MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

सामाजिक समरसता अभ्यास

सामाजिक समरसता अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा किस ज्ञान को उपयोगी माना है?
उत्तर:
कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक एवं प्रत्यक्ष ज्ञान को उपयोगी माना है।

प्रश्न 2.
राधा दुःखी माता यशोदा को क्या कहकर सांत्वना देती थीं?
उत्तर:
‘श्रीकृष्ण ब्रज को कैसे छोड़ सकते हैं वे अवश्य लौटकर आयेंगे’ यह कहकर राधा यशोदा को सांत्वना देती थीं।

प्रश्न 3.
राधा अपने विरह जनित दुःख को छिपाने के लिए किस प्रकार का बहाना बनाती थीं?
उत्तर:
‘मैं रो नहीं रही हूँ, मेरी आँखों में अति हर्ष का पानी छलक आया है।’ यह बहाना बनाकर राधा अपने दुख को छिपाती थीं।

प्रश्न 4.
ब्रजवासियों के व्यथित होने का क्या कारण था? (201 15, 16)
उत्तर:
श्रीकृष्ण का ब्रज छोड़कर मथुरा चले जाना ब्रजवासियों के व्यथित होने का कारण था।

प्रश्न 5.
कबीर का मन फकीरी में क्यों सुख पाता है?
उत्तर:
नाशवान जगत से परे रहकर राम नाम के भजन का आनन्द मिलने के कारण कबीर को फकीरी में सुख प्राप्त होता है।

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सामाजिक समरसता लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने संसार को पागल क्यों कहा है? भाव स्पष्ट कीजिए। (2017)
अथवा
‘साधो देखो जग बौराना’ पद के माध्यम से कबीर क्या कहना चाहते हैं? (2008)
उत्तर:
कबीर कहते हैं कि संसार पागल हो गया है। उससे सत्य बात कही जाय तो वह मारने दौड़ता है और जो झूठ कहते हैं उनका वह विश्वास कर लेता है। हिन्दू और मुसलमान राम तथा रहीम नाम पर झगड़ते हैं जबकि दोनों एक ही हैं। नियमी-धर्मी और पीर-औलिया नाना पाखण्ड करते हैं किन्तु संसार उन्हीं के बहकावे में आ जाता है। संसार के लोग सच्चे गुरु द्वारा बताए गए ज्ञान के मार्ग का अनुसरण न करके जीवन को नष्ट करने वाले संसार की ओर आकर्षित होते हैं। इससे स्पष्ट है कि वे पागल हो गए हैं।

प्रश्न 2.
कबीर ने कर्मकाण्ड पर करारा प्रहार किया है। स्पष्ट कीजिए। (2014)
उत्तर:
कबीर धार्मिक पाखण्ड के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने कर्मकाण्ड पर करारे प्रहार किये हैं। वे कहते हैं किं बहुत से तथाकथित नियमों का पालन करने वाले धर्मात्मा मिले हैं जो प्रात:काल ही स्नान कर लेते हैं किन्तु आत्मा की आवाज न मानकर स्थूल पत्थर की पूजा करते हैं। उनका ज्ञान खोखला एवं दिखावटी है। इसी प्रकार अनेक पीर-औलिया देखें हैं जो वक्तव्य देकर अपने शिष्य बनाते हैं, किन्तु वे भी खुदा को नहीं जानते हैं। उनके हृदय में दया, अनुकम्पा आदि मानवीय भाव नहीं होते हैं।

प्रश्न 3.
राधा ने विरह व्यथा में डूबे ब्रजवासियों को कर्त्तव्य पालन का उपदेश क्यों दिया था? (2008)
उत्तर:
भारतीय संस्कृति का मूलाधार कर्म है। यहाँ कर्म को सर्वोपरि माना गया है। जीवन की सार्थकता कर्म में ही है। इसलिए राधा श्रीकृष्ण के विरह की वेदना में डूबे ब्रजवासियों को समझाती हैं कि उन्हें श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों में लग जाना चाहिए। इससे श्रीकृष्ण जो चाहते थे वे कार्य पूर्ण होंगे और ब्रजवासियों को भी सन्तोष होगा कि वे श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों को कर रहे हैं। कर्म करने से व्यक्ति को मानसिक सन्तोष भी मिलता है। ब्रजवासी जब कामों में लग जायेंगे तो उनका ध्यान भी बँटेगा। वे धीरे-धीरे विरह कष्ट से छुटकारा पा लेंगे।

प्रश्न 4.
ब्रजवासियों के सुख-दुःख दूर करने के लिए राधा ने क्या-क्या उपाय किए थे?
उत्तर:
राधा ने नन्द, यशोदा, गोप, गोपियों, बच्चों, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों के प्रति दया, सहानुभूति एवं सेवा का भाव अपनाया। उन्होंने यशोदा को कृष्ण के लौटने का आश्वासन दिया तो नंद को शास्त्रों का ज्ञान सुनाया। गोपों को श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों में लगाकर, बालकों को फूलों के खिलौने देकर तथा गोपियों को कृष्ण की लीला के गीत, वंशी तथा वीणा सुनाकर प्रसन्न किया। उन्होंने वृद्ध-रोगियों तथा अनाथों की सेवा की तथा दीन-हीन, निर्बलों एवं विधवाओं को सहारा दिया। इस तरह उन्होंने सभी के संताप (दुःख) दूर करने के लिए अनेक उपाय अपनाए।

प्रश्न 5.
राधा ब्रजबालाओं का दुःख किस प्रकार दूर करती थी?
उत्तर:
राधा ने ब्रजबालाओं का विरह दुःख दूर करने के लिए सेवा धर्म अपनाया था। उन्होंने यशोदा का दुःख पैर सहलाकर, आँखों के आँसू पोंछकर तथा सांत्वना देकर दूर किया तो नन्द का दुःख उनकी सेवा करके तथा शास्त्र ज्ञान सुनाकर समाप्त किया। गोपों की पीड़ा को कम करने के लिए उन्हें श्रीकृष्ण के काम में लगाया। विरहिणी गोपियों को श्रीकृष्ण की लीलाएँ वंशी आदि सुनाई और उनके दुःख को शान्त करने का प्रयास किया। बच्चों को फूलों के खिलौने देकर प्रसन्न करती तो रोगियों, अनाथों, विधवाओं, दीन-हीनों को सहारा देकर उनका कष्ट मिटाया। इस तरह राधा सभी की वेदना दूर करने का प्रयास करती थीं।

