फ पिघलने लगती है जिससे समुद्र का स्तर ऊँचा उठ जाता है। इससे समुद्रतटीय नगरों के डूबने और बाढ़ आदि का खतरा पैदा हो जाता है। विषैली हवा में साँस लेने के कारण दमा, तपेदिक और फेफड़ों का कैंसर जैसे भयानक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मनुष्य की जीवनी-शक्ति कम हो जाने के कारण अनेक प्रकार की महामारियाँ आदि फैलती हैं।

(2) जल-प्रदूषण-पानी के दूषित हो जाने को जल-प्रदूषण कहते हैं। जल में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एक निश्चित अनुपात में होते हैं। जब इनके अनुपात में गड़बड़ हो जाती है और जल में हानिकारक तत्त्वों की संख्या बढ़ जाती है, तब जल-प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जल में मल-मूत्र तथा कल-कारखानों द्वारा दूषित रासायनिक पदार्थों का विसर्जन जल-प्रदूषण उत्पन्न करता है।

जल-प्रदूषण होने से समुद्र, अर्थात् खारे पानी और मीठे पानी का सन्तुलन बिगड़ जाता है। नदियों में बहाये गये हानिकारक रासायनिक तत्त्व समुद्र में पहुँचकर समुद्र के जन्तुओं के लिए संकट उपस्थित कर देते हैं जिससे समुद्र का सन्तुलन बिगड़ जाता है। अशुद्ध जल के प्रयोग से अनेक प्रकार की संक्रामक बीमारियाँ हो जाती हैं और भूमि की उर्वरा-शक्ति कम हो जाती है।

(3) थल-प्रदूषण-मिट्टी में दोष उत्पन्न हो जाना थल-प्रदूषण के अन्तर्गत है। पेड़-पौधों और खाद्य-पदार्थों आदि को कीड़े-मकोड़ों और अन्य जानवरों से बचाने के लिए डी. डी. टी. आदि तथा खेतों में रासायनिक खाद के प्रयोग से थल-प्रदूषण उत्पन्न होता है। इससे धरती की उर्वरा-शक्ति में कमी आ जाती है। प्रयोग करने वाले के भी लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है।

(4) ध्वनि-प्रदूषण-ध्वनि सम्बन्धी प्रदूषण को ध्वनि-प्रदूषण कहते हैं। मोटरकार, स्कूटर, हवाई जहाज आदि वाहनों, मशीनों के इन्जनों और रेडियो तथा लाउडस्पीकर आदि से उत्पन्न होने वाला असहनीय शोर ध्वनि प्रदूषण को जन्म देता है। यह मनुष्य की पाचन-शक्ति पर भी प्रभाव डालता है। इससे ऊँचा सुनना, अनिद्रा और पागलपन तक जैसे रोग हो सकते हैं। जरूरत से ज्यादा शोर दिमागी तनाव को बढ़ाता है।

(5) रेडियोधर्मी प्रदूषण-परमाणु शक्ति के प्रयोग एवं परमाणु विस्फोटों से मलवे के रूप में रेडियोधर्मी कणों का विसर्जन होता है। यही रेडियोधर्मी प्रदूषण को उत्पन्न करता है। जब कोई परमाणु विस्फोट होता है तो बहुत गर्म किरणें निकलती हैं। वे वातावरण में भी रच-बस जाती हैं। उस स्थान की वायु विषैली हो जाती है जो आगे आने वाली संतति तक पर प्रभाव डालती है। इससे वायुमण्डल और मौसमों तक का सन्तुलन बिगड़ जाता है।

प्रदूषण की समस्या का वर्तमान रूप—प्रदूषण की समस्या आधुनिक औद्योगिक एवं वैज्ञानिक युग की देन है। इस समस्या का जन्म औद्योगिक क्रान्ति से हुआ। आज धरती पर लाखों कारखाने वातावरण में विषैली गैसों का विसर्जन कर उसे गन्दा बना रहे हैं। कारखानों और मोटर वाहनों से विसर्जित जहरीली गैसों के कारण पृथ्वी का वायुमण्डल गर्म होता जा रहा है। प्रदूषण अगर इसी तरह बढ़ता गया तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 2100 तक वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अब से चार गुना हो जायेगी जिससे पृथ्वी का तापमान लगभग 6° से. बढ़ जायेगा। ऐसी स्थिति में ध्रुवीय बर्फ पिघल जायेगी जिससे समुद्र तल ऊँचा हो जायेगा और अनेक समुद्रतटीय नगर डूब जायेंगे। बाढ़े आयेंगी, धरती की उर्वरा-शक्ति कम हो जायेगी और अनेक प्रकार के रोग तथा महामारियाँ फैलेंगी। 20वीं सदी के प्रारम्भ में परमाणु शक्ति के आविष्कार ने प्रदूषण के खतरे को चरम सीमा पर पहुँचा दिया है। पिछले 40 वर्षों के दौरान विश्व में लगभग 1200 परमाणु विस्फोट किये जा चुके हैं। इनके रेडियोधर्मी प्रदूषण से कितनी हानि हो चुकी है, कितनी हो रही है और भविष्य में कितनी हानि होगी, इसका अन्दाजा लगाना भी मुश्किल है। इन परमाणु विस्फोटों से ऋतुओं का सन्तुलन भी डगमगा गया है। मौसमों का बदलाव आदि इन परमाणु विस्फोटों का ही दुष्परिणाम है। इस प्रकार आज धरती का सारा वातावरण विषाक्त हो चुका है। कल-कारखानों से विसर्जित हानिकारक रासायनिक तत्त्व जल-प्रदूषण उत्पन्न कर रहे हैं जिससे फसलों और जीवों में अनेक प्रकार के रोग पनप रहे हैं। मोटर वाहनों आदि के भयानक शोर ने आदमी का चैन हराम कर दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रदूषण की समस्या आज अपनी चरमसीमा पर है। भारत जैसे विकासशील देश में तो यह समस्या और भी भयावह रूप धारण कर चुकी है।

प्रदूषण की समस्या की रोकथाम के उपाय-आज सारा विश्व प्रदूषण की समस्या से ग्रसित एवं चिन्तित है और हर देश इसकी रोकथाम में लगा हुआ है। ब्रिटेन, अमरीका, फ्रांस आदि विकसित देशों में तेज आवाज करने वाले वाहनों में ध्वनि नियन्त्रक यन्त्र लगाये गये हैं। कारखानों द्वारा विसर्जित हानिकारक रासायनिक तत्त्वों को ये देश नदियों में नहीं बहाते, बल्कि उन्हें नष्ट कर देते हैं। परमाणु विस्फोटों के प्रतिबन्ध और परिसीमा पर भी विश्व में विचार हो रहा है। दुर्भाग्य से भारत जैसे विकासशील देशों में अब भी प्रदूषण की रोकथाम की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो रहा है। हमारे यहाँ अब भी मल-मूत्र और रासायनिक मलवे को नदियों में बहा दिया जाता है। यहाँ की नदियों के किनारे स्थित स्थान जल-प्रदूषण की समस्या से बुरी तरह ग्रस्त हैं। अन्य प्रकार के प्रदूषण भी हमें आक्रान्त किये हुए हैं।

भोपाल गैस काण्ड भी हमारे समक्ष एक चुनौती के रूप में उपस्थित है जिसमें अनेक लोग मौत की गोद में सो गये।

इस समस्या के निराकरण का सर्वोत्तम साधन वनों की रक्षा और वृक्षारोपण है, क्योंकि पेड़-पौधों से ही ऑक्सीजन और कार्बन-डाइऑक्साइड का सन्तुलन बना रहता है। वृक्षारोपण के अतिरिक्त परमाणु विस्फोटों पर प्रतिबन्ध, कारखानों की चिमनियों में फिल्टर का प्रयोग, मोटर वाहनों में ध्वनि नियन्त्रक यन्त्रों का प्रयोग, मल-मूत्र और कचरे आदि को नदियों में बहाने के स्थान पर उन्हें अन्य तरीकों से नष्ट कर देना आदि वे साधन हैं, जिनसे प्रदूषण की समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

उपसंहार-प्रदूषण की समस्या आज एक देश की समस्या नहीं, सम्पूर्ण विश्व तथा समूची मानव जाति की है। यदि समय रहते इस समस्या को हल करने के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किये गये तो सम्पूर्ण मानव जाति का भविष्य अन्धकारमय है। भगीरथी प्रयासों के बावजूद इस समस्या के निराकरण के आसार ही दिखाई नहीं दे रहे हैं। पर्यावरण की स्वच्छता में ही मानव की सुख एवं शान्ति निहित है।

5. समाज में नारी का स्थान
अथवा
भारतीय समाज में नारी [2008, 09, 13]

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत पग-पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

रूपरेखा [2016]-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राचीन भारतीय नारी,
  3. मध्यकाल में नारी की स्थिति,
  4. आधुनिक नारी,
  5. उपसंहार।]

प्रस्तावना-सृष्टि के आदिकाल से ही नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। नारी सृजन की पूर्णता है। उसके अभाव में मानवता के विकास की कल्पना असम्भव है। समाज के रचना-विधान में नारी के माँ, प्रेयसी, पुत्री एवं पत्नी अनेक रूप हैं। वह सम परिस्थितियों में देवी है तो विषम परिस्थितियों में दुर्गा भवानी। वह समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है जिसके बिना समग्र जीवन ही पंगु है। सृष्टि चक्र में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं।

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मानव जाति के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि जीवन में कौटुम्बिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में प्रारम्भ से ही नारी की अपेक्षा पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुष ने अपनी इस श्रेष्ठता और शक्ति-सम्पन्नता का लाभ उठाकर स्त्री जाति पर मनमाने अत्याचार किये हैं। उसने नारी की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उसे पराधीन बना दिया। सहयोगिनी या सहचरी के स्थान पर उसे अनुचरी बना दिया और स्वयं उसका पति, स्वामी, नाथ, पथ-प्रदर्शक और साक्षात् ईश्वर बन गया। इस प्रकार मानव जाति के इतिहास में नारी की स्थिति दयनीय बन कर रह गयी है। उसकी जीवन धारा रेगिस्तान एवं हरे-भरे बगीचों के मध्य से प्रतिपल प्रवाहमान है।

प्राचीन भारतीय नारी-प्राचीन भारतीय समाज में नारी-जीवन के स्वरूप की व्याख्या करें तो हमें ज्ञात होगा कि वैदिक काल में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वह सामाजिक धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पुरुष के साथ मिलकर कार्य करती थी। रोमशा और लोपामुद्रा आदि अनेक नारियों ने ऋग्वेद के सूत्रों की रचना की थी। रानी कैकेयी ने राजा दशरथ के साथ युद्ध-भूमि में जाकर, उनकी सहायता की। रामायण काल (त्रेता) में भी नारी की महत्ता अक्षुण्ण रही। इस युग में सीता, अनुसुइया एवं सुलोचना आदि आदर्श नारी हुईं। महाभारत काल (द्वापर) में नारी पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगीं। इस युग में नारी समस्त गतिविधियों के संचालन की केन्द्रीय बिन्दु थी। द्रोपदी, गान्धारी और कुन्ती इस युग की शक्ति थीं।

मध्यकाल में नारी की स्थिति-मध्य युग तक आते-आते नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय बन गयी। भगवान बुद्ध द्वारा नारी को सम्मान दिये जाने पर भी भारतीय समाज में नारी के गौरव का ह्रास होने लगा था। फिर भी वह पुरुष के समान ही सामाजिक कार्यों में भाग लेती थी। सहभागिनी और समानाधिकारिणी का उसका रूप पूरी तरह लुप्त नहीं हो पाया था। मध्यकाल में शासकों की काम-लोलुप दृष्टि से नारी को बचाने के लिए प्रयत्न किये जाने लगे। परिणामस्वरूप उसका अस्तित्व घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गया। वह कन्या रूप में पिता पर, पत्नी के रूप में पति और माँ के रूप में पुत्र पर आश्रित होती चली गयी। यद्यपि इस युग में कुछ नारियाँ अपवाद रूप में शक्ति-सम्पन्न एवं स्वावलम्बी थीं; फिर भी समाज सामान्य नारी को दृढ़ से दृढ़तर बन्धनों में जकड़ता ही चला गया। मध्यकाल में आकर शक्ति स्वरूपा नारी ‘अबला’ बनकर रह गयी। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

भक्ति काल में नारी जन-जीवन के लिए इतनी तिरस्कृत, क्षुद्र और उपेक्षित बन गयी थी कि कबीर, सूर, तुलसी जैसे महान कवियों ने उसकी संवेदना और सहानुभूति में दो शब्द तक नहीं कहे। कबीर ने नारी को ‘महाविकार’, ‘नागिन’ आदि कहकर उसकी घोर निन्दा की। तुलसी ने नारी को गँवार, शूद्र, पशु के समान ताड़न का अधिकारी कहा

‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’

आधुनिक नारी—आधुनिक काल के आते-आते नारी चेतना का भाव उत्कृष्ट रूप से जाग्रत हुआ। युग-युग की दासता से पीड़ित नारी के प्रति एक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा। बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तर भारत में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने नारी को पुरुषों के अनाचार की छाया से मुक्त करने को क्रान्ति का बिगुल बजाया। अनेक कवियों की वाणी भी इन दु:खी नारियों की सहानुभूति के लिए अवलोकनीय है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने तीव्र स्वर में नारी स्वतन्त्रता की माँग की–

“मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से, जननी, सखि, प्यारी को॥”

आधुनिक युग में नारी को विलासिनी और अनुचरी के स्थान पर देवी, माँ, सहचरी और प्रेयसी के गौरवपूर्ण पद प्राप्त हुए। नारियों ने सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक सभी क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य किया। विजयलक्ष्मी पण्डित, कमला नेहरू, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि के नाम विशेष सम्मानपूर्ण हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत ने नारियों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक प्रयत्न किये हैं। हिन्दू विवाह और कानून में सुधार करके उसने नारी और पुरुष को समान भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया। दहेज विरोधी कानून बनाकर उसने नारी की स्थिति में और भी सुधार कर दिया। लेकिन सामाजिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता ने उसे भोगवाद की ओर प्रेरित किया है।

आधुनिकता के मोह में पड़कर वह आज पतन की ओर जा रही है।

उपसंहार—इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से हमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी के विविध रूपों और स्थितियों का आभास मिल जाता है। वैदिक काल की नारी ने शौर्य, त्याग, समर्पण, विश्वास एवं शक्ति आदि का आदर्श प्रस्तुत किया। पूर्व मध्यकाल की नारी ने इन्हीं गुणों का अनुसरण कर अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखा। उत्तर-मध्यकाल में अवश्य नारी की स्थिति दयनीय रही, परन्तु आधुनिक काल में उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया है। उपनिषद, पुराण, स्मृति तथा सम्पूर्ण साहित्य में नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। वैदिक युग में शिव की कल्पना ही ‘अर्द्ध नारीश्वर’ रूप में की गयी। मनु ने प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श एवं महान रूप की व्यंजना की है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता…” अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों का पूजन होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ स्त्रियों का अनादर होता है, वहाँ नियोजित होने वाली क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। स्त्री अनेक कल्याण का भाजन है। वह पूजा के योग्य है। स्त्री घर की ज्योति है। स्त्री गृह की साक्षात् लक्ष्मी है। यद्यपि भोगवाद के आकर्षण में आधुनिक नारी पतन की ओर जा रही है, लेकिन भारत के जन-जीवन में यह परम्परा प्रतिष्ठित नहीं हो पायी है। आशा है भारतीय नारी का उत्थान भारतीय संस्कृति की परिधि में हो। वह पश्चिम की नारी का अनुकरण न करके अपनी मौलिकता का परिचय दे।

6. समाचार-पत्रों की उपयोगिता [2010, 14, 17]
अथवा
समाचार-पत्र समाज के सजग प्रहरी [2008]

“तुम जब दो आवाज, पहाड़ों की बोली मिट्टी बोले,
तुम जब छेड़ो तान, चाँदनी घट-घट में चन्दन घोले।”

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राचीनकाल में समाचार-पत्रों का रूप,
  3. समाचार पत्रों के भेद,
  4. समाचार-पत्रों की उपयोगिता,
  5. समाचार-पत्रों के अनियन्त्रित प्रकाशन से हानियाँ,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-आदि काल से ही मानव की जिज्ञासा रही है कि वह अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करे। विभिन्न स्थानों के क्रिया-कलापों से वह अवगत होता रहे। मस्तिष्क की भूख मिटाने के लिए मनुष्य के सम्मुख एक ही तरीका है.समाचार-पत्र। इनके माध्यम से देश-विदेशों के राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक दशा तथा परिवर्तन का हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह जनता जनार्दन की वाणी है, उसके हाथों का अमोघ अस्त्र है।

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प्राचीनकाल में समाचार-पत्रों का रूप—समाचार-पत्रों का समाज में समाचार लेकर उपस्थित होना कोई नवीन रूप नहीं है। प्राचीनकाल में भी समाचारों का आदान-प्रदान सन्देश-वाहकों से होता था, चाहे वे सन्देश-वाहक मानव हों, पशु हों या पक्षी। ये समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान तक व्यक्तिगत सन्देश के रूप में भेजे जाते थे। उन्हीं में समाज की स्थिति का भी कभी-कभी वर्णन कर दिया जाता था।

सर्वप्रथम समाचार-पत्र का जन्म इटली में हुआ था। इटली के वेनिस प्रान्त में एक स्थान से दूसरे स्थान तक विचारों के आदान-प्रदान के लिए समाचार-पत्रों का प्रयोग होने लगा। सत्रहवीं शताब्दी में ही इस परम्परा से प्रभावित होकर इंग्लैण्ड में भी समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार यह प्रक्रिया देश-देशान्तरों में वृद्धि को प्राप्त होने लगी।

भारतवर्ष में समाचार-पत्रों का प्रादुर्भाव मुगल काल में ही हो चुका था। “अखबारात ई-मुअल्ले” नामक समाचार-पत्र का उल्लेख हमें उस काल में मिलता है। हिन्दी में सबसे पहला अखबार कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। इस समाचार-पत्र का नाम था “उदन्त मार्तण्ड”। भारतीय समाज-सुधारकों ने समाचार-पत्रों के प्रकाशन को समाज के लिए एक आवश्यक अंग माना था। इस दिशा में राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि ने प्रशंसनीय कार्य किया।

समाचार-पत्रों के भेद-प्रत्येक प्रबन्धक या सम्पादक अपने समाचार-पत्रों को समयावधि के अनुसार प्रकाशित करता है। इस समयावधि में प्रकाशन के आधार पर ही समाचार-पत्रों के विभिन्न रूप हैं। उदाहरण के लिए-दैनिक (जो समाचार-पत्र प्रतिदिन प्रकाशित हो), साप्ताहिक (जो समाचार-पत्र सप्ताह में एक बार प्रकाशित हो), पाक्षिक (एक माह में दो बार प्रकाशित हो), मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक या षट्-मासिक और वार्षिक। यह विभाजन समय के आधार पर किया गया है। लेकिन विभिन्न विषयों के आधार पर इन्हीं समयावधि में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र हो सकते हैं। इनको स्थान विशेष के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है। क्षेत्र की दृष्टि से इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है—
(क) अन्तर्राष्ट्रीय,
(ख) राष्ट्रीय,
(ग) प्रादेशिक,
(घ) स्थानीय। विषय की दृष्टि से इनका और भी विभाजन किया जा सकता है

  1. राजनीतिक,
  2. आर्थिक,
  3. सामाजिक,
  4. धार्मिक,
  5. साहित्यिक,
  6. नैतिक,
  7. सांस्कृतिक,
  8. क्रीड़ा,
  9. मनोरंजन आदि।

इस प्रकार हम देखते हैं कि समाचार-पत्रों का एक विशाल क्षेत्र है।

समाचार-पत्रों की उपयोगिता-जैसा कि समाचार-पत्रों के वर्गीकरण में बताया जा चुका है, विविध विषयों पर समाचार-पत्रों का प्रकाशन होता है, इनमें समाज और समय की माँग के अनुसार ही प्रकाशन होते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को समाचार-पत्रों के माध्यम से उसकी अभिरुचि के अनुसार सामग्री प्राप्त हो जाती है। किसी भी बात की सम्पूर्ण जानकारी समाचार-पत्रों के माध्यम से ही प्राप्त हो पाती है। आज की स्थिति में समाचार-पत्रों की उपयोगिता और अधिक बढ़ती जा रही है। संसार की गतिविधियों का सम्यक् ज्ञान इनसे होता है। आज मानव इतना अधिक जाग्रत हो गया है कि उसकी उत्सुकता तभी शान्त होती है जब वह परिस्थितियों से अवगत हो जाता है।

समाचार-पत्रों के माध्यम से विभिन्न रोजगार सम्बन्धी समाचार भी प्राप्त होते हैं। व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से व्यापार सम्बन्धी ज्ञान भी हमको प्राप्त होता है। समाचार-पत्रों में मनोरंजन के लिए कुछ स्तम्भ भी निकलते हैं। मनोरंजन के साथ-साथ संसार में होने वाले खेल-कूदों के विस्तृत विवरण भी हमको समाचार-पत्रों से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से व्यक्ति के मनोरंजन का एक प्रमुख साधन समाचार-पत्र ही है। सामाजिक हित को ध्यान में रखकर प्रकाशित होने वाली बातों के लिए भी सर्वोत्तम साधन समाचार-पत्र ही है। यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा राष्ट्रीय चेतना को पैदा किया जा सकता है जिससे नवीन समाज का निर्माण होता है।

समाचार-पत्रों के द्वारा हम लोकतन्त्र में विभिन्न प्रकार के सुझाव, सम्मति तथा आलोचना से अपने राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा करते हैं। इससे जनता को जागरूक एवं योग्य बनाया जा सकता है। समाज में व्याप्त कुरीतियों, भ्रष्टाचार और अन्याय की अपील, सरकार से कर सकते हैं। समाचार-पत्रों के माध्यम से इनका पर्दाफाश कर सकते हैं।

समाचार-पत्र मनुष्य के सर्वांगीण विकास का एक माध्यम है। इनसे जो विचार हम ग्रहण करते हैं उनसे चिन्तन शक्ति की वृद्धि होती है। श्रमिकों और श्रमजीवियों के लिए यह रोजी-रोटी का एक साधन भी है।

समाचार-पत्रों के अनियन्त्रित प्रकाशन से हानियाँ समाचार-पत्रों से जहाँ इतने लाभ हैं वहाँ हानियाँ भी हैं। जब प्रकाशन पर नियन्त्रण कम हो जाता है तो कुछ राजनीतिक पत्र सनसनी पैदा करने के लिए कुछ छोटे और हल्के समाचारों को अधिक महत्त्व देते हैं जिससे समाज पर कुप्रभाव पड़ता है। समाचार-पत्र आकर्षण की दृष्टि से अश्लील चित्र प्रकाशित करते हैं। इससे पाठकों के विचार दूषित होते हैं। असत्य और भ्रामक विचारों को प्रकाशित करने से भी समाज, राज्य और राष्ट्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे विचार राष्ट्रोन्नति में बाधक होते।

उपसंहार-समाचार प्रकाशन पर उचित नियन्त्रण होना चाहिए। अश्लील एवं सस्ते साहित्य और उसके प्रकाशन पर पूर्ण पाबन्दी होनी चाहिए। समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता केवल राष्ट्र-हित, समाज-हित और मानव-कल्याण के समाचार प्रकाशन में होनी चाहिए क्योंकि ये राष्ट्र के लिए अपरिहार्य रूप सृजन-शक्ति है। आशा है कि समाचार-पत्र एक शान्त, समृद्ध एवं सुखी दुनिया के निर्माण में अपनी पावन भूमिका का निर्वाह करेंगे।

किसी शायर के शब्दों में,

“खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।”

7. अनुशासन का महत्त्व [2008]
अथवा
विद्यार्थी और अनुशासन [2009, 15, 17]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. अनुशासन की आवश्यकता,
  3. अनुशासन के लाभ,
  4. छात्रानुशासन,
  5. उपसंहार।

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प्रस्तावना-अनुशासन शब्द अनु + शासन के योग से बना है। शासन का अर्थ है नियम, आज्ञा तथा अनु का अर्थ है पीछे चलना, पालन करना। इस प्रकार अनुशासन का अर्थ शासन का अनुसरण करना है। किन्तु इसे परतन्त्रता मान लेना नितान्त अनुचित है। विकास के लिए तो नियमों का पालन आवश्यक है। युवक की सुख शान्तिमय प्रगतिशीलता का संसार छात्रावस्था पर अवलम्बित है। अनुशासन आत्मानुशासन का ही एक अंग है।

अनुशासन की आवश्यकता—जीवन की सफलता का मूलाधार अनुशासन है। समस्त प्रकृति अनुशासन में बँधकर गतिवान रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, सागर, नदी, झरने, गर्मी, सर्दी, वर्षा एवं वनस्पतियाँ आदि सभी अनुशासित हैं।

