MP Board Class 6th Sanskrit परिशिष्टम्

MP Board Class 6th Sanskrit परिशिष्टम्

१. मम माता देवता
(मेरी माता देवता है)

मम माता देवता।
मम माता देवता॥
अति सरला, अति मृदुला,
गृहकुशला, सा अतुला॥
मम माता॥

पाययति दुग्धं, भोजयति भक्तं
लालयति नित्यं, तोषयति चित्तम्॥
मम माता॥

अनुवाद :
मेरी माँ देवी है। वह अत्यन्त सरल, अत्यन्त कोमल, गृहकार्यों में अति कुशल है अत: वह मेरी माँ अतुलनीय है। वह दूध पिलाती है, माँ के प्रति भक्त बने हुए मुझको भोजन कराती है। प्रतिदिन लालन करती है तथा मेरे मन को प्रसन्न बनाती है। मेरी माँ ऐसी ही है।

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सायङ्काले नीराजयति
पाठयति च मां शुभकरोति
शुभं करोतु कल्याणम्

आरोग्यं धनसम्पदम्।
शत्रुबुद्धिविनाशाय
दीपज्योतिर्नमोऽस्तुयते॥

पाठयति च मां शुभङ्करोति॥
मम माता॥

रात्रौ अङ्के मां स्वापयति
मधु मधु मधुरं गीतं गायति
आ आ आ आ आऽऽ
मम माता॥

अनुवाद :
सायंकाल के समय थकान से रहित करके प्रसन्न बनाती है। पढ़ाती है और मेरा कल्याण करती है। हे माँ, तुम मेरा कल्याण करो, मुझे स्वस्थ बनाओ तथा धन सम्पत्ति से युक्त करो। मेरी दुष्ट बुद्धि का विनाश करने के लिए तुम दीप की ज्योति के समान हो। (अतः) मैं तुम्हें नमस्कार करता, हूँ। हे माँ, तुम मुझे पढ़ाती हो, और मेरा शुभ (कल्याण) करती हो।
रात्रि को मुझे अपनी गोद में सुलाती हो। मीठे-मीठे मधुर गीत गाती हो, हे मेरी माँ।

२. नैव क्लिष्टा न च कठिना
(न तो क्लिष्ट है और न कठिन)

सुरससुबोधा विश्वमनोज्ञा
ललिता हृद्या रमणीया।
अमृतवाणी संस्कृतभाषा
नैव क्लिष्टा न च कठिना॥
॥ नैव क्लिष्टा॥

अनुवाद :
यह संस्कृत भाषा देवताओं की वाणी (अमृत वाणी) है। सुरस है, सुबोध है। विश्व के लोगों के मन को जानने वाली है। ललित है। हृदय को अपने आप में रमाने वाली यह संस्कृत भाषा न तो क्लिष्ट है और न कठिन।

कविकोकिल-वाल्मीकि-विरचिता
रामायणरमणीयकथा।
अतीव-सरला मधुरमञ्जला
नैव क्लिष्टा न च कठिना॥
॥ सुरस…….॥

अनुवाद :
कवियों में कोयल के समान वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण की कथा अति रमणीय है। वह अत्यन्त सरल, मधुर और मञ्जुल (कोमल) संस्कृत भाषा में रचित है। वह कभी भी क्लिष्ट नहीं है और न कठिन है। (वह संस्कृत भाषा) सुरस, सुबोध और विश्व मनोज्ञा है।

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व्यासविरचिता गणेशलिखिता
महाभारते पुण्यकथा।
कौरव-पाण्डव-सङ्गरमथिता
नैव क्लिष्टा न च कठिना॥
॥सुरस……..॥

अनुवाद :
व्यास द्वारा विरचित और गणेश जी द्वारा लिखी गई महाभारत की कथा अत्यन्त पुण्यशाली है। इसमें कौरव और पाण्डवों के युद्ध का वर्णन किया गया है। उसकी संस्कृत कभी भी क्लिष्ट नहीं है और न कभी भी कठिन है। वह तो सुरस, सुबोध और विश्व मन को मोहित करने वाली है।

कुरुक्षेत्र-समराङ्गण-गीता
विश्ववन्दिता भगवद्गीता।
अमृतमधुरा कर्मदीपिका
नैव क्लिष्टा न च कठिना॥
॥सुरस…….॥

अनुवाद :
कुरुक्षेत्र के युद्ध में (भगवान श्री कृष्ण ने) विश्व बन्दनीया भगवद्गीता का गायन किया था। वह गीता मधुर अमृत है तथा कर्म की दीपिका है (कर्म को निर्दिष्ट करने वाली है) जिसकी रचना संस्कृत भाषा में हुई है। जो कभी भी क्लिष्ट नहीं है और न कभी कठिन ही है। वह भाषा तो सुरस, सुबोध तथा विश्वमन को मुग्ध करने वाली है।