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सामाजिक समरसता दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संकलित अंशों के आधार पर कबीर के विचार लिखिए।
उत्तर:
इस प्रश्न के उत्तर के लिए ‘कबीर की वाणी’ शीर्षक का सारांश पढ़िए।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(अ) मन लाग्यौ मेरा फकीरी में
जो सुख पायौ नाम भजन में, सो सुख, नाहि अमीरी में।
भला-बुरा सबकों सुनि लीजै, करि गुजरान गरीबी में।

(आ) तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोइ रे।।
सत गुरु धारा निरमल बाहे, वा में काया धोइ रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे॥
उत्तर:
इन पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या इस पाठ के ‘सन्दर्भ-प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग से पढ़िए।

प्रश्न 3.
‘राधा की समाज सेवा’ विषय का केन्द्रीय भाव लिखिए। (2009)
उत्तर:
इसके लिए ‘राधा की समाज सेवा’ का भाव-सारांश पढ़िए।

प्रश्न 4.
“अपने दुःख को भुला देने का सबसे अच्छा उपाय है, अपने को किसी और काम में लगा देना।” राधा ने इस आदर्श का पालन किस प्रकार किया? (2009)
उत्तर:
जब व्यक्ति दुःखी होता है तब उसके चित्त पर बड़ा दबाव रहता है। इसलिए यह माना गया है कि दु:ख के समय व्यक्ति स्वयं को किसी अन्य कार्य में संलग्न कर दे ताकि उसका ध्यान उस कार्य से बँट जाए और दुःख भूल में पड़ जाए। जब श्रीकृष्ण ब्रजवासियों को बिलखता छोड़कर मथुरा चले गये तो उनकी प्रेमिका विरह वेदना से ग्रस्त हो गयी। उन्होंने उस वियोग की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए स्वयं को समाज की सेवा में संलग्न कर दिया। वे यशोदा को सांत्वना देने, उसके पैर सहलाने, आँसू पोंछने का कार्य करने लगीं। ब्रज के राजा नन्द को शास्त्र सुनाने लगीं। गोपों को काम में संलग्न कर दिया। गोपियों को कृष्ण लीला सुनाना और वंशी बजाकर प्रसन्न करना प्रारम्भ कर दिया। बच्चों को विविध फूलों के खिलौने देकर बहलाया। वृद्धों, रोगियों, अनाथों, विधवाओं आदि को सहारा देने में व्यस्त हो गयीं। इस तरह सभी की सेवा में व्यस्त होने के कारण वे अपना दुःख भूल गयीं।

प्रश्न 5.
“पत्तों को भी न तरुवर के वे वृथा तोड़ती थीं।” आधुनिक सन्दर्भ में इसकी उपयोगिता समझाइए।
उत्तर:
वृक्ष-वनस्पतियाँ प्रदूषण को नियन्त्रित करने में बड़ी सहयोगी होती हैं। जितनी अधिक हरियाली होगी उतना पर्यावरण सुधार होगा। राधा को इस बात का ज्ञान था इसीलिए वे पेड़-पौधों की पत्तियों को व्यर्थ में नहीं तोड़ती थीं। आज संसार भर में पर्यावरण प्रदूषण का प्रकोप है इसीलिए नाना प्रकार के वृक्ष लगाने के अभियान चलाये जा रहे हैं। वन संरक्षण की अनेक योजनाओं का कार्यान्वयन हो रहा है। हरित पट्टिकाएँ तथा हरित क्षेत्र निर्धारित किए जा रहे हैं ताकि हरियाली बनी रहे और मनुष्य को प्रदूषण से कुछ मुक्ति मिले। आज के वैज्ञानिक युग में प्राकृतिक सम्पदा का महत्त्व और बढ़ गया है। इस प्रकार के विचार हरिऔध के समय में आने लगे थे। इसीलिए उन्होंने राधा के द्वारा वनस्पतियों के संरक्षण का कार्य कराया है।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित काव्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए
(अ) हो उद्विग्ना बिलख ………….. तजेंगे।
(आ) सच्चे स्नेही ………….. कोई न होवे।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांशों में राधा द्वारा यशोदा की सेवा एवं यशोदा द्वारा राधा को धीरज बँधाने का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जब यशोदा परेशान एवं व्याकुल होकर राधा से पूछती थीं कि मेरे जीवन के आधार श्रीकृष्ण क्या कभी भी ब्रज लौटकर नहीं आयेंगे तब वे धीरे से मीठे स्वर में विनम्र होकर बताती थीं कि हाँ श्रीकृष्ण अवश्य लौटेंगे। वे दुःखी ब्रजवासियों को इस तरह कैसे छोड़ सकेंगे?

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में ब्रजभूमि में श्रीकृष्ण के सुखद क्रिया-कलापों का स्मरण करते हुए भारत भूमि पर राधा-कृष्ण के बार-बार अवतरण की कामना की गई है।

व्याख्या :
कवि कामना करते हैं कि हे परमात्मा ! ब्रजभूमि के निवासियों के श्रीकृष्ण जैसे सच्चे प्रेमी और राधा जैसी दयालु सहृदया संसार भर को प्रेम करने वाली नारी इस भारत भूमि पर पुनः पुनः आयें, किन्तु इस प्रकार बुरी तरह प्रभावित करने वाली कोई विरह की घटना कभी न हो।

सामाजिक समरसता काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए-
पथरा, चदरिया, कागद, जुग, जतन, हाथ।
उत्तर:
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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए
पृथ्वी, आँख, पक्षी, पुष्प, दिन।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता img-2

प्रश्न 3.
कबीर के संकलित पदों में कौन-सा रस है?
उत्तर:
कबीर के संकलित पदों में शान्त रस है।