अनुशासन सरकार, समाज तथा व्यक्ति तीन स्तरों पर होता है। सरकार के नियमों का पालन करने के लिए पुलिस, न्याय, दण्ड, पुरस्कार आदि की व्यवस्था रहती है। ये सभी शासकीय नियमों में बँधकर कार्य करते हैं। सभी बुद्धिमान व्यक्ति उन नियमों पर चलते हैं तथा जो उन नियमों का पालन नहीं करते हैं, वे दण्ड के भागी होते हैं।

सामाजिक व्यवस्था हेतु धर्म, समाज आदि द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करने वाले व्यक्ति सभ्य, सुशील तथा विनम्र होते हैं। जो लोग अनुशासनहीन होते हैं, वे असभ्य एवं उद्दण्ड की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं तथा दण्ड के भागी होते हैं। अनुशासन न मानने वाले व्यक्ति को समाज में हीन तथा बुरा माना जाता है। व्यक्ति स्वयं अनुशासित रहे तो उसका जीवन स्वस्थ, स्वच्छ तथा सामर्थ्यवान बनता है। वह स्वयं तो प्रसन्न रहता है, दूसरों को भी अपने अनुशासित होने के कारण प्रसन्न रखता है।

ऋषि-महर्षि अध्ययन के बाद अपने शिष्यों को विदा करते समय अनुशासित रहने पर बल देते थे। वे जानते थे कि अनुशासित व्यक्ति ही किसी उत्तरदायित्व को वहन कर सकता है। अनुशासित जीवन व्यतीत करना वस्तुत: दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाना है। समाज ने जो नियम बनाये हैं वे वर्षों के अनुभव के बाद सुनिश्चित किये गये हैं। भारतीय मुनियों ने अनुशासन को अपरिहार्य माना, ताकि व्यक्ति का समुचित विकास हो सके। आदेश देने वाला व्यक्ति प्रायः आज्ञा दिये गये व्यक्ति का हित चाहता है। अतएव अनुशासन में रहना तथा अनुशासन को अपने आचरण में ढाल लेना आवश्यक है।

अनुशासन से लाभ–अनुशासन के असीमित लाभ हैं। प्रत्येक स्तर की व्यवस्था के लिए अनुशासन आवश्यक है। राणा प्रताप, शिवाजी, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी आदि ने इसी के बल पर सफलता प्राप्त की। इसके बिना बहुत हानि होती है। सन् 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता का कारण अनुशासनहीनता थी। 31 मई को सम्पूर्ण उत्तर भारत में विद्रोह करने का निश्चय था, लेकिन मेरठ की सेनाओं ने 10 मई को ही विद्रोह कर दिया, जिससे अनुशासन भंग हो गया। इसका परिणाम सारे देश को भोगना पड़ा। सब जगह एक साथ विद्रोह न होने के कारण फिरंगियों ने विद्रोह को कुचल दिया।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने शान्तिपूर्वक विशाल अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नींव हिला दी थी। उसका एकमात्र कारण अनुशासन की भावना थी। महात्मा गांधी की आवाज पर सम्पूर्ण देश सत्याग्रह के लिए चल देता था। अनेकानेक कष्टों को भोगते हुए भी देशवासियों ने सत्य और अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा। पहली बार जब कुछ सत्याग्रहियों ने पुलिस के साथ मारपीट तथा दंगा कर डाला तो महात्माजी ने तुरन्त सत्याग्रह बन्द करने की आज्ञा देते हुए कहा कि “अभी देश सत्याग्रह के योग्य नहीं है। लोगों में अनुशासन की कमी है।” उन्होंने तब तक पुनः सत्याग्रह प्रारम्भ नहीं किया, जब तक उन्हें लोगों के अनुशासन के बारे में विश्वास नहीं हो गया। अतएव अनुशासन द्वारा लोगों में विश्वास की भावना पैदा की जाती है। अनुशासन विश्वास का एक महामंत्र है।

सेना की सफलता का आधार अनुशासन होता है। सेना और भीड़ में अन्तर ही यह है कि भीड़ में कोई अनुशासन नहीं होता जबकि सेना अनुशासित होती है। नेपोलियन, समुद्रगुप्त तथा सिकन्दर आदि महान कहे जाने वाले सेनानायकों ने जो विजय पर विजय प्राप्त की, उनके मूल में उनकी सेनाओं का अनुशासित होना ही था।

यातायात, अध्ययन, वार्तालाप आदि में भी अनुशासन आवश्यक है। रेल ड्राइवर सिगनल होने पर ही गाड़ी आगे बढ़ाता है। अनुशासन के द्वारा ही एक अध्यापक पचास-साठ छात्रों की कक्षा को अकेले पढ़ाता है। राष्ट्रपति से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक सारी शासन-व्यवस्था अनुशासन से ही संचालित रहती है। शरीर में किंचित अव्यवस्था होते ही रोग लग जाता है।

छात्रानुशासन–अनुशासन विद्यार्थी जीवन का तो अपरिहार्य अंग है। चूँकि विद्यार्थी देश के भावी कर्णधार होते हैं, देश का भविष्य उन्हीं पर अवलम्बित होता है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे स्वयं अनुशासित, नियन्त्रित तथा कर्त्तव्यपरायण होकर देश की जनता को मार्गदर्शन करें, उसे अन्धकार के गर्त से निकालकर प्रकाश की ओर ले जायें। अत: उनके लिए अनुशासित होना आवश्यक है।

अनुशासन के सन्दर्भ में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन प्रेरणादायी है। अनुशासन में रहने के कारण ही राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने के अधिकारी हुए। अनुशासन के अधीन वे राजतिलक त्यागकर वनवासी बन जाते हैं तथा अपनी पत्नी का परित्याग कर प्रजा की आज्ञा का पालन करते हैं। इस सबका कारण है उनका अनुशासित जीवन।

उपसंहार-निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जीवन में महान् बनने के लिए अनुशासन आवश्यक है। बिना अनुशासन के कुछ भी कर पाना असम्भव है। अनुशासन से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा समाज को शुभ दिशा मिलती है। वस्तुतः अनुशासित जीवन ही जीवन है। अनुशासित जीवन के अभाव में हमारी जिन्दगी दिशाहीन एवं निरर्थक हो जायेगी।

8. राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका [2011]
अथवा
राष्ट्रहित में विद्यार्थियों का योगदान रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. युवकों की स्थिति,
  3. राष्ट्र निर्माण में अपेक्षाएँ,
  4. युवाशक्ति का योगदान,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना मानव जीवन की स्वर्णिम अवस्था युवा शक्ति का सागर होती है। इसमें मनुष्य का तन तथा मन उल्लास, आवेग तथा ऊर्जा से भरा रहता है। ज्ञानार्जन की भी यही अवस्था होती है। विद्या मानव के विविध स्रोतों को संचालित करती है। उसमें सोचने-समझने तथा निर्णय लेने की क्षमता आती है। विद्या अध्ययन करने वाले विद्यार्थी का जीवन तथा जगत आदि सम्बन्धी चिन्तन स्पष्ट तथा सम्यक होता है। प्रत्येक देश में अभाव, असमानताएँ, गरीबी, सामाजिक अन्याय, साम्प्रदायिकता आदि सम्बन्धी समस्याएँ होती ही हैं। उन समस्याओं से मुक्ति प्राप्त किए बिना कोई देश प्रगति नहीं कर सकता है। इन सभी प्रकार की समस्याओं के सन्दर्भ में ही विद्यार्थी का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। छात्र जगत प्रतिपल अपने कर्म में रत है।

“कर्म-रत जग, हर दिशा से, कर्म की आवाज आती।
काल की गति एक क्षण, को भी नहीं विश्राम पाती।”

युवकों की स्थिति आज का युवा कल का नागरिक होगा तथा समस्त देश का भार उसके कन्धों पर होगा। अत: आज का बालक जितना प्रबुद्ध, कुशल, सूक्ष्मदर्शी तथा प्रतिभा सम्पन्न होगा, उतना ही देश का भविष्य उज्ज्वल होगा। बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा सर्वाधिक उत्तरदायी होती है। यही कारण है कि मनुष्य के जीवन की आधारशिला विद्यार्थी जीवन होता है। जो इस समय जितना सजग, कार्यशील तथा अध्यवसायी बना रहेगा उतना ही वह देश का उपकार करने में समर्थ होगा।

राष्ट्र निर्माण में अपेक्षाएँ-स्वतन्त्र भारत के बहुमुखी विकास के लिए युवाओं (विद्यार्थी) से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज का प्रबुद्ध प्राणी होने के कारण समाज को उचित दिशा-निर्देश करे, जिससे जो गुमराह, भटका हुआ तथा दिशाहीन समाज है वह सन्मार्ग पर आ सके। वर्षों की गुलामी के वातावरण में विकसित होने वाला समाज स्वतन्त्रता की विविध अनुभूतियों से शून्य है। उसको समझाकर उसे स्वच्छन्द रूप से अपने जीवन के विकास की ओर उन्मुख करने में विद्यार्थी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। बन्धनों की जकड़न के कारण भारतीय समाज के अनेक विकास द्वार बन्द हो गये थे, आज वे सभी मुक्त हैं, उनका ज्ञान कराना आवश्यक है।

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युवा शक्ति का योगदान—युवाशक्ति में असीमित ऊर्जा होती है। युवा राष्ट्र निर्माण का गुरुतर कार्य आसानी से कर सकता है। विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य होता है कि अपनी शिक्षा को सभी प्रकार से सुविकसित करना, किन्तु आधुनिक सन्दर्भो में उसका रूप परिवर्तित हो गया है आज का विद्यार्थी प्राचीनकाल के विद्यार्थी के समान आश्रमों में रहकर सादा जीवन-यापन करते हुए ऋषि-मुनियों के निर्देशन में शिक्षा प्राप्त नहीं करता है। उसे गृहस्थ में साथ रहकर समस्त घटनाओं से परिचित रहते हुए अपना अध्ययन करना पड़ता है। अत: विद्यार्थी का कर्तव्य और अधिक कठोर हो जाता है कि वह समाज की सभी स्थितियों में भी एकाग्र रहकर अपनी शिक्षा को नियमित रूप से चालू रखे।

आज के युग में तीव्र गतिशीलता है। विश्व में तेज प्रतियोगिता चल रही है। उसमें स्वयं को सम्मिलित करने के लिए यह आवश्यक है कि आज का युवा विद्यार्थी सामाजिक क्रियाकलापों के प्रति सजग रहे। अध्ययन के अतिरिक्त विद्यार्थी को संसार की अन्यत्र बातों की ओर भी सजग रहना आवश्यक है। वर्तमान युग में भौतिक तुष्टियों का पूरक विज्ञान है। जितनी प्रगति विज्ञान में हो जायेगी उतना ही वह राष्ट्र महान हो जायेगा। अत: आज के विद्यार्थी तथा भावी वैज्ञानिक के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अनुसंधान रत हो। चिकित्सा, तकनीकी, आण्विक, सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर, कृषि, उद्योग आदि सम्बन्धी प्रगति के लिए शोध आवश्यक है। ये सभी कार्य चरित्र निर्माण करते हुए कर्त्तव्यनिष्ठ होकर ही किए जा सकते हैं।

राष्ट्र के हित के लिए समाज, परिवार, व्यक्ति सभी का हित ध्यान में रखना है। अपना घर बनाकर ही राष्ट्र के निर्माण की दिशा में बढ़ा जा सकता है। स्वार्थ से ऊपर उठकर कल्याणकारी योजनाओं में सक्रिय होकर ही युवाशक्ति राष्ट्र की नींव मजबूत कर सकती है।

उपसंहार-वर्तमान में युवाशक्ति (विद्यार्थी) को अनुशासित रहकर संसार पर दृष्टि रखते हुए देश के विकास की गति को बढ़ाना है। स्वार्थहीनता, लोलुपता त्यागकर अपने दायित्व को समझकर अपनी ऊर्जा का प्रयोग रचनात्मक कार्यों में करना है। शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर युवा वर्ग राष्ट्र के हित में अपने जीवन को अर्पित करने का संकल्प लेंगे तभी राष्ट्र का तथा स्वयं उनका मंगलकारी भविष्य हो सकेगा।

9. महँगाई की समस्या
[2015]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. मूल्य वृद्धि के कारण-कृषि उत्पादन, प्रशासन की उदासीनता, आयात नीति, जनसंख्या में वृद्धि, घाटे का बजट, अव्यवस्थित वितरण प्रणाली,
  3. समस्या का निदान,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-भारत में इस समय जो आर्थिक समस्याएँ विद्यमान हैं, उनमें महँगाई एक प्रमुख समस्या है। भारत में पिछले दो दशकों में सभी वस्तुओं और सेवाओं में मूल्यों में अत्यन्त तीव्रता से वृद्धि हुई है। वृद्धि का यह चक्र आज भी गतिवान है।