कविकुलगुरु-नव-रसोन्मेषजा
ऋतु-रघु-कुमार-कविता
विक्रम-शाकुन्तल-मालविका
नैव क्लिष्टा न च कठिना॥
॥ सुरस ……..॥

अनुवाद :
कविकुल गुरु कालिदास ने नव-रसों के उन्मेष से संयुक्त संस्कृत भाषा में ऋतुसंहार, रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् काव्य की तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम् तथा मालविकाग्निमित्रम् नाटकों की रचना की है जो कभी भी क्लिष्ट नहीं है और न कठिन है। वह भाषा तो सुरस, सुबोध तथा विश्वमन को मुग्ध करने वाली है।

३. सुन्दरसुरभाषा
(सुन्दर देव-भाषा)

मुनिवरविकसित-कविवरविलसित
मञ्जलमञ्जूषा, सुन्दरसुरभाषा।
अयि मातस्तव पोषणक्षमता
मम वचनातीता, सुन्दरसुरभाषा॥
॥ मुनिवर……॥

अनुवाद :
श्रेष्ठ मुनियों द्वारा विकसित तथा श्रेष्ठ कवियों द्वारा विलसित अत्यन्त मञ्जुल पिटारी सदृश सुन्दर देववाणी-हे माता संस्कृत-तुम्हारी पोषण क्षमता (अन्य भाषाओं को पुष्ट करने की क्षमता) मेरे वचने से अतीत है (परे है)। तुम सुन्दर देव भाषा (वाणी) हो जिसे श्रेष्ठ मुनियों ने विकसित किया है।

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वेदव्यास-वाल्मीकि-मुनीनाम्
कालिदास-बाणादिकवीनाम्।
पौराणिक-सामान्य-जनानाम्
जीवनस्य आशा, सुन्दरसुरभाषा॥
॥ मुनिवर….॥

अनुवाद :
हे सुन्दर सुरवाणी (संस्कृत)। वेदव्यास, वाल्मीकि, मुनियों, कालिदास, बाण आदि कवियों तथा पौराणि क और सामान्य लोगों के जीवन की तुम आशा हो। तुम्हें श्रेष्ठ मुनियों ने विकसित किया है।

श्रुतिसुखननदे सकलप्रमोदे
स्मृतिहितवरदे सरसविनोदे।
गति-मति-प्रेरक-काव्यविशारदे
तव संस्कृततिरेषा, सुन्दरसुरभाषा॥
॥ मुनिवर”॥

अनुवाद :
हे सुन्दर देववाणी। वेद में आनन्द पूर्वक ध्वनित होती हो, सम्पूर्ण प्रसन्नताओं को देने वाली हो। स्मृतियों में कल्याण का वरदान देती हो। सरस हो एवं विनोद से परिपूर्ण हो। हे संस्कृत भाषा-तुम गति और मति की प्रेरक हो, काव्य रचना में कौशल प्रदान करती हो क्योंकि तुम्हारी यहीं संस्कृति है। हे संस्कृत भाषातुम्हें श्रेष्ठ मुनियों द्वारा विकसित किया गया है।

नवरस-रुचिरालङ्कृति धारा
वेदविषय-वेदान्त-विचारा।
वैद्य-व्योम-शास्त्रादि-विहारा
विजयते धरायां, सुन्दरसुरभाषा॥
॥मुनिवर…..॥

अनुवाद :
हे सुन्दर सुरभाषा संस्कृत ! तुम नवरसों से अत्यन्त सुन्दर सुसज्जित अलंकृत धारा के समान हो, जिसका विषय वेद और वेदान्त के विचार हैं। संस्कृत भाषा में वैद्यक, व्योम और शास्त्रीय ज्ञान संकलित है। ऐसी यह सुन्दर सुरभाषा इस पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर रही है।

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४. दिव्यामेनां दैवीवाणीम्
(दिव्य देववाणी)

दिव्यामेनां दैवीवाणी, वयं वदामः। क्षणे-क्षणे।
भाषाजननी जनकल्याणी, वयं वदामः। क्षणे-क्षणे।
एकीभूयाऽखिले समाजे, बन्धुत्वं रचयामः,
भेदं-द्वन्द्वं तथा विहाय, आनन्दं जनयामः,
आदि-हर्षे, चाभ्युत्कर्षे, वयं हसामः।क्षणे-क्षणे।

अनुवाद :
प्रत्येक क्षण हम इस दिव्य देववाणी में ही बोलते हैं। यह संस्कृत अन्य भाषाओं की जननी है, मनुष्यों का कल्याण करने वाली है। हम इसे प्रत्येक क्षण बोलते हैं।

सभी समाज में एकत्व स्थापित हो जाय और बन्धुत्व की हम रचना करें तथा भेदभाव के झगड़ों को दूर करके आनन्द की उत्पत्ति करें। विपत्ति में, हर्ष में तथा उत्कर्ष में हम सदा ही हँसते रहें-प्रत्येक क्षण प्रसन्न बने रहें।