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प्रश्न 4.
कबीर की भाषा के सम्बन्ध में अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
कबीर भ्रमण करने वाले सन्त थे। वे यहाँ-वहाँ जाकर जनमानस को ज्ञान का उपदेश दिया करते थे। वे एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहे। अतः उनकी भाषा में विविध क्षेत्रों के शब्द आ गये हैं। इसलिए उनकी भाषा को खिचड़ी या सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है। ब्रज, अरबी, फारसी, अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली, उर्दू आदि सभी भाषाओं के शब्द कबीर के काव्य में मिल जाते हैं। विविध भाषाओं का संगम होते हुए भी कबीर की भाषा में अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में अलंकार पहचानकर लिखिए-
(अ) काहे के ताना काहे के मरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
(आ) जुगन जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।
(इ) राधा जैसी सदय हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
(ई) पूजी जाती ब्रज अवनि में देवियों सी अतः थी।
उत्तर:
(अ) अनुप्रास
(आ) पुनरुक्तिप्रकाश
(इ) उपमा
(ई) उपमा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए (2009)
(क) आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में।
(ख) साधो देखो जग बौराना, सांची कहो तो मारन धावै झूठे जग पतियाना।
उत्तर:
(क) इस पंक्ति में सन्त कबीर ने भौतिक जगत् की नश्वरता का बोध कराया है। संसार की वस्तुओं पर अभिमान करना जीव की अज्ञानता है। ये सभी तो नष्ट होने वाली हैं। जिस शरीर के बल पर जीव अहंकार पाले फिरता है, एक दिन यह मिट्टी में मिल जाता है। इसलिए इस पर गर्व करना व्यर्थ है। अमर तो केवल आत्मा है, उसी का अनुसरण करना चाहिए।

(ख) साक्षात संसार से ज्ञान अर्जित करने वाले सन्त कबीर कहते हैं कि इस संसार के लोग अज्ञान अहंकार में फंसकर पागल हो गये हैं। यही कारण है कि जब उनसे सत्य बात कही जाती तो मारने दौड़ते हैं; उसका विश्वास नहीं करते हैं किन्तु कोई झूठा व्यक्ति उनसे कुछ कहता है तो वे उसका विश्वास कर लेते हैं।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए
गुण, प्रेम, सदय, विधवा, सबल।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता img-3

प्रश्न 8.
छन्द किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
मात्रा, वर्ण संख्या, यति, गति (लय) तथा तुक आदि के नियमों से युक्त रचना छन्द कहलाती है।
छन्द दो प्रकार के होते हैं।-
(1) मात्रिक छन्द-इसमें मात्राओं की गणना की जाती है।
(2) वर्णिक छन्द-इसमें वर्गों की गणना की जाती है।

प्रश्न 9.
आपकी पाठ्य-पुस्तक के पद्य भाग में कौन-कौन से पाठ मुक्तक काव्य की श्रेणी में आते हैं?
उत्तर:
हमारी पाठ्य-पुस्तक के विनय के पद, पदावली, कृष्ण की बाल लीलाएँ, पद्माकर के छन्द, मतिराम के छन्द, वृन्द के दोहे, रहीम के दोहे, ऋतु वर्णन, नौका विहार, छत्रसाल का शौर्य वर्णन, कविता का आह्वान, कबीर की वाणी, कुण्डलियाँ, दुष्यन्त की गजलें, बरसो रे तथा चलना हमारा काम है पाठ मुक्तक काव्य की श्रेणी में आते हैं।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित पंक्तियों में गण पहचानिए
(क) जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
(ख) आटा चींटी विहग गण थे वारि औ अन्न पाते।
उत्तर:
(क) ऽऽऽ ऽ।। ।।। ऽऽ। ऽऽ।
मगण भगण नगण तगण तगण ऽऽ
जो वे हो ता मलि न लख ती गोप के बाल कौं को
(ख) ऽऽऽ ऽ।। ।।। ऽ।ऽ ऽ।ऽ
मगण भगण नगण तगण तगण ऽऽ
आटा ची टी विह गगण थेवारि औ अन्न पाते

प्रश्न 11.
निम्नलिखित काव्यांश में निहित काव्य सौन्दर्य को लिखिए
(अ) तो धीरे मधुर स्वर से हो विनीता बताती।।
हाँ आवेंगे व्यथित ब्रज को श्याम कैसे तजेंगे।
(आ) गाके लीला स्व प्रियतम की वेणु वीणा बजा के।
प्यारी बातें कथन करके वे उन्हें बोध देतीं।
उत्तर:
इन काव्यांशों के काव्य सौन्दर्य इस पाठ के ‘सन्दर्भ-प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग से पढ़िए।

कबीर की वाणी भाव सारांश

सारग्राही सन्त कबीर ने सभी धर्मों के सत्य को ग्रहण कर मानवतावादी व्यावहारिक धर्म अपनाया। जीवन के प्रत्यक्ष ज्ञान के सहारे उन्होंने सत्यासत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने बाह्य आडम्बरों, पाखण्डों, द्वेष-भावनाओं का डटकर विरोध किया। संकलित पदों में उन्होंने उन्हीं भावों को व्यक्त किया। फकीरी में रमने वाले कबीर को अमीरी के बजाय भगवान् का भजन प्रिय है। इस शरीर को नश्वर कहने वाले कबीर सन्तोष को सर्वोपरि मानते हैं। उन्हें पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष ज्ञान पर विश्वास है। इसीलिए वे समझाते हैं कि सजग रहकर सच्चे गुरु के बताये मार्ग पर चलकर ही उद्धार हो सकता है। धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर आडम्बर करने वालों को उन्होंने खूब फटकारा है। उनके लिए राम और रहीम एक हैं। पत्थर पूजा, जीव हत्या आदि में संलग्न ढोंगी हिन्दू-मुसलमानों को उन्होंने करारी डाँट लगाई है। वे सत्य पर आधारित मानवता को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं।

कबीर की वाणी संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] मन लाग्यो मेरा यार फकीरी में।
जो सुख पावों नाम भजन में, सो सुख नाहि अमीरी में।।
भला-बुरा सबको सुनि लीजै, करि गुजरान गरीबी में।।
प्रेमनगर में रहनि हमारी, भलि बनि आई सबूरी में।।
हाथ में पूड़ी बगल में सोंटा, चारों दिसा जगीरी में।।
आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिलै सबूरी में ।।1।।