मूल्य वृद्धि के कारण-भारत में अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में से प्रमुख रूप से उल्लेखनीय कारण निम्नलिखित हैं

(1) कृषि उत्पादन-कृषि पदार्थों की कीमतों में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण उन समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि है जो कृषि के लिए आवश्यक हैं। कृषि उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि, सिंचाई की दरों में वृद्धि, बीज के दामों में वृद्धि, कृषि मजदूरों की मजदूरी की दर में वृद्धि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से ही उसका प्रभाव कृषि-पदार्थों पर पड़ता है।

(2) प्रशासन की उदासीनता-साधारणतः प्रशासन के स्वरूप पर यह निर्भर करता है कि देश में अर्थव्यवस्था एवं मूल्य-स्तर सन्तुलित होगा या नहीं। प्रभावशाली प्रशासक होने से कृत्रिम रूप से वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में कमी करना व्यापारियों के लिए कठिन हो जाता है।

(3) आयात नीति-कभी-कभी आयात सम्बन्धी गलत नीति के कारण वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है। यह सही है कि देश में जहाँ तक सम्भव हो, आयात कम होना चाहिए-विशेष रूप में उपभोग की वस्तुओं का आयात अधिक नहीं होना चाहिए।

(4) जनसंख्या में वृद्धि-भारत में जनसंख्या तीव्रता से एवं अनियन्त्रित रूप में बढ़ रही है। जनसंख्या के इस विशाल आकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी वस्तुओं और सेवाओं का बड़े आकार में होना अनिवार्य है। दुर्भाग्य से भारत में आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कमी है, इसी के परिणामस्वरूप अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि जारी है।

(5) घाटे का बजट-भारत में बजट और पूँजी-निर्माण की जो स्थिति है वह योजनाओं को पूरा करने के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं है। अतः इस कमी को दूर करने के लिए, अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को अपनाया जाने लगा है, जिससे अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में तेजी से वृद्धि हुई है।

(6) अव्यवस्थित वितरण प्रणाली- भारत में अधिकतर विक्रेता संगठित हैं। इसके परिणामस्वरूप वह आपस में मिलकर वस्तुओं की खरीद, संचय एवं बिक्री के विषय में नीति का निश्चय करते हैं। धीरे-धीरे वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होने लगती है। यदि सरकार इन प्रवृत्तियों को रोकने में असमर्थ होती है तो यह संस्थाएँ मूल्यों को निरन्तर बढ़ाती जाती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

समस्या का निदान-

  1. कृषि पर अधिक ध्यान देना,
  2. सिंचाई की सुविधा,
  3. वितरण प्रणाली में बदलाव,
  4. भ्रष्टाचार पर अंकुश।

उपसंहार-कृत्रिम अभाव के सजन एवं मल्यों में निरन्तर वद्धि से कालाबाजारी एवं अत्यधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती है। भारत में भी यह प्रवृत्ति अभी तक विद्यमान है। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ देश की अर्थव्यवस्था को अवांछित रूप से प्रभावित करती हैं और मूल्य वृद्धि को बढ़ावा देती हैं। सरकार को इन पर प्रभावी रोक हेतु आवश्यक कदम अविलम्ब उठाने चाहिए।

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10. जीवन में खेलों का महत्त्व
[2008, 09, 15]

“मन को सदा प्रसन्न करे जो तन को स्वस्थ बनाए।
खेलों का महत्त्व जीवन में वर्णन किया न जाए॥”

रूपरेखा [2016]

  1. प्रस्तावना,
  2. आवश्यकता,
  3. खेलों का महत्त्व,
  4. आर्थिक लाभ,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-खेल का सम्बन्ध मानव के साथ जन्मजात होता है। बच्चा जन्म लेते ही हाथ-पैर फेंकने लगता है। उस समय उसके हाथ-पैर फेंकने की प्रक्रिया का सम्बन्ध भी खेल से ही होता है। इसके बाद बड़ा होकर वह स्वयं ही खेल में रुचि लेने लगता है। यह प्रकृति प्रदत्त है। जो बच्चे खेल में रुचि लेते हैं वह स्वस्थ, हँसमुख व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्साहित से रहते हुए सफलता प्राप्त करते जाते हैं। किन्तु जो बच्चे खेल में रुचि नहीं लेते वह निरुत्साहित व सुस्त नजर आते हैं।

आवश्यकता किसी भी देश की वास्तविक सम्पदा वहाँ के स्वस्थ नागरिक होते हैं और किसी भी देश की उन्नति वहाँ के स्वस्थ नागरिकों पर निर्भर होती है। खेल हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। खेलों के माध्यम से हमें अन्य लोगों से मिलने-जुलने के व उनके साथ रहने के अवसर प्राप्त होते हैं और दूसरे देशों में जाने का व दूसरे देशों की सभ्यता व संस्कृति का ज्ञान होता है। उनकी उन्नतिशील संस्कृति अपनाकर हम अपने जीवन व उसके साथ जुड़े देश की उन्नति भी कर सकते हैं। खेल हमारे जीवन की उदासीनता को दूर कर जीवन में आशा की ज्योति जलाते हैं।

खेलों का महत्त्व-खेलों के माध्यम से अपने जीवन के उन्नत लक्ष्यों की प्राप्ति कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। जिस तरह अभी चीन में हुए ओलम्पिक में अभिनव बिन्द्रा ने 10 मीटर रायफल में गोल्ड मैडल जीतकर व बॉक्सिंग में विजेन्दर व कुश्ती में सुशील कुमार ने कांस्य पदक जीतकर विश्व में अपना परिचय स्वयं ही दिया, उन्हें किसी के द्वारा परिचय देने की आवश्यकता नहीं। कल तक हमारे देश के अनजान बच्चों ने पूरे विश्व में अपने देश को खेलों में अपने प्रदर्शन द्वारा गौरवान्वित किया है।

आज खेलों का महत्त्व इसी बात से दिखता है कि प्रत्येक देश में खेलों से सम्बन्धित अलग मन्त्रालय होता है जिसका कार्य अपने देश में खेलों का विकास करना और उनसे सम्बन्धित समस्याओं को दूर करना है। इन्हीं खेलों के महत्त्व को देखते हुए हम अपने बच्चों को यह नहीं पढ़ा सकते कि

“पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब
खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब।”

इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों के विद्यालयों में प्रवेश के साथ ही उनकी रुचि के अनुसार विद्यार्थियों को विशेष प्रशिक्षण देकर उन्हें प्रशिक्षित करने की सुविधा दें क्योंकि आज विश्व के समस्त देशों की सरकारें भी अपने राज्य कर्मचारियों के लिए हर विभाग में खिलाड़ियों के लिए कोटा निर्धारित करती हैं। हमारे देश में भी अर्जुन पुरस्कार खेलों में प्रवीण व्यक्तियों को नौकरियों में आरक्षण दिया जाता है। आज हर विद्यालय व कॉलेजों में इन प्रतियोगिताओं का आयोजन पहले जिला स्तरीय, फिर राज्य स्तरीय, फिर देश स्तरीय व विश्वस्तरीय होता है जिसमें भाग लेकर नागरिक अपना व अपने देश का नाम गौरवान्वित करते हैं।

आर्थिक लाभ-आज के युग में खेलों के साथ आर्थिक पहलू भी जुड़ गया है। कई बड़े-बड़े उद्योगपति भी अपनी प्रसिद्धि के लिए खेलों व खेल प्रतियोगिताओं का सहारा लेते हैं। किन्तु खेल में भाग लेने वाले खिलाड़ी अपने परिचय के लिए किसी के भी मोहताज नहीं हैं। आज सचिन तेन्दुलकर, अभिनव बिन्द्रा, गीत सेठी ने अपनी पहचान अथवा परिचय अपनी-अपनी रुचि के खेलों में प्रशिक्षण प्राप्त कर चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर दिया और इन खिलाड़ियों को कोई भी विश्वस्तरीय कम्पनी अपना ब्राण्ड एम्बेसडर मुँहमाँगी कीमत पर बनाने को तैयार है।

उपसंहार-आज सामान्य नागरिक को किसी दूसरे देश में प्रवेश के लिए अनेक औपचारिकताओं; जैसे—बीजा, परमिट आदि से गुजरना पड़ता है जिसके लिए उन्हें अपना काफी समय व धन लगाना पड़ता है किन्तु किसी भी प्रशिक्षित खिलाड़ी को उनकी अपनी सरकार वी. आई. पी. कोटे द्वारा खेल प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिए स्वयं ही प्रबन्ध करती है। इस तरह आज चीन जैसे देश जिसे विश्व के निम्न स्तरीय देशों में गिना जाता था किन्तु बीजिंग में ओलम्पिक 2008 होने से विश्व के समस्त देशों की ईर्ष्या का कारण बन गया है। अतः आज आवश्यक है कि खेलों के महत्त्व को जानते हुए उनके प्रशिक्षण की विशेष सुविधा का प्रबन्ध किया जाए।

11. जल और जंगल का संरक्षण [2008, 12]
अथवा
वन संरक्षण का महत्त्व [2013]

“जल का संरक्षण वन करते
जल से हरा भरा वन हो।
जल जंगल को संरक्षित कर
जीवन सुखमय सुन्दर हो।”

जल-आधुनिक समय में मनुष्य के लिए जल का होना अत्यावश्यक हो गया है। हम इस बात को मानते हैं कि प्रत्येक युग में जल की आवश्यकता मनुष्य को रही है परन्तु आज के समय में जल की कमी को देखकर ऐसा महसूस होता है कि पानी के बिना मनुष्य का जीवन असम्भव सा है। आज के राजस्थान वाले शहरों में ही नहीं बल्कि चाहे किसी भी शहर में पानी की कमी दिखाई देती है और इसीलिए आज यह आवश्यक हो गया है कि हमें एक-एक पैसे की तरह पानी की एक-एक बूंद का संरक्षण करना चाहिए। पानी को व्यर्थ में बहते रहने देना नहीं चाहिए। अगर हम जल का संरक्षण या संग्रह नहीं करेंगे तो हमें हमारे शरीर के लिए पर्याप्त मात्रा में जल की प्राप्ति नहीं हो सकेगी और जब हमारे शरीर को पूरी मात्रा में जल नहीं मिलेगा तो हमारा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जायेगा क्योंकि हमारे शरीर में जल की मात्रा अधिक पहुँचनी चाहिए तभी हमारा शरीर स्वस्थ रह सकेगा इसीलिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जल का संरक्षण करना होगा। कहा भी गया है

“जल से जीवन, जीवन जल से, जल जीवन का दाता है।
जल संरक्षण कर ले मानव, यही भविष्य निर्माता है।”

जंगल का संरक्षण-वृक्ष मनुष्य के सबसे अधिक विश्वस्त मित्र होते हैं और यदि हम अपने देश को सँवारना और सुधारना चाहते हैं तो हमें वृक्षों का विशेष ध्यान रखना होगा। जंगलों से हमें अनेक प्रकार की आयुर्वेदिक दवा बनाने के लिए जड़ी-बूटियाँ प्राप्त होती हैं जो हम सभी को अनेक भयंकर रोगों से बचाने में सहायक होती हैं। अत: इन सभी उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए हमें जंगलों को सुरक्षित रखना होगा और ये जंगल तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब उनको पानी उनकी आवश्यकता के अनुसार मिलेगा। लेकिन यदि उन्हें जल उनकी मात्रा के अनुरूप नहीं मिलेगा तो जंगलों में सारे वृक्ष सूख जायेंगे।

जंगल तो एक ऐसा भण्डार या गोदाम होता है जहाँ से हमें भोजन बनाने के लिए ईंधन प्राप्त होता है तथा जंगलों में उगने वाले वृक्ष हमारे जीवन का एक मुख्य अंग होते हैं। इनके द्वारा ही हम अपने जीवन में साँस ले सकते हैं क्योंकि ये वृक्ष अपने अन्दर कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और हमारे लिए ऑक्सीजन निकालते हैं जिसके द्वारा हम साँस लेते हैं। अत: जल की तरह ही जंगल भी सुरक्षित रखना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक होता है।