वीराधीराः स्वयंसैनिकाः, संस्कृति-सेवालग्नाः,
निजसौख्ये नहि राष्ट्रसेवने, सिद्धाः सदानिमग्नाः,
हानि, लाभ, जयाजयं वा! अभिनन्दामः क्षणे-क्षणे।

अनुवाद :
हे माता संस्कृत भाषा! हम तुम्हारा प्रतिक्षण अभिनन्दन करते हैं। हम वीर और धीर हैं, हम सभी स्वयं सैनिक हैं जो संस्कृति की सेवा में लगे हुए हैं। अपने सुख के लिए नहीं, वरन् राष्ट्र की सेवा करने में सफल हैं तथा सदा ही सेवा में संलग्न हैं। हम सबको हानि, लाभ तथा जय पराजय समान प्रतीत होती है।

गता तमिस्त्रा गतं दुर्दिनमुत्तिष्ठत जाग्रतरे,
पाषाणेऽपि नवमितिहास, निश्चयेन लिखतरे,
जने-जनेऽपि मैत्री भावं, तत्पश्यामः क्षणे-क्षणे।

अनुवाद :
अज्ञान के अन्धकार की रात्रि समाप्त हो गयी है। दुर्दिन बीत गया है। इसलिए हे भारतीय जन! उठो और जागो। पत्थरों पर भी निश्चय के साथ नया इतिहास लिखो। हम सभी प्रत्येक क्षण मनुष्य में मैत्रीभाव को देखें।

नजातिनकुलं नो वर्णः, नचगोत्रं नच गौरः कृष्णः,
नधनिकश्चाथवानिर्धनो,नवासुखी नासक्त विवर्णः,
केवलमेकं मानवधर्म, चानुभवामः, क्षणे-क्षणे।

अनुवाद :
जाति, कुल, वर्ण, गोत्र, काले और गोरे, धनवान और निर्धन, सुखी-दुखी, असक्त, विवर्ण के आधार पर कोई भेद न करें। हमारा केवल एक ही मानव धर्म का प्रत्येक क्षण अनुभव करते रहें।

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५. मृदापि चन्दनम्
(मिट्टी भी चन्दन)

मृदापि च चन्दनमस्मिन् देशे ग्रामो ग्रामः सिद्धवनम्।
यत्र च बाला देवीस्वरूपा बालां सर्वे श्रीरामाः॥
हरिमन्दिरमिदमखिलशरीरम्
धनशक्ती जनसेवायै
यत्र च क्रीडायै वनराजः
धेनुर्माता परमशिवा॥
नित्यं प्रात: शिवगुणमानं
दीपनुतिः खलु शत्रुपरा॥           ॥ मृदपि ॥

अनुवाद :
इस देश में मिट्टी भी चन्दन है तथा प्रत्येक गाँव सिद्धवन है और जहाँ की बालाएँ देवी के समान हैं तथा सभी बालक श्रीराम जैसे हैं। यह सारा शरीर हरि मन्दिर है। यहाँ का धन और शक्ति जन सेवा के लिए है तथा यहाँ सिंह खेलने के लिए खिलौने हैं। परम कल्याणी गौ माता सदृश है। नित्य प्रति प्रात:काल में शिव का गुणगान होता है तथा शत्रुओं को भगाने के लिए ज्ञान रूपी दीपक की ज्योति विद्यमान है।

भाग्यविधायि निजार्जितकर्म
यत्र श्रमः श्रियमर्जयति।
त्यागधनानां तपोनिधीनां
गाथां गायति कविवाणी
गङ्गाजलमिव नित्यनिर्मलं
ज्ञानं शंसति यतिवाणी॥             ॥ मृदपि ॥

अनुवाद :
भाग्य का विधान करने वाले अपने कर्म से तथा अपने परिश्रम से जहाँ लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, ऐसे यहाँ के लोग धन का त्याग करने वाले और तपोनिधि हैं जिनके (यश की) गाथा को कवियों की वाणी गाती रहती है। गंगा के जल के समान नित्य निर्मल यतियों की वाणी यहाँ के ज्ञान की प्रशंसा करती रहती है। यहाँ की (भारतवर्ष की) मिट्टी भी चन्दन है।

यत्र हि नैव स्वदेहविमोहः
युद्धरतानां वीराणाम्।
यत्र हि कृषकः कार्यरतः सन्
पश्यति जीवनसाफल्यम्
जीवनलक्ष्यं न हि धनपदवी
यत्र च परशिवपदसेवा॥           ॥मृदपि ॥

अनुवाद :
युद्ध में संलग्न वीरों को यहाँ अपने शरीर के प्रति कभी भी विद्रोह नहीं रहा है। यहाँ का किसान अपने कार्य में संलग्न होकर ही अपने जीवन की सफलता का दर्शन करता है। धन और पद की प्राप्ति उसके जीवन का लक्ष्य नहीं है। यहाँ तो दूसरों के कल्याण के लिए पद प्राप्त कर सेवा ही लक्ष्य है। यहाँ की मिट्टी भी चन्दन है।

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