शब्दार्थ :
फकीरी = वैराग्य; अमीरी = वैभव सम्पन्नता; गुजरान = गुजारा; भलि = भला; सबूरी = सन्तोष; कँड़ी = पत्थर की बनी कटोरी; सोंटा = डण्डा, छड़ी; खाक = धूल; मगरूरी = अहंकार, अभिमान; साहिब = स्वामी।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद (शब्द) हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ ‘सामाजिक समरसता’ के ‘कबीर की वाणी’ से अवतरित है। इसके रचयिता सन्त कबीरदास हैं।

प्रसंग :
इस पद में कवि ने मन की वैराग्य प्रवृत्ति पर बल दिया है।

व्याख्या :
कबीर कहते हैं कि मेरा मन तो वैराग्य में लग गया है। मुझे जो आनन्द परमब्रह्म के भजन में मिला है; वह वैभव सम्पन्नता में नहीं मिल सकता है। अमीरी नाशवान है और अस्थायी सुख देने वाली है। जबकि ब्रह्म परमानन्द देने वाले हैं। अभिमान से दूर रहकर जो कोई भला-बुरा कहे उसे सहन करके गरीबी में गुजारा करना अच्छा है। कवि का निवास तो प्रेम की नगरी है अर्थात् जहाँ प्रेम भाव है वहीं रहना उचित है। सन्तोष सबसे अधिक हितकारी है इसलिए मेरे हाथ में पूड़ी आदि पात्र तथा बगल में एक डण्डा रहता है। इनके साथ मैं संसार की चारों दिशाओं में चाहे जहाँ जाने को मुक्त हूँ। सांसारिक बन्धन व्यर्थ हैं, धन, वैभव अस्थिर हैं क्योंकि अन्त में यह शरीर मिट्टी में मिल जायेगा। अतः सम्पत्ति, बल आदि का अभिमान करना व्यर्थ है। हे सन्तो! वास्तविकता यह है कि सन्तोष से ही स्वामी (ब्रह्म) मिलते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. सांसारिक आकर्षणों से परे रहकर सन्तोष के द्वारा ब्रह्म प्राप्ति का सन्देश दिया गया है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. सरल, सुबोध भाषा में गम्भीर विषय को समझाया गया है।

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[2] मेरा तेरा मनवा, कैसे इक होई रे।
मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यों उरझाइ रे।।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोइ रे।
मैं कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।।
जुगन जुगन समझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।
तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोइ रे।।
सतगुरु धारा निरमल बाहै, वामें काया धोइ रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ।।2।। (2008)

शब्दार्थ :
मनवा = मन; लेखी = लिखी हुई; सुरझावन हारी = सुलझाने वाली; उरझाई = उलझाकर; निरमोही = मोह से मुक्त; जुगन-जुगन = युगों-युगों से; रंगी = संसार के माया मोह में डूबा; बिहंगी = पक्षी के समान इधर-उधर भटकने वाला; बाहै = बहती है; वामें = उसमें; काया = शरीर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष ज्ञान की महिमा को बताते हुए सच्चे गुरु के ज्ञान के मार्ग को अपनाने पर बल दिया गया है।

व्याख्या :
सांसारिक माया मोह में फँसे व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए कवि कहते हैं कि मेरा और तुम्हारा मन एक कैसे हो सकता है। मैं तो वह कहता हूँ जो साक्षात् आँखों से देखा है और तुम वह बात कहते हो जो पुस्तकों में लिखी है। मैं व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर सुलझाने वाली स्पष्ट बात करता हूँ। जबकि तुम अज्ञानतावश सोच में उलझे रहते हो। मैं समझाता हूँ कि सत्य, उचित की पहचान के प्रति जागरूक रहो, अन्धानुकरण मत करो किन्तु तुम अज्ञान की निद्रा में सोते रहते हो। मैं सजग करता हूँ कि संसार नाशवान है इसके प्रति मोह मत पालना परन्तु तुम इस नश्वर संसार के प्रति मोहित रहते हो।

मैं युगों-युगों से समझाते -समझाते थक गया हूँ कि मायावी संसार से मुक्त रहकर सत्य का अनुसरण करो किन्तु मेरी इस बात को कोई नहीं मानता है। तुम तो संसार के माया-मोह में लीन होकर उड़ने वाले पक्षी की तरह इधर-उधर भटक रहे हो। इस तरह भटकते हुए तुमने समस्त ज्ञानरूपी धन खो दिया है। सारा जीवन व्यर्थ गँवा दिया है। सन्त कबीर कहते हैं कि हे सज्जनो! ध्यान से सुन लो कि सच्चे गुरु के ज्ञान की पवित्र धारा बह रही है। उसी में अपने शरीर के विकारों को धो डालोगे तभी तुम्हारा मनचाहा हो सकेगा अर्थात् गुरु का सच्चा उपदेश ही तुम्हारा उद्धार कर सकेगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. संसार की निरर्थकता को इंगित करते हुए सच्चे ज्ञान के मार्ग को अपनाने पर बल दिया गया है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री की छटा अवलोकनीय है।
  3. सरल, सुबोध, व्यावहारिक भाषा में दार्शनिक विषय का प्रतिपादन किया है।

[3] साधो, देखो जग बौराना।
साँची कहाँ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
हिन्दू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना।
आपस में दोऊ लहै मरतु हैं, मरम कोई नहिं जाना।।
बहुत मिले मोहि नेमी धर्मी प्रात करै असनाना।
आतम छोड़ि पषानै पू0, तिनका थोथा ज्ञाना।
बहुतक देखे पीर औलिया, पढ़े किताब कुराना।
करै मुरीद कबर बतजावै, उनहूँ खुदा न जाना।।
हिन्दु की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी।
वे करैं जिबह वे झटका मारे, आग दोऊ घर लागी।
या विधि हँसत चलत है हमको, आपु कहावै स्याना।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दीवाना ।।3।।

शब्दार्थ :
जग = संसार; बौराना = पागल हो गया है; धावै = दौड़ता है; पतियाना = विश्वास करता है; मरम = रहस्य, वास्तविकता; नेमी = नियमों का पालन करने वाले आतम = आत्मा; पषाने = पाषाण, पत्थर; तिनका = उनका; थोथा = खोखला, निरर्थक; मुरीद = शिष्य; उनहूँ = उन्हें भी; मेहर = अनुकम्पा; तुरकन = मुसलमानों; जिबह = हलाल करना, पशु को धीरेधीरे काटना; झटका = एक ही बार में पशु का वध करना; स्याना = चतुर, होशियार; दीवाना = पागल।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद में धार्मिक पाखण्डों की निन्दा कर समरसता का सन्देश दिया है।