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जंगलों द्वारा ही अनेक बेरोजगारों को रोजगार मिलते हैं क्योंकि जंगलों से प्राप्त वस्तुओं का उपयोग करके हमारे भारत में अनेक लघु तथा कुटीर उद्योगों की स्थापना की जाती है। ऐसा अनुमान है कि भारत के लगभग 80 करोड़ व्यक्तियों की जीविका जंगलों पर ही आश्रित है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और कृषि कार्य को सम्पन्न करने के लिए स्वस्थ पशुओं की आवश्यकता होती है और स्वस्थ पशु तब ही हो पाते हैं जब उनको हरा चारा पेट भर कर मिले और यह चारा उन्हें जंगलों से ही प्राप्त होता है। अतः अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन और जीविका जल का और जंगल का संरक्षण करके ही सुरक्षित रह सकती है। कहा भी गया है

“यदि वृक्ष हैं तो जीवन है, जीवन है तो इन्सान है।
आने वाले जीवन की वृक्षों से ही पहचान है।”

12. विज्ञान एवं मानव [2017]
अथवा
विज्ञान के बढ़ते चरण [2011]
अथवा
विज्ञान आज के युग में [2015]

“बाहु में वरदान भर निर्माण के,
लोचनों में खण्ड शत दिनमान के॥”

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. संचार के क्षेत्र में,
  3. चिकित्सा के क्षेत्र में,
  4. मनोरंजन के क्षेत्र में,
  5. विज्ञान की अन्य देन,
  6. कृषि के क्षेत्र में,
  7. विज्ञान वरदान के रूप में,
  8. विज्ञान अभिशाप के रूप में,
  9. उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विज्ञान का युग है, विज्ञान आज मानव जीवन का पर्याय बन गया है। आधुनिक युग में विज्ञान विहीन मानव की कल्पना संजोना व्यर्थ है। विज्ञान, हमारी समस्त दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति का अमोघ साधन बन गया है। विज्ञान जीवन का आधार है, सुख का स्रोत है। आज विज्ञान दुनिया पर पूर्णरूपेण छाया हुआ है।

संचार के क्षेत्र में विज्ञान ने संचार क्षेत्र में नये आयाम स्थापित किये हैं। रेडियो से दूर की खबरें सुनी जा सकती हैं। टेलीविजन से दूर बैठे अपने सम्बन्धी का चित्र देखिए, टेलीफोन से बातचीत कर लीजिए, सेल्यूलर फोन भी संचार के क्षेत्र में महान उपलब्धि है। इससे संसार की समस्त दूरियाँ सिमटी हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में एक्स-रे के माध्यम से शरीर के आन्तरिक भागों का भली प्रकार निरीक्षण किया जा सकता है। रोगों के निवारण के लिए अनेक प्रकार के टीकों का भी आविष्कार हुआ है। आविष्कृत औषधियों ने काल की छाती पर करारा चूसा मारा है।

मनोरंजन के क्षेत्र में रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन एवं टेपरिकॉर्डर आज मनोरंजन की वस्तुएँ विज्ञान ने मानव को प्रदान की हैं। इनके माध्यम से इन्सान की जिन्दगी में नयी आशा की किरणें जगी हैं।

विज्ञान की अन्य देन—बिजली का पंखा, गैस का चूल्हा एवं रेफ्रीजरेटर दैनिक उपयोग की वस्तुएँ विज्ञान की देन हैं। विशाल मशीनों के माध्यम से उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई है।

कृषि के क्षेत्र में ट्रेक्टर, थ्रेसर एवं बुलडोजर कृषि के क्षेत्र में विज्ञान की अद्भुत देन है। नई-नई खादें एवं वैज्ञानिक मशीनों से पैदावार में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई है।

विज्ञान वरदान के रूप में आज विज्ञान ने मनुष्य को तर्क एवं बुद्धि के सन्दर्भ में नवीन दृष्टि प्रदान की है। टेपरिकॉर्डर, टी. वी. आदि ने मनुष्य को ज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया है। मानव की जीवन-शैली में अत्यधिक परिवर्तन आया है। मानव की सुख-सुविधा में विज्ञान ने महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है। मनुष्य को सभ्य एवं उदार दृष्टिकोण वाला बनाया है।

विज्ञान अभिशाप के रूप में विज्ञान द्वारा निर्मित भयंकर अस्त्र-शस्त्र मनुष्य के लिए प्राणघातक प्रमाणित हो रहे हैं। प्रक्षेपास्त्रों, रॉकेटों, विनाशकारी बमों के आक्रमण मानव की जीवन लीला को समाप्त कर रहे हैं। इन्सानियत की भावनाएँ अन्तिम साँसें ले रही हैं। सारी दुनिया भयंकर विनाश लीला के विषय में सोचकर गहरे अवसाद में निमग्न हो जाती है।

उपसंहार-विज्ञान में जहाँ अभिशापों की काली छाया मँडरा रही है वहीं बसन्त की सुषमा की कलित क्रीड़ा भी अवलोकनीय है। यह मनुष्य की बुद्धि पर निर्भर है कि वह विज्ञान का प्रयोग मानव कल्याण के लिए करता है अथवा विनाश के लिए। भगवान मानव को ऐसी सद्बुद्धि प्रदान करें जिससे वह वैज्ञानिक आविष्कारों का मानव के कल्याण के लिए प्रयोग करे। इसी में मानव के सुनहरे भविष्य का रहस्य निहित है। जब मानव विज्ञान का मानव कल्याण के लिए प्रयोग करेगा तभी वसुधा के कण-कण से शान्ति, मानवता तथा बन्धुत्व के स्वर ध्वनित होंगे।

13. राष्ट्रीय एकता [2009, 12, 14]
अथवा
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता [2008, 09]

“भारत सबसे बड़ा रहेगा,
सबसे ऊँची लिए पताका,
सदा हिमालय खड़ा रहेगा।”

रूपरेखा [2015]-

  1. प्रस्तावना,
  2. राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्व,
  3. जातिवाद,
  4. विभिन्न भाषाएँ,
  5. प्रान्तीयता की भावना,
  6. संकुचित राजनैतिक दृष्टिकोण,
  7. राष्ट्रीय एकता के तत्त्व,
  8. समस्या का निराकरण,
  9. उपसंहार।

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प्रस्तावना—हमारे भारत देश में विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय एवं बहुभाषी मनुष्य निवास करते हैं। सदियाँ बीत गयीं, इस वृहद् देश में सभी जाति एवं धर्म के लोग प्रेम, सद्भावना एवं भाई-चारे के सूत्र में बँधकर जीवनयापन करते चले आ रहे हैं। अंग्रेजों की कूटनीति के फलस्वरूप भारत माता के दो टुकड़े हो गये। इसके पश्चात् साम्प्रदायिक दंगों का जहरीला नाग अपना फन फहराने लगा, जो आज तक सक्रिय है।

राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्व-जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद, सम्प्रदायवाद आदि राष्ट्रीय एकता में बाधा डालने वाले तत्त्व हैं।

जातिवाद-जातिवाद भारत की एकता के तारों को छिन्न-भिन्न कर रहा है। जातिवाद के फलस्वरूप घृणा, बैर तथा ऊँच-नीच की भावना पनपी है।

विभिन्न भाषाएँ-भारतवर्ष में अनेक भाषाएँ प्रयोग की जाती हैं। भाषावाद को माध्यम बनाकर संघर्षों का भी आविर्भाव हो रहा है, जो देश के लिए घातक है।

प्रान्तीयता की भावना दूषित क्षेत्रीय राजनीति के फलस्वरूप हमारी राष्ट्रीय एकता पर विनाशकारी बादल मँडरा रहे हैं। झारखण्ड, बंगाल, खालिस्तान क्षेत्रवाद की अनुदार एवं क्षुद्र प्रान्तीयता की भावना के शिकार हैं। इसके दुष्परिणाम राष्ट्र अनेक बार देख चुका है। भविष्य पर भी काली छाया मँडरा रही है।

संकुचित राजनैतिक दृष्टिकोण-वोट प्राप्त करने के लिए राजनैतिक दल हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम एवं पिछड़ा वर्ग के मध्य भेदभाव की दीवार खड़ी कर देते हैं। जिस क्षेत्र में जिस जाति का बाहुल्य होता है उसी जाति के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए खड़ा किया जाता है। इस प्रकार स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष उम्मीदवार का चुनाव में विजय प्राप्त करना बहुत ही कठिन है।

राष्ट्रीय एकता के तत्त्व हमारे राष्ट्र में विभिन्न जातियों में पैदा हुए आदर्श पुरुषों की उपासना की जाती है। ईद, दीपावली, मोहर्रम आदि त्यौहारों को सभी धर्मावलम्बी साथ-साथ मनाते हैं। मेलों में सभी धर्मों को मानने वाले उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। यह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है।

समस्या का निराकरण-सबसे प्रथम जातिवाद की संकुचित भावना को समाप्त करना होगा। धर्म एवं जाति के आधार पर भेद-भाव करना एक संगीन अपराध मानना होगा। छुआछूत की भावना को भी समाप्त करना होगा। अनुदार एवं संकुचित सम्प्रदायवाद को भी एक विषैला नाग समझकर उसके फन को इस तरह कुचलना होगा ताकि उसका विष राष्ट्र के शरीर को अपने जहर से विषाक्त न बना सके।

उपसंहार—हमारे भारत देश में अनेकता में एकता के स्वर गुंजित हैं। गीता, रामायण, वेद एवं पुराण हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता के आधार स्तम्भ हैं। एक सम्प्रभु एवं अखण्ड भारत की कल्पना देश की धरती पर युग-युगों से जीवित है। एकता की भावना आज भी जीवन्त है। आज विश्व के अनेक राष्ट्र हमारे देश की एकता के तार को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं, ऐसी दशा में हम सबको जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय की भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने में भरपूर सहयोग प्रदान करना होगा। कश्मीर में अलगाववाद की भावना भी राष्ट्रीय एकता में बाधक है। राष्ट्र की एकता एवं खुशहाली में ही सबका हित निहित है। आशा है कि निकट भविष्य में भारत की धरती पर एकता, प्रेम, बन्धुत्व की ऐसी धारा प्रवाहित होगी जिसमें अवगाहन करके भारत का जन-जन असीम उल्लास का अनुभव करेगा।

14. कम्प्यूटर के क्षेत्र में भारत की प्रगति
अथवा
आधुनिक युग में कम्प्यूटर की उपयोगिता [2013]
अथवा
कम्प्यूटर का महत्त्व [2008]

“कम्प्यूटर भारत का गौरव, नवीनतम।
गणना करे पलक झपकते अति सुन्दरतम॥”

रूपरेखा [2017]-

  1. प्रस्तावना,
  2. कम्प्यूटर के प्रयोग,
  3. सूचना और संचार क्रान्ति,
  4. कम्प्यूटर के क्षेत्र में विकास,
  5. उपसंहार।]

प्रस्तावना विगत कई सालों में हमारे राष्ट्र भारतवर्ष में कम्प्यूटरों का जीवन के अनेक क्षेत्रों में वृहद् मात्रा में प्रयोग किया जा रहा है। अनेक संस्थानों एवं उद्योग-धन्धों में कम्प्यूटर का प्रयोग इसकी सफलता का मापदण्ड है। कम्प्यूटर की सफलता को देखकर इसके सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा मन-मस्तिष्क में पनपने लगती है। कम्प्यूटर ऐसे यांत्रिक मस्तिष्कों का समन्वयात्मक तथा गुणात्मक घनत्व है जो तेज गति से अल्प समय में त्रुटिहीन गणना सम्पन्न कर सके। कम्प्यूटर के प्रथम आविष्कारक चार्ल्स बेवेज ये प्रथम ऐसे मानव थे जिन्होंने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में प्रथम कम्प्यूटर निर्मित किया। यह कम्प्यूटर विस्तृत गणनाएँ सम्पन्न कर देता था तथा उनके परिणामों की भी सूचना दे देता था।