व्याख्या :
सन्त कबीर कहते हैं कि हे सज्जनो! देख लो संसार कैसा पागल हो गया है। पागलपन की यह स्थिति है कि यदि कोई व्यक्ति सत्य बात कहे तो उसे मारने दौड़ता है। यह संसार झूठे पाखण्डियों का विश्वास करता है। हिन्दू कहते हैं कि हमारे तो राम सब कुछ हैं और मुसलमान कहते हैं कि रहीम ही सब कुछ है। इस तरह ये आपस में लड़ते-मरते रहते हैं। उनमें इस रहस्य को कोई नहीं जानता है कि राम और रहीम दोनों एक ही हैं। कवि कहते हैं कि मुझे बहुत से नियमों का पालन करने वाले धार्मिक व्यक्ति मिले हैं। वे प्रात:काल ही स्नान-ध्यान करते हैं। आत्मा की आवाज की अवहेलना करके पत्थर की पूजा करने वाले उन लोगों का ज्ञान खोखला (दिखावटी) है।

मैंने बहुत से पीर और औलिया भी देखे हैं जो कुरान आदि पुस्तकें पढ़ते हैं। वे लोगों को अपने शिष्य बनाते हैं, बड़े-बड़े व्याख्यान देते हैं किन्तु उन्हें भी खुदा की जानकारी नहीं होती है। हिन्दुओं की दया तथा मुसलमानों की मेहर (कृपा)दोनों ही मनुष्यों के हृदय से पलायन कर गयी हैं। दोनों ही निर्दयी, हिंसक हो गये हैं। उनमें से एक हलाल करते हैं तो दूसरे झटका मारते हैं। इस तरह दोनों ही ओर हिंसा की आग लगी है। वे हम सब का उपहास करते हैं तथा स्वयं बहुत चतुर कहलाते हैं। कबीर कहते हैं कि ऐसी स्थिति में इनमें से किसे पागल कहा जाय। दोनों ही उन्मत्त हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. धार्मिक पाखण्ड जनित विद्वेष का तिरस्कार कर सामंजस्य एवं सहभाव का सन्देश दिया है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक भाषा में समझाया गया है।

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राधा की समाज सेवा भाव सारांश

पौराणिक प्रसंगों का अपने काव्य का आधार बनाने वाले अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का प्रिय प्रवास कृष्ण काव्य परम्परा में आता है। ‘राधा की समाज सेवा’ अंश ‘प्रिय प्रवास’ महाकाव्य से लिया गया है।

परमप्रिय श्रीकृष्ण के ब्रज छोड़कर चले जाने पर समस्त ब्रजवासियों में विरह-वेदना व्याप्त हो जाती है। राधा श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल हैं किन्तु वे अपने दुःख को भुला देने का सबसे उत्तम उपाय खोजती हैं और स्वयं को समाज सेवा में लगा देती हैं। वे नित्यप्रति यशोदा के पास जाकर उनको समझाती हैं। उनके पैर सहलाकर तथा आँसू पोंछकर सांत्वना देती हैं। उन्हें आश्वासन देती हैं कि दुःखी ब्रज को श्रीकृष्ण कैसे छोड़ सकते हैं, वे अवश्य लौटकर आयेंगे। नन्द की पीड़ा को मिटाने के लिए वे विभिन्न शास्त्रों को सुनाकर सांसारिक वैभव की हीनता का प्रतिपादन करती हैं। दुःखी ग्वालों को समझाकर श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों में लगाती हैं। ग्वालों के बालकों को दुःखी देखकर वे उन्हें फूलों के विभिन्न प्रकार के खिलौने लाकर देती हैं। उनसे श्रीकृष्ण की लीलाएँ कराती हैं और स्वयं ध्यानमग्न होकर उन्हें देखती रहती हैं। विरहिणी गोपियों को वे विधिपूर्वक सुखी करती हैं।

उन्हें श्रीकृष्ण की लीलाएँ गाकर सुनाती हैं, वंशी तथा वीणा बजाती हैं। वृद्धों, रोगियों की वे सेवा करती हैं तथा दवा आदि देती हैं। निर्बल, दीन-हीन, अनाथ तथा विधवाओं को वे सम्मान सहित सहारा देती हैं। उनके मन में जो भी विकार हैं उनको अपने सद्व्यवहार से धो देती हैं। चींटी, पक्षी, कीड़ों आदि को अन्न-जल आदि देती हैं। वे वृक्षों के पत्तों को भी व्यर्थ में नहीं तोड़ती हैं। वे सज्जनों की संरक्षक तथा दुष्टों की प्रशासक बनी हैं। वे सभी प्राणियों की समृद्धि के कार्यों में लगी रहती हैं, कुमारी बालिकाएँ भी ब्रज में शान्ति का विस्तार करने में लगी हैं। कवि कहते हैं कि श्रीकृष्ण के ब्रज छोड़कर जाने पर जो महाकाली संकट देने वाली रात्रि अब आयी थी उसमें राधा चाँदनी के समान सुशोभित थीं। श्रीकृष्ण के संयोग से ब्रज में आनन्द वर्षा हुई थी, वह पुनः-पुनः आये। राधा और श्रीकृष्ण इस भूमि पर आयें किन्तु इस प्रकार की वियोग की घटना फिर न हो।

राधा की समाज सेवा संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] राधा जाती प्रति- दिवस थीं पास नन्दांगना के।
नाना बातें कथन करके थीं उन्हें बोध देती।
जो वे होती परम- व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना।
तो वे आठों पहर उनकी सेवना में बितातीं॥1॥ (2014)

घण्टे ले के हरि-जननि को गोद में बैठती थी।
वे थी नाना जतन करती पा उन्हें शोक मग्ना।
धीरे-धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त-पीड़ा।
हाथों से थी दृग-युगल के वारि को पोंछ देती ॥2॥

शब्दार्थ :
प्रति-दिवस = रोजाना, प्रतिदिन; नन्दांगना = यशोदा, नन्द की पत्नी; नाना = तरह-तरह की; कथन = कहकर; बोध = ज्ञान समझाना; परम = बहुत; व्यथिता = पीड़ित; मूछिता = बेहोश; विपन्न = दु:खी; सेवना = सेवा; जननि = माँ; जतन = प्रयत्न, उपाय; शोक = दुख; चित्त-पीड़ा = हृदय का कष्ट; दृग-युगल = दोनों आँखें; वारि = जल, आँसू।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ ‘सामाजिक समरसता’ के ‘राधा की समाज सेवा’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ हैं।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा द्वारा की गयी यशोदा की सेवा का अंकन किया गया है।

व्याख्या :
श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल होते हुए भी राधा प्रतिदिन नन्द की पत्नी यशोदा के पास जाती और तरह-तरह की बातें करके उन्हें समझाती थीं। यदि वे बहुत पीड़ित बेहोश या दुःखी होती तो राधा दिन-रात उनकी सेवा में ही बिताती थी अर्थात् हर समय उनकी देखभाल में ही लगी रहती थीं।

राधा श्रीकृष्ण की माँ यशोदा को अपनी गोद में लेकर घण्टों तक बैठी रहती थीं। उनको श्रीकृष्ण के चले जाने के दुःख से दुखी पाकर वे विभिन्न प्रकार के उपाय करती थीं। धीरे-धीरे उनके पैरों को सहलाती थीं और उनकी समस्त पीड़ा को मिटा देती थीं। वे अपने हाथों से यशोदा की दोनों आँखों के आँसू पोंछ देती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा के सेवाभावी रूप का सजीव चित्रण किया गया है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है।
  4. तत्सम प्रधान खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

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[2] हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थीं यशोदा।
क्या आवेंगे न अब ब्रज में जीवनाधार मेरे।
तो वे धीरे मधुर-स्वर से हो विनीता बतातीं।
हाँ आवेंगे, व्यथित बृज को श्याम कैसे तजेंगे ॥ 3 ॥

आता ऐसा कथन करते वारि राधा-दृगों में।
बूंदों-बूंदों टपक पड़ता गाल पै जो कभी था।
जो आँखों से सदुख उसको देख पातीं यशोदा।
तो धीरे यों कथन करतीं खिन्न हो तू न बेटी ॥ 4॥

शब्दार्थ :
उद्विग्ना = परेशान; बिलख = व्याकुल; जीवनाधार = जीवन के आधार, श्रीकृष्ण; विनीता = विनम्र; व्यथित = पीड़ित; तजेंगे = छोड़ेंगे; सदुःख = दुःख युक्त; खिन्न = परेशान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांशों में राधा द्वारा यशोदा की सेवा एवं यशोदा द्वारा राधा को धीरज बँधाने का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जब यशोदा परेशान एवं व्याकुल होकर राधा से पूछती थीं कि मेरे जीवन के आधार श्रीकृष्ण क्या कभी भी ब्रज लौटकर नहीं आयेंगे तब वे धीरे से मीठे स्वर में विनम्र होकर बताती थीं कि हाँ श्रीकृष्ण अवश्य लौटेंगे। वे दुःखी ब्रजवासियों को इस तरह कैसे छोड़ सकेंगे?

इस प्रकार की बात कहते हुए विरह से व्याकुल राधा के नेत्रों में भी आँसू छलक आते थे। जो कभी-कभी आँसुओं की बूंदें यशोदा के गाल पर टपक पड़ती थीं तो वे कहती थीं कि बेटी राधा तू परेशान मत हो, सब ठीक होगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा द्वारा व्याकुल यशोदा की सेवा तथा यशोदा द्वारा राधा को सांत्वना देने का वर्णन है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है।
  4. तत्सम प्रधान खड़ी बोली अपनायी गयी है।

[3] हो के राधा विनत कहतीं मैं नहीं रो रही हूँ।
आता मेरे दृग युगल में नीर आनन्द का है।
जो होता है पुलक कर के आप की चारु सेवा।
हो जाता है प्रगटित वही वारि द्वारा दृगों में ॥5॥

वे थीं प्रायः ब्रज नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं।
सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती।
बातों ही में जग विभव की तुच्छता थी दिखाती।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनातीं ॥6॥

शब्दार्थ :
विनत = विनम्र; दृग युगल = दोनों नेत्र; पुलक = रोमांच, हर्ष; चारु = सुन्दर; ब्रज-नृपति = ब्रज के राजा, नन्द; उत्कण्ठ उद्यत; क्लांतियाँ = दु:ख; जग-विभव = सांसारिक वैभव; तुच्छता = दीनता।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में सेवा भावी राधा के ज्ञानपरक प्रबोध को प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या :
राधा की आँखों में छलके आँसुओं की बूंद कभी यशोदा के गाल पर पड़ जाती थीं तो वे उसे सांत्वना देती तब राधा विनम्र होकर कहती कि मैं रो नहीं रही हूँ। मेरे दोनों नेत्रों में तो अति आनन्द के आँसू हैं। आपकी सुखद सेवा करके मुझे जो हर्ष होता है, वही आँखों से जल के रूप में प्रकट हो जाता है।

राधा प्रायः उद्यत होकर ब्रज के राजा के पास जाती और प्रसन्नतापूर्वक उनकी सेवा करती तथा उनके समस्त दुःखों को मिटाती थीं। बातों ही बातों में वे सांसारिक वैभव की दीनता प्रदर्शित करती और यदि वे अधिक व्याकुल होते थे तो राधा विभिन्न शास्त्र पढ़कर सुनाती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. प्रबुद्ध राधा के सेवा भावी रूप का अंकन हुआ है।
  2. तत्सम प्रधान सानुप्रासिक भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. मन्दक्रान्ता छन्द है।

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[4] होती मारे मन यदि कहीं गोप की पंक्ति बैठी।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता।
तो कार्यों में सविधि उनको यत्नतः वे लगाती।
औ ए बातें कथन करती भूरि गंभीरता से।। 7॥

जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को हैं।
तो पा भू में पुरुष तन को, खिन्न हो के न बैठे।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिए कार्य ऐसे।
जो प्यारे हैं परम प्रिय के विश्व के प्रेमिकों के ॥8॥