कम्प्यूटर के प्रयोग आज जीवन के अनेक क्षेत्रों में इसका प्रयोग देखा जा सकता है।

  1. बैंकिंग के क्षेत्र में …भारतीय बैंकों में हिसाब-किताब रखने तथा खातों के संचालन के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग किया जा रहा है।
  2. कला के क्षेत्र में…-आज कम्प्यूटर कलाकार एवं चित्रकार की भूमिका को भी सफलतापूर्वक निर्वाह कर रहे हैं। कम्प्यूटर के समक्ष बैठकर कलाकार अपने नियत कार्यक्रम के अनुसार स्क्रीन पर चित्र बनाता है। यह चित्र प्रिण्ट की कुंजी दबाते ही प्रिंटर के माध्यम से कागज पर वास्तविक रंगों के साथ छाप दिया जाता है।
  3. प्रकाशन के क्षेत्र में पुस्तक एवं समाचार-पत्रों के प्रकाशन क्षेत्रों में भी कम्प्यूटर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कम्प्यूटर से संचालित फोटो कम्पोजिंग मशीन के द्वारा छपने वाली मशीन से टंकित किया जाता है। टंकित की जाने वाली सामग्री को कम्प्यूटर के पर्दे पर निहारा जा सकता है तथा उसमें संशोधन भी किया जाता है। कम्प्यूटर में संचित होने के पश्चात् सम्पूर्ण सामग्री एक लघु चुम्बकीय डिस्क पर अंकित हो जाती है। फोटो कम्पोजिंग मशीन इस डिस्क के अंकीय संकेतों को अक्षरीय संकेतों में परिवर्तित कर देती है।
  4. डिजाइनिंग के क्षेत्र में-कम्प्यूटर के द्वारा हवाई जहाजों, मोटर गाड़ियों एवं भवनों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्प्यूटर ग्राफिक का अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है।
  5. वैज्ञानिक क्षेत्र में अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने एक नवीन क्रान्ति को जन्म दिया है। इसके माध्यम से अन्तरिक्ष में वृहद् मात्रा में चित्र उतारकर कम्प्यूटर के द्वारा इन चित्रों का विश्लेषण एवं सूक्ष्म अध्ययन किया जा रहा है।
  6. शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान वाहिनी एवं विद्या वाहिनी कार्यक्रम के द्वारा कक्षाओं के अन्तर्गत शिक्षण विधियों को उपयोगी एवं सरल बनाने की चेष्टा की जा रही है। सुदूर शिक्षा के लिए भारत ने ऐजुसैट नामक उपग्रह प्रक्षेपित किया है, सामान्यतः सम्पूर्ण शिक्षा कम्प्यूटरमय बन गई है।
  7. संगीत के क्षेत्र में कम्प्यूटर की सहायता से एक नये प्रकार की संगीत तकनीक का विकास किया गया है।
  8. कृषि के क्षेत्र में कम्प्यूटर द्वारा किए गए परिवर्तनों के आधार पर दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के किसान घर बैठे खेती सम्बन्धी अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
  9. चिकित्सा के क्षेत्र में अभियान्त्रिकी की सक्रियता के फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है, दूरस्थ चिकित्सा प्रणाली भी प्रारम्भ की है।

वना और संचार क्रान्ति टेलीफोन मोबाइल के साथ नेटवर्क का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है, इसके द्वारा दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में सब प्रकार की सूचनाएँ और जानकारियाँ पहुँचाई जा सकती हैं। कम्प्यूटर के क्षेत्र में विकास

  1. सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों में ब्लाक स्तर पर सम्पर्क उपलब्ध कराने तथा सामाजिक एवं आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए सामुदायिक सूचना केन्द्रों की स्थापना की गई है।
  2. ‘सक्षम योजना’ द्वारा केरल के चमरावत्तम गाँव को शत-प्रतिशत कम्प्यूटर साक्षर गाँव बना दिया गया है।
  3. चेन्नई के एम. एस. स्वामीनाथन फाउण्डेशन ने पाण्डिचेरी के तटवर्ती गाँवों में ‘इन्फोशॉप’ की स्थापना की है।

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उपसंहार—भारत में कम्प्यूटर का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। इसके माध्यम से विकास की गति में आशातीत प्रगति हुई है। रोबोट तो साकार रूप में मानव मस्तिष्क का पर्याय प्रमाणित हो रहा है। परन्तु इसके प्रयोग में अत्यधिक ध्यान केन्द्रित करना होगा। कम्प्यूटर ने आज जो कुछ उपलब्ध किया है। वह आज के बुद्धिजीवियों की महत्त्वपूर्ण देन है। किन्तु फिर भी हमें कम्प्यूटर पर पूर्ण रूप से निर्भर न रहकर अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक रहना चाहिए इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की अत्यधिक आवश्यकता है। कहा भी गया है

“सुख सुविधाएँ जो हमें दी है विज्ञान ने,
हमें इनका गुलाम न होकर उन्हें सेवक बनाना है।
तभी हम सफल, सक्षम और बलशाली बनेंगे,
हमें विज्ञान संग स्वयं का अस्तित्व जगाना है।”

15. भारत में बेरोजगारी की समस्या
[2011, 14]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. बेरोजगारी के कारण,
  3. बेरोजगारी के प्रकार,
  4. बेरोजगारी के परिणाम,
  5. समाधान हेतु सुझाव,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना—आज देश के कर्णधार, मनीषी तथा समाज सुधारक न जाने कितनी समस्याओं की चर्चा करते हैं परन्तु सारी समस्याओं की जननी बेरोजगारी है। इसकी कोख से भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, चोरी, डकैती तथा अनैतिकता का विस्तार होता है। बेकारों का जीवन अभिशाप की लपटों से घिरा है। यह समस्या अन्य समस्याओं को भी जन्म दे रही है। चारित्रिक पतन, सामाजिक अपराध, मानसिक शिथिलता, शारीरिक क्षीणता आदि दोष बेकारी के ही परिणाम हैं। बेरोजगारी के कारण बेरोजगारी के विभिन्न चरणों में से प्रमुख इस प्रकार हैं

(1) जनसंख्या में वृद्धि-विगत वर्षों में भारत की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ी है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत रोजगार के अनेक साधनों के उपलब्ध होने के बावजूद बेरोजगारी का अन्त नहीं हो सका है।

(2) लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का अभाव-ब्रिटिश सरकार की नीति के कारण देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों में समुचित प्रगति नहीं हुई है। काफी उद्योग बन्द हो गए हैं। फलतः इन धन्धों में लगे हुए व्यक्ति बेकार हो गए हैं, नए रोजगार नहीं पा रहे हैं।

(3) औद्योगीकरण का अभाव स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में बड़े उद्योगों का विकास हुआ, परन्तु लघु उद्योगों की उपेक्षा रही। फलस्वरूप यन्त्रों ने मनुष्य का स्थान ले लिया है।

(4) दूषित शिक्षा प्रणाली लिपिक बनाने वाली भारतीय शिक्षा प्रणाली में शारीरिक श्रम का कोई महत्त्व नहीं है। शिक्षित वर्ग के मन में शारीरिक श्रम के प्रति घृणा उत्पन्न होने से बेकारी में वृद्धि होती है। शिक्षित व्यक्ति स्वयं को समाज के अन्य व्यक्तियों से बड़ा मानकर काम करने में कतराता है। वह शासन करने वाली नौकरी की तलाश में रहता है, जो उसे प्राप्त नहीं हो पाती है।

(5) पूँजी का अभाव- देश में पूँजी का अभाव है, इसलिए उत्पादन में वृद्धि न होने से भी बेकारी बढ़ रही है।

(6) कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव-दीक्षा विद्यालयों एवं कारखानों की कमी के कारण देश में कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव है, इसलिए कुशल कर्मचारी विदेशों से भी बुलाने पड़ते हैं, इससे बेरोजगारी बढ़ती है।

बेरोजगारी के प्रकार भारत में बेरोजगारी के दो प्रकार हैं
(अ) ग्रामीण बेकारी—इस श्रेणी में अशिक्षित एवं निर्धन कृषक और ग्रामीण मजदूर आते हैं, जो प्रायः वर्ष में 5 से लेकर 9 माह तक बेकार रहते हैं।
(ब) शिक्षित वर्ग की बेकारी शिक्षा प्राप्त करके बड़ी-बड़ी उपाधियों को लेकर अनेक सरस्वती के वरद् पुत्र और पुत्रियाँ बेकार दृष्टिगोचर होते हैं। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

बेरोजगारी के परिणाम—भारत में ग्रामीण तथा नगरीय स्तर पर बढ़ती हुई बेरोजगारी की समस्या से देश में शान्ति-व्यवस्था आदि को भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है। उसे रोकने के लिए यदि समायोजित कदम नहीं उठाया गया तो भारी उथल-पुथल का भय है।

समस्या के समाधान हेतु सुझाव-समस्या के समाधान हेतु कुछ सुझाव अग्रलिखित प्रकार से हैं-

  1. जनसंख्या पर नियन्त्रण-जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में परिवार कल्याण को अधिक-से-अधिक प्रभावशाली बनाया जाए।
  2. लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास-उद्योगों के केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहन देकर गाँवों में लघु और कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए। कम पूँजी से लगने वाले ये उद्योग ग्रामों तथा नगरों में रोजगार देंगे। इन उद्योगों का बड़े उद्योगों से तालमेल करना भी आवश्यक है।
  3. बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि-प्रो. कीन्स के अनुसार, “पूर्ण रोजगार की समस्या देश में बचत एवं विनियोग की दर से परस्पर सम्बन्धित है।” अत: देश में घरेलू बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि करके भी बेरोजगारी की समस्या को हल किया जा सकता है।
  4. शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन.-आज की शिक्षा-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करके पाठ्यक्रम में अध्ययन के साथ तकनीकी और व्यावहारिक ज्ञान पर बल देना आवश्यक है जिससे छात्र श्रम के महत्त्व को समझ सकें और रोजगार पा सकें।
  5. कृषि में स्पर्धा-कृषकों में कृषि प्रणाली का सुधार करके अधिकाधिक खाद्य सामग्री पैदा करने की स्पर्धा उत्पन्न करनी चाहिए। उन्हें उन्नत बीज, पूँजी, अच्छे हल-बैल तथा अन्य आधुनिक मशीनें और सुविधाएँ देनी चाहिए।

उपसंहार—देश की वर्तमान परिस्थितियों में बेकारी की समस्या को दूर करने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार के प्रयास होने चाहिए। प्रसन्नता का विषय है कि भारत सरकार इस समस्या के प्रति जागरूक है। लघु एवं विशाल उद्योगों की स्थापना के प्रति सजग है। शिक्षा को भी रोजगारपरक बनाया जा रहा है। अनेक स्वरोजगार योजनाएँ चल रही हैं। विश्वास है कि यह समस्या हल हो जायेगी।

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16. आतंकवाद : समस्या और समाधान [2011]
अथवा
आतंकवाद की समस्या [2017]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. आतंकवाद का स्वरूप,
  3. आतंकवाद का विस्तृत क्षेत्र,
  4. भारतवर्ष में आतंकवादी गतिविधियाँ,
  5. विदेशों में आतंकवाद,
  6. आतंकवाद का लक्ष्य।

प्रस्तावना–आज हमारे देश में आतंकवाद का जहर बुरी तरह से फैला हुआ है। इस आतंकवादी सर्प ने हमारे देश को अपने में इस तरह से जकड़ रखा है कि पूर्ण रूप से उसके चंगुल से अपने को नहीं निकाल पा रहा है। आज प्रत्येक व्यक्ति स्टेशन, सिनेमाघर, वायुयान, रेल, बस प्रत्येक स्थान पर स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहा है। लेकिन कवि नीरज कहते हैं देखिए

‘अंगारों को भी अधरों पर, धर कर रे ! मुस्काना होगा।’

आतंकवाद का स्वरूप-अपनी बात को दृढ़ात् (जबरदस्ती) आतंक फैलाकर मनवाना ही आतंकवाद है। अपने अधिकार की माँग करना तो उचित है, किन्तु दूसरे की स्वीकृति न मिलने पर अपनी बात को घृणित बल प्रयोगों द्वारा मनवाना ही आतंकवाद है। इनके मन्सूबे संकीर्ण विचारों वाले स्वार्थ से सने हुए हैं। इन आतंकवादियों में बहुत से तो धन के लालच में पड़कर निर्दोष लोगों की हत्या करते फिरते हैं। वे परिमल पराग की बगिया में रक्त के बीज बो रहे हैं।

अमराइयों में विनाश का झूला डाल रहे हैं।

आतंकवाद का विस्तृत क्षेत्र-आज आतंकवाद का क्षेत्र विश्वव्यापी हो गया है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी की हत्या है, अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या भी इसका जीवन्त प्रमाण है। पंजाब एवं कश्मीर में असंख्य निर्दोष लोगों की हत्या में विदेशी शत्रु राज्यों का विशेष रूप से हाथ रहा है। इस कार्य (आतंकवाद) को करने में अधिकांश रूप से तस्कर भी सम्मिलित हैं।

भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ-आतंक पैदा कर एवं भय दिखाकर स्वार्थपूर्ति करने की प्रवृत्ति से असोम, नागालैण्ड में विदेशियों के रचे गये कुचक्रों से आतंकवाद पनपा। उनके पश्चात् उसका भयानक साया पंजाब, कश्मीर तथा अन्य क्षेत्रों में बुरी तरह से पड़ गया है। श्रीनगर, जम्मू, चेन्नई, रुद्रपुर, हैदराबाद, मुम्बई आदि स्थानों पर तथा रेलवे स्टेशन, रेल आदि पर हुए आतंकवादी हमलों से न जाने कितने लोग घर से बेघर हो गये। कितनी नारियों का सुहाग छिना। न जाने कितनी माँ तथा बहिनें पुत्र तथा भाई के मारे जाने पर अश्रु बहाती रह गयीं।

आतंकवादी गतिविधियाँ भारत में निरन्तर बढ़ रही हैं जो विकास में बाधक सिद्ध हो रही हैं।

विदेशों में आतंकवाद-आतंकवाद का प्रभाव विश्वव्यापी है। जापान के याकोहामा रेलवे स्टेशन पर विषैली गैस छोड़ देने से बारह व्यक्ति मारे गये। अमेरिका में बम विस्फोट के कारण भयंकर विनाश हुआ। अनेक व्यक्ति मारे गये। अन्य देशों में भी आतंकवाद पैर फैला रहा है।

आतंकवाद का लक्ष्य आतंक फैलाने का प्रमुख लक्ष्य निर्दोषों की हत्या, विमान अपहरण, विमान में बम विस्फोट, रेल एवं बसों में बम रखना, बैंकों की लूट, पानी की टंकियों एवं कुओं में जहर मिलाना, राजदूतों की हत्या इत्यादि द्वारा समाज में दशहत फैलाकर सबका मुँह बन्द कर देना है जिससे कोई भी व्यक्ति उनके विरुद्ध गवाही न दे सके। राष्ट्र प्रेमी तथा बलिदानी युवक इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं करते। वे अपने प्राणों को हथेली पर रखकर सत्य तथा न्याय से तनिक भी विचलित नहीं होते। बज्र-बिजलियों के पतझर में भी पपीहा अपना स्वर अलापता ही रहता है। आतंकवादी गतिविधियों से हमें विचलित न होकर उनका डटकर मुकाबला करना है।

17. किसी खेल का वर्णन
[2012]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. खेल की तैयारियाँ,
  3. खेल का प्रारम्भ,
  4. खेल का आँखों देखा दृश्य,
  5. खेल की समाप्ति,
  6. पुरस्कार वितरण,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-आज वही बालक जीवन संग्राम में आगे कदम बढ़ा रहे हैं जिनको खेल के प्रति विशेष लगाव होता है। क्रीड़ा स्थल इस प्रकार का उपवन होता है जहाँ सहयोग, स्पर्धा तथा बन्धुत्व के सुरभित पुष्प विकसित होते हैं। स्पष्ट है कि शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही दृष्टियों से खेलों का विशेष महत्त्व है। खेल मानव विकास की आधारशिला होते हैं। यही कारण है कि शिक्षा के साथ खेल आवश्यक रूप से जोड़े गये हैं। इनको सभी तरह से बढ़ावा दिया जा रहा है।

खेल की तैयारियाँ-हमारा विद्यालय नगर के मध्य स्थित है। विद्यालय का खेल का मैदान बड़ा विशाल एवं अच्छा है। हमारे क्रीड़ा अध्यापक जी बड़े परिश्रमी एवं सक्रिय हैं। एक दिन राजकीय इण्टर कॉलेज की ओर से क्रिकेट मैच का प्रस्ताव आया जो हमारे अध्यापक जी ने स्वीकार कर लिया तथा कॉलेज के क्रिकेट दल (टीम) को बुलाकर बता दिया। यह मैच हमारे ही मैदान में होना था। यहाँ सभी तैयारियाँ थीं। खेल के लिए रविवार का दिन निश्चित किया गया।

खेल का प्रारम्भ-रविवार के दिन प्रातः 8 बजे ही खेल के मैदान पर दोनों विद्यालयों के दल पहुँच गये थे। मैदान में पिच तैयार थी। निर्णायक महोदय बाहर के विद्यालयों से आमन्त्रित थे। दोनों दलों के कप्तान मैदान में पहुँचे, निर्णायकों ने टॉस उछाला जो हमारे विद्यालय के कप्तान ने जीता। हमारे विद्यालय की टीम के कप्तान ने पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया। खेल प्रारम्भ हो गया।

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खेल का आँखों देखा दृश्य-हमारे विद्यालय के प्रारम्भिक बल्लेबाज सुनील एवं सुशील मैदान में थे। शासकीय उ. मा. शाला के खिलाड़ी मैदान में फैले थे। उनके कप्तान ने गेंद फेंकने का दायित्व राकेश को सौंपा। खेल की पहली गेंद पर ही सुनील ने चौका जमाया। इस तरह हमारी टीम की शुरूआत बड़ी अच्छी हुई। खेल जमने लगा और तीस रन बने थे कि सुशील बाहर हो गया। तीन खिलाड़ी और बाहर चले गये। रमेश की गेंद पर सुनील को राकेश ने कैच करके बाहर कर दिया, उसके 80 रन बने थे। इसी प्रकार खेल चलता रहा। बीच-बीच में चौकों और छक्कों का आनन्द भी मिलता रहा। सभी प्रसन्न थे। हमारी टीम के 5 खिलाड़ी बाहर हुए और चालीस ओवरों में हमारे दल के 200 रन हो गये थे।

बीच में भोजन के पश्चात् शासकीय उ. मा. शाला का दल खेलने आया। उनकी भी शुरुआत बहुत अच्छी हुई। पहले दस ओवरों में उन्होंने 45 रन बना लिए, जिसमें चार चौके तथा दो छक्के भी लगाये। हमारी टीम के तेज गेंदबाज कुछ कर पाने में असमर्थ रहे। फिर हमारे स्पिनरों ने दायित्व सँभाला और एक के बाद एक उन्होंने विरोधी दल के चार खिलाड़ी 25 ओवर होने तक बाहर कर दिए। अब तक उनके रन मात्र 93 ही बन पाए थे। उनके पाँचवें तथा छठे खिलाड़ी कुछ जमे, परन्तु जैसे ही गेंद बायें हाथ के गेंदबाज धीरज ने सँभाली वे दोनों ही उखड़ गये। उनके जाते ही विरोधी दल.ऐसा निराश हुआ कि 35 ओवरों में ही उनकी समस्त टीम सिमट गयी, जबकि उनके रन 168 मात्र ही थे। इस प्रकार हमारा दल विजयी रहा।

खेल की समाप्ति-इस प्रकार 5 ओवर शेष रहते हुए भी शासकीय उ. मा. शाला का दल अपने सभी खिलाड़ी गँवाकर हार गया और निर्णायकों ने विकेट उखाड़ दिये। इस तरह खेल समाप्त हो गया। दोनों दल मण्डप में लौट रहे थे। दर्शक तालियों से विजयी दल का स्वागत कर रहे थे।

पुरस्कार वितरण-सभी खिलाड़ी मण्डप में आ गये थे। दर्शक उत्सुकता से पुरस्कार पाने वालों के विषय में जानने को बेचैन थे। शील्ड, कप आदि सजे रखे थे। उद्घोषक ने घोषणा की कि अब हमारे मुख्य अतिथि जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय विजेताओं को पुरस्कार देंगे। इसके बाद श्रेष्ठ गेंदबाज का पुरस्कार धीरज को, श्रेष्ठ बल्लेबाज का पुरस्कार सुनील को तथा श्रेष्ठ क्षेत्ररक्षण का पुरस्कार राकेश को मिला। शील्ड हमारे विद्यालय को प्रदान की गयी।

उपसंहार-पुरस्कार वितरण के निर्णयों की सभी प्रशंसा कर रहे थे। हमारे प्रधानाचार्य जी ने खिलाड़ियों को बधाई दी। हम सभी आनन्दित होकर खेल की चर्चा करते हुए घर लौट रहे थे। इस मैच को स्मरण करने मात्र से ही मन-मयूर नृत्य करने लगता है। हृदय-वीणा झंकृत होकर आनन्द का तराना छेड़ती है। स्फूर्ति तथा शान्ति का नया संचार होता है। यथार्थ में जीवन को खिलाड़ी की भावना से जीना ही उत्तम तथा श्रेयस्कर है।

18. बालिका शिक्षा
[2012]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. बालिका शिक्षा का महत्त्व,
  3. बालिका शिक्षा के प्रयास,
  4. बालिका शिक्षा की वर्तमान स्थिति,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-शिक्षा के बिना मानव पशु के समान है। शिक्षा ही मानव की बुद्धि का विकास करती है। शिक्षा से संसार, जीवन आदि के सत्य-असत्य का बोध होता है। इसी से भावी जीवन की आधारशिला रखी जाती है। अतः शिक्षित होना अति आवश्यक है।

बालिका शिक्षा का महत्त्व-यद्यपि बालक और बालिका दोनों के लिए ही शिक्षा का महत्त्व है। बाल्यावस्था में शिक्षित होकर वे अपने भविष्य की नींव रखते हैं किन्तु बालक से अधिक बालिका शिक्षा का महत्त्व है। आज की बालिका कल जननी होगी। वह भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली होगी। शिक्षित बालिका शिक्षित नारी होगी और शिक्षित माँ होगी। वह बच्चों का हर प्रकार से ठीक तरह पालन करेगी। शिक्षित बालिका पत्नी बनकर जायेगी तो घर-गृहस्थी को सही प्रकार से चलायेगी। उसका व्यवहार आदि सभी के प्रति अच्छा होगा। अत: बालिका शिक्षा का विशेष महत्त्व है।

बालिका शिक्षा के प्रयास- भारत में कई महान् विदुषी हुई हैं जिन्होंने मानव को सद्मार्ग दिखाया किन्तु मध्यकाल में नारी के प्रति दृष्टिकोण बदल गया और उसे घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। उसकी शिक्षा-दीक्षा बन्द प्रायः हो गई। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने बालिका शिक्षा पर ध्यान दिया। इस दिशा में अनेक प्रयास किये गये। बालिकाओं के लिए विद्यालय खोले गये। उन्हें छात्रवृत्ति, पुस्तकें आदि दी गईं। इसका सुफल सामने आ रहा है।

बालिका शिक्षा की वर्तमान स्थिति-वर्तमान में केन्द्र और राज्य सरकार बालिका शिक्षा पर विशेष बल दे रही हैं। अनेक योजनाएँ प्रारम्भ की हैं जिनसे बालिका शिक्षा की गति बढ़ रही है। छात्राओं को शुल्क से मुक्ति दे दी गई है। विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियाँ, पुरस्कार, सहयोग आदि अध्ययनशील बालिकाओं को दिये जा रहे हैं। आज बालिकाएँ भी अपनी प्रतिभा दिखा रही हैं। वे विद्यालय से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर रही हैं। वे समझ गई हैं कि शिक्षित होकर ही जीवन तथा राष्ट्र का सही निर्माण किया जा सकता है।

उपसंहार-बालिका शिक्षा पर विविध प्रकार से जोर दिया जा रहा है। उसका फल भी दिखाई देने लगा है किन्तु अभी आदिवासी, पिछड़े या अतिदूरस्थ क्षेत्रों में बालिका शिक्षा की कमी देखी जा रही है। इस ओर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है क्योंकि आज की बालिका कल देश की निर्माता होगी। अत: उसकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था आवश्यक है।

19. किसी यात्रा का वर्णन [2012]
अथवा
मेरी रोचक यात्रा

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. यात्रा का प्रारम्भ,
  3. मार्ग के रोचक दृश्य,
  4. भ्रमण, दर्शन, स्नान,
  5. वापिसी,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-जीवन में यात्रा का आनन्द अद्भुत होता है। मेरे पिताजी प्रतिवर्ष किसी न किसी स्थान की यात्रा का कार्यक्रम अवश्य बनाते हैं। इस वर्ष उज्जैन की यात्रा की योजना बनी। माताजी ने यात्रा की सभी सामग्री एकत्र कर ली।

यात्रा का प्रारम्भ-सांस्कृतिक नगरी उज्जैन जाने के लिए ग्वालियर से उज्जयिनी एक्सप्रेस में आरक्षण कराया गया। सभी लोग स्टेशन पर समय से पहुँच गये और गाड़ी आने पर अपनी सीटों पर बैठ गये। उस समय कुम्भ चल रहा था, अत: गाड़ी में उत्तराखण्ड, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि के लोगों की भीड़ थी। सभी धार्मिक यात्रा पर जा रहे थे।

मार्ग के रोचक दृश्य-गाड़ी चलनी प्रारम्भ हुई तो मन में हिलोरें उठने लगी। मार्ग में नाना प्रकार के दृश्य दिखाई दे रहे थे। वनों की हरियाली, पर्वतों की ढलान, मैदानों के विविध प्रकार मन को आकर्षित कर रहे थे। ट्रेन में बैठे यात्रियों के दल अपनी-अपनी बोलियों में धार्मिक गीत एवं लोकगीत गा रहे थे। सभी तरफ उल्लास भरा वातावरण था। इस तरह पता ही नहीं चला कि कब उज्जैन रेलवे स्टेशन आ गया। सभी ने जल्दी-जल्दी सामान नीचे उतारा।