शब्दार्थ :
किम्वा = अथवा; गोप = ग्वाला; सविधि = विधि से; यत्नतः = प्रयत्नपूर्वक; भूरि = बहुत अधिक; रुचि = लगन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा ने गोपों को कर्म में लीन होने का उद्बोधन दिया है।

व्याख्या :
यदि कहीं पर कोई मलिन मन वाले ग्वालाओं की कोई पंक्ति होती अथवा राधा को कोई ग्वाला व्याकुल होता हुआ दिखाई पड़ता तो वे विधि से प्रयत्नपूर्वक उनको अपने-अपने काम में लगा देतीं। वे बहुत गम्भीरता से यह बात कही कि यदि आप सभी प्राणप्रिय श्रीकृष्ण को हृदय से प्यार करते हो तो पृथ्वी पर दुर्लभ मनुष्य का शरीर पाकर दुःखी होकर न बैठे। पूरी लगन के साथ ऐसे कामों को करें जो परमप्रिय श्रीकृष्ण के प्रेमियों को अच्छे लगते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहने का उद्बोधन दिया गया है।
  2. कर्म के प्रति निष्ठा भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। उसी का प्रतिपादन यहाँ हुआ है।
  3. संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली में विषय की अभिव्यक्ति हुई है।
  4. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

[5] जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
देती पुष्पों रचित उनको मुग्धकारी-खिलौने।
दे शिक्षाएँ विविध उनसे कृष्ण लीला करातीं।
घंटों बैठी परम रुचि से देखतीं तद्गता हो ॥9॥

पाई जातीं यदि दुखित जितनी अन्य गोपांगनाएँ।
राधा द्वारा सुखित वह भी थीं यथा रीति होती।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।
प्यारी-बातें कथन कर के वे उन्हें बोध देतीं ॥10॥

शब्दार्थ :
मलिन = उदास; लखती = देखती; मुग्धकारी = मोहित करने वाले तद्गता = तन्मय; गोपांगनाएँ = गोपियाँ, ग्वालों की पत्नियाँ; वेणु = वंशी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा द्वारा ग्वालों के बच्चों तथा उनकी पत्नियों (गोपियों) की उदासी दूर करने का वर्णन है।

व्याख्या :
वे राधा यदि ग्वालों के बच्चों को उदास देखतीं तो वे उन्हें फूलों से बने मन को मोहित करने वाले खिलौने देतीं। वे उन्हें नाना प्रकार की शिक्षाएँ देकर कृष्ण लीला कराती । घण्टों तक बैठी रहतीं और उस लीला को तन्मय होकर देखती रहती थीं।

यदि ग्वालों की पत्नियाँ दु:खी पाई जाती तो वे भी राधा द्वारा इसी तरह सुखी होती थीं। अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की लीलाएँ गाकर, वंशी एवं वीणा बजाकर और प्यारी-प्यारी बातें कहकर उनको उद्बोधन देती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ग्वालों के बच्चों तथा पत्नियों की सेवा का वर्णन किया गया है।
  2. मन्दाक्रान्ता छन्द है। तत्सम युक्त सरल सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

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[6] संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना कार्य में भी।
वे सेवा थीं सतत करती वृद्ध-रोगी जनों की।
दीनों, हीनों, निबल विधवा आदि को मानती थीं।
पूजी जाती बृज-अवनि में देवियों सी अतः थी ॥11॥

खो देती थीं कलह जनि, आधि के दुर्गुणों को।
धो देती थीं मलिन मन की व्यापनी कालिमायें।
बो देती थी हृदय तल में बीज भावज्ञता का।
वे थी चिन्ता-विजित गृह में शांति धारा बहाती ॥12॥

शब्दार्थ :
संलग्ना हो = लगकर; निबल = निर्बल; बृज-अवनि = ब्रज भूमि; आधि = मानसिक चिन्ता; व्यापिनी = प्रभावित करने वाली; कालिमाएँ = दोषों को; भावज्ञता = मनोभाव समझने; चिन्ता-विजित-गृह = चिन्ता को जीत लेने वाला घर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा द्वारा किए गए सद्भावपूर्ण सेवा कार्यों का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
राधा नाना प्रकार के कितने ही सान्त्वना देने वाले कार्यों में लगी रहती थी। वे वृद्ध और रोगी जनों की निरन्तर सेवा करती रहती थीं। वे दीन-हीनों, निर्बलों, विधवाओं आदि का सम्मान करती थीं, उनकी सेवा करती थीं। इसीलिए ब्रजभूमि में वे देवियों की तरह पूजी जाती थीं।

राधा पारस्परिक कलह तथा मानसिक दुःखों को दूर कर देती थीं। वे दुःखी मन को प्रभावित करने वाले सभी दोषों को धो डालती थीं। वे मनुष्यों के तन-मन के सभी कष्टों को दूर करके उनके हृदय में सहृदयता भर देती थीं। वे चिन्ता को जीत लेने वाले घर में शान्ति की धारा प्रवाहित कर देती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा के जन सेवी रूप का वर्णन हुआ है।
  2. सानुप्रासिक भाषा तथा पद मैत्री का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  3. समास प्रधान तत्सम शब्दावली में विषय-का प्रतिपादन किया गया है।
  4. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

[7] आटा चींटी विह्या गण थे वारि ओ अन्न पाते।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी।
पत्तों को भी न तरुवर के वे वृथा तोड़ती थी।
जी से भी निरस्त रहती भूत सम्बर्द्धना में ॥13॥

वे छाया थी सुजन शिर की शासिका थी खलों में।
कंगालों की परम निधि थी औषधि पीड़ितों की।
दोनों की थी बहिन, जननी थी अनाथाश्रितों की।
आराध्य थी ब्रज-अवधि की प्रेमिका विश्व की थीं ॥14॥

शब्दार्थ :
विा = पक्षी; कीटादि = कीड़े आदि; वृथा = व्यर्थ में; निरत = संलग्न; भूत सम्बर्द्धना = प्राणियों के उत्थान में; अनाथ = सहारे हीन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा की पशु-पक्षियों, अनाथों आदि की व्यापक सेवा का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
राधा की सेवा का क्षेत्र व्यापक था। चींटी, पक्षी राधा से अन्न एवं जल पाते थे। कीड़े आदि के प्रति भी उनकी दयापूर्ण दृष्टि थी। श्रेष्ठ वृक्षों के पत्तों को भी वे व्यर्थ में नहीं तोड़ती थीं। वे अपने हृदय से स्वाभाविक रूप में प्रेमियों के उत्थान के कार्यों में लगी रहती थीं।