भ्रमण, दर्शन, स्नान-हम सभी ने धर्मशाला में कमरों में सामान रखा तथा उज्जैन भ्रमण पर निकल लिये। सबसे पहले महादेव मन्दिर गये। नदी में स्नान कर पूजा की तथा वहाँ की मान्यताओं को देखकर चमत्कृत हुए। वहाँ से जगत प्रसिद्ध महाकालेश्वर मन्दिर गये। मन्दिर में दर्शकों की बहुत लम्बी लाइन लगी थी। बहुत देर बाद गर्भगृह में प्रवेश मिला वहाँ महाकालेश्वर जी के दर्शन किये, पूजा की और परिक्रमा लगाई। इसके बाद भैरव मन्दिर, भर्तृहरि, संदीपन, कालिदास के स्मृति स्थलों आदि का भ्रमण किया। कुम्भ मेले के कारण सभी स्थानों पर भीड़ थी किन्तु व्यवस्थाएँ बहुत ठीक थीं इसलिए किसी को परेशानी नहीं हो रही थी।

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वापसी-सभी प्रमुख स्थलों का भ्रमण, दर्शन कर हमने तीसरे दिन ग्वालियर लौटने का आरक्षण उज्जैनी एक्सप्रेस में ही करा रखा था। उसी गाड़ी से अनेक यात्री लौट रहे थे। सभी तरफ मेले के दृश्यों तथा अनुभवों की बातें हो रही थीं। हमारे घर के सभी लोग बहुत प्रसन्न तथा रोमांचित अनुभव कर रहे थे। ग्वालियर स्टेशन पर उतरकर ठीक समय पर घर पहुँच गये।

उपसंहार-मैंने पचमढ़ी, इन्दौर, जबलपुर, आगरा आदि की अनेक यात्राएँ की हैं किन्तु कुम्भ मेले के अवसर पर की गयी इस यात्रा ने मुझे अनुभव करा दिया कि भारतीय संस्कृति में एकता भाव व्यापक रूप में विद्यमान है। यह यात्रा मेरी अविस्मरणीय यात्रा रही।

20. आलस्य : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु [2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. आलस्य एक दुर्गुण,
  3. सक्रियता उन्नति का आधार,
  4. श्रम की महिमा,
  5. आलस्य पतन का कारण,
  6. श्रम स्वावलम्बन के विकास का मूल,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-सक्रियता मानव जीवन के विकास की आधारशिला है। किसी कवि ने कहा है।

‘गति का नाम अमर जीवन है,
निष्क्रियता ही घोर मरण है।’

बाईबिल में कहा गया है कि “तू अपना पसीना बहाकर, अपनी रोटी कमा और खा।”

आलस्य एक दुर्गुण-आलस्य मनुष्य का सबसे हानिकारक दुर्गुण है। हमें अपने जीवन का एक क्षण भी निकम्मा रहकर नहीं गँवाना चाहिए। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, वह तो गतिमान है जो आलस्य करेगा वह जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जायेगा।

सक्रियता उन्नति का आधार-सक्रियता से मनुष्य अपनी उन्नति के साथ-साथ देश, समाज का भी कल्याण करता है। इतिहास बताता है कि सक्रिय लोगों ने असम्भव को सम्भव बनाया है। संघर्षशील जीवन की प्रेरणा देते हुए तारा पांडेय लिखती हैं-

‘संघर्षों से क्लान्त न होना, यही आज जन-जन की वाणी।
भारत का उत्थान करो तुम, शिव सुन्दर बन कल्याणी॥’

श्रम की महिमा-महान ग्रन्थ गीता में कर्म को सर्वोपरि माना गया है। कहा गया है ‘उद्यमेन सिद्धयन्ति कार्याणि न च मनोरथै।’ ईश्वर ने हमें दो हाथ और दो पैर परिश्रम के लिए ही दिए हैं। महान विचारक चाणक्य मानते थे कि “कितने ही कठिन माध्यम हों, मैं साध्य तक पहुँच जाऊँगा।” इस श्रम साधना के द्वारा उन्होंने ऐतिहासिक सफलताएँ प्राप्त की थीं। श्रम का फल मीठा होता है। हमारे देश के निर्माता किसान और मजदूर श्रम के बल पर सफलता की ओर अग्रसर होते हैं

‘परिश्रम करता हूँ अविराम, बनाता हूँ क्यारी औ कुंज।
सींचता दृग जल से सानन्द, खिलेगा कभी मल्लिका पुंज॥’

आलस्य पतन का कारण-आलस्य मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाला है। आलसियों में कायरता भर जाती है। वे कुछ करना नहीं चाहते हैं। उनका जीवन निरन्तर गिरता चला जाता है। फिर वे ईश्वर को पुकारते हैं

‘कायर मन कहुँ एक अधारा। दैव-दैव आलसी पुकारा।’

श्रम स्वावलम्बन के विकास का मूल-परिश्रमी व्यक्ति में स्वावलम्बन की भावना निरन्तर विकसित होती जाती है। उसमें स्वाभिमान का भाव आता जाता है। परिश्रमी व्यक्ति प्रसन्न रहता है और दूसरों को प्रेम करता है। उसमें द्वेष, ईर्ष्या, कटुता आदि दुर्गुण नहीं होते हैं। दिनकर जी लिखते हैं-

‘श्रम होता सबसे अमूल्य धन, सब जन खूब कमाते।
सब अशंक रहते अभाव से, सब इच्छित सुख पाते॥’

उपसंहार-इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्रम और सक्रियता जीवन को श्रेष्ठ बनाने का आधार है और आलस्य निरन्तर पतन की ओर ले जाने वाला है। आलस्य से मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है, इसीलिए आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

21. बिन पानी सब सून [2016]
अथवा
जल ही जीवन है

रूपरेखा [2017]-

  1. प्रस्तावना,
  2. जल का महत्त्व,
  3. जल के विविध स्रोत,
  4. जल का अभाव,
  5. जल का समस्या का समाधान,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-सृष्टि की रचना जल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश और वायु-पाँच तत्त्वों से हई है। जल का इनमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसार के दैनिक जीवन में भी जल आवश्यक तत्व है।

जल का महत्त्व-पृथ्वी के जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों, फसलों, वनस्पतियों, पेड़-पौधों, आदि सभी के लिए जल अनिवार्य है। बिना जल के इन सभी का रह पाना सम्भव नहीं है। जल से संसार में जीवंतता दिखाई देती है। चारों ओर फैली हरियाली, फसलें, फल-फूल आदि सभी जल के कारण ही जीवित हैं। मानव तो बिना जल के जीवित रह ही नहीं सकता है। अतः सृष्टि में जल विशेष महत्त्वपूर्ण है। बिना पानी के संसार सूना है। रहीम लिखते हैं

“रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून॥”

जल के विभिन्न स्त्रोत-जल प्राप्त करने के कई स्रोत हैं। सागर में अथाह जल भरा है किन्तु वह खारा है, इसलिए वह हर प्रकार की पूर्ति नहीं कर पाता है। पानी का मूल स्रोत वर्षा है।

वर्षा का पानी ही नदियों, तालाबों, जलाशयों में एकत्रित होकर जल की पूर्ति करता रहता है। इसके अतिरिक्त पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ पिघलकर जल के रूप में नदियों में आती है। कुंआ, नलकूप आदि के द्वारा पृथ्वी के नीचे विद्यमान जल को प्राप्त किया जाता है। इस तरह विविध स्रोत द्वारा जल की पूर्ति होती है।

जल का अभाव-विगत वर्षों में जल की निरन्तर कमी हो रही है। वर्षा कम हो रही है, धरती का जल स्तर लगातार गिर रहा है। जल की समस्या भारत में ही नहीं संसार भर में हो रही है। कुछ स्थानों पर तो जल के लिए त्राहि-त्राहि मची है। कुछ लोगों का मानना है कि संसार का तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा।

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जल समस्या का समाधान-जल की कमी को देखते हुए यह आवश्यक है कि हम यह समस्या भयंकर रूप धारण करे उससे पहले ही जाग जायें। जल का पूरी तरह सदुपयोग करे। वर्षा के समय जो पानी नालों और नदियों के द्वारा बहकर समुद्र में पहुँच जाता है, उसे इकट्ठा करके उपयोग में लायें। वर्षा काल में पानी को पृथ्वी में नीचे पहुँचाया जाय तो जल स्तर ऊपर आयेगा। इसलिए इस समस्या के प्रति सजग रहना आवश्यक है।

उपसंहार-यदि समय रहते जल संरक्षण की ओर ध्यान न दिया गया तो संसार का विनाश हो जायेगा। जल के बिना किसी का भी जीवित रहना सम्भव नहीं है। बिना जल के मरण अवश्यम्भावी है। जब जगत में पशु, पक्षी, मानव आदि प्राणी ही नहीं होंगे तो संसार सूना हो जायेगा। सत्य यह है कि जल ही जीवन है। इसलिए जल के महत्त्व को ध्यान में रखकर भावी योजनाएँ बनाई जानी चाहिए।

22. इण्टरनेट : आज की आवश्यकता
[2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. इण्टरनेट का परिचय,
  3. इण्टरनेट के लाभ,
  4. आज के जीवन की आवश्यकता,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-इण्टरनेट पूरे विश्व में फैले कम्प्यूटरों का नेटवर्क है, साथ ही एक कार्यालय में विद्यमान कम्प्यूटरों का भी नेटवर्क है। इण्टरनेट पर कम्प्यूटर के माध्यम से घर, बाहर यहाँ तक कि सारे संसार की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

इण्टरनेट का परिचय-इण्टरनेट अत्याधुनिक संचार प्रौद्योगिकी है जिसमें अनगिनत कम्प्यूटर एक नेटवर्क से जुड़े होते हैं। इण्टरनेट न कोई सॉफ्टवेयर है,न कोई प्रोग्राम अपितु यह तो एक ऐसा स्थान है जहाँ अनेक सूचनाएँ तथा जानकारियाँ उपकरणों की सहायता से मिलती हैं। इण्टरनेट के माध्यम से मिलने वाली सूचनाओं में विश्वभर के व्यक्तियों और संगठनों का सहयोग रहता है। उन्हें नेटवर्क ऑफ सर्वर्स (सेवकों का नेटवर्क) कहा जाता है। यह एक वर्ल्ड वाइड वेब (W.w.w.) है जो हजारों सर्वर्स को जोड़ती है।

इण्टरनेट के लाभ-इण्टरनेट के द्वारा विभिन्न प्रकार के दस्तावेज, सूची, विज्ञापन, समाचार, सूचनाएँ आदि उपलब्ध होती हैं। ये संसार में कहीं पर भी प्राप्त की जा सकती हैं। पुस्तकों में लिखे विषय, समाचार-पत्र, संगीत आदि सभी इण्टरनेट के माध्यम से प्राप्त किये जाते हैं। संसार के किसी भी कोने से कहीं पर भी सूचना प्राप्त की जा सकती है और भेजी जा सकती है। हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक, कार्यालयी, औद्योगिक, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में इण्टरनेट उपयोगी है।

आज के जीवन की आवश्यकता-त्वरित सूचना के इस युग में इण्टरनेट अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा, स्वास्थ्य, यात्रा, पंजीकरण, आवेदन आदि सभी कार्यों में इण्टरनेट सहयोगी है। पढ़ने वाली दुर्लभ पुस्तकों को संसार के किसी कोने में पढ़ा जा सकता है। स्वास्थ्य सम्बन्धी विस्तृत जानकारियाँ इण्टरनेट पर उपलब्ध होती हैं। इण्टरनेट के द्वारा संसार के किसी भी विशिष्ट व्यक्ति के विषय में जाना जा सकता है। सभी प्रकार के टिकट घर बैठे इण्टरनेट से लिये जा सकते हैं। दैनिक जीवन की समस्याओं को भी हल करने वाला इण्टरनेट आज के जीवन की अनिवार्यता बन गया है।

उपसंहार-सूचना प्रौद्योगिकी जगत में यदि हमें सुविधापूर्वक जीवन बिताता है तो इण्टरनेट बहुत उपयोगी है। अत: इण्टरनेट का सहयोग हमें लेना चाहिए। इससे कार्य उपयुक्त तथा त्वरित होता है। यह सभी क्षेत्रों में उपयोगी है इसीलिए इण्टरनेट आज के जीवन की आवश्यकता बन गया है।

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