वे (राधा) सज्जनों के सिर की छाया थीं तथा दुष्टजनों पर शासन करने वाली थीं। वे निर्धनों के लिए महान् सम्पत्ति का भण्डार थीं और पीड़ितों (रोगियों) के लिए सही उपचार करने वाली दवा थीं। वे दीन-हीनों की बहन थीं और जो अनाथ और आश्रयहीन थे उनके लिए माँ थीं। वे ब्रज भूमि के निवासियों की पूज्य थीं तथा समस्त संसार की प्रेमिका थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा के सेवाभाव का व्यापक रूप अंकित किया गया है।
  2. समास प्रधान संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

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[8] जैसा व्यापी विरह दुख था गोप गोपांगनाका।
वैसी ही थी सदै हृदया स्नेह की मूर्तिराधा।
जैसी मोहावरित ब्रज में तामसी रात आयी।
वैसी ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थी॥15॥

जो थी कौमार-व्रत निरता बालिकायें अनेकों।
वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।
राधा के हृदय बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।
वे भी छाया सृदृश उनकी वस्तुतः हो गई थीं॥16॥

शब्दार्थ :
सदै = दयामय; मोहावरित = मोह से जकड़ी; तामसी रात = महाकाली अंधेरी रात; निरता = संलग्न; विस्तारती = बढ़ाती; दिव्य = अलौकिक; छाया-सदृश = परछाईं के समान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा के स्नेहपूर्ण व्यापक सेवा भाव का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
जिस प्रकार की व्यापक विरह वेदना ग्वालों और ग्वालों की पत्नियों में थी, उसी प्रकार की दयामय हृदय वाली राधा साक्षात् स्नेह की प्रतिमा थीं। श्रीकृष्ण के ब्रज से चले जाने पर जिस प्रकार की मोह से जकड़ी महाकाली अन्धेरी रात ब्रज में आयी थी उसी तरह से वे (राधा) उस रात में चाँदनी के समान सुशोभित थीं अर्थात् श्रीकृष्ण के विरह से व्यथित ब्रजवासियों में वे सुख का संचार कर रही थीं।

जो कौमार्य व्रत में संलग्न अनेक बालिकाएँ थीं वे भी कुछ समय पाकर ब्रज में शान्ति का विकास करती थीं। राधा के हृदय में विद्यमान सद्भावनाओं के प्रभाव से और उनकी शिक्षा के अलौकिक गुणों के कारण वे उनकी परछाईं के समान हो गई थीं अर्थात् वे उनके हर कार्य में सहयोग करती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. सहृदय राधा के सेवा भाव की प्रभावशीलता का अंकन हुआ है।
  2. सामाजिक एवं सानुप्रासिक भाषा में विषय का प्रतिपादन किया गया है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है। उपमा, अनुप्रास, रूपक अलंकारों का सौन्दर्य दर्शनीय है।

[9] तो भी आई न वह घटिका और न वे बार आये।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते।
वैसे उन्माद कर-स्वर से कोकिला भी न बोली ॥17॥

जीते भूले न ब्रज महि के नित्य उकण्ठ प्राणी।
जी से प्यारे जलद तनको, केलि क्रीड़ादिकों को।
पीछे छाया विरह दुख की वंशजों-बीच व्यापी।
सच्ची यों है ब्रज अवनि में आज भी अंकिता है ॥18॥

सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे।
गधा जैसी सद्य हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
हे विश्वात्मा ! भरत भुव के अंक में और आवें।
‘ऐसी व्यापी विरह घटना किन्तु कोई न होवे ॥19॥

शब्दार्थ :
घटिका = घड़ी, 24 मिनट का समय; सोत = स्रोत; महि = भूमि। जलद-तन = बादल के समान श्याम शरीर वाले, श्रीकृष्ण; विश्व प्रेमानुरक्ता = संसार भर से प्रेम करने वाली; भरत भुव = भारत भूमि; अंक = गोद।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में ब्रजभूमि में श्रीकृष्ण के सुखद क्रिया-कलापों का स्मरण करते हुए भारत भूमि पर राधा-कृष्ण के बार-बार अवतरण की कामना की गई है।

व्याख्या :
ब्रज में राधा की सेवा के प्रभाव स्वरूप पर्याप्त अच्छा वातावरण था किन्तु जो आनन्द श्रीकृष्ण के ब्रज में होने पर था वे घड़ी या दिन आये ही नहीं। श्रीकृष्ण के समय जैसी सच्चा सुख देने वाली वायु भी ब्रज में फिर नहीं बही। आनन्द का स्रोत सा बहाने वाले वैसे बादल भी फिर नहीं छाए और न उस प्रकार के मस्ती भरे स्वर में कोयल ही कुहकी।

नित्य प्रति श्रीकृष्ण पुनः मिलन की उत्कण्ठा से भरे रहने वाले ब्रजभूमि के निवासी प्राणों से प्यारे श्रीकृष्ण और उनके क्रीड़ा-विहार आदि से मिलने वाले आनन्द को जीते जी नहीं भूल पाए। श्रीकृष्ण के वियोग जनित दुःख ने उनके वंशजों को भी प्रभावित किया। वास्तविक सत्य यह है कि ब्रजभूमि में आज भी उस विरह का प्रभाव अंकित है।

कवि कामना करते हैं कि हे परमात्मा ! ब्रजभूमि के निवासियों के श्रीकृष्ण जैसे सच्चे प्रेमी और राधा जैसी दयालु सहृदया संसार भर को प्रेम करने वाली नारी इस भारत भूमि पर पुनः पुनः आयें, किन्तु इस प्रकार बुरी तरह प्रभावित करने वाली कोई विरह की घटना कभी न हो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. श्रीकृष्ण के संयोग काल के सुख और विरह काल के दुःख का स्मरण किया गया है।
  2. परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ पुनः-पुनः अवतरित हों किन्तु विरह का व्यापक कष्ट न दें।
  3. उपमा एवं अनुप्रास अलंकार तथा सामाजिक भाषा का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  4. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